Book Title: Jinabhashita 2003 12 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 9
________________ छूट गये हैं, पता ही नहीं लगा था, संसार कब छूट गया? अरे! । है। मैं महाराज श्री के सुर पर ही चल रही हूँ और भविष्य में जिस माँ ने ९ महिने पेट में रखा उस माँ का मोह कब छूट गया | महाराज श्री के सुर ही मेरे द्वारा आपको सुनाई देंगे। पता ही नहीं लगा, घर परिवार का मोह कब छूट गया ये भी पता मैं पुनः आपको आगाह करती हूँ कि महाराज श्री को नहीं लगा, हजारों किलोमीटर दूर दक्षिण में कहीं किसी धरती पर | राष्ट्रीय संत न कहा जाए , अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का उनका व्यक्तित्व जन्म हुआ वो धरती कब छूट गई यो भी पता नहीं लगा! हजारों है। और उनकी छत्रछाया में ही संसार चल रहा है, मैं तो ये मानती किलोमीटर दूर पैदल चलकर चलता हुआ ये भगवान जैसा महापुरुष हूँ। एक बार फिर से उनके चरणों की वंदना करती हूँ। और उनके धरती पर पैदल चलता हुआ इस धरती को पवित्र करने जो आया | आशीर्वाद की हमेशा आकांक्षी रहूँगी, उनकी बांसुरी रहूँगी। वो है, उनके चरणों की वंदना कीजिए ये महाराज श्री तो विद्या और जो चाहे वह सुर मेरे द्वारा बजाएँ, बस इन्हीं शब्दों के साथ अपनी बुद्धि के सागर हैं। और मैं महाराज जी का बालक हूँ। मैं तो | बात समाप्त करती हूँ। महाराज श्री के हाथ की बांसुरीहूँ। बांसुरी का कोई अपना सुर कैसेट से आलेखन - सुरेन्द्र जैन मालथौन वाले, सागर नहीं होता, बजाने वाले का ही सुर होता है जो बांसुरी में सुनाई देता । प्रेषक - महेश कुमार जैन बिलहरा वाले, सागर सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र शाश्वत् महातीर्थ सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र पर गत कुछ वर्षों में चौपड़ा कुंड पर श्री दि. जैन सम्मेदाचल विकास समिति द्वारा दि. जैन मंदिर एवं धर्मशाला का निर्माण किया गया था। जिससे पहाड़ पर ठहरना चाहने वाले मुनिराजों, आर्यिका माताओं, त्यागी व्रतियों तथा श्रावक बंधुओं के लिए दिगम्बर जैन समाज के स्वामित्व का एक स्थान उपलब्ध हुआ था। इस स्थान के निर्माण के पूर्व दिगम्बर जैन समाज का अपना पहाड़ पर कोई स्थान नहीं था जो एक बहुत बड़ी कमी थी। इस कमी की पीड़ा को दिगम्बर जैन समाज अनेक वर्षों से अनुभव कर रही थी। चौपड़ा कुंड पर दि. जैन मंदिर और धर्मशाला के निर्माण होने से दि. जैन साधुओं व त्यागी व्रतियों के लिए पहाड़ पर ठहरने एवं आहार आदि की व्यवस्था हो गई। यात्रियों को भी रात्रि विश्राम, पाठ पूजा, स्नान, भोजन आदिकी सुविधाएँ प्राप्त हो गईं। इस स्थल के साथ दिगम्बर जैन समाज के अस्तित्व व अस्मिता का प्रश्न एवं प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। किंतु खेद की बात है कि प्रारंभ से ही सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र पर दि. जैन समाज द्वारा किया गया यह निर्माण अनेकों की आंखों की किर किरी बना हुआ था। समय पाकर उन दि. जैनों के द्वेषी लोगों ने वन विभाग को झूठी शिकायतें कर इस मंदिर व धर्मशाला के निर्माण कार्य को तुड़वाने का षडयंत्र रचा। उन्होंने वन विभाग में पहाड़ पर अतिक्रमण एवं बिना आज्ञा निर्माण कार्य कर देने की शिकायत की। वन विभाग वालों से सांठगांठ कर दि. जैन समाज के विरूद्ध दो केस लगा दिए। एक वन संपदा को हानि पहुंचाने का और दूसरा वन भूमि पर अतिक्रमण कर मंदिर धर्मशाला का अवैध निर्माण करने का । तुरत फुरत में वन विभाग ने उस मंदिर और धर्मशाला के निर्माण कार्य को तोड़े जाने के आदेश दे दिए। ये समाचार जैसे ही मिले सभी दि. जैन धर्म श्रद्धालु बंधुओं को भारी चिंता हुई। श्री दि. जैन सम्मेदाचल विकास समिति के यशस्वी मंत्री श्री अशोक कुमार दोषी से वन विभाग के आदेश के विरूद्ध जिला कलेक्टर गिरीडीह के यहाँ अपील प्रस्तुत की और दूसरे वन संपति को हानि पहुचाने वाले केस में, जो गिरीडीह न्यायालय में दायर हुआ था, अपना लिखित उत्तर प्रस्तुत किया। यह अत्यंत प्रसन्नता की बात है कि वन संपदा को हानि पहुँचाने के अपराध वाला केस न्यायालय द्वारा निरस्त कर दिया गया। जिलाधीश के यहाँ की गई अपील में समिति ने यह तर्क दिया कि चौपड़ा कुंड की भूमि जहाँ मंदिर व धर्मशाला का निर्माण किया गया है वह वन भूमि नहीं है। वह गैर मजरूबा (राज्य सरकार की) भूमि है। समिति ने राज्य सरकार द्वारा लिखित स्वीकृति के आधार पर ही मंदिर व धर्मशाला का निर्माण कार्य कराया था। जिलाधीश महोदय ने समिति के तर्क को स्वीकार करते हुए वन विभाग के निर्माण कार्य को तोड़ने के आदेश पर स्थगनादेश दे दिया। इन दोनों समाचारों से दि. जैन समाज के प्रबुद्ध लोगों को बहुत प्रसन्नता हुई। श्री अशोक कुमार जी दोसी के द्वारा किए गए मंदिर व धर्मशाला के निर्माण कार्य से जो दिगम्बर जैन समाज का पहाड़ पर अपना वर्चस्व स्थापित हुआ उससे श्वेताम्बर समाज तो अप्रसन्न था ही परंतु दुर्भाग्य से दिगम्बर जैन बंधुओं में से भी कुछ लोग, जो इस निर्माण कार्य से अपनी ईगो और प्रतिष्ठा आहत हुई अनुभव कर रहे थे, वे भी नाराज थे। दिगम्बर जैन समाज का यह ऐसा दोष है जो उसको संगठित होकर अपनी वांछित प्रतिष्ठा प्राप्त करने से वंचित रखता है। विचारभेद होने पर भी हमें यह स्वीकार करने में उदार होना चाहिए कि चौपड़ा कुंड पर दि. जैन मंदिर और धर्मशाला का निर्माण '. कार्य दि. जैन समाज के अपने अस्तित्व की घोषणा करने वाला एक प्रतिष्ठा चिन्ह है। ऐसे समयों पर जब बाहर के लोगों की और से हमारी अस्मिता के प्रतीक आयतनों पर आक्रमण हो तो हम सब संगठित होकर उसका सामना करें और अपने आयतनों की सुरक्षा के लिए पूरी शक्ति से प्रयत्नशील हों। मूलचंद लुहाड़िया -दिसम्बर 2003 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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