Book Title: Jinabhashita 2003 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2529 श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर सदलगा भाद्रपद, वि.सं. 2060 सितंबर 2003 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दड्ड बस्ती, सदलगा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 सितम्बर 2003 টিনাসির मासिक वर्ष 2, अङ्क सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 प्रवचन : क्षमा की आर्द्रता आ.श्री विद्यासागरजी • आपके पत्र: धन्यवाद सम्पादकीय : सराहनीय आलेख . लेख सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर 3 शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर.के.मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर कर्मों की गति : आचार्य श्री विद्यासागर जी सत्संग : मुनिश्री चिन्मय सागर जी अभी अधूरा है वैशाली.... : नम्रता शरण : श्रमण परम्परा के आदर्श.... डॉ. श्रीमती रमा जैन कर्मों को क्षय करने की .... : डॉ. नरेन्द्र जैन 'भारती' श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र .... : कपूर चंद जैन 'बंसल' स्वास्थ्य प्रत्येक मनुष्य का .... : डॉ वन्दना जैन सदलगा की भूमि पर ..... : सदलगा का एक भक्त . भिलाई अपहरण काण्ड ... : सुरेश जैन 'सरल' व्यंग्य नहीं सत्य : श्रीमती सुशीला पाटनी उपसर्ग के पश्चात् ...... : ब्र. पंकज श्री दि. जैन अ. क्षेत्र बिलहरी : जिनेन्द्र कुमार जैन . जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा बोधकथा . प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2151428, 2152278 • आचरण का प्रभाव : आदर्श कथाएँ कविता • मंगल कामना : डॉ. वन्दना जैन 24 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 500 रु. वार्षिक 100 रु. एक प्रति 10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। समाचार 8, 18, 27, 30-32 .. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद सुझाव शिरोधार्य 'जिनभाषित' का जुलाई 03 का अंक पढ़ रहा हूँ। पूर्व के भी कई अंक मैंने पढ़े हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि पत्रिका- पठनीय एवं मननीय है। कम समय में ही पत्रिका ने अपना एक अलग स्थान बना लिया है। पूरी पत्रिका तो नहीं पढ़ता किन्तु जितना पढ़ता हूँ उसका चिंतन अवश्य करता हूँ । आचार्य श्री ने वह बात, जो उन्होंने मोराजी भवन सागर में कही थी, आवरण चित्र देखकर याद आ गई 'किसी भी विषय को बहुत नहीं बहुत बार पढ़ो 2004 में श्रवणबेलगोल में महामस्तकाभिषेक है, पीछे का आवरण चित्र देखकर उसका स्मरण हो आया। सोराब जी की टिप्पणी सचमुच निन्दनीय है। न्यायाचार्य महेन्द्र कुमार जी कहते थे कि 'यदि किसी विषय का पूर्ण ज्ञान न हो तो मात्र विद्वता प्रदर्शन के लिए उस विषय में लिखना और बोलना नहीं चाहिए, खासकर जब वह बात किसी की श्रद्धा और आस्था का केन्द्र हो । ' किंतु पत्रिका में सभी वर्ग की सामग्री का आज भी अभाव है। पत्रिका मात्र विद्वानों की होकर रह गयी है। आशा है आप इस विषय में विचार करेंगे। जुलाई अंक की समस्त सामग्री बहुत ज्ञानवर्धक एवं आद्योपान्त पठनीय है। आपने अपने सम्पादकीय में सोलीजे सोराबजी की अनर्गल टिप्पणी पर आपकी प्रतिक्रिया और भर्त्सना तथा प्रमाण आप जैसे विद्वान से अपेक्षित है। जैन गजट में पढ़कर मैंने उसकी भर्त्सना लिखकर भेजी थी। यहाँ से अन्य विद्वान बन्धुओं ने अपनी प्रतिक्रिया लिखकर भेजी है। डॉ. संकटाप्रसाद का लेख संतप्रवर आचार्य विद्यासागर का कृतित्व एवं व्यक्तित्व उनकी भक्ति का जीवन्त चित्र है। नि:संदेह वे धन्यवाद के पात्र हैं। 'जिनबिंब प्रतिष्ठा में सूरि मंत्र का महत्व' तथा पं. श्री बैनाड़ा का लेख योगसार प्राभृत में वर्णित भवाभिनन्दी मुनि विशेष उल्लेखनीय है दोनों महानुभावों को नमन करता हूँ। जिज्ञासा समाधान का स्तम्भ सदैव प्रतिक्षित रहता है। उत्तम सामग्री के लिये पुनः धन्यवाद । विवेक जैन मकान नं. 27 शास्त्री वार्ड, सिलवानी (म.प्र.) सितम्बर 2003 जिनभाषित मकान नं.2, सतना (म.प्र.) 'जिनभाषित जुलाई अंक प्राप्त हुआ। सम्पादकीय टिप्पणी पदी, सोराबजी के लेख से धार्मिक भावनाओं को गहरी ठेस पहुंची। उनको विधिवेत्ता जैसे शब्दों से सम्बोधन करना भी शब्द का अपमान है। जो देश की विविध संस्कृतियों से अनिभिज्ञ हो, 2 विनीत सुमत चन्द्र दिवाकर पुष्पराज कॉलोनी, उन्हें सार्वजनिक लेखन कार्य से दूर ही रहना चाहिये। आशा करता हूँ कि दि. जैन समाज में जन-जन में चेतना जागृत होगी और इस टिप्पणी का एक स्वर में व्यक्तिगत रूप से लेखक को व पत्र समूह को विरोध प्रगट करेंगे। धन्यवाद । चिरंजीव लाल दोशी हैदराबाद पत्रिका का जुलाई अंक सामने है तथा 'जिनबिंब प्रतिष्ठा में सूरिमंत्र का महत्त्व' आदरणीय पं. श्री नाथूलाल जी का समाधान पुनः पढ़ रहा हूँ। यह समस्या आज समाज में विग्रह का कारण बनती जा रही है। इस समाधान से भी जिज्ञासा का समन हुआ नहीं है। क्योंकि प्रतिष्ठा प्रदीप प्रथम संस्करण के पृष्ठ 183 पर बीच में दिये नोट के अनुसार, यहाँ से दिगम्बर होकर आचार्य मंत्र संस्कार करें तथा पृष्ठ 185 पर 'फिर जहाँ तक हो किन्हीं दिगम्बर मुनि से यह मंत्र प्रतिमा को दिलायें' से स्पष्ट संकेत है कि मुनिराज के न होने की दशा में प्रतिष्ठाचार्य दिगम्बर होकर ये क्रियाएँ सम्पन्न करा सकते हैं । शास्त्री जी आगमज्ञ होने के साथ सभी पक्षों को मान्य हैं। उनसे विस्तृत समाधान की अपेक्षा है, तथा उन्हें भी लिखा है। श्री सोली जे. सोराबजी जैसा विधिवेत्ता यदि इस प्रकार की टिप्पणी करता है तो इससे आश्चर्यजनक और क्या हो सकता है, हो सकता है इतने विरोध के बाद कुछ समझ में आ गया हो। फिर टाइम्स आफ इन्डिया जिसपर जैनियों का एकाधिकार है उसमें ऐसी त्रासदायी टिप्पणी किस प्रकार छपी तथा क्यों नहीं मालिकों ने इसका खण्डन किया। मुनि श्री चन्द्रसागर जी का लेख 'धार्मिक अनुष्ठानों में प्रतीकों का महत्त्व' प्रतीक चिन्हों के अर्थ एवं उनकी उपयोगिता को दर्शाने वाला है। लेख के पाठकों से मुनि श्री अपेक्षा कर सकते हैं कि वे इन प्रतीकों का अर्थ बताते हुये इनका वास्तविक प्रचार प्रसार करेंगी। ये प्रतीक रूढ़ि या सम्प्रदाय के प्रतीक ही नहीं हैं ऐसे लेखों की आज आवश्यकता है। जिज्ञासा समाधान पं. श्री बैनाड़ा जी द्वारा आगम के आलोक में ग्राह्य है। कुल मिलाकर पत्रिका अपने उद्देश्य में दिन प्रतिदिन आपके संपादकत्व में अपनी ऊँचाई को छू रही है। सतीश जैन, पिपरई, ( गुना ) म.प्र. विशेष लेखक के विचारों से सम्पादक मण्डल का सहमत होना आवश्यक नहीं है। किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में न्याय क्षेत्र केवल भोपाल होगा। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनांश कर्मों की गति कर्मभूमि में कर्मों की गति से कोई मुक्त नहीं हो सकता चाहे वह चक्रवर्ती हो, दिव्यपुरुष हो, भव्य पुरुष हो अथवा महापुरुष हो । अमरकण्टक की मनोरम वादियों में उपस्थित जन समुदाय को सत्य की अनुभूति कराते हुए दार्शनिक सन्त आचार्य विद्यासागर ने कहा कि जब तक तन में चेतन है, अर्थवान है, चलायमान है । चेतन का साथ छूटते ही निरर्थक हो जाता है, जो शेष है वह पार्थिव है, जो चलता भी नहीं, जिसे ले जाया जाता है । निजात्म भाव कर अडिग रहने की सीख देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि जल का स्वभाव अग्नि का शमन करना है, जल शीतल हो तो अग्नि को शांत करेगा, तथा ऊष्ण जल भी अग्नि को बुझायेगा । बादल दल के आवागमन के मध्य श्रोताओं की सभा को सम्बोधित करते हुए साधक शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी ने जीवन की जटिलताओं को सरल करने की सहज सीख दी। आचार्य श्री ने कहा कि अक्षय भंडार से भी निरन्तर केवल क्षय होता रहे क्षतिपूर्ति न की जाए तो वह रिक्त हो जाता है। उद्यमी मूलधन की सुरक्षा न करे अथवा कृषक बीज बोने के स्थान पर खोने या खाने में व्यय करने के उपरान्त जिस स्थिति का सामना करता है, वही स्थिति जड़ धन के संग्रह में संलग्र चेतन धन की उपेक्षा करने वालों की होती है, क्योंकि पूर्व डिपाजिट समाप्त होने वाला है, जमानत जब्त होने वाली है। एक पौराणिक घटना का उल्लेख करते हुए आचार्य श्री ने बताया कि कर्मों की गति के प्रभाव से अभेद, पूर्ण सुरक्षित बसी सुवर्ण नगरी द्वारका आग से धूं धूं कर