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'कुन्दकुन्द का कुन्दन' कृति अवश्य मंगवायें
अध्यात्म जगत में बहुचर्चित आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का नाम प्रत्येक अध्यात्म प्रेमी के हृदय में विद्यमान है। उन्हीं प्रखर तेजपुंज के साहित्य के सार संदेश को समझने समझाने के लिये सारगर्भित १३४ गाथाओं का संकलन है। जिसमें रत्नत्रय, उपयोग, ज्ञान - ज्ञेय एवं श्रामण्य, चार अधिकार हैं। कृति को सरल, सहज बनाने के लिये अब इस पुनर्प्रकाशन में अन्वयार्थ, अर्थ, भावार्थ और आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का पद्यानुवाद जोड़कर इसे अत्यन्त उपयोगी बना दिया गया है।
यह कृति त्यागी व्रत्ती, विद्वान, प्रवचनकारों एवं शिविर के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिये अत्यन्त उपयोगी है। जिसकी लागत २० रुपये है। जिसे श्री विद्याविनोद काला मेमोरियल ट्रस्ट, जयपुर अर्थ सहयोग द्वारा ५० प्रतिशत डिसकाउन्ट करके विक्रय मूल्य १० रुपये में उपलब्ध करा दिया गया है ।
प्राप्ति स्थान
1. श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर, जयपुर (राज.) ३०३९०२
फोन : ०१४१ २७३०५५२, ५१७७३०० 2. भगवान ऋषभदेव ग्रन्थमाला, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मंदिर संधी जी सांगानेर, जयपुर ३०३९०२ (राज.) फोन : ०१४१ कर्मठ एवं समाज सेवी श्री कैलाशचन्द्र जी चौधरी (इंदौर) का अमृत महोत्सव
२७३०३९०
ब्र. भरत जैन, व्यवस्थापक
दिगम्बर जैन समाज इंदौर एवं महावीर ट्रस्ट के संयुक्त तत्वावधान में देश के प्रसिद्ध समाज सेवी समाजभूषण श्री कैलाशचन्द्र चौधरी ७५ वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं इस उपलक्ष्य में उनके अमृत महोत्सव का आयोजन विशाल स्तर पर आयोजित किया जा रहा है।
समारोह आयोजित करने हेतु एक समिति का गठन किया गया है। तदनुसार संरक्षकगण श्री वीरेन्द्रजी हेगड़े, (धर्मस्थल) श्री देव कुमार सिंह कासलीवाल, पद्मश्री बाबूलाल पाटोदी व पं. श्री नाथूलाल शास्त्री सहित अन्य वरिष्ठजनों को सम्मिलित किया गया है। समन्वयक होंगे श्री माणकचंद पाटनी व श्री निर्मल कासलीवाल तथा महामंत्री जयसेन जैन डॉ. अनुपम जैन, रमेश कासलीवाल व कीर्ति पाण्ड्या आदि को मंत्री मनोनीत किया गया है। स्मारिका प्रकाशन समिति में डॉ. प्रकाशचन्द्र जैन, हंसमुख गांधी व डॉ. जैनेन्द्र जैन आदि को सम्मिलित किया गया है।
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समारोह दिसम्बर २००३ के अंतिम सप्ताह में आयोजित होगा। जयसेन जैन, महामंत्री
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१०८ मुनि श्री प्रवचन सागर जी को वर्णी गुरुकुल में विनम्र श्रद्धांजलि
जिनके चेहरे पर सादगी का नूर था, जिनकी मुस्कराहट में आनन्द का पूर था, चरित्र की सुगंधी और त्याग तपोमय आभा मण्डल, मुनिश्री प्रवचनसागर जी से प्रमाद तो कोसों दूर था। ब्र. त्रिलोक जी द्वारा प्रस्तुत उक्त भाव भूमि पर १०५ आर्यिका रत्न धारणामति माताजी ने कहा- जन्म के बाद मृत्यु प्रकृति का अटल नियम है, बड़े से बड़े साधक जो कार्य सैकड़ों वर्षों में नहीं कर पाते उस समाधि साधना के महान कार्य को प्रवचनसागर जी ने छोटी सी उम्र में कर दिखाया। ब्र. जिनेश जी ने मुनि श्री के ब्रह्मचर्य साधना काल में वर्णी गुरुकुल में ७ वर्ष के प्रवास काल को याद करते हुये कहा ब्र. चन्द्रशेखर जी का चरित्र पूर्णमासी के चन्द्रमा की तरह उज्जवल था, श्रावकाचार मय उनका जीवन था, उनके वचन हित मित प्रिय होते थे। उनकी साधना से अन्य साधकों को प्रेरणा मिलती थी। प्रवचनसागर जी के सहपाठी साधक ब्र. त्रिलोक ने कहा मुनि श्री का जीवन सादगी के सौन्दर्य एवं चरित्र की सुगंधि से भरपूर था । सरलता आपकी सहचरी तो संयम, तप, त्याग आपके मित्र थे, विनम्र इतने कि अहंकार खोजे न मिले। अपने से लघु साधकों के प्रति भी वह आदर भाव रखते थे । बालसुलभ मुस्कान ऐसी की जो देखे उसी का हृदय कमल खिले । जीवन चर्या इतनी निर्मल थी कि उनका आचरण ही साधकों के लिए उपदेश होता था। इसीलिये गुरुवर १०८ विद्या सागर जी ने आपका नाम प्रवचन सागर रखा। यह आपकी सम्पूर्ण जीवन की साधना का ही परिणाम था कि आपने मृत्यु को भी महोत्सव बना दिया। कुल मिलाकर साधना, सरलता, समता, सद्भावना के अनुपम सङ्गम थे, प्रवचन सागर जी । ब्रम्ही जयंती दीदी ने कहाजिसने जन्म लिया है उसकी बारात या डोली निकले न निकले पर अर्थी जरुर निकलती है। अतः हम सब को मुनि श्री प्रवचनसागर जी की तरह समाधि साधना करके जीवन को अर्थवान बनाना चाहिये। ब्र. नरेश जी ने कहा समाधि उन्हीं की होती है जो शत्रु मित्र काँच और कंचन में समता रखते हैं। वर्णी गुरुकुल के अधीक्षक राजेश सर ने कहा- आदर्श साधकों की साधना से गुरुकुल की शोभा बढ़ती है। इस अवसर पर वर्णी गुरुकुल के महामंत्री कमल कुमार जी दानी, जे. के. ऊनवाला, ज्ञानचंद जी लारेक्स, डॉ. नीलम जैन, रत्ना मौसी, कमल लम्हेटा आदि महानुभावों ने अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की। सभा का संचालन कर रहे ब्र. त्रिलोक जी ने इन पंक्तियों के साथ श्रद्धांजलि सभा को विराम दिया
झड़ते पत्ते कह रहे हैं, एक दिन झड़ जाओगे । आज जो इठला रहे हो, पत्तों से उड़जाओगे ॥ कारवाँ रुक जायेगा, मित्र होंगे दूर सब जल जायेगा तेरा प्रिय तन, सुन ले मेरे आत्मन ॥
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दिसम्बर 2003 जिनभाषित 31
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