Book Title: Jinabhashita 2003 09 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 4
________________ आपके पत्र, धन्यवाद सुझाव शिरोधार्य 'जिनभाषित' का जुलाई 03 का अंक पढ़ रहा हूँ। पूर्व के भी कई अंक मैंने पढ़े हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि पत्रिका- पठनीय एवं मननीय है। कम समय में ही पत्रिका ने अपना एक अलग स्थान बना लिया है। पूरी पत्रिका तो नहीं पढ़ता किन्तु जितना पढ़ता हूँ उसका चिंतन अवश्य करता हूँ । आचार्य श्री ने वह बात, जो उन्होंने मोराजी भवन सागर में कही थी, आवरण चित्र देखकर याद आ गई 'किसी भी विषय को बहुत नहीं बहुत बार पढ़ो 2004 में श्रवणबेलगोल में महामस्तकाभिषेक है, पीछे का आवरण चित्र देखकर उसका स्मरण हो आया। सोराब जी की टिप्पणी सचमुच निन्दनीय है। न्यायाचार्य महेन्द्र कुमार जी कहते थे कि 'यदि किसी विषय का पूर्ण ज्ञान न हो तो मात्र विद्वता प्रदर्शन के लिए उस विषय में लिखना और बोलना नहीं चाहिए, खासकर जब वह बात किसी की श्रद्धा और आस्था का केन्द्र हो । ' किंतु पत्रिका में सभी वर्ग की सामग्री का आज भी अभाव है। पत्रिका मात्र विद्वानों की होकर रह गयी है। आशा है आप इस विषय में विचार करेंगे। जुलाई अंक की समस्त सामग्री बहुत ज्ञानवर्धक एवं आद्योपान्त पठनीय है। आपने अपने सम्पादकीय में सोलीजे सोराबजी की अनर्गल टिप्पणी पर आपकी प्रतिक्रिया और भर्त्सना तथा प्रमाण आप जैसे विद्वान से अपेक्षित है। जैन गजट में पढ़कर मैंने उसकी भर्त्सना लिखकर भेजी थी। यहाँ से अन्य विद्वान बन्धुओं ने अपनी प्रतिक्रिया लिखकर भेजी है। डॉ. संकटाप्रसाद का लेख संतप्रवर आचार्य विद्यासागर का कृतित्व एवं व्यक्तित्व उनकी भक्ति का जीवन्त चित्र है। नि:संदेह वे धन्यवाद के पात्र हैं। 'जिनबिंब प्रतिष्ठा में सूरि मंत्र का महत्व' तथा पं. श्री बैनाड़ा का लेख योगसार प्राभृत में वर्णित भवाभिनन्दी मुनि विशेष उल्लेखनीय है दोनों महानुभावों को नमन करता हूँ। जिज्ञासा समाधान का स्तम्भ सदैव प्रतिक्षित रहता है। उत्तम सामग्री के लिये पुनः धन्यवाद । विवेक जैन मकान नं. 27 शास्त्री वार्ड, सिलवानी (म.प्र.) सितम्बर 2003 जिनभाषित मकान नं.2, सतना (म.प्र.) 'जिनभाषित जुलाई अंक प्राप्त हुआ। सम्पादकीय टिप्पणी पदी, सोराबजी के लेख से धार्मिक भावनाओं को गहरी ठेस पहुंची। उनको विधिवेत्ता जैसे शब्दों से सम्बोधन करना भी शब्द का अपमान है। जो देश की विविध संस्कृतियों से अनिभिज्ञ हो, 2 Jain Education International विनीत सुमत चन्द्र दिवाकर पुष्पराज कॉलोनी, उन्हें सार्वजनिक लेखन कार्य से दूर ही रहना चाहिये। आशा करता हूँ कि दि. जैन समाज में जन-जन में चेतना जागृत होगी और इस टिप्पणी का एक स्वर में व्यक्तिगत रूप से लेखक को व पत्र समूह को विरोध प्रगट करेंगे। धन्यवाद । चिरंजीव लाल दोशी हैदराबाद पत्रिका का जुलाई अंक सामने है तथा 'जिनबिंब प्रतिष्ठा में सूरिमंत्र का महत्त्व' आदरणीय पं. श्री नाथूलाल जी का समाधान पुनः पढ़ रहा हूँ। यह समस्या आज समाज में विग्रह का कारण बनती जा रही है। इस समाधान से भी जिज्ञासा का समन हुआ नहीं है। क्योंकि प्रतिष्ठा प्रदीप प्रथम संस्करण के पृष्ठ 183 पर बीच में दिये नोट के अनुसार, यहाँ से दिगम्बर होकर आचार्य मंत्र संस्कार करें तथा पृष्ठ 185 पर 'फिर जहाँ तक हो किन्हीं दिगम्बर मुनि से यह मंत्र प्रतिमा को दिलायें' से स्पष्ट संकेत है कि मुनिराज के न होने की दशा में प्रतिष्ठाचार्य दिगम्बर होकर ये क्रियाएँ सम्पन्न करा सकते हैं । शास्त्री जी आगमज्ञ होने के साथ सभी पक्षों को मान्य हैं। उनसे विस्तृत समाधान की अपेक्षा है, तथा उन्हें भी लिखा है। श्री सोली जे. सोराबजी जैसा विधिवेत्ता यदि इस प्रकार की टिप्पणी करता है तो इससे आश्चर्यजनक और क्या हो सकता है, हो सकता है इतने विरोध के बाद कुछ समझ में आ गया हो। फिर टाइम्स आफ इन्डिया जिसपर जैनियों का एकाधिकार है उसमें ऐसी त्रासदायी टिप्पणी किस प्रकार छपी तथा क्यों नहीं मालिकों ने इसका खण्डन किया। मुनि श्री चन्द्रसागर जी का लेख 'धार्मिक अनुष्ठानों में प्रतीकों का महत्त्व' प्रतीक चिन्हों के अर्थ एवं उनकी उपयोगिता को दर्शाने वाला है। लेख के पाठकों से मुनि श्री अपेक्षा कर सकते हैं कि वे इन प्रतीकों का अर्थ बताते हुये इनका वास्तविक प्रचार प्रसार करेंगी। ये प्रतीक रूढ़ि या सम्प्रदाय के प्रतीक ही नहीं हैं ऐसे लेखों की आज आवश्यकता है। जिज्ञासा समाधान पं. श्री बैनाड़ा जी द्वारा आगम के आलोक में ग्राह्य है। कुल मिलाकर पत्रिका अपने उद्देश्य में दिन प्रतिदिन आपके संपादकत्व में अपनी ऊँचाई को छू रही है। सतीश जैन, पिपरई, ( गुना ) म.प्र. विशेष लेखक के विचारों से सम्पादक मण्डल का सहमत होना आवश्यक नहीं है। किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में न्याय क्षेत्र केवल भोपाल होगा। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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