जल गयी। बुझाने के सभी प्रयत्न विफल हो गये, आश्चर्य जल के मध्य स्थित नगरी जल गयी। चारों ओर जल ही जल फिर भी जल गयी। द्वारकाधीश दिव्य पुरुष के बल से सभी बलशाली थर-थर कांपते थे नासिका से शंख बजता था तो चारों दिशा गुंजायमान हो जाती हैं। ऐसे दिव्य पुरुषों के जन्म होते ही जनता आश्वस्त हो जाती है अब कोई अहित नहीं कर सकता। जीवन सुख, शांति के साथ गुजरेगा यह विश्वास व्याप्त हो जाता है। जिस नाग की आँखों से अग्नि की रश्मियाँ निकलती थी, शांत कर दिया, नाग के फन की शय्या बना ली। मखमल की शय्या पर सोना साधारण क्रिया है किन्तु नाग की शय्या बना लेना चक्रवर्ती के ही वश में था। आचार्य श्री ने हास्य के साथ कहा आज तो खतरे से सावधान करने के लिए अलार्म की व्यवस्था कर देते हैं, सायरन बज जाता है। किन्तु द्वारका के ऊपर खतरा आने का संदेह ही नहीं था, सुवर्ण नगरी पूरी तरह सुरक्षित है फिर चारों ओर जल ही जल है आग से खतरा तो हो ही नहीं सकता, किन्तु वही हुआ जल होते हुए भी जल गयी द्वारका नगरी संसार नश्वर यह बताने की आवश्यकता I आचार्य श्री विद्यासागर जी नहीं, सत्य को प्रमाण को आवश्यकता भीनहीं। जहाँ अनुमान होता है वहाँ प्रमाणित किया जाता है। तेल और जल दोनों सरल पदार्थ हैं किन्तु जल का स्वभाव आग बुझाना है तेल का स्वभाव आग उद्वीप्त करना। कितना भी जल डालो अब जलने से नहीं बचा सकते, चक्रवर्ती दिव्य पुरुष को ज्ञात था कि कर्मों के उदय का परिणाम होकर ही रहेगा, पुण्य का भंडार क्षय हो गया। जल के बीच बसी नगरी चल बसी । आयार्च श्री ने श्रोताओं को सचेत करते हुए कहा कि उपयुक्त घटना से आहत दोनों भाई निर्जन वन में एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे, भइया मुझे प्यास लगी है, ठहरो मैं अभी जल का प्रबंध करता हूँ यह कहते हुए अग्रज जल के प्रबंध के लिए चले गये। जंगल में रहने वाले शिकारी को दिव्य पुरुष के पैर में बना दिव्य प्रतीक 'पदम' मृग के नेत्र की भांति लगा एवं दूर से ही अनुमान कर तीर चला दिया। समीप आकर देखा ओह यह क्या अनर्थ हो गया, अपने पालनहार को ही वेध दिया, 'महाराज ! मुझसे अपराध हो गया'। 'नहीं, तुमने अपराध नहीं किया' । संसार में कर्मों के परिणाम से कोई वंचित नहीं रह सकता। क्षमा और रक्षा दिव्य पुरुषों के अलंकरण होते हैं, ऐसी स्थिति में भी इन्हीं भावना के साथ कहा, 'तुम शीघ्र यहाँ से भाग जाओ अन्यथा मेरे भाई के आने के उपरांत तुम्हारी रक्षा नहीं हो सकेगी। वही बल, वही पराक्रम, वही शक्ति किन्तु द्वारका की रक्षा नहीं हो सकी। आचार्य श्री ने कहा यह सम्पूर्ण घटना चेतना जागृत करने के लिए पर्याप्त है। दिव्य पुरुषों के माध्यम से समय रहते सावधान हो सकते हैं। अभी पुण्य पल्ले में हैं किन्तु क्षय होने के उपरांत कोई सहायता नहीं कर सकता। चेतन का साथ छूटते ही तन पार्थिव हो जाता है। जो चलता था उसे ले जाते हैं क्योंकि वह अचल हो गया शेष रह गयी मिट्टी आचार्य श्री ने कहा कि भोक्ता कभी भोग्य नहीं होता और कर्ता कभी कर्म नहीं होता। कर्ता असीम हो सकता है किन्तु कर्म की सीमा होती है यह बताते हुए आचार्य श्री ने कहा कि अविनश्नर लगने वाली सुवर्ण नगरी कितनी बार बसी और कितनी बार चल बसी, कितने ही भोक्ता आए पृथ्वी को भोग कर चले गये। पुराण पुरुषों से सीख मिलती है चेतन को जागृत करो । काया की माया छूटना निश्चित है, फिर भ्रम क्यों ? तन का अलंकरण निरर्थक है जब तन भी व्यर्थ है तो जब तक चेतन है तन का उपयोग किया जा सकता है स्वयं के उन्मूलन के लिए। साधक काया में परिवर्तन को अपना परिवर्तन नहीं मानते। काया का एक एक कण एक दिन बिखर जायेगा। प्रस्तुति वेदचन्द्र जैन गौरेला, पेण्ड्रारोड -सितम्बर 2003 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभी अधूरा है वैशाली का इतिहास नम्रता शरण ऐतिहासिक गाथाओं में वर्णित वैशाली लगभग 2500 | बनाना शुरू कर दिया। बाद में 1972 में इस संग्रहालय पर वर्ष पुराना इतिहास अपने में समेटे हुए है। छठी शताब्दी ई.पूर्व में | सरकार की नजर पड़ी और सरकार ने इसे अपने अधिकार में ले यह शक्तिशाली लिच्छवी गणराज्य की राजधानी थी। 1600 | लिया। अब बिजलीप्रसाद के पुत्र रामबलेश्वर सिंह के निरीक्षण साल पहले सम्राट अशोक कलिंग की चढ़ाई के बाद बौद्ध धर्म में खनन का कार्य किया जा रहा है। इस सबसे पहले ब्रिटिश अपना कर धर्म प्रचार में लग गए थे। उन्होंने वैशाली समेत देश | सरकार ने भी 1901-02 में खनन कार्य करवाया था, जिसमें के कई भागों में बौद्ध स्मृति स्तंभों का निर्माण करवाया था। बौद्ध कालीन और गुप्तकालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। वैशाली का वैशाली में उनके द्वारा स्थापित स्मृति स्तंभ की खास | इतिहास अत्यंत विस्तृत है। चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के बात यह है कि यह जितना जमीन के अंदर है (17 मीटर) उतना | जन्मस्थल का गौरव भी वैशाली को ही प्राप्त है। कहा जाता है ही जमीन के बाहर (17 मीटर) भी। इसकी गोलाई 3.5 मीटर | कि महात्मा बुद्ध ने अपने निर्वाण की घोषणा यहीं चापाल चैत में है। सम्राट अशोक ने सारनाथ में 32 बौद्ध स्मृति स्तंभों का | दिन के 10 बजे की थी। घोषणा के तीन महीने बाद उन्होंने निर्माण करवाया था। इन सभी स्तंभों पर पाली भाषा में धर्मोपदेश | कुशीनगर (उत्तरप्रदेश) में निर्वाण प्राप्त किया। तत्पश्चात उनके खुदवाए गए थे। इन चौमुखी स्तंभों के निर्माण का उद्देश्य चारों शरीर के पवित्र भस्म को 8 भागों में बांटा गया। लिच्छवी वंश दिशाओं में धर्म प्रचार करना था। इसी चौमुखी अशोक स्तंभ को | के राजा चेतक ने उस भस्म के 10 औंस को लेकर ठीक उसी आजादी के बाद राजकीय प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया, जगह स्तूप का निर्माण करवाया जहां बैठकर बुद्ध ने अपने परन्तु वैशाली के अशोक स्तंभ अन्य अशोक स्तंभों से कुछ निर्वाण की घोषणा की थी। बाद में सम्राट अशोक ने उस स्पूत अलग हैं। इस पर खुदे धर्मोपदेश शंख लिपि में अंकित हैं, जिन्हें | को खुदवाकर उसमें से 9 औंस भस्म निकालकर अलग-अलग आज तक पढ़ा नहीं जा सका है। महान् परंपराओं से परिपूर्ण इस | 85 स्तूपों का निर्माण करवाया। इतिहास को खोजने का कार्य सर्वप्रथम 1861-1913 के मध्य | वर्तमान में इन्हें सुरक्षित रखने के लए ईंटों से घेर दिया किया गया, जिससे शुंग, कुषाण और प्रारंभिक गुप्तकाल के | गया है। 1958 में एक बार फिर खनन का कार्य के.पी. जायसवाल प्रमाण प्राप्त हुए। खुदाई के दौरान गुप्तकालीन मुहर, मुद्रा, पक्की (रिसर्च सेंटर) तथा पटना के डॉ. माल्टेकर के माध्यम से और ठप्पेदार मृद भाण्डों तथा पाल कालीन खंडित अभिलेख | रामबलेश्वर सिंह के संरक्षण में हुआ जिसमें बुद्ध की लेटी हुई एवं कांच के टुकड़े भी प्राप्त हुए। खनन के दौरान शुंग और | मूर्ति, पत्थर की मंजूषा और कुछ रत्न मिले जो फिलहाल पटना कुषाण काल के संकलित छोटे-छोटे स्तूपों के अवशेषों के साथ- | संग्रहालय में सुरक्षित रखे हैं। बारंबार खुदाई के जरिए वैशाली साथ सर्प हवन कुंड भी मिला है, जिसमें सांपों से छुटकारा पाने | में इतिहास खोजने की कोशिशें निरंतर जारी हैं। खनन का कार्य के लिए उनका हवन किया जाता था। 1935 में स्व. बिजलीप्रसाद | चल रहा है और लगता है कि भविष्य में इतिहास की कई और सिंह ने निजी स्तर पर खनन का कार्य आरंभ किया और खुदाई परतें खुलने वाली हैं। के दौरान प्राप्त अवशेषों को सहेज कर अपना एक निजी संग्रहालय दैनिक भास्कर, 6 जुलाई, 2003 प्रेक्षा पूर्व प्रवृत्तेन जन्तुना स प्रयोजनः। व्यापारः सततं कृत्यः शोकाश्चायमनर्थकः॥ भावार्थ-विचार पूर्वक कार्य करने वाले मनुष्य को सदा वही कार्य करना चाहिये जो प्रयोजन सहित हो। यह शोक प्रयोजन रहित है, अत: बुद्धिमान मनुष्य के द्वारा करने योग्य नहीं है। प्रत्यागमः कृतेशोके प्रेतस्य यदि जायते। ततोऽन्यानपि संगृह्य विदधीत जनः शुचम्॥ भावार्थ - यदि शोक करने से मृतक व्यक्ति वापस लौट आता हो तो दूसरे लोगों को भी इकट्ठा कर शोक करना उचित है। सितम्बर 2003 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सम्पादकीय सराहनीय आलेख भा. दि. जैन महासभा के मुख पत्र जैन गजट के अंक 107 /36 व 37 में दिगम्बर मुनि चर्या के आगम सम्मत स्वरूप और वर्तमान में व्याप्त शिथिलाचार के संबंध में विद्वान सह सम्पादक श्री कपूरचंद जी पाटनी के लेख को पढ़कर प्रसन्नता हुई। सन् 1994 में मैं पर्युषण पर्व में गुवाहाटी गया था तब श्री पाटनी जी के साथ 10 दिन रहना हुआ था। उनका जैनागम का गहन स्वाध्याय है और वे समीचीन नय दृष्टि के आधार पर वस्तु स्वरूप का पक्षपात रहित निर्णय करते हैं। उनका आगम आधारित सकारात्मक सोच प्रशंसनीय है। अपने संपादकीय लेख में श्री पाटनी जी ने अत्यंत महत्वपूर्ण सामयिक मुद्दे पर आगम प्रमाण सहित सटीक विवरण प्रस्तुत किया है। महान तार्किक आचार्य समंतभद्रदेव द्वारा लगभग 2000 वर्ष पूर्व रचित प्रथम श्रावकाचार ग्रंथ में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को धर्म कहा है और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है । सच्चे गुरु का लक्षण विषयाशावशातीतता, अनारंभता, अपरिग्रहता एवं ज्ञानध्यान में लीनता बताया है। यदि हमारी श्रद्धा के पात्र परमेष्ठी रूप में उपरोक्त लक्षणों का अभाव अथवा विकृति पाई जायेगी तो ऐसे गुरुओं की श्रद्धा या आराधना से हम कैसे सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं और कैसे उसे सुरक्षित रख सकते हैं? अतः दिगम्बर मुनियों की उपरोक्त आगमचर्या दिगम्बर जैन धर्म का प्राण है और उसका संरक्षण हम सब की समीचीन धर्म की आराधना के लिए अनिवार्य है। कभी कभी लोग कहते हैं कि हम श्रावकों को मुनियों के आचरण की चर्चा करने अथवा आलोचना करने का अधिकार नहीं है। यह भी कहते हैं कि आज निकृष्ट काल के प्रभाव से श्रावक भी जब अपने आचरण का पालन नहीं करते हैं तो मुनियों से उनके आचरण की पालना की अपेक्षा करना उचित नहीं है। उपरोक्त बिदुओं पर आगम के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर हम पाते हैं कि सम्यग्दर्शन का कारण सच्चे देव, शास्त्र, गुरु हैं । देव, शास्त्र, गुरु सच्चे-झूठे दोनों प्रकार के पाए जाते हैं । अतः सच्चे देव, शास्त्र, गुरु को उनके लक्षणों के आधार पर हम को ही खोज कर सच्चे देव, शास्त्र, गुरु को प्राप्त कर उनकी शरण ग्रहण करनी पड़ेगी।अतः मुनि के आचरण की परीक्षा करना श्रावक का कर्तव्य भी है और अधिकार भी। हाँ केवल द्वेष बुद्धि से मुनियों के आचरण में निराधार दोषान्वेषण करने की प्रवृत्ति भी सच्चे गुरू के प्रति अश्रद्धा की ही सूचक है ! जैसे सदोष मुनियों की आराधना का कारण नहीं है वैसे ही निर्दोष आचरण वाले मुनियों की आराधना नहीं करने से भी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हो सकता है। रहा सवाल श्रावकों के आचरण का सो श्रावक तो अव्रती भी हो सकते हैं। उनके लिए व्रताचरण का पालन भजनीय तो है किंतु अनिवार्य नहीं। यह हम सब की गहन पीड़ा है कि दिगम्बर मुनियों में शिथिलाचार इस सीमा तक बढ़ गया है कि वह शिथिलाचार की सीमाएँ लांघकर दुराचार की सीमा में प्रवेश कर गया है। दिगम्बर जैन धर्म की तीर्थंकर सदृश प्रभावना और स्थापना करने वाले महान आचार्य कुंदकुंद ने अपने ग्रंथों में ऐसे शिथिलाचारी मुनियों की तीब्र भर्त्सना की है। इस संबंध में परवर्ती आचार्यों की पीड़ा का दिग्दर्शन भी श्लोक से होता है। पंडितै भ्रष्ट चारित्रै पठरैश्च तपोधनैः। शासनं जिन चन्द्रस्य निर्मलं मलिनी कृतं॥ आज समाज में तीन प्रकार की विचारधाराएँ हैं। एक वर्ग के लोग मुनि विरोधी हैं, उनकी दृष्टि में आज के मुनियों में कोई भी सच्चे मुनि नहीं हैं। दूसरे वर्ग की दृष्टि में सभी मुनि सच्चे हैं। चाहे उनकी चर्या कैसी भी हो। तीसरे वर्ग के लोग सच्चे मुनि को सच्चा मानकर उनकी आराधना करते हैं। ऐसे लोग संख्या में कम हो सकते हैं। उपरोक्त तीन वर्गों में से मुनियों के आचरण के इस अकल्पनीय ह्रास के लिए प्रथम और तृतीय वर्ग के व्यक्ति तो निर्विवाद रूप से उत्तरदायी नहीं हो सकते हैं। -सितम्बर 2003 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि वे तो शिथिलाचारी मुनियों के संपर्क में ही नहीं आते हैं। विचार करने पर हम निर्णय पर पहुंचते हैं कि अपने को मुनि भक्त कहलाने वाले ये दूसरे वर्ग के लोग ही मुनियों के शिथिलाचार में हर प्रकार से सहयोगी बन रहे हैं। आगम के प्रतिकूल आचरण करते हुए अपने अंध भक्तों के सहयोग के बल पर ही वे मुनि शिथिलाचार के क्षेत्र में नए-नए कीर्तिमान स्थापित करते हुए निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। वस्तुतः मुनियों का यह बढ़ता हुआ शिथिलाचार आज दिगम्बर जैन समाज एवं दि. जैन धर्म की सर्वाधिक भयावह समस्या है जिसके समुचित त्वरित समाधान के लिए समाज द्वारा गहन चिंतन आवश्यक है। यदि समाज की अखिल भारतीय प्रतिनिधि संस्थाएँ संगठित होकर इस चिंतनीय समस्या के समाधान में ठोस कार्यक्रम बनाकर उनकी क्रियान्विति सुनिश्चित करें तो पूर्ण नहीं तो आंशिक सफलता अवश्य ही प्राप्त होगी। यह निश्चित है कि शिथिलाचारी मुनियों को शिथिलाचार के प्रति अनुत्साहित करने एवं संबोधन निवेदन द्वारा स्थितिकरण करने के स्थान पर यदि हम उन्हें महिमा मंडित करते रहेंगे तो उससे उनके शिथिलाचार को समर्थन व प्रोत्साहन मिलता रहेगा। सम्पूर्ण समाज में मुनियों को लक्षणों के प्रति बोध और मुनियों के द्वारा उसकी पालना की ऐसी सबल चेतना जाग्रत हो कि कोई मुनि आचरण में अवांच्छित शैथिल्य का सहसा साहस ही नहीं कर सके। सम्यग्दृष्टि के कर्तव्यों में जिस प्रकार सच्चे गुरुओं की श्रद्धा भक्ति का उल्लेख है उसी प्रकार आगम विरूद्ध आचरण होने पर उनके स्थितिकरण का भी विधान है। मुनियों के शिथिलाचार को सहते रहने से हम निर्मल जैन शासन की उनके द्वारा होने वाली अप्रभावना और अवर्णवाद के स्वयं दोषी ठहरेंगे। हम यह जानते हैं कि समस्या गंभीर है और कई बार चर्चाएँ होते रहने पर भी इस दिशा में कुछ सार्थक कार्य नहीं हो सका है। किंतु आज हमारे सामने यह शुभ संकेत है कि महासभा के मुख पत्र के सह संपादक जी ने दो अंकों में इस गंभीर समस्या पर आगम और तर्क के आधार पर गंभीर प्रकाश डाला है। यह माना जाना चाहिए कि जैन गजट के सम्पादकीय लेख को महासभा का नीतिगत समर्थन अवश्य प्राप्त है और इसके लिए हम महासभा को अनेक साधुवाद देते हैं। महासभा, महासमिति परिषद, दक्षिण भारत महासभा, विद्वत परिषद, शास्त्री परिषद आदि सभी दि. जैन समाज की अखिल भारतीय प्रतिनिधि संस्थाएँ एक मंच पर एकत्र हो मुनियों के शिथिलाचार को रोके जाने की दिशा में यदि ठोस कार्य करने का संकल्प ले सकें तो वह दिगम्बर जैन धर्म की प्रभावना का आज के युग का एक महत्वपूर्ण कार्य होगा। मूलचंद लुहाड़िया आचार्य-वचन * दर्शन-विशुद्धि भावना और दर्शन में मौलिक अन्तर है। दर्शन विशुद्धि में केवल तत्त्वचिन्तन ही होता है, विषयों का चिंतन नहीं चलता, किन्तु दर्शन में विषय - चिन्तन भी संभव है। * अविनय में शक्ति का विखराव और विनय में शक्ति का केन्द्रीकरण है। यह विनय तत्त्व-मंथन से ही उपलब्ध हो सकता है। विनयी आदमी वही है जो गाली देने वाले के प्रति भी विनय का व्यवहार करता है। * अतिचार दोष है जो लगाया नहीं जाता, प्रमाद वश लग जाता है। अनाचार-सम्पूर्ण व्रत नष्ट करने की क्रिया है। * शब्दिक ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं। इससे सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती है। महाकवि आ. विद्यासागर ग्रन्थावली, भाग चार 6 सितम्बर 2003 जिनभाषित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनांश क्षमा की आर्द्रता आचार्य श्री विद्यासागर जी क्षमा की आर्द्रता से क्रोध की तीली ठण्डी हो जाती है। । विस्फोटित नहीं होगा। इसके विस्फोट के लिए कोई निमित्त होना पयूर्षण पर्व में अमरकंटक पर्वत पर परम साधक चिन्तक दार्शनिक | चाहिए। संसार को विस्फोट के विनाश से सचेत करते हुए आचार्य आचार्य विद्यासागर जी ने कहा कि विध्वंशकारी, विनाशक, श्री ने बताया कि क्रोध भी एक विस्फोटक है। महान् वैज्ञानिक विस्फोटक क्रोध के वाणों को क्षमा की शीतलता से असरहीन कर | अल्बर्ट आइस्टीन ने अणु शक्ति का आविष्कार विज्ञान के विकास सकते हैं। क्षमा के शस्त्रों से सज्जित वीर जग जीत सकता है। के लिए किया था किन्तु विस्फोट के प्रयोग से आशंकित वैज्ञानिक आचार्य श्री ने बताया कि अग्नि को शांत करने के लिए यदि जल | ने पश्चाताप करते हुए कहा था कि मन और मस्तिष्क ठीक रहेगा नहीं डाल सकते तो कोई बात नहीं ईंधन को अग्नि से दूर करने से | तो विस्फोट नहीं होगा। इसी मन और मस्तिष्क को ठीक रखना भी अग्नि शमन की जा सकती है। है। विस्फोटक