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________________ ग्रन्थ-समीक्षा बुन्देलखण्ड के जैन तीर्थ श्री कैलाश मड़बया श्री कैलाश मड़बैया की सद्यः प्रकाशित पुस्तक 'बुन्देलखंड | महाकौशल, विन्ध्य क्षेत्र और भोपाल का अंचल सम्पूर्ण रूप से के जैन तीर्थों पर सर्वथा उपयोगी, आकर्षक और संग्रहणीय कृति | समेटा है इसलिये पाठक आज के सीमित बुन्देलखण्ड तक सीमित है। लेखक ने बुन्देलखण्ड के जिस वृहद केनवास को लिया है | किताब को नहीं मानें। कृति में पीछे प्रकाशित तीर्थों का नक्शा, वह दरअसल आज का सम्पूर्ण मध्य देश है जिसमें उत्तरप्रदेश | तीर्थ यात्री की सभी कहानी एक दृष्टि में अपनी जुबानी कह देता और मध्यप्रदेश के वह वृहद अंचल हैं जहाँ न केवल बुन्देली | है। इसलिये इस कृति में जबलपुर, ग्वालियर और भोपाल संभागों बोली जाती है वरन् जैन साधकों का उत्कृष्ट वर्ग निवास करता है। | के तीर्थों पर भरपूर सामग्री उपलब्ध कराई गई है। उत्तरप्रदेश का आज के बहुचर्चित आचार्य विद्यासागर जो स्वयं यह मानते हैं कि | झांसी अंचल अपने आप में तीर्थों के लिये महत्वपूर्ण है। सागर संपूर्ण मध्यावर्त बनाम बुन्देलखण्ड का श्रावक, जैन धर्म के विज्ञान संभाग तो शुद्ध बुन्देलखण्ड ही है। इसलिये यह कृति भारत के और दर्शन को अपने आचरण में अन्तः तक समेटे हुए है। यहाँ के सम्पूर्ण मध्यावर्त तक बिखरी हुई है। वस्तुतः यह मध्यावर्त के तीर्थ भी इसलिये निर्विवादित और मूल जैन तत्वों के प्रतीक बिम्ब तीर्थों की कृति है परन्तु लेखक का बुन्देलखण्ड के प्रति, उसकी हैं। इनमें कला की बारीकी है तो धर्माचरण का गहन भाव भी संस्कृति के प्रति जो गहन मोह है उससे शीर्षक भी अछूता नहीं परिलक्षित होता है। कृति के शीर्षक से भले एक क्षेत्र और समाज रहा। विशेष के तीर्थों मात्र के परिचय का बोध होता हो परन्तु विख्यात जैन तीर्थो में अन्य तीर्थो से हटकर एक विशेष बात यह कवि कैलाश मड़वैया की यह कृति सम्पूर्ण हिन्दी संसार में पुरातत्व | होती है कि इनमें स्वच्छता और आडम्बर हीनता होती है। की महत्वपूर्ण रचना की तरह स्वागत योग्य है। सम्पूर्ण कलेवर | किसी तरह की मांगा-चूंगी, लूट-खसोट और भिखारियोंचित्रों से जितना आकर्षक बन पड़ा है तीर्थों का परिचय भी | पण्डों की घेरावंदी नहीं होती। प्रकृति के आंगन में विशाल मंदिर पुरातात्विक दृष्टि से उत्कृष्ट स्तर का साहित्य सृजन है। इसलिये न | और उनमें दिगम्बर मूर्ति, पाषाण की पैनी पच्चीकारी। सीधा सादा केवल जैन धर्मावलम्बी वरन् हिन्दी का प्रत्येक पाठक इस कृति | अध्यात्म, अहिंसा, अपरिगृह और अनेकान्त की त्रिवेणी इनमें को अपने पास रखना चाहेगा। मध्य देश या मध्यान्चल का पर्यटन सतत प्रवाहित होती रहती है। प्रायः शहर से दूर होने के कारण करने के लिये यह कृति अद्भुत ज्ञान-मंजूषा है। कदाचित जैन अतिक्रमण, गहमा गहमी और धर्म का पाखण्ड नहीं दिखता। इन समाज के लोगों को भी जिन तीर्थों की जानकारी आज नहीं रही, | तीर्थों पर रहने मात्र से साधना हो जाती है। बाजारु सामग्री और तो भी उन तीर्थों पर भी लेखक ने न केवल कलम चलाई है वरन् | तड़क-भडक यहाँ रहती ही नहीं है। दर्शनार्थी भी नहाया-धोया उसकी उपादेयता और आवश्यकता को भी रेखांकित किया है। एक धोती लपेटे, भूखा-प्यासा मात्र भावना से दर्शन करता चलता बुन्देलखण्ड के जैन तीर्थ पुस्तक में अनावश्यक शब्दाडम्बर और | है, चढ़ाने की दृष्टि से एकदम धवल चावल या सूखे फल मात्र बेवजह की लफ्फाजी से बचा गया है। इसमें पाठक को विषय | होते हैं। स्तुति पढ़ता तथा अन्तः उर्जा से स्फूर्त पर्यटक के परिवेश पर केन्द्रित ही सारगर्भित जानकारी इस पुस्तक से तत्काल मिल | में प्रांजल रहता है। यहाँ कुछ छोड़ना नहीं पड़ता, छूट जाता है। जाती है। इस कृति की भूमिका और शुभारम्भ अपने आप में | जैन धर्म मूलतः भोग का नहीं त्याग का धर्म है, इससे कठिनतम अन्वेषणात्मक निबंध है जिसके लिये श्री कैलाश मड़वैया बधाई | मार्ग है। या तो व्यक्ति इसमें आयेगा नहीं या जायेगा नहीं। प्रचारके पात्र हैं। प्रसार से यह कोसों दूर है इसलिये इतने विशाल जैन तीर्थ अभी लेखक ने प्राचीन बुन्देलखण्ड में आज का मध्यभारत, | तक बहुसंख्यकों से ओझल हैं। वही ध्यान वह जाप व्रत, वही ज्ञान सरधान। जिन मन अपना बस किया, तिन सब कियो विधान ।। प्रथम धरम पीछे अरथ, बहुरि काम को सेय। अन्त मोक्ष साधे सुधी, सो अविचल सुख लेय।। बदले की नहिं आस रख, सन्त करें उपकार। बादल का बदला भला, क्या देता संसार ।। कथनी को मन सूरमा, करनी को लाचार । करनी कर कथनी करै, सो ही पंडित सार । 28 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524280
Book TitleJinabhashita 2003 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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