Book Title: Jinabhashita 2003 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ यह भाग भी प्रकाशित हो जायेगा। आज समाज की ओर से बड़ी संख्या में जैन पत्र पत्रिकाएँ एवं विभिन्न प्रकार का जैन साहित्य प्रकाशित हो रहा है। पर उसमें ५० प्रतिशत अनुपयोगी एवं अप्रमाणिक प्रकाशित हो रहा है। जैन पत्रिकाओं में सम्पादाकों द्वारा ग्रन्थों की समीक्षा की जाती है परन्तु पूर्वापर ग्रन्थ पढ़कर नहीं की जाती है। यह कारण है कि कुछ लेखक शतक बनाने की तैयारी में हैं। अत: साहित्य प्रकाशन में उपयोगिता एवं गुणवत्ता की ओर दृष्टि जाना चाहिये। इस समस्या का निदान अत्यंत आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है। इस दिशा में विद्वानों एवं पूज्य मुनिराजों के द्वारा समाज को प्रेरणा दी जानी चाहिये कि पंचकल्याणक एवं विधानों आदि समारोहों से प्राप्त कुछ धन राशि का । उपयोग प्राचीन ग्रन्थों के प्रकाशन पर व्यय हो। साथ में जो प्रकाशन संस्थायें इस दिशा में कार्य कर रही हैं उन्हें चाहिये कि बोर्ड एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में जो ग्रन्थ पढ़ाये जा रहे हैं उन्हें विशेषता से प्रकाशित करें। इसी प्रकार ऐसे अवसरों पर रात्रि पाठशालाओं एवं रविवासरीय पाठशालाओं को स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से प्रत्येक ग्राम अथवा शहर कॉलोनी में पाठशाला ध्रुवफंड' बनाना चाहिये। इस फंड से पाठशाला में पढ़ाने वाले विद्वान को न्यूनतम ५०००/प्रतिमाह वेतन की व्यवस्था करना समाज का कर्तव्य है। आज बच्चे संस्कार विहीन होते जा रहे हैं उनके मस्तिष्क पर पाश्चात्त्य संस्कृति का प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे समय जैन पाठशालाओं का संचालन अनिवार्य है अन्यथा आने वाली पीढ़ी धर्म से बिल्कुल विमुख हो जायेगी। समाज को इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिये अन्यथा इसके दुष्परिणाम समाज को ही भुगतने पड़ेंगे। मेरे पास प्राय: समाज से पाठशालाओं में पढ़ाने के लिये विद्वानों की मांग की जाती है परन्तु जब वेतन की बात आती है तो समाज की ओर से दो हजार रु. प्रतिमाह देने की बात ठहराई जाती है। मुझे खेद है कि कुछ महानुभाव तो यह कहते भी संकोच नहीं करते हैं कि विद्वान पूजन प्रक्षाल का कार्य भी देखले तो ढाई-तीन हजार रु. दे देंगे। जब मैंने कहा कि आज के समय में मिस्त्री को एक सौ पचास रु. प्रतिदिन देते हैं तो विद्वान की कीमत आप क्या करते हैं। तब कोई जबाव प्राप्त नहीं हुआ। किसी ने कहा है कि फूटी आँख विवेक की क्या करे जगदीश। कंचनिया को तीन सौ और मनिराम को तीस। वस्तुत: पंचकल्याणकों एवं विधानों में ऐसी ही स्थिति है। संगीतकारों को मुहमांगी विदाई और आरती वगैरह में निछावर देखते ही बनती है। मैंने स्वयं देखा है कि संगीतकारों को आरती की निछावर राशि आठ दिन में उन्नीस हजार रु. प्राप्त हुई इसके अतिरिक्त विदाई अलग। जब जिनवाणी के प्रकाशन एवं उसके उपासकों के सम्मान की बात आती है तो समाज प्रश्न खड़े करती है। इस पर सभी को गंभीरता एवं दूरदर्शिता से विचार करना चाहिए। शीतलचन्द्र जैन 4 दिसम्बर 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36