Book Title: Jinabhashita 2003 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ जिज्ञासा समाधान जिज्ञासा तत्वार्थसूत्र की आर्थिका स्याद्वादमती द्वारा संपादित टीका में लोकान्तिक देवों के भेदों में 'आदित्य' नाम के देवों की परिभाषा 'देवमाता आदिति की संतान' लिखा है, यह किस अपेक्षा से है ? प्रश्नकर्ता - श्रीमती ज्ञानमाला जैन, भोपाल । · समाधान- टीकाकर्ती ने तत्वार्थसूत्र अध्याय - 4, सूत्र नं. 25 की टीका में आदित्य देवों की परिभाषा 'देव माता आदिति की संतान' जो लिखा है, वह श्रुतसागर सूरि की टीका के अनुसार है पर वास्तविकता ऐसी प्रतीत नहीं होती। आप्टे शब्द कोश के अनुसार, आदित्य शब्द का हिन्दी अर्थ भी इसी प्रकार लिखा है । लौकान्तिक देवों के नाम के अनुसार, उनकी परिभाषा बनाना सर्वार्थसिद्धिकार, राजवार्तिककार तथा श्लोकवार्तिककार जैसे महान् आचार्यों को अभीष्ट नहीं था । इसीलिए इन आचार्यों ने ऐसा कुछ नहीं लिखा। अतः श्रुतसागर सूरी द्वारा शब्दार्थ के रुप में लिखित परिभाषाओं को प्रमाणीक कैसे मान लिया जाए। इन परिभाषाओं को तर्क की कसौटी पर कसने से बहुत आपत्तियाँ आएँगी जैसे1. टीका में सारस्वत देव उन्हें कहा है, जो चौदह पूर्व के ज्ञाता होते हैं। तो क्या अन्य सात प्रकार के देव 14 पूर्व के ज्ञाता नहीं होते, जबकि महान् आचार्यों ने सभी लौकान्तिक देवों को 'चतुर्दश पूर्वधराः ' कहा है। , 2. आदित्य देव की जो उपरोक्त परिभाषा लिखी है वह तो किसी तरह भी उचित प्रतीत नहीं होती। सभी देव उपपाद जन्म वाले होते हैं, अतः इनकी माता कौन हो सकती है। 3. वन्हि देव की परिभाषा में लिखा है जो वन्हि के समान दैदीप्यमान हों। यह भी परिभाषा उचित नहीं है। सारे लौकान्तिक देव शुक्ल लेश्या के धारक होते हैं। उनके शरीर की द्रव्य लेश्या शुक्ल होती है, अतः वन्हि के समान दैदीप्यमान कैसे। 4. जिनके कामादिजनित बाधा नहीं है वे अव्याबाध लिखे हैं, तो क्या अन्य देवताओं को कामादि की बाधा होती है। अन्य चार देवों की परिभाषाएँ भी नाम के अनुसार उचित नहीं बैठती। सभी लौकान्तिक देव चौदह पूर्व के ज्ञाता, अहमिन्द्रों के समान स्वतन्त्र, किसी भी प्रकार के हीन या अधिकपने से रहित, विषयों से विरक्त, ऋषितुल्य आदि सभी गुणों की अपेक्षा समान हैं। केवल नाम निक्षेप से अन्तर है। इन लौकान्तिक देवों को देवमाता आदिति की सन्तान कहना तो देवों का अवर्णवाद हो जायेगा। अतः व्याकरण के अनुसार इनके नामों की परिभाषा बनाना आगम परम्परा से उचित प्रतीत नहीं होता । जिज्ञासा- पद्मनन्दिपंचविशंतिका अधिकार - 7, श्लोक नं. 23 में बलि शब्द का क्या अर्थ गृहण किया जाये ? Jain Education International समाधान पूजा प्रकरण में बलि शब्द अन्य शास्त्रों में भी आया है जैसे सागारधर्मामृत अध्याय २/२९ 'बलि स्नपन नाट्यादि .......' इसकी टीका करते हुए आर्यिका सुपार्श्वमती जी ने तथा पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री ने इस शब्द का अर्थ उपहार लिया है। अर्थात् छत्र या भामण्डल आदि वस्तुएँ उपहार स्वरूप मंदिर में भेंट करना । इसको भी बलि शब्द से कहते हुए पूजाओं में गर्भित किया है । अतः बलि शब्द का अर्थ उपहार या भेंट लेना चाहिए। जिज्ञासा अढ़ाई द्वीप के तीनों क्षेत्रों के अलग-अलग कितने वृषभाचल हैं? समाधान- वृषभाचल उन पर्वतों को कहा जाता है, जिन पर उस क्षेत्र का चक्रवर्ती दिग्विजय के उपरांत अपना नाम अंकित करने के लिए जाता है। ये वृषभाचल म्लेच्छ खण्ड में होते हैं । इनकी संख्या के बारे में श्री त्रिलोकसार गाथा नं. 710 में इस प्रकार कहा है- सत्तरिसयवसहगिरी मज्झगयमिलेच्छखंडबहुमज्झे । कणयमणिकंचणुदयति भरिया गयचक्किणामेहिं ॥ 710 ॥ अर्थ- मध्यगत म्लेच्छ खण्ड के ठीक मध्य भाग में स्वर्ण वर्ण वाले मणिमय वृषभाचल पर्वत हैं। ये प्रत्येक देश में एकएक हैं, अत: इनकी कुल संख्या 170 है। इनके उदय आदि तीनों प्रमाण कान्वन पर्वत सदृश हैं। ये पर्वत अतीत कालीन चक्रवर्ती राजाओं के नामों से भरे हुए हैं | 710 ॥ जिज्ञासा - अनादिकाल से छह महीने आठ समय में 608 जीव मोक्ष चले जाते हैं, तब यह संसार कभी तो जीवों से रहित हो जायेगा ? समाधान- यह संसार कभी भी भव्य जीवों से रहित नहीं होता। आपके प्रश्न का समाधान श्री वृहदद्रव्यसंग्रह की गाथा नं. 37 की टीका में, श्री ब्रह्मदेव सूरी ने इस प्रकार किया है शंका- अनादिकाल से जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं अतः यह जगत कभी शून्य हो जायेगा ? समाधान- जिसप्रकार भविष्यकाल के समय क्रम क्रम से व्यतीत होने से यद्यपि भविष्यकाल की समय राशि में कमी होती है तो भी उसका कभी भी अंत नहीं होता है। उसीप्रकार जीव मोक्ष में जाने पर यद्यपि जीवों की राशि में कमी होती है तो भी उसका अंत नहीं होता है। यदि जीव मोक्ष में जाने पर संसार में जीव की शून्यता होती हो तो भूतकाल में बहुत जीव मोक्ष गये हैं। तो भी अभी जगत में जीवों की शून्यता क्यों नहीं दिखाई देती है। तथा अभव्य जीवों और अभव्य समान भव्य जीवों का मोक्ष नहीं है, तो फिर जगत में जीवों की शून्यता किस प्रकार होगी ॥ 37 ॥ For Private & Personal Use Only सितम्बर 2003 जिनभाषित 25 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36