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________________ और ओर छाये नजर आने लगते हैं। सुख और दुख संयोग वियोग ये नाम धारी सन्त की उपासना से जीवन के मुख्य दो पहलू हैं, फिर भी मोह के वशीभूत हो मानव संसार का अन्त हो नहीं सकता, जीवन की यथार्थता समझे बिना मोह के वशीभूत हो परस्पर घात सही सन्त का उपहास और होगा... प्रतिघात और न मालूम क्या-क्या करता है ? चिन्तक कवि ने कहा मूकमाटी प्रत्येक के लिए सहज काव्य नहीं अपितु अति भी है गम्भीर है। लेखक कवि ने शब्द शिल्पी बनकर अनगिनत शब्दों मोह भूत के वशी भूत हुए को इस रुप में प्रस्तुत करते हैं कि पाठक आश्चर्य में पड़ जाता है कभी किसी तरह भी कि इसी साधारण शब्द का अर्थ उलट पलटकर या सीधे ही किसी के वश में नहीं आते ये, कितने असाधारण रूप में प्रस्तुत किया गया है। 'साहित्य' शब्द दुराशयी हैं, दुष्ट रहे हैं को देखिएदुराचार से पुष्ट रहे हैं शिल्पी के शिल्पक सांचे में दूसरों को दुःख देकर साहित्य शब्द ढलता सा! तुष्ट होते है, तृप्त होते हैं हित से जो युक्त-समन्वित होता है दूसरों को देखते ही वह सहित माना है रुष्ट होते हैं, तप्त होते हैं प्रतिशोध की वृत्ति इन की सहित का भाव ही सहजा - जन्मजा है साहित्य बाना है, वैर-विरोध की ग्रन्थि इन की प्रस्तुत महाकाव्य में जैन परम्परा के उन अनेक पारिभाषिक खुलती नहीं झट से। शब्दों का भी सुसंगत प्रयोग किया है, जिनका प्रयोग आधुनिक निर्दोषों में दोष लगाते हैं काव्य में कठिन या प्रचलन के बाहर का मानकर प्रायः समाप्त सा संतोषों में रोष जगाते हैं हो रहा था। वन्द्यों की भी निन्दा करते हैं इसीलिए इस महाकाव्य की गहन गम्भीरता को समझने शुभ कर्मों को अंधे करते हैं, के लिए उन शब्दों और उनकी परिभाषाओं से भी परिचित होना खण्ड: तीन पृष्ठ २२९ । आवश्यक है। मूकमाटी में अनेक स्थलों पर गहरी व्यंग्योक्तियाँ भी पठनीय इस तरह यह आत्मोदय का अनुपम, साथ ही योग से अयोग की दिशा में प्रस्थान का उत्तम महाकाव्य है, जिसमें जितनी अरे सुनो! डुबकी लगायेंगे उतने ही तलस्पर्शी ज्ञान से आलोकित होते रहेंगे। कोष के श्रमण बहुत बार मिले हैं युगों-युगों तक चिर नवीन यह अमर महाकाव्य मनीषियों के होश के श्रमण होते विरले ही, अध्ययन, चिन्तन, मनन और गवेषणा का केन्द्र बिन्दु बनकर और, उस समता से क्या प्रयोजन साहित्य जगत् को गौरवान्वित करे- इसी मंगल कामना के साथ जिसमें इतनी भी क्षमता नहीं है मूकमाटी के यशस्वी गायक पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी जो समय पर, महाराज को हमारा कोटिशः नमोस्तु । भयभीत को अभय दे सके। जैनदर्शन विभागाध्यक्ष सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी - २२१००२ ध्यातव्य प्रसंग अंजन चोर को णमोकार मंत्र पर दृढ़ श्रद्धान से विद्या सिद्ध हो गयी थी, जबकि उसका मंत्रोच्चारण अशुद्ध था। शब्द से भावना का अधिक महत्त्व है। __पं. बनारसीदास ने अपने ही घर में घुसे चोर को माल उठवाने में सहायता की मानो कह रहे हों जिसे जाना है उसे रखू क्यों? जब चोर घर पहुँचा तो माँ को सब बातें बतायी। माँ ने कहा कि अरे, वह तो बनारसीदास होंगे। तुमने इतने धर्मात्मा के घर चोरी क्यों की? जाओ, माल वापिस कर आओ। वास्तव में ख्याति हो तो बनारसीदास जैसी। चामुण्डराय ने भगवान बाहुबली की ५७ फुट ऊँची मूर्ति बनवायी। श्रवण बेलगोला स्थित इस कलात्मक मूर्ति को देखकर किसी कवि ने कहा कि जिसकी मूरत इतनी सुन्दर, वह कितना सुन्दर होगा? एल-६५, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.) 12 दिसम्बर 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524280
Book TitleJinabhashita 2003 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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