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श्रमण परम्परा के आदर्श जैनाचार्य विद्यासागर
डॉ. श्रीमती रमा जैन, पूर्व प्राध्यापक
जैन जगत में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं समादृत अद्भुत | झरै' अर्थात् उनके प्रत्येक कालजयी शब्द में आगमोक्त प्रवचन क्षयोपशमधारी जैनागम के मूर्धन्य विद्वान आचार्य विद्यासागर | तथा आत्मोत्थान का मार्ग दर्शन मिलता है। वे शब्द मानसिक आर्यावर्त की गरिमामयी श्रमण परंपरा के दैदीप्यमान सूर्य हैं, | तनाव और शारीरिक थकान को दूर कर, हमारे अन्दर आत्मबल, त्रिभुवन भास्कर हैं। तलस्पर्शी आत्मविद्या के साधक हैं। उनकी पौरुष, साहस, उत्साह के बीज आरोपित कर देते हैं। प्रवचन ध्यानस्थ मुद्रा वीतरागप्रभु की प्रतिमा सी शान्त, गंभीर और मनोरम | सुनने वाले प्रत्येक श्रावक को ऐसा लगता है कि आचार्य श्री ये लगती है। उनके दर्शन से ऐसी अनुभूति होती है मानो जन्म-जन्म | शब्द हमें जगाने के लिये कह रहे हैं:के किये गये पाप क्षण भर में क्षय हो रहे हैं।
उत्थातव्यं, जागृतव्यं योक्तव्यं भूतिकर्मसु। दर्शनेन जिनेद्राणां साधुनाम् वन्दनेन च।
भविष्यतीत्मेव मनः कृत्वा सततमन्मथै॥ (महाभारत) न चिरं तिष्ठते पापं क्षिद्रहस्ते यथोदकं॥
महर्षि व्यास कहते हैं- हे युवको ! उठो आलस्य को महाभारत में महात्मा व्यास ने भी लिखा है कि महापुरुषों | त्यागो, कल्याण कार्य में अपने को लगाओ। इस प्रकार तुम मन के दर्शन मात्र से हृदय में सत्प्रेरणायें जागृत होती हैं -
को चिन्तायुक्त कर के कार्य करोगे, तो अवश्य सफल होगे। महतां दर्शनं ब्रह्मन् जायते नहि निष्फलम्।
आचार्य श्री प्रज्ञावान, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, दृढनिश्चयी, द्वेषादज्ञानतो वापि प्रसंगा प्रमादतः।
भविष्य द्रष्टा, तेजस्वी संत हैं। वे श्रमण संघ के दर्पण हैं। उनकी असयः स्पर्श संस्पर्शी रुक्मत्वायैव जायते।
लोकोत्तर साधना और आध्यात्मिक क्रांति ने आचार्य श्री को संसार अर्थात् महापुरुषों का दर्शन कभी निष्फल नहीं जाता।। का शिरोमणि, अद्वितीय, ऋषिराज बना दिया है। उन्होंने एक बार द्वेष, अज्ञान, प्रमाद या प्रसंगवश भी एकाएक लोहा यदि पारसमणि अपने प्रवचन में ज्ञानोपयोग के विषय में कहा थासे छू जाये तो वह सोना बन जाता है। इसी प्रकार आचार्य श्री के | ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। उसे सुखाया सान्निध्य से अज्ञानी मुनष्य भी ज्ञानी बन जाता है। हमें तो ऐसा | नहीं जा सकता, उसे स्वपर कल्याण की दिशा में प्रवाहित किया अनुभव होता है कि आचार्य श्री के दर्शन मात्र से हमारे नेत्र सफल | जा सकता है, यही ज्ञानोपयोग है। हो जाते हैं । अद्या भवत्सफलता नयन द्वयस्य। देवत्वदीय चरणाम्बुज सृजन मनुष्य को महान् बना देता है। निर्माण का स्रोत वीक्षणेन।
जितना अधिक धार्मिक, अध्यात्मिक, पवित्र, सशक्त, उज्जवल ग्रीष्म ऋतु में किसी चट्टान पर बैठ ध्यान में तल्लीन और दायित्वबोध से सम्पन्न होगा, समाज तथा युवा पीढ़ी के आत्मानुभवी आचार्य श्री को देखकर श्रावक चौंक जाता है। उसके पाठकों का भविष्य भी उतना ही यशस्वी, उज्जवल एवं कर्मठ हृदय में अपने चिन्तामणि रत्न की तरह मिले अमूल्य मानव जीवन | होगा। पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की तपः पूत लेखनी से की घड़ियां व्यर्थ विषय भोगों में नष्ट करने की पीढ़ा उत्पन्न हो | लिखी हर एक रचना को पाठक सर-आँखों पर स्वीकार करता है, जाती है। वह पश्चाताप की अग्नि में झुलस जाता है। अपने आपको | क्योंकि उसमें अनुभवगम्य आत्मस्वरूप का आनन्द कंद रहता है। परीषहजयी तपस्वी बनाने के लिए पुरुषार्थ और आत्मिक बल को | आचार्य श्री की रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना के स्वर भी सुनाई देते जागृत करता हुआ कहता है
हैं। नारी को आचार्य श्री सामाजिक विकास की धुरी मानते हैं। कब गृहवास सौं उदास होय वन सेऊँ,
उन्होंने नारी के पर्यायवाची शब्दों की व्याख्या अत्यन्त आकर्षक, वेऊँ निजरूप गति रोकूँ मन-करी की।
महत्वपूर्ण सार्थक और बेजोड़ की है। रहि हौं अडोल एक आसन अचल अंग, .
आचार्य श्री उच्च कोटि के साधक और संत होते हुये भी सहि हौं परीसा शीत-घाम मेघझरी की।
सर्वोत्तम साहित्यकार हैं। उन्होंने गद्य ही नहीं, अपितु पद्य की अहो! वह घड़ी कब आयेगी, जब मैं गृहस्थदशा से विरक्त | अनेक विधाओं को सरलता प्रदान की है, तथा भव्य जीवों के होकर वन में जाऊँगा, अपने मन रूपी हाथी को वश में करके | आत्मकल्याण हेतु अनेक ग्रन्थों का सृजन किया है। उनके द्वारा निज आत्मस्वरूप का अनुभव करूँगा, एक आसन पर निश्चल | लिखित मूकमाटी (महाकाव्य) आज देश भर में विद्वत्समाज और रहकर सर्दी, गर्मी, वर्षा के परीषहों को सहन करूँगा।
साहित्यकारों के बीच बहुचर्चित श्लाघनीय महाकाव्य है। इसके __शास्त्र सभा में तथा वाचना में आचार्य श्री के मुखारबिन्दु अतिरिक्त आचार्य श्री ने 'डूबो मत लगाओ डुबकी, तोता क्यों से निकले एक एक शब्द ऐसे लगते हैं, जैसे 'मुखचन्द्र से अमृत | रोता, चेतना के गहराव में इत्यादि ग्रंथ लिखे हैं। संस्कृताचार्य
-सितम्बर 2003 जिनभाषित 11
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