पदार्थ होते हुए भी प्रयोग में नहीं लाएँ तो विस्फोट ____ अभ्यास और अभ्यस्त के मध्य अन्तर को समझाते हुए | नहीं होगा। आचार्य श्री ने बताया कि क्रोध नहीं करने का अभ्यास किया जा फटाखे की दुकान को एक चिंगारी ध्वस्त कर देती है, न रहा है, प्रशिक्षण ले रहे हैं। अनन्तकाल से क्रोध समाप्त नहीं हुआ | दुकान बचेगी न दुकानदार । बारुद को अग्नि से पृथक रखना है। वह एक दिवस के प्रवचन से समाप्त नहीं हो सकता। क्रोध त्यागने | संसार ऐसे ही बारुद की दुकान है प्रत्येक के पास फटाखे की से अधिक महत्वपूर्ण है उस पर नियंत्रण करना। एक उदाहरण के दुकान है, स्वयं दुकानदार है। फटाखे में की बत्ती में यदि आग माध्यम से आचार्य श्री ने बताया कि शीतल स्थानों पर तापमान | लग भी जाए तो बारुद से बत्ती को अलग करने के प्रयास करते कम होते होते शून्य तक पहुँच जाता है, शून्य का अर्थ है जो था | हैं। बत्ती अलग होते ही विस्फोट से बच जाते हैं। मनुष्य का क्रोध अब वह नहीं है, वहाँ जो ताप था वह शून्य हो गया, यह कह | भी बारुद है। मानव बम से विस्फोट होने लगा है ऐसे विस्फोट से सकते हैं वहाँ ताप समाप्त हो गया है। वैज्ञानिकों ने शून्य से भी | अन्य को हानि बाद में होती है, स्वयं का विसर्जन पहले हो जाता कम तापमान की गणना की है वस्तुत: ताप तो समाप्त हो जाता है, | है। मानव बम का आविष्कार किसने किया? क्रोध भी वह बम है वह शीत का घनत्व कह सकते हैं। इतनी शीतलता में भी सैनिक | जिसका प्रभाव अन्य के पूर्व स्वयं के ऊपर पहले होता है। सीमा की सुरक्षा करते हैं क्योंकि उनके अन्दर तापमान सामान्य | विस्फोटखों से संसार की रक्षा के लिए समाप्त करने की चर्चा की है। बाहर का तापमान अलग है अंदर का तापमान अलग, यदि | जाती है, किन्तु पहल नहीं, कोई करे या न करे, क्रोध के प्रयोग दोनों तापमान एक हो जाए तो स्थिति सामान्य नहीं रहेगी। ऐसे ही | नहीं करने का संकल्प श्रमण लेते हैं। नष्ट न भी हो यदि प्रयोग बाहर क्रोध का कितना भी निमित्त हो बाहर के क्रोध का प्रयोग नहीं होगा तो हानि रहित हो जाएगा। क्रोध का प्रयोग करने वाला नहीं करने का संकल्प हो तो स्थिति सामान्य बनी रहेगी। यदि | स्वयं जलता है अन्य को भी जला देता है। क्रोध का प्रयोग नहीं भीतर क्रोध है बाहर न आए तो भी स्थिति नियंत्रण में रहती है। | करने पर शांति की वही अनुभूति होती है जैसी कि ग्रीष्म से किसी वस्तु को छोड़ने के लिए उसे दूर किया जाता है किन्तु क्रोध | व्याकुल व्यक्ति को शीतल स्थान पर प्राप्त प्राणवायु से मिलती है। नहीं छूटता। नहीं छूटता तो भी कोई बात नहीं यह बताते हुए | अधिक आर्द्रता होने पर माचिस की तीली बार-बार रगड़ने पर भी आचार्य श्री ने कहा कि उसका प्रयोग न करें। क्रोध फेंक नहीं नहीं जलती। क्षमा की आर्द्रता में क्रोध की तीली भी ठंडी हो जाती सकते, न सही, प्रयोग से पृथक रहें यही महत्वपूर्ण है। प्रत्येक | है। वस्तु के प्रभाव की एक समय सीमा है औषधि एक निश्चित | आचार्य श्री ने लोक व्यापी उदाहरणों के माध्यम से क्रोध अवधि के उपरांत निष्प्रभावी हो जाती है एक्सपायरी डेट । क्रोध | और क्रोधी के अन्तर को स्पष्ट करते हुए बताया कि क्रोध के का प्रयोग नहीं करने पर एक अवधि के पश्चात् वह स्वयमेव | विस्फोटक पदार्थों को क्षमा के आर्द्र वातावरण से ढक दिया जाए समाप्ति की ओर अग्रसर हो जायेगा, यह बताते हुए आचार्य श्री ने | तो कभी विस्फोट नहीं होगा। क्रोध के निमित्त का निषेध करने पर कहा कि क्रोध करने की प्रक्रिया क्यों आरंभ होती है क्रोध के पूर्व | क्रोधी भी शांति की शीतलता प्राप्त कर सकता है। स्वच्छ परिधान उसकी मान्यता बन जाती है। योद्धा के तरकस में अनेक तीर होते | पहनकर निज सन्तान द्वारा गोद में मूत्र इत्यादि करने पर क्या हैं किन्तु तीर स्वयं नहीं छूट सकते जब तक योद्धा प्रयोग में न | संतान को कोप का भाजन बनाते हैं ? क्रोध होते हुए भी नियंत्रित लाए। संसार में विस्फोट और बारुद का कोष है किन्तु वह स्वयं । हो जाता है ऐसे ही यदि पड़ोस के बच्चे का एक छींटा भी पड़ -सितम्बर 2003 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाए तो क्रोध से आग बबूला हो जाते हैं। क्यों होता है ऐसा ? | बादलों के संघर्ष करने पर मेघों की गर्जना से धरती कांप जाती है निज सन्तान होने पर क्रोध पर नियंत्रण कर लिया अन्य की सन्तान जल में जलन व्याप्त हो जाती है मृदु जल संघर्ष के कारण वज्र हो पर क्रोध से संतप्त हो गये? स्थिति विस्फोटक हो गयी तुम्हारे बच्चे जाते हैं वज्रपात से जन धन की हानि हो जाती है। संघर्ष और का छींटा क्यों आया? निज सन्तान ने अज्ञानता में किया था तो | घर्षण से जल की मृदुलता वज्र रुप धारण कर लेती है। इंद्र धनुष अन्य की सन्तान ने भी अज्ञान अवस्था में। हमारी मान्यता के | युत बादल बरसे, संघर्ष से गरजे, बिजली कड़की। जल वृष्टि हो कारण ऐसा होता है। अज्ञानी को अपराध का दंड नहीं दिया जाता। | तो शीतल वातावरण हो जाता है इन्हीं मेघों के वज्रपात से कई ऐसा विधान है। पागल और बच्चों को दण्ड देने का प्रावधान नहीं धराशायी हो जाते हैं धरा पर। जल जाते हैं, संघर्ष के कारण जल है क्योंकि उनके अपराध अज्ञानता के कारण घटित होने की | जलन की अनूभुति करा देता है । आत्मा का स्वाभाव क्षमा है । जल मान्यता है। निशस्त्र और अबला के लिए भी ऐसा ही विधान है। की शीतलता समाप्त हो जाती है संघर्ष होते ही, ऐसे ही क्षमा भूलते कुत्ते द्वारा काटने पर किसी मनुष्य ने कुत्ते को काटा हो ऐसी घटना | ही वज्रपात होने में देर नहीं लगती। क्रोध के बवंडर के चपेट में नहीं होती। कोई मनुष्य भोंकते हुए कुत्ते को काट ले ऐसा दृश्य | आने वाले की अवस्था भी तूफान में घिरे जहाज जैसी हो जाती देखने सुनने में नहीं आया। अज्ञान दशा के कार्य क्षमायोग्य होते है। आचार्य श्री ने उपस्थित जन समुदाय को सीख देते हुए कहा हैं। बलशाली पहलवान के सामने एक बालक द्वारा ताल ठोकने | कि हमारे पास वह क्षमता है वह शस्त्र है जिससे सबको जीत पर भी बलशाली बालक से द्वन्द्व नहीं करता, अशोभनीय है। सकते हैं । क्षमा में ही वह क्षमता है जो क्रोध के बवंडर को समाप्त बालक अज्ञानी है। अज्ञानी ताल ठोकता है और ज्ञानी लड़ने को | कर सकती है। अग्नि को बुझाने के लिए जल नहीं डाल सकते, तैयार हो जाए दुनिया हंसेगी। क्रोध नहीं आता। क्रोध अज्ञान की | किन्तु ईंधन को अग्नि से अलग कर सकते हैं, यह भी अग्नि शमन अवस्था है ज्ञानी का स्वभाव ऐसा नहीं है। अज्ञान अवस्था क्षम्य | की ही क्रिया है। प्रस्तुति-वेदचन्द्र जैन बादल जल के भंडार हैं जल वृष्टि मेघों से होती है।। गौरेला, पेण्ड्रारोड गाय के पेट से निकली 36 किलो पन्नियां पालीथिन की पन्नियाँ मूक पशुओं के लिए जानलेवा । टेरिकॉट कपड़े के टुकड़े, नायलोन रस्सी के टुकड़े आदि वस्तुएं साबित हो रही हैं, पालीथिन में रखी खाद्य सामग्री के साथ कूड़ा | बड़ी मात्रा में निकाली गईं। आपरेशन के पश्चात् यह समाचार कर्कद भी अक्सर पशु खा लेते हैं, जिससे अंततः जान चली जाती | लिखे जाने तक गाय पूर्णत: स्वस्थ है। आज के इस आपरेशन में है। दयोदय में एक गाय की जब शल्य चिकित्सा की गई तो उसके | डॉ. पंडित, डॉ. बी.