Book Title: Jinabhashita 2003 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ मेल-जोल, मिलन, बार-बार आना-जाना, सहवास, साहचर्य संपर्क, सामीप्य, संगम आदि का नाम संगति है। संगति के दो भेद हैं- सुसंगति और कुसंगति दुर्जन का सम्पर्क, सामीप्य, । मेल जोल, मिलन कुसंगति है। सज्जन समागम, संयोग, संस्पर्श का नाम सुसंगति है और सुसंगति से ही सत्संग होता है। अतः सुसंगति साधना है, तो सत्संग साध्य है। सत् का अर्थ वास्तविकता, असली, अच्छा, उच्च, उचित, शुचिता, सत्ता, सत्यता, भद्रता, सुंदर, मनोहर, आदरणीय, सम्माननीय, श्रेष्ठ स्वभाव, अस्तित्व आदि होता है। सत् से ही सतयुग, सद्गुण, सद्गति, सत्कर्म, सत्कार, सदाचार, सच्चरित्र, सत्कुल, सत्पात्र, सद्भाव, सद्विधा, सद्धर्म, सदानंद, सज्जन, सत्संग आदि शब्द बनते हैं । सत्संग संत समागम वास्तव में सत्संग है। अतः सत्यता से सहित सज्जनों, साधुजनों के सम्पर्क एवं संतों के समागम को ही सत्संग कहते हैं। सत्य से रहित विरहित सत्य से परे एवं स्वार्थ से सहित सत्संग नहीं हो सकता। सत्य की ओर समीचीन गति होने को ही सत्संगति कहते हैं। सत्य ही सत्संग की आधारशिला है। सज्जन सत्य की वजह से ही सत्संग करते हैं, दूसरों को देखने दिखाने के लिए नहीं सत्य के रसातल तक पहुँचने का एक मात्र साधन । सत्संग और संत समागम ही है। सत्संग से साक्षर निरक्षर भी सत्य के सतह तक सहज ही पहुँच जाते हैं और सत्संग की सार्थकता भी तभी संभव है। - सत् से ही सत्य शब्द बनता है। सत् एवं सत्य के अस्तित्व से सहित सज्जन साधुजनों को ही संत कहते हैं। सत्य को छोड़कर संत एवं संत को छोड़कर सत्य नहीं होता। कहा भी है 'न धर्मो धार्मिकै र्विनः ' अर्थात् धर्मात्मा को छोड़कर धर्म नहीं होता है। धर्मात्मा आधार है, धर्म आधेय है। इसी प्रकार संत आधार है, तो सत्य आधेय है। ये दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक पहलू के अभाव में वह सिक्का खोटा हो जाता है, तो सत्य के अभाव में वह संत भी असत्य सिद्ध होता है क्योंकि अग्नि में उष्णता, जल में शीतलता, जीव में चेतनता पाई जाती है, अन्यत्र नहीं। ये एक दूसरे को छोड़कर नहीं रह सकते हैं, रहते हैं तो नियम से ये अपने अस्तित्व को खोते हैं। Jain Education International सत्य ही सत्संग का प्रमुख अंग है। अंग के भंग में अंगी, अवयव के अभाव में अवयवी, गुण के बिना गुणी तथा सत्य के बिना संत नहीं होता है और संत समागम के बिना सत्य समझ में नहीं आता । मुनि श्री चिन्मय सागर जी संसार में खाना-पीना, सोना, धन कमाना, जानना, सुनना, समझना सब कुछ सुलभ है, पर सत्य को समझना बहुत ही दुर्लभ होता है। एक बार सत्य समझ में आता है, तो अनंत संसार का अंत दिखने लगता है। विरले लोग ही सत्य एवं तथ्य को समझने एवं सत्य तक पहुँचने की भावना रखते हैं, और सत्य के साक्षात्कार की भावना से ओत-प्रोत व्यक्ति ही संत का सत्कार करना सहर्ष स्वीकार कर लघुता के साथ सत्संग साधन तक सहज ही पहुँच जाता है, क्योंकि इस बात को वह अच्छी तरह से जानता है एवं सत्य साध्य है। सत्य समझने की ललक, अभिलाषा, उत्कंठा उन्हें अंधश्रद्धा से मुक्ति दिलाकर परीक्षा प्रधान बना देती है और वह सत्य का शोधन करता हुआ जात-पात की संकीर्ण दीवारों को धराशायी करता हुआ सत्य एवं सच्चे संत के पास जा पहुँचता है। असलियत को समझकर असत्य साधुजनों से भी कभी नहीं छला जाता है। संत समागम की दुर्लभता को सत्य, सुख शांति की खोज करने वाला ही समझ सकता है, सामान्य संसारी प्राणी नहीं और वह शोधकर्त्ता सत्संग के माध्यम से सत्य समझकर व्यसन, विषय, कषाय, परिग्रह, पाप-प्रवृत्ति, आकुलता, व्याकुलता तथा संकल्पविकल्पों से विराम लेता हुआ निर्विकल्प, निराकुलता की ओर अग्रसर होता है। गृहस्थ विषय कषायों के कारण कठोर होता है, साधु दया, करुणा के कारण संवेदनशील एवं कोमल होते हैं भले ही साधना बज्र के समान कठोर ही क्यों न हो। दोनों का समागम बहुत ही संवेदनशील समागम होता है। भ्रमर रुपी शिष्य संतरुपी सुमन का समागम कर सारभूत पराग रूपी सत्य का सेवन करते हुए भी शिष्य को संत के सूक्ष्म संवेदनशील आचार-विचार, व्यवहार एवं भ्रामरीवृत्ति में अवरोध पैदा नहीं करना चाहिए तभी उनका संत समागम सार्थक होगा, बाधा पहुंचाकर नहीं, क्योंकि संत एक वैज्ञानिक ही नहीं महावैज्ञानिक होते हैं। संत चलते-फिरते एक महान् प्रयोगशाला होते हैं प्रतिदिन प्रतिक्षण इस प्रयोगशाला में साधना एवं सत्य का शोध चलता ही रहता है जब तक व्यक्ति साक्षात संत समागम की साक्षात् प्रयोगशाला में पहुँचकर शोध नहीं करता, तब तक उसे सत्य का बोध नहीं हो सकता है। संसारी प्राणी की दुनियाँ लौकिक होती है, पर संत की दुनियाँ अलौकिक, पारलौकिक होती है। उस दुनिया को उन्ही के रंग में रंगकर ही देखा जा सकता है। संसारी प्राणी अपनी धुन में ही चलता है तो संत अपनी धुन में, क्योंकि संत के पास समय कम और काम ज्यादा होता है। शारीरिक एवं सांसारिक नहीं, समय For Private & Personal Use Only -सितम्बर 2003 जिनभाषित 9 www.jainelibrary.org

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