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इस प्रकार लिखा है : माघनंदि सिद्धांतवेदी के संबंध का एक | नहीं है। कथानक इस प्रकार प्रचलित है: कहा जाता है कि माघनंदि मुनि | जिज्ञासा - धर्मात्मा जीव को या अणुव्रती को कौन-कौन एक बार चर्या के लिये नगर में गये थे। वहाँ एक कुम्हार की कन्या | से व्यापार आजीविका के साधन नहीं करने चाहिये ? ने इनसे प्रेम प्रकट किया और वे उसी के साथ रहने लगे। कालांतर | समाधान - यद्यपि श्रावक उद्यमी हिंसा का त्यागी नहीं में एक बार संघ में किसी सैद्धांतिक विषय पर मतभेद उपस्थित | होता फिर भी जिस व्यापार में जीवहिंसा की बहुलता है अर्थात् जो हुआ और जब किसी से उसका समाधान नहीं हो सका तब क्रूर कर्मवाली आजीविकायें हैं, उसे श्रावक या धर्मात्मा जीवों को संघनायक ने आज्ञा दी कि इसका समाधान माघनंदि के पास जाकर | नहीं करना चाहिए। ऐसी आजीविकायें बहुत प्रकार की हैं, सबका किया जाये। अतः साधु माघनंदि के पास पहुँचे और उनसे ज्ञान की | गिनाना संभव नहीं, फिर भी उनमें से कुछ की चर्चा यहाँ करना व्यवस्था मांगी। माघनंदि ने पूछा 'क्या संघ मुझे अब भी सत्कार उचित है। देता है ? मुनियों ने उत्तर दिया- आपके श्रुतज्ञान का सदैव आदर 1. वन जीविका-वृक्ष आदि को काटकर बेचना या गेहूँ होगा। यह सुनकर माघनंदि को पुनः वैराग्य हो गया और वे अपने | आदि धान्यों को पीस कूटकर बेचना। सुरक्षित रखे हुए पीछी कमंडलु लेकर पुन: संघ में आ मिले। | 2. अग्निजीविका - जंगल आदि जलाकर कोयला तैयार
जैन सिद्धांत भास्कर सन् १९१३ अंक ४ पृष्ठ १५१ पर 'एक | करना। हार्डकोक आदि बनाना। ऐतिहासिक स्तुति' शीर्षक से इसी कथानक का एक भाग छपा है। 3. अनोजीविका - गाड़ी, घोड़ा जोतकर आजीविका करना।
और उसके साथ सोलह श्लोकों की एक स्तुति छपी है। जिसे, 4. स्फोट जीविका - पटाखे, वारुद आदि को बेचना। कहा गया है कि माघनंदि ने अपने कुम्हार जीवन के समय कच्चे 5. यंत्रपीड़न - तिल आदि पेलकर तेल निकालना। फूलों घड़ों पर थाप देते समय गाते-गाते बनाया था।
को पीसकर इत्र आदि बनाना। नंदि संघ की प्राकृत पट्टावली में अर्हद्वलि, माघनंदि | 6. विषवाणिज्य - जहर आदि प्राणघातक वस्तुओं को और धरसेन तथा उनके पश्चात् पुष्पदंत और भूतवलि को एक दूसरे | बेचना। के उत्तराधिकारी बतलाया है, जिससे ज्ञात होता है कि आचार्य 7. लाख वाणिज्य - लाख का व्यापार करना। धरसेन के दादागुरु और गुरु माघनंदि थे।
8. दंत वाणिज्य - हाथी के दांत, सीप, कौड़ी आदि का उपरोक्त कथानक के अनुसार माघनंदि मुनि पंचमकाल में | व्यापार करना। ही हुये थे और आचार्य धरसेन महाराज के गुरु थे।
9. केश वाणिज्य - सूकर, भेड़ आदि के बालों को तथा जिज्ञासा : क्या कोटिपूर्व वर्ष की आयु वाले विदेह क्षेत्र के | उनसे बने बुश आदि का व्यापार । निवासी मनुष्य, अपनी आयु के मध्य में दो बार उपशम सम्यक्त्व
10. रस वाणिज्य-शराब, शहद, मक्खन आदि का व्यापार। को प्राप्त कर सकते हैं या नहीं?
11. निंद्य वाणिज्य - नानवेज अंडा आदि या जिन पदार्थों समाधान - एक बार प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने के | में नानबैज मिला हो, उनको बेचना। चर्बी से बने पदार्थों को बेचना। उपरांत, दुबारा उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने का जघन्य अंतर पल्योपम जूते आदि बेचना।रेशमी वस्त्र व चमड़े का सामान बेचना । नानबैज का असंख्यातवां भाग काल कहा है। यहाँ पल्योपम से अद्धापल्य | होटल चलाना। कीटनाशक केमीकल बनाना या बेचना आदि। समझना चाहिये। तदनुसार पल्योपम का संख्यातवां भाग, मुहूर्त या इसके अलावा जिन कम्पनियों में शराब, जूते, चर्बी से बने अंतर्मुहूर्त से असंख्यातगुणा होता है। यह प्रमाण श्री धवला भाग- सामान साबुन, पेस्ट आदि बनते हों उन कंपनियों के शेयर खरीद ३ द्रव्यप्रमाण की प्रस्तावना पृष्ठ ३५ पर बतलाया गया है इससे कर रखना, शराब आदि निंद्य कार्य करने वालों को अपनी दुकान अधिक स्पष्ट या निश्चित रूप से उक्त प्रमाण शायद कहीं भी नहीं | मकान आदि किराये पर देना, जीव हिंसा या निंद्य पदार्थ द्वारा दवा बतलाया गया है और न छद्मस्थों द्वारा बताना संभव ही है। कैमीकल आदि बनाना बहुत पानी, हवा या अग्नि प्रयोग होने वाली गत्यागति चूलिका सूत्र ६६-७७ की टीका व विशेषार्थ पृष्ठ ४४४- फैक्ट्री चलाना आदि कार्य करने योग्य आजीविका नहीं है। धर्मात्मा ४४५ के अनुसार उपशम सम्यक्त्व से सासादन होकर पुन: उपशम | जीव अन्याय व अभक्ष का त्यागी होता है। अत: वह अन्याय पूर्वक सम्यक्त्व की प्राप्ति संख्यातवर्ष की आयु में संभव नहीं बतलाई। आजीविका द्वारा धनोपार्जन करना योग्य नहीं समझता। हम भी किन्तु असंख्यात वर्ष की आयु में संभव बतलायी गई है। इससे | यदि इनमें से कोई व्यापार करते हों तो हमें पापभीरु होकर, व्यापार इतना ही कहा जा सकता है कि पल्योपम के असंख्यात वें भाग का | बदलने का विचार बना लेना ही उचित है। प्रमाण असंख्यात वर्ष होता है। अत: विदेह क्षेत्र के मनुष्यों को भी
1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
आगरा, 282002 अपने जीवन काल में, दो बार प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति संभव ।
24 दिसम्बर 2003 जिनभाषित -
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