पी. चनपूरिया, डॉ. सुनील विश्वनाथ दीक्षित, पेट से 36 किलो पन्नी प्लास्टिक की रस्सी, टेरीकाट के चिथड़े | डॉ. शोभा भण्डारी एवं डॉ. राजेश दुबे का विशेष सहयोग रहा। निकले, सड़कों पर पालिथिन में रखकर यदि कूड़ा कर्कट न फेंका डाक्टरों की टीम के साथ विटनरी कॉलेज के छात्रों की उपस्थिति जाये तो अनेक गायों की जान बचाई जा सकती है। उल्लेखनीय रही। दयोदय तीर्थ के वीरेन्द्र जैन, कमलेश कक्का, आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की प्रेरणा एवं जिनेंद्र जैन, चक्रेश मोदी आदि ने आज के इस गौ-माता के आशीर्वाद से संचालित दयोदय पशु संवर्धन एवं पर्यावरण केंद्र | आपरेशन पर डाक्टरों की टीम को संस्था की ओर से साधुवाद गौशाला में आज एक गाय का मेजर आपरेशन कर गाय के पेट | दिया एवं जबलपुर शहर के सभी गौ प्रेमियों से निवेदन किया है से लगभग 36 किलो पालीथिन निकाली गई। दयोदय तीर्थ के | कि यदि वह वास्तव में गौ-माता से प्रेम करते हैं और उसे माँ अरविंद जैन, संजय अरिहंत ने जानकारी देते हुये बताया कि | मानते हैं तो किसी भी प्रकार की खाद्य सामग्री को पालीथिन के यह गाय विगत डेढ़ माह पूर्व गौशाला को दान में प्राप्त हुई थी। | रैपर में रखकर रोडों पर न फेंकने की अपील की है क्योंकि मगर गाय निरंतर अस्वस्थ रहने के कारण गाय की अस्वस्थता | हमारे और आपके द्वारा पालोथिन के रैपर पर खाने पीने का को देखते हुये गौशाला में सेवारत डॉ. सुनील विश्वनाथ दीक्षित | सामान रखकर यदि हम रोडों पर फेंकते हैं तो उसे गाय खा लेती एवं राजेश दुबे ने गाय के परीक्षण के दौरान गाय के पेट में पन्नी | है और वह उसके पेट में जाकर फंस जाती है जिससे कि हमारी होना पाया। अतः आज प्रातः 10 बजे से लगभग 3.30 बजे तक | गौमाता असमय मौत को प्राप्त होती है। चले आपरेशन के पश्चात् गाय के पेट से 36 किलो पालीथिन, | संजय अरिहंत, जबलपुर 8 सितम्बर 2003 जिनभाषित Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेल-जोल, मिलन, बार-बार आना-जाना, सहवास, साहचर्य संपर्क, सामीप्य, संगम आदि का नाम संगति है। संगति के दो भेद हैं- सुसंगति और कुसंगति दुर्जन का सम्पर्क, सामीप्य, । मेल जोल, मिलन कुसंगति है। सज्जन समागम, संयोग, संस्पर्श का नाम सुसंगति है और सुसंगति से ही सत्संग होता है। अतः सुसंगति साधना है, तो सत्संग साध्य है। सत् का अर्थ वास्तविकता, असली, अच्छा, उच्च, उचित, शुचिता, सत्ता, सत्यता, भद्रता, सुंदर, मनोहर, आदरणीय, सम्माननीय, श्रेष्ठ स्वभाव, अस्तित्व आदि होता है। सत् से ही सतयुग, सद्गुण, सद्गति, सत्कर्म, सत्कार, सदाचार, सच्चरित्र, सत्कुल, सत्पात्र, सद्भाव, सद्विधा, सद्धर्म, सदानंद, सज्जन, सत्संग आदि शब्द बनते हैं । सत्संग संत समागम वास्तव में सत्संग है। अतः सत्यता से सहित सज्जनों, साधुजनों के सम्पर्क एवं संतों के समागम को ही सत्संग कहते हैं। सत्य से रहित विरहित सत्य से परे एवं स्वार्थ से सहित सत्संग नहीं हो सकता। सत्य की ओर समीचीन गति होने को ही सत्संगति कहते हैं। सत्य ही सत्संग की आधारशिला है। सज्जन सत्य की वजह से ही सत्संग करते हैं, दूसरों को देखने दिखाने के लिए नहीं सत्य के रसातल तक पहुँचने का एक मात्र साधन । सत्संग और संत समागम ही है। सत्संग से साक्षर निरक्षर भी सत्य के सतह तक सहज ही पहुँच जाते हैं और सत्संग की सार्थकता भी तभी संभव है। - सत् से ही सत्य शब्द बनता है। सत् एवं सत्य के अस्तित्व से सहित सज्जन साधुजनों को ही संत कहते हैं। सत्य को छोड़कर संत एवं संत को छोड़कर सत्य नहीं होता। कहा भी है 'न धर्मो धार्मिकै र्विनः ' अर्थात् धर्मात्मा को छोड़कर धर्म नहीं होता है। धर्मात्मा आधार है, धर्म आधेय है। इसी प्रकार संत आधार है, तो सत्य आधेय है। ये दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक पहलू के अभाव में वह सिक्का खोटा हो जाता है, तो सत्य के अभाव में वह संत भी असत्य सिद्ध होता है क्योंकि अग्नि में उष्णता, जल में शीतलता, जीव में चेतनता पाई जाती है, अन्यत्र नहीं। ये एक दूसरे को छोड़कर नहीं रह सकते हैं, रहते हैं तो नियम से ये अपने अस्तित्व को खोते हैं। सत्य ही सत्संग का प्रमुख अंग है। अंग के भंग में अंगी, अवयव के अभाव में अवयवी, गुण के बिना गुणी तथा सत्य के बिना संत नहीं होता है और संत समागम के बिना सत्य समझ में नहीं आता । मुनि श्री चिन्मय सागर जी संसार में खाना-पीना, सोना, धन कमाना, जानना, सुनना, समझना सब कुछ सुलभ है, पर सत्य को समझना बहुत ही दुर्लभ होता है। एक बार सत्य समझ में आता है, तो अनंत संसार का अंत दिखने लगता है। विरले लोग ही सत्य एवं तथ्य को समझने एवं सत्य तक पहुँचने की भावना रखते हैं, और सत्य के साक्षात्कार की भावना से ओत-प्रोत व्यक्ति ही संत का सत्कार करना सहर्ष स्वीकार कर लघुता के साथ सत्संग साधन तक सहज ही पहुँच जाता है, क्योंकि इस बात को वह अच्छी तरह से जानता है एवं सत्य साध्य है। सत्य समझने की ललक, अभिलाषा, उत्कंठा उन्हें अंधश्रद्धा से मुक्ति दिलाकर परीक्षा प्रधान बना देती है और वह सत्य का शोधन करता हुआ जात-पात की संकीर्ण दीवारों को धराशायी करता हुआ सत्य एवं सच्चे संत के पास जा पहुँचता है। असलियत को समझकर असत्य साधुजनों से भी कभी नहीं छला जाता है। संत समागम की दुर्लभता को सत्य, सुख शांति की खोज करने वाला ही समझ सकता है, सामान्य संसारी प्राणी नहीं और वह शोधकर्त्ता सत्संग के माध्यम से सत्य समझकर व्यसन, विषय, कषाय, परिग्रह, पाप-प्रवृत्ति, आकुलता, व्याकुलता तथा संकल्पविकल्पों से विराम लेता हुआ निर्विकल्प, निराकुलता की ओर अग्रसर होता है। गृहस्थ विषय कषायों के कारण कठोर होता है, साधु दया, करुणा के कारण संवेदनशील एवं कोमल होते हैं भले ही साधना बज्र के समान कठोर ही क्यों न हो। दोनों का समागम बहुत ही संवेदनशील समागम होता है। भ्रमर रुपी शिष्य संतरुपी सुमन का समागम कर सारभूत पराग रूपी सत्य का सेवन करते हुए भी शिष्य को संत के सूक्ष्म संवेदनशील आचार-विचार, व्यवहार एवं भ्रामरीवृत्ति में अवरोध पैदा नहीं करना चाहिए तभी उनका संत समागम सार्थक होगा, बाधा पहुंचाकर नहीं, क्योंकि संत एक वैज्ञानिक ही नहीं महावैज्ञानिक होते हैं। संत चलते-फिरते एक महान् प्रयोगशाला होते हैं प्रतिदिन प्रतिक्षण इस प्रयोगशाला में साधना एवं सत्य का शोध चलता ही रहता है जब तक व्यक्ति साक्षात संत समागम की साक्षात् प्रयोगशाला में पहुँचकर शोध नहीं करता, तब तक उसे सत्य का बोध नहीं हो सकता है। संसारी प्राणी की दुनियाँ लौकिक होती है, पर संत की दुनियाँ अलौकिक, पारलौकिक होती है। उस दुनिया को उन्ही के रंग में रंगकर ही देखा जा सकता है। संसारी प्राणी अपनी धुन में ही चलता है तो संत अपनी धुन में, क्योंकि संत के पास समय कम और काम ज्यादा होता है। शारीरिक एवं सांसारिक नहीं, समय -सितम्बर 2003 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सदुपयोग करते हुए प्रतिक्षण पर कल्याण के साथ ही प्रयत्न करके तीनों योगों के साथ आंतरिक आध्यात्मिक दुस्तर साधना को साधना होता है, उन्हें बाहर से भीतर की ओर, लौकिक से अलौकिक, पारलौकिक की ओर यात्रा करना होता है । अतः वे समय और स्वात्मा को समझते हुये साधना के माध्यम से साध्य तक अपनी ही धुन में, अपनी दुनियाँ में, प्रकृति, परिवेश, देश एवं देह को भी भूलकर अविरल रूप से चलते रहते हैं । संत की इस धुन एवं दुनियाँ को ध्यान में रखकर यदि श्रावक साधक की सेवा कर साधना में सहयोग प्रदान करता है तो वह निश्चित ही संतकृपा का पात्र बन जाता है एवं स्वयं का कल्याण कर लेता है। किन्तु इसके विपरीत वह श्रावक अपनी दुनियाँ में अपनी ही धुन में चलकर यदि संत को चलाना चाहता है तो नियम से वह पाप एवं कोप का भागीदार बनता है और संत का समागम करके भी सत्य के साक्षात् स्वरूप, संत के सुंदर, सुमधुर, मनोहर, आल्हादक, आलौकिक आनंददायक उपवन से सुंदर क्रूर घनघोर वन में भटक जाता है। किन्तु संत समागम के उन अनमोल क्षणों में जो अपनी दुनियाँ एवं धुन को भूलकर उनकी (संत) दुनियाँ एवं धुन में रंगकर संत का दर्शन करता है वह सहज ही सत्यरूपी सुंदर, सुहावने सुमन का दर्शन कर संत समागम को सार्थक कर जाता है । जंगल में मंगल होने लगता है जिनके सानिध्य मात्र से भावों में बसंत की बहार आ जाती है, विशुद्धि की सुगंधी लेने लगती है, भीतर बाहर चारों ओर दुनियाँ में खुशियाँ छा जाती है, किन्तु जिनके रूकने, थकने से सारी दुनियाँ रूक जाती है जिनके गौण एवं मौन होने मात्र से मायूसी छा जाती है तो समझ लेना वही सच्चा संत साधक है, उनका समागम ही संत समागम है, सत्संग है। जिनके आने से अशांति, जाने से सुख-शांति मिलती है तथा जिनके दर्शन से संसारी प्राणी सत्य से सुदूर पहुँच जाता है एवं सत्य गाफिल हो जाता है, वह न ही संत साधक है और न ही वह सत्संग, संत समागम ही है। सत्संग से संशय दूर होता है। दृढ़ता एवं साधुता बढ़ती है। सदृष्टि, सद्विद्या, सद्बुद्धि जागृत हो जाती है समाधान, संतोष, संवेग, संवाद, सद्विवेक, सदाचार, सद्विचार, सच्चारित्र में वृद्धि होती है, सत्य समझ में आता है सुख-शांति, स्वभाव एवं स्वयं तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त होता है । 