Book Title: Jinabhashita 2003 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 12
________________ का सदुपयोग करते हुए प्रतिक्षण पर कल्याण के साथ ही प्रयत्न करके तीनों योगों के साथ आंतरिक आध्यात्मिक दुस्तर साधना को साधना होता है, उन्हें बाहर से भीतर की ओर, लौकिक से अलौकिक, पारलौकिक की ओर यात्रा करना होता है । अतः वे समय और स्वात्मा को समझते हुये साधना के माध्यम से साध्य तक अपनी ही धुन में, अपनी दुनियाँ में, प्रकृति, परिवेश, देश एवं देह को भी भूलकर अविरल रूप से चलते रहते हैं । संत की इस धुन एवं दुनियाँ को ध्यान में रखकर यदि श्रावक साधक की सेवा कर साधना में सहयोग प्रदान करता है तो वह निश्चित ही संतकृपा का पात्र बन जाता है एवं स्वयं का कल्याण कर लेता है। किन्तु इसके विपरीत वह श्रावक अपनी दुनियाँ में अपनी ही धुन में चलकर यदि संत को चलाना चाहता है तो नियम से वह पाप एवं कोप का भागीदार बनता है और संत का समागम करके भी सत्य के साक्षात् स्वरूप, संत के सुंदर, सुमधुर, मनोहर, आल्हादक, आलौकिक आनंददायक उपवन से सुंदर क्रूर घनघोर वन में भटक जाता है। किन्तु संत समागम के उन अनमोल क्षणों में जो अपनी दुनियाँ एवं धुन को भूलकर उनकी (संत) दुनियाँ एवं धुन में रंगकर संत का दर्शन करता है वह सहज ही सत्यरूपी सुंदर, सुहावने सुमन का दर्शन कर संत समागम को सार्थक कर जाता है । जंगल में मंगल होने लगता है जिनके सानिध्य मात्र से भावों में बसंत की बहार आ जाती है, विशुद्धि की सुगंधी लेने लगती है, भीतर बाहर चारों ओर दुनियाँ में खुशियाँ छा जाती है, किन्तु जिनके रूकने, थकने से सारी दुनियाँ रूक जाती है जिनके गौण एवं मौन होने मात्र से मायूसी छा जाती है तो समझ लेना वही सच्चा संत साधक है, उनका समागम ही संत समागम है, सत्संग है। जिनके आने से अशांति, जाने से सुख-शांति मिलती है तथा जिनके दर्शन से संसारी प्राणी सत्य से सुदूर पहुँच जाता है एवं सत्य गाफिल हो जाता है, वह न ही संत साधक है और न ही वह सत्संग, संत समागम ही है। सत्संग से संशय दूर होता है। दृढ़ता एवं साधुता बढ़ती है। सदृष्टि, सद्विद्या, सद्बुद्धि जागृत हो जाती है समाधान, संतोष, संवेग, संवाद, सद्विवेक, सदाचार, सद्विचार, सच्चारित्र में वृद्धि होती है, सत्य समझ में आता है सुख-शांति, स्वभाव एवं स्वयं तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त होता है । 10 सितम्बर 2003 जिनभाषितJain Education International सत्संग से मन प्रसन्न एवं स्थिर होता है, चित्त की चंचलता दूर होती है, मन वचन काय निर्मल एवं पवित्र होते हैं, जीवन सफल होता है, आकुलता समाप्त होकर सुख-शांति मिलने लगती है, उत्साह एवं साहस बढ़ता है, आचार विचारों का आदान प्रदान होता है, स्वदर्शन, गुरुचरण स्पर्शन होता है, सत्कर्म की प्रेरणा मिलती है, दोष एवं गुणों का ज्ञान होता है, संकीर्णता समाप्त होती है, विषय कषाय एवं पाप से निवृत्ति तथा पुण्य में प्रवृत्ति होने लगती है। सत्संग करके ही संसारी प्राणी सुसम्पादित, सुसज्जित, सुसंस्कृत, सुसंस्कारित, सुप्रशंसित होता है। स्वभाव के साथ घनिष्ट संबंध को प्राप्त कर निस्संग होता हुआ संसिद्धि कैवल्य, मोक्ष सिद्धि, सद्गति को प्राप्त करता है। इसके विपरित कुसंगति से खेद, विषाद, विवाद, विषयों में उलझता हुआ पाप कर कुगति प्राप्तकर महादुख पाता है। अतः विद्वान मनीषी, चिंतक एवं साधकों ने कुसंगति को हेय, सत्संग को श्रेष्ठ श्रेय, आदेय, उपादेय माना है और वास्तव में मानव ही सत्संग का सही स्वाद ले सकता है, पशु एवं दानव नहीं। अपनी अस्मिता, अस्तित्व, सत्य एवं सार को समझने तथा वहाँ तक पहुँचने के लिये सज्जनों को बुद्धिपूर्वक पुरूषार्थ कर यत्न के साथ सत्संग को साधते हुये, सत्संग के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार कर नित्य सत्यरूप, सत्य निष्ठ बन इस अनमोल जीवन को सफल बनाना चाहिये। सदस्यों से विनम्र निवेदन अपना वर्तमान पता 'पिन कोड' सहित स्वच्छ लिपि में निम्नलिखित पते पर भेजने का कष्ट करें, ताकि आपको "जिनभाषित' पत्रिका नियमित रूप से ठीक समय पर पहुँच सके । प्रस्तुति श्रीमती सुमनलता जैन द्वारा प्रकाश मोदी, भाटापारा (छ.ग.) For Private & Personal Use Only सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी हरीपर्वत, आगरा (उ.प्र.) पिन कोड 282002 - www.jainelibrary.org

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