10 सितम्बर 2003 जिनभाषित सत्संग से मन प्रसन्न एवं स्थिर होता है, चित्त की चंचलता दूर होती है, मन वचन काय निर्मल एवं पवित्र होते हैं, जीवन सफल होता है, आकुलता समाप्त होकर सुख-शांति मिलने लगती है, उत्साह एवं साहस बढ़ता है, आचार विचारों का आदान प्रदान होता है, स्वदर्शन, गुरुचरण स्पर्शन होता है, सत्कर्म की प्रेरणा मिलती है, दोष एवं गुणों का ज्ञान होता है, संकीर्णता समाप्त होती है, विषय कषाय एवं पाप से निवृत्ति तथा पुण्य में प्रवृत्ति होने लगती है। सत्संग करके ही संसारी प्राणी सुसम्पादित, सुसज्जित, सुसंस्कृत, सुसंस्कारित, सुप्रशंसित होता है। स्वभाव के साथ घनिष्ट संबंध को प्राप्त कर निस्संग होता हुआ संसिद्धि कैवल्य, मोक्ष सिद्धि, सद्गति को प्राप्त करता है। इसके विपरित कुसंगति से खेद, विषाद, विवाद, विषयों में उलझता हुआ पाप कर कुगति प्राप्तकर महादुख पाता है। अतः विद्वान मनीषी, चिंतक एवं साधकों ने कुसंगति को हेय, सत्संग को श्रेष्ठ श्रेय, आदेय, उपादेय माना है और वास्तव में मानव ही सत्संग का सही स्वाद ले सकता है, पशु एवं दानव नहीं। अपनी अस्मिता, अस्तित्व, सत्य एवं सार को समझने तथा वहाँ तक पहुँचने के लिये सज्जनों को बुद्धिपूर्वक पुरूषार्थ कर यत्न के साथ सत्संग को साधते हुये, सत्संग के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार कर नित्य सत्यरूप, सत्य निष्ठ बन इस अनमोल जीवन को सफल बनाना चाहिये। सदस्यों से विनम्र निवेदन अपना वर्तमान पता 'पिन कोड' सहित स्वच्छ लिपि में निम्नलिखित पते पर भेजने का कष्ट करें, ताकि आपको "जिनभाषित' पत्रिका नियमित रूप से ठीक समय पर पहुँच सके । प्रस्तुति श्रीमती सुमनलता जैन द्वारा प्रकाश मोदी, भाटापारा (छ.ग.) सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी हरीपर्वत, आगरा (उ.प्र.) पिन कोड 282002 - Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण परम्परा के आदर्श जैनाचार्य विद्यासागर डॉ. श्रीमती रमा जैन, पूर्व प्राध्यापक जैन जगत में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं समादृत अद्भुत | झरै' अर्थात् उनके प्रत्येक कालजयी शब्द में आगमोक्त प्रवचन क्षयोपशमधारी जैनागम के मूर्धन्य विद्वान आचार्य विद्यासागर | तथा आत्मोत्थान का मार्ग दर्शन मिलता है। वे शब्द मानसिक आर्यावर्त की गरिमामयी श्रमण परंपरा के दैदीप्यमान सूर्य हैं, | तनाव और शारीरिक थकान को दूर कर, हमारे अन्दर आत्मबल, त्रिभुवन भास्कर हैं। तलस्पर्शी आत्मविद्या के साधक हैं। उनकी पौरुष, साहस, उत्साह के बीज आरोपित कर देते हैं। प्रवचन ध्यानस्थ मुद्रा वीतरागप्रभु की प्रतिमा सी शान्त, गंभीर और मनोरम | सुनने वाले प्रत्येक श्रावक को ऐसा लगता है कि आचार्य श्री ये लगती है। उनके दर्शन से ऐसी अनुभूति होती है मानो जन्म-जन्म | शब्द हमें जगाने के लिये कह रहे हैं:के किये गये पाप क्षण भर में क्षय हो रहे हैं। उत्थातव्यं, जागृतव्यं योक्तव्यं भूतिकर्मसु। दर्शनेन जिनेद्राणां साधुनाम् वन्दनेन च। भविष्यतीत्मेव मनः कृत्वा सततमन्मथै॥ (महाभारत) न चिरं तिष्ठते पापं क्षिद्रहस्ते यथोदकं॥ महर्षि व्यास कहते हैं- हे युवको ! उठो आलस्य को महाभारत में महात्मा व्यास ने भी लिखा है कि महापुरुषों | त्यागो, कल्याण कार्य में अपने को लगाओ। इस प्रकार तुम मन के दर्शन मात्र से हृदय में सत्प्रेरणायें जागृत होती हैं - को चिन्तायुक्त कर के कार्य करोगे, तो अवश्य सफल होगे। महतां दर्शनं ब्रह्मन् जायते नहि निष्फलम्। आचार्य श्री प्रज्ञावान, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, दृढनिश्चयी, द्वेषादज्ञानतो वापि प्रसंगा प्रमादतः। भविष्य द्रष्टा, तेजस्वी संत हैं। वे श्रमण संघ के दर्पण हैं। उनकी असयः स्पर्श संस्पर्शी रुक्मत्वायैव जायते। लोकोत्तर साधना और आध्यात्मिक क्रांति ने आचार्य श्री को संसार अर्थात् महापुरुषों का दर्शन कभी निष्फल नहीं जाता।। का शिरोमणि, अद्वितीय, ऋषिराज बना दिया है। उन्होंने एक बार द्वेष, अज्ञान, प्रमाद या प्रसंगवश भी एकाएक लोहा यदि पारसमणि अपने प्रवचन में ज्ञानोपयोग के विषय में कहा थासे छू जाये तो वह सोना बन जाता है। इसी प्रकार आचार्य श्री के | ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। उसे सुखाया सान्निध्य से अज्ञानी मुनष्य भी ज्ञानी बन जाता है। हमें तो ऐसा | नहीं जा सकता, उसे स्वपर कल्याण की दिशा में प्रवाहित किया अनुभव होता है कि आचार्य श्री के दर्शन मात्र से हमारे नेत्र सफल | जा सकता है, यही ज्ञानोपयोग है। हो जाते हैं । अद्या भवत्सफलता नयन द्वयस्य। देवत्वदीय चरणाम्बुज सृजन मनुष्य को महान् बना देता है। निर्माण का स्रोत वीक्षणेन। जितना अधिक धार्मिक, अध्यात्मिक, पवित्र, सशक्त, उज्जवल ग्रीष्म ऋतु में किसी चट्टान पर बैठ ध्यान में तल्लीन और दायित्वबोध से सम्पन्न होगा, समाज तथा युवा पीढ़ी के आत्मानुभवी आचार्य श्री को देखकर श्रावक चौंक जाता है। उसके पाठकों का भविष्य भी उतना ही यशस्वी, उज्जवल एवं कर्मठ हृदय में अपने चिन्तामणि रत्न की तरह मिले अमूल्य मानव जीवन | होगा। पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की तपः पूत लेखनी से की घड़ियां व्यर्थ विषय भोगों में नष्ट करने की पीढ़ा उत्पन्न हो | लिखी हर एक रचना को पाठक सर-आँखों पर स्वीकार करता है, जाती है। वह पश्चाताप की अग्नि में झुलस जाता है। अपने आपको | क्योंकि उसमें अनुभवगम्य आत्मस्वरूप का आनन्द कंद रहता है। परीषहजयी तपस्वी बनाने के लिए पुरुषार्थ और आत्मिक बल को | आचार्य श्री की रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना के स्वर भी सुनाई देते जागृत करता हुआ कहता है हैं। नारी को आचार्य श्री सामाजिक विकास की धुरी मानते हैं। कब गृहवास सौं उदास होय वन सेऊँ, उन्होंने नारी के पर्यायवाची शब्दों की व्याख्या अत्यन्त आकर्षक, वेऊँ निजरूप गति रोकूँ मन-करी की। महत्वपूर्ण सार्थक और बेजोड़ की है। रहि हौं अडोल एक आसन अचल अंग, . आचार्य श्री उच्च कोटि के साधक और संत होते हुये भी सहि हौं परीसा शीत-घाम मेघझरी की। सर्वोत्तम साहित्यकार हैं। उन्होंने गद्य ही नहीं, अपितु पद्य की अहो! वह घड़ी कब आयेगी, जब मैं गृहस्थदशा से विरक्त | अनेक विधाओं को सरलता प्रदान की है, तथा भव्य जीवों के होकर वन में जाऊँगा, अपने मन रूपी हाथी को वश में करके | आत्मकल्याण हेतु अनेक ग्रन्थों का सृजन किया है। उनके द्वारा निज आत्मस्वरूप का अनुभव करूँगा, एक आसन पर निश्चल | लिखित मूकमाटी (महाकाव्य) आज देश भर में विद्वत्समाज और रहकर सर्दी, गर्मी, वर्षा के परीषहों को सहन करूँगा। साहित्यकारों के बीच बहुचर्चित श्लाघनीय महाकाव्य है। इसके __शास्त्र सभा में तथा वाचना में आचार्य श्री के मुखारबिन्दु अतिरिक्त आचार्य श्री ने 'डूबो मत लगाओ डुबकी, तोता क्यों से निकले एक एक शब्द ऐसे लगते हैं, जैसे 'मुखचन्द्र से अमृत | रोता, चेतना के गहराव में इत्यादि ग्रंथ लिखे हैं। संस्कृताचार्य -सितम्बर 2003 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुद्रट एवं मम्मट ने काव्योत्पादक हेतुओं में सबसे अधिक महत्व | महोत्सव के पश्चात् दूसरी बार हम लोग गुरुदत्त उदासीन आश्रम प्रतिभा को दिया है। उनके अनुसार आचार्य विद्यासागर को 'सहजा | के 3-4 पदाधिकारियों के साथ बण्डा गये और आश्रम की अधिष्ठाता प्रतिभा' अर्थात् जन्मजात प्रतिभा प्राप्त थी, संस्कृत के अनेक शतकों, | विदुषी 87 वर्षीया ब्र. रामबाई के कमर में फेक्चर एवं अस्वस्थ शारदा स्तुति एवं अनेक शास्त्रों का सरल सुबोध भाषा में पद्यानुवाद | होने तथा सल्लेखना लेने का समाचार बताया, तब उन्होंने मधुर कर पूर्ववर्ती आचार्यों की परम्परा का हिन्दी में विकास किया है। मुस्कान के साथ कहा- 'बाई जी से आशीर्वाद कहना' हम लोग यह सम्पूर्ण साहित्य भारतीय वाङमय के लिये वरदान सिद्ध हुआ आचार्य श्री की शान्त, निर्विकार, गम्भीर तेजस्वी मुद्रा देखकर है, इस साहित्य ने मानव मात्र को दूसरे दिन वापिस लौट गये। कुछ दिनों बाद हम यह देखकर हर संकट, हर असत्शक्ति से, लड़ने का अभ्यास दिया है। | आश्चर्य चकित रह गये। कुछ दिनों के बाद आचार्य श्री की दो जायुग का आ जो युग का अन्धियारा हर ले, ऐसा दिव्य प्रकाश दिया है।। धर्मपरायण विदुषी शिष्याएँ बाई जी की समाधि तक उनकी पंचकल्याणक के समय एक बार बोली लग रही थी और वैय्यावृत्ति करने एवं धर्मदेशना से उनका समधिमरण सुधारने आ *1301' (तेरह सौ एक) पर कुछ क्षण के लिए बोली रुक गई। गईं। उन दोनों दीदियों के तपोनिष्ठ आचरण एवं सादगीपूर्ण जीवनचर्या बस क्या था आचार्य श्री उक्त संख्या को सुनकर चिंतन में डूब गये | से सभी आश्रमवासी प्रभावित हुये । उन्हें प्राप्त 44 बजे से रात्रि और सोचने लगे तेरा ही मेरा बस एक आत्मा की अपना है, शेष | 84 बजे तक प्रार्थना, पूजापाठ, स्वाध्याय, अध्ययन, आरती आदि सब पराया है, मिथ्या है। उन्हें याद आ गयी आचार्य कुन्द कुन्द | में तीव्र रुचि जाग्रत हो गई। पूज्य श्री गणेशप्रसाद वर्णीजी की स्वामी की गाथा प्रेरणा से संस्थापित उदासीन आश्रम सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि की व्यवस्था एगो मे सासदो आदा, णाण-दंसण-लक्खणो। उत्तम हो गई। वृद्धाश्रम की अधिष्ठाता ब्र. रामबाई जी प्रसन्नता के सेसा मे बाहिरा भावा, सच्चे संजोग लक्खणा॥ वातावरण में कुछ ही दिनों के आयुर्वेदिक लेप तथा आचार्य श्रीके ज्ञान, दर्शन लक्षण वाला एक आत्मा ही तेरा है। वही | आशीर्वाद से स्वस्थ हो गईं। पर्वतराज की वन्दना वे सबके साथ शाश्वत अविनाशी है और पर पदार्थ के संयोग से उत्पन्न होने | धीरे-धीरे पर्वत पर चढ़कर कर आईं। वाले काम क्रोधदि जितने भी विकारी भाव हैं, वह सब मुझसे आचार्य श्री जब यात्रा करते हैं तब उनकी नीची निगाहें भिन्न हैं। इसी बात को समयसार में भी आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी | इन पंक्तियों को साकार कर देती हैं:। कहते हैं "षटकाय जीव न हनन सब विधि दरव हिंसा टरी" अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसण-णाण-मइयो सदारूवी। ऐसा लगता है कि मुनिराज छहकाय जीवों की हिंसा न हो अत: ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि, अण्णं परमाणु मित्तं पि॥ | पूर्णरूप से अहिंसा महाव्रत का पालन करते हुए गमन कर रहे हैं। ___अर्थात ज्ञान दर्शन से तन्मय रहने वाला मैं एक शुद्ध और | और श्रावकों को यह शिक्षा देते हैं- जयं चरे, जयं चिढ़े, जय रूपादि से रहित हूँ। इस ज्ञान दर्शन स्वभावी एक आत्मा को आसे, जयं सये। छोड़कर अन्य कुछ भी मेरा परमाणु मात्र भी नहीं है। जब आचार्य श्री के अनेक बार दर्शन होते हैं तो ऐसा उप अधिष्ठाता, दिगम्बर जैन गुरुदत्त उदासीन आश्रम, द्रोणगिरि आभास होता है कि गुरुदेव तो, मनोविज्ञान, भविष्य विज्ञान एवं आकृति विज्ञान के पारखी हैं। फरवरी 2002 बंडा के गजरथ जणा। बेहद फायदेमंद साबित हुआ गाय का गोबर झारखंड की राजधानी रांची के पास अंगारा में स्कूल की छत पर बिजली गिरने से कई बच्चे बेहोश हो गए। और जल्दी ही उन्होंने इसकी सूचना गांव के लोगों को दी। खबर मिलते ही गांव के लोग वहां पहुंचे ओर बेहोश विद्यार्थियों के शरीर पर गाय के गोबर का लेप लगा दिया। थोड़ी देर बाद १५ में से १३ बच्चे होश में आ गए। स्कूल के हेडमास्टर सादरनाथ महतो का कहना है कि बिजली गिरने के बाद क्लास रूम के सभी बच्चे बेहोश हो गए। गांव का प्राथमिक चिकित्सा केंद्र वहां से चार किलोमीटर दूर था। इसलिए उन्होंने घबराकर गांव वालों को खबर भेजी। लोगों ने बच्चों को कमरे से बाहर निकाला और उनके शरीर पर गोबर का लेप लगा दिया। कुछ ही देर में तेरह बच्चे होश में आ गए और दो बेहोश बच्चों को निजी क्लिनिक में भरती करा दिया गया। गांव के लोगों का कहना है बिजली गिरने से बेहोश हुए बच्चों के उपचार की दवा डॉक्टरों के पास नहीं थी। सो, हम लोगों ने देसी इलाज की बात सोची और उनकी देह पर गोबर का लेप लगा दिया। लोगों का यह भी कहना है कि बिजली गिरने से मूर्च्छित व्यक्तियों पर इसका लेप बेहद कारगर साबित होता है और लोग जल्दी ही होश में आ जाते हैं। 12 सितम्बर 2003 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम तप धर्म कर्मों को क्षय करने की शक्ति उत्तम तप में है डॉ. नरेन्द्र जैन 'भारती' धर्म के दश लक्षणों में उत्तम तप को भी शामिल किया । अर्थात् जो इस लोक और परलोक की अपेक्षा न रखता गया है। उत्तम तप धारण करने से व्यक्ति को कर्मों के क्षय (नष्ट) | हुआ शुत्र, कांच, कंचन, महल, सुख-दुःख, निन्दा,स्तुति आदि में करने की शक्ति मिल जाती है। ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, समता भाव रखते हैं तथा अनशनादि बारह प्रकार का तप करते हैं मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय रूप अष्ट कर्मों के बंधनों उनको उत्तम तप कहा है। संसार में तप तीन रूप में दिखता है के कारण संसारी जीव निरन्तर दुःखी है। अत: इन कर्मों से छुटकारा | 1.सात्विक तप 2. राजस तप 3. तामसिक तप। पाना चाहता है इसके लिए उत्तम तप कार्यकारी है। तप के द्वारा | सात्विक तप- इस तप के अंतर्गत आने वाले तपस्वी देह कर्मों का संवर और निर्जरा होती है। इसीलिए तप का अत्यंत | विषयक सुख का त्याग कर सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए आत्म महत्व है। साधना करते हैं। जीव निरन्तर कर्म बंध कर रहा है। कोई भी क्षण ऐसा नहीं | राजस तप - अहंकार की पूर्ति तथा राज्य वैभव को है जब जीव कर्म बंध न कर रहा हो। कर्म बंध शुभ भी हो सकता | बढ़ाने एवं दूसरे पर आधिपत्य जमाने की भावना की पूर्ति हेतु यह है और अशुभ भी। जैसा कर्म जीव करेगा वैसा फल उसे ही | तप किया जाता है। भोगना पड़ेगा, कहा गया है- . . तामसिक तप- दूसरों के विनाश तथा बदला लेने की स्वयंकृतं कर्म यदात्मनापुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभं।। भावना के साथ मात्सर्य भावों को लेकर व्यक्ति यह तप करता है परेण दत्तं यदि लभ्यतेस्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा॥ | भगवान महावीर ने सात्विक तप को उपादेय तथा राजस और स्वयं के द्वारा किये गये कर्म ही शुभ और अशुभ फल देते | तामसिक तप को मिथ्या एवं हेय कहा है। हैं यदि दूसरे के कर्म से हमें लाभ मिलता तो स्वयं हमारे कर्म जैनाचार्यों ने अन्तरंग और बहिरंग की अपेक्षा से तप के दो निरर्थक हो जाते। जब जीव को अपने कर्मों का फल स्वयं भोगना | भेद किये हैं। जिनका सम्बन्ध सीधा आत्मा से है, वे अन्तरंग तप है तो उसे तप द्वारा कर्मों की निर्जरा निरन्तर करनी चाहिए। अशुभ | हैं और इन्द्रियों को परतंत्र करने तथा संयम के पालन हेतु बाह्य तप कर्मों को काटे बिना आप सांसारिक बंधनों से नहीं छूट सकते। | किये जाते हैं। अन्तरंग तप के छ: भेद हैंतीर्थकर बनने वाले जीव को तथा स्वयं तीर्थंकरों को कर्मों को नष्ट 1.प्रायश्चित- पूर्व में प्रमाद वश किये गये दोषों का मन करने के लिए तपस्या करनी पड़ी थी। भगवान् महावीर स्वामी को ही मन में प्रायश्चित करना। आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, बारह वर्ष तक तपस्या कर कर्मों का क्षय करना पड़ा था। धर्म में व्युत्सर्ग और तपश्छेद ये प्रायश्चित के भेद हैं। भी अहिंसा, संयम के उपरांत तप की महिमा गाई गई है। जिस 2. विनय - पूज्य पुरुषों का आदर सत्कार करना। ज्ञान प्रकार आग, सोने आदि धातुओं के ऊपर जमी बाह्य पर्तों को विनय, दर्शनविनय, चारित्र विनय और उपचार विनय इस तरह जलाकर नष्ट कर सोने तथा अन्य वस्तुओं को कुंदन बना देता है। इसी तरह तप के द्वारा भी कर्म निर्जरा कर व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता विनय चार प्रकार की होती है। है। कर्मों के क्षय के लिए ही तप किया जाता है कहा भी गया है 3. वैयावृत्ति- शील तथा चारित्र गुणों से विभूषित साधुजनों 'कर्म क्षयार्थं तप्यते इति तपः' अर्थात् कर्मों के क्षय के लिए तप की सेवा करना वैयावृत्ति तप है। किया जाता है 'तपसा धुग्गई कम्म' तप से कर्म रूपी धूलि का 4. स्वाध्याय - शास्त्रों का मनन, चिन्तन और अनुकरण नाश होता है। आचार्यों ने धवला में 'इच्छा निरोधस्तपः' कहकर करना। बताया है कि इच्छाओं का निरोध करना तप है तथा मोक्ष शास्त्र में 5. व्युत्सर्ग - क्रोधादि अन्तरंग एवं बहिरंग धनधान्यादि 'तप सा निर्जरा च' कहकर समझाया है कि तपस्या से कर्मों की का त्याग करना, शरीर के प्रति ममत्वभाव का त्याग करना। इसी निजरा होती है। प्रवचनसार की तात्पर्यवत्ति टीका में लिखा गया है। का दूसरा नाम कायोत्सर्ग भी है। 'समस्त रागादि परभावेच्छात्यागेन स्व स्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः।' 6. ध्यान- चित्त की चंचलता का तीनों योगों को संभालकर अर्थात् समस्त रागादि पर भावों की इच्छा के द्वारा स्वरूप में प्रतपन | निरोध करना ध्यान कहलाता है। ध्यान के चार भेदों में आर्तध्यान करना तप है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है और रौद्रध्यान का निषेध किया गया है, जबकि धर्म ध्यान और इहपरलोक सुहाणं णिवखेओ जो करेदि समभावो। । शुक्ल ध्यान आत्म कल्याण में सहायक हैं, इसीलिए उपादेय तथा विविहं काय किलेशं तव धम्मो णिम्मलो तस्स॥ | ग्रहण करने के योग्य हैं। -सितम्बर 2003 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य तप जो तप पूर्व समय में अर्जित कर्म रूपी पर्वत के लिए अन्तरंग तप के उपरांत 6 प्रकार के बाह्य तपों का भी। कुलिश है, जो कामाग्नि की ज्वालाओं के लिए जल स्परूप है, जो पालन करना चाहिए। उग्र (तीव्र) इन्द्रिय रूपी सर्प के लिए मन्त्राक्षर है जो विघ्न रूपी 1. अनशन- इसे उपवास कहा जाता है। अपनी शक्ति के अंधकार के समूह के लिए दिवस सदृश्य है और जो कैवल्य रूपी अनुसार अन्न आदि चार प्रकार के पदार्थों का त्याग करना अनशन लता के समान है, ऐसा तप दो प्रकार का है अन्तरंग और बहिरंग। जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। सूक्ति मुक्तावली में कहा 2. ऊनोदर - भूख से कम भोजन ग्रहण करना। सुरुचिपूर्ण गया है। वस्तु का त्याग करना, एकासन करना आदि ऊनोदर कहलाता है। यस्माद्विघ्न परम्पराविघटते दास्यं सुरा कुर्वते। इसी को अवमोदर्य भी कहते हैं। काम्यासाम्यति दाम्यति इन्द्रिय गणा कल्याणमुपसर्पति 3. वृत्ति परिसंख्यान - प्रतिज्ञा लेकर प्रतिज्ञा की पूर्णता पर उन्मीलन्ति महंर्धयः कलयति ध्वंसं च यत्कर्मणा, ही आहार ग्रहण करना। साधुगण इस नियम का पालन करते हैं। स्वाधीनं त्रिविधं शिवं च भवति श्लाघ्यंतपस्तन्न किम्॥ 4. रस परित्याग- विभिन्न रसों के त्याग को रस परित्याग जिससे विनों का नाश होता है, देवता दासता स्वीकार कहते हैं । शास्त्रों के अनुसार रविवार को नमक, सोमवार को हरी करते हैं, कामवासना शांत होती है, इन्द्रियों का दमन हो जाता है सब्जी, मंगलवार को मीठा, बुधवार को घी, गुरुवार को दूध तथा कल्याण की वृद्धि होती है महान् ऋद्धियों की प्राप्ति होती है, कर्मों . मलाई, शुक्रवार को दही तथा शनिवार को मूंगफली, खोपरा आदि का नाश किया जाता है। स्वर्ग और मोक्ष स्वाधीन हो जाते हैं, वह का त्याग करना चाहिए। तप श्लाघनीय क्यों न हो अर्थात- प्रशंसनीय होता है। 5. विविक्त शैय्यासन - कल्याणार्थ किसी एकान्त वन उपरोक्त तप केवल मनुष्य ही कर सकता है देव, तिर्यंच या गुफा में एक करवट से सोना तथा आत्मा का चिंतन मनन और नारकियों में संयम साधना न होने से वे तप धारण नहीं कर करना। सकते। अत: मानव जन्म पाकर भी हमने तप को अंगीकार नहीं 6. कायक्लेश - शरीर के प्रति ममत्व भाव का त्याग किया तो हम संसार में रहकर कौन सा श्रेष्ठ कार्य कर रहे हैं। अतः करना तथा शरीर के माध्यम से तपस्या करना। धर्म धारण कर अपनी आत्मा को निर्मल बनायें। कर्मों का क्षय इस प्रकार तप बारह प्रकार के कहे गये हैं। इन तपों के | करें । मोक्ष प्राप्त करने का उपक्रम करें। यही तप धर्म की सार्थकता पालन से कर्मों का नाश होता है कहा गया हैयत्पूर्वार्जित कर्म शैल कुलिशं, यत्कामदावानलः। ए-27, न्यू नर्मदा विहार ज्वालाजाल जलं यदुन करणं ग्रामाहि मन्त्राक्षरन्॥ सनावद (म.प्र.) यत्प्रत्युह तमः समूह निखिलं यल्लब्धि लक्ष्मीलता। मूलं तद्विविध यथाविधितपः कुर्वीत वीतस्पृहः ।। बोध-कथा आचरण का प्रभाव एक सेठ थे। उन्होंने अपने कारोबार के लिए कुछ रुपये। से पूछा, सबने इन्कार कर दिया। तब रुपये गये तो कहां गये ! किसी से उधार लिये। वह समय पर उन रुपयों को नहीं लौटा | उन्होंने लड़के से पूछा तो उसने भी मना कर दिया। पाये । कर्ज देने वाले ने बार-बार मांग की तो वह मुंह छिपाने | लेकिन जब सेठ ने बहुत धमकाया, तो लड़के ने मान लिया कि लगे। उन्होंने अपने लड़के को सिखा दिया कि जब वह आदमी | रुपये उसने ही निकाले थे। आये तो कह देना कि पिताजी घर पर नहीं हैं। सेठ को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने लाल-पीले होकर वह आदमी जब-जब अपने रुपये मांगने आया, लड़के लड़के के गाल पर जोर से चांटा मारा और कहा, 'कायर, तू ने कह दिया, 'पिताजी घर पर नहीं हैं।' झूठ बोलता है।' कई दिन निकल गये। __लड़के ने तपाक से कहा, 'पिजाती, झूठ बोलना आपने एक दिन सेठ ने देखा कि उनकी जेब से दस रुपये ही तो सिखाया है।' गायब हैं। वह बड़ी हैरानी में पड़े। उन्होंने बार-बार रुपये गिने, । सेठ ने अपनी भूल समझी और लज्जा से सिर झुका लिया। पर हर बार दस कम निकले। उन्होंने घर के एक-एक आदमी आदर्श कथाएँ : यशपाल जैन 14 सितम्बर 2003 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र जतारा जिला टीकमगढ़ कपूर चन्द्र जैन 'बंसल' CBSE श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र के मूलनायक स्थिति - यह । दोनों जिनालय द्वितीय प्रागंण में स्थित हैं। जतारा (टीकमगढ़ म.प्र.) क्षेत्र मध्य प्रदेश के तृतीय जिनालय टीकमगढ़ जिला भगवान श्री पार्श्वनाथ जी- यह जिनालय तृतीय प्रांगण अन्तर्गत टीकमगढ़ में स्थित है। इस जिनालय के मध्य में भगवान् पार्श्वनाथ जी की (म.प्र.) एवं मऊरानीपुर मनोज्ञ एवं आकर्षक वेदी है। जिसमें स्वेत वर्णीय भगवान पार्श्वनाथ (उ.प्र.) सड़क मार्ग के जी की प्राचीन मनोज्ञ प्रतिमा अनेक जिन प्रतिमाओं के साथ मध्य, टीकमगढ़ से विराजमान है। इन्हीं भगवान की यह प्रतिमा मूल नायक के रूप में उत्तर दिशा में 40 कि.मी. होने के कारण इस क्षेत्र का प्राचीन नाम श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन दूर एवं मऊरानीपुर से मंदिर था। 27 कि.मी. दूर दक्षिण भगवान् पार्श्वनाथ जी की वेदी के चारों ओर सात वेदियाँ दिशा में स्थित है। यहाँ और हैं। जिनमें प्राचीन देशी पाषाण की अद्भुत कलाकृति भामण्डल मध्य रेल्वे लाइन के एवं अष्ट प्रातिहार्य सहित एवं कुछ भव्य जिन प्रतिमाएँ स्वेत प्रमुख स्टेशन झांसी, वर्णीय पद्यमासन इन वेदियों में विराजमान हैं। मऊरानीपुर से सीधे एवं श्री भोयरा जी- तृतीय प्रांगण में ही (भगवान पार्श्वनाथ स्टशन ललितपुर से मंदिर के वायीं ओर) अतिशय पूर्ण एक भोयरा जी विद्यमान है। बाया टीकमगढ़ होकर | भगवान श्री पार्श्वनाथ जी जिसमें तीनों ओर प्राचीन देशी पाषाण की अनेक प्रतिमाएँ विद्यमान जाया जा सकता है। यह हैं। जिनकी अद्भुत कलाकृति देवगढ़, खजुराहो की कलाकृति के क्षेत्र जतारा के मोटर स्टेण्ड से मात्र 200 मीटर दूर स्थित है। क्षेत्र सदृश्य है। इन प्रतिमाओं की मनोहारी कलाकृति को देखकर के प्रमुख एवं आकर्षक प्रवेश द्वार पर श्री दि. जैन पार्श्वनाथ मंदिर दर्शक इन प्रतिमाओं को अधिक समय तक निहारते रहते हैं। लिखा मिलेगा। भोयरा जी अतिशयकारी है। क्षेत्र की बन्दना - यह क्षेत्र एक विस्तृत परकोटे में स्थित है, जिसमें 4 जिनालय, एक भोयरा जी, 2 गन्ध कुटी, 2स्वाध्याय चतुर्थ जिनालय सदन एवं तीन प्रांगण हैं। प्रथम प्रांगण में एक सुविधा युक्त धर्मशाला पंचवालयति मंदिर - यह जिनालय द्वितीय प्रांगण चौबीसी तथा एक निर्मल जल से परिपूर्ण कूप एवं जेड पम्प है। जिनालय के तृतीय तल पर स्थित है। जिनके दर्शन करने सीढ़ियों प्रथम जिनालय भगवान श्री नेमिनाथ पर से जाना पड़ता है। इस जिनालय में पंच वालयति, भगवान् । वासुपूज्य (कत्थई वर्ण), भगवान् मल्लिनाथ (कत्थई वर्ण), इस जिनालय में तीन वेदिका हैं। जिनमें क्रमश: भगवान भगवान् नेमिनाथ (श्याम वर्ण), भगवान् पार्श्वनाथ (श्याम वर्ण) नेमिनाथ (श्याम वर्ण), भगवान चन्द्रप्रभ (स्वेत वर्ण) एवं भगवान् एवं भगवान महावीर (श्याम वर्ण) की मनोज्ञ पद्यमासन जिन श्री महावीर स्वामी (कत्थई वर्ण) की मनोज्ञ प्रतिमाएँ पद्यमासन प्रतिमायें विद्यमान हैं। में विराजमान हैं। प्रथम वेदिका में विराजमान भगवान नेमिनाथ ____ द्वितीय गन्ध कुटी- इसी जिनालय के दक्षिणी कोने में जी बड़े बाबा के नाम से सम्बोधत किये जाते हैं। द्वितीय गंधकुटी स्थित है। इसमें भगवान महावीर स्वामी की स्वेत द्वितीय जिनालय वर्णीय पद्यमासन मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है। भगवान आदिनाथ एवं चौबीसी जिनालय-इस जिनालय स्वाध्याय सदन - एक स्वाध्याय सदन द्वितीय प्रांगण में के मध्य में भगवान् आदिनाथ (पीतवर्ण) एक ओर भगवान बाहुवली स्थित है। जिनमें अनेक शास्त्र जी व्यवस्थित ढंग से स्वाध्याय हेतु एवं दूसरी ओर चक्रवर्ती भरत की भव्य खडगासन प्रतिमाएँ विराजमान विद्यमान हैं। द्वितीय परम पूज्य आचार्य श्री विराग सागर जी हैं। इनके तीन ओर चौबीस भगवन्तों की क्रमशः जिन प्रतिमाएँ स्वाध्याय सदन इसी स्वाध्याय सदन के द्वितीय तल पर श्री पंच स्वेत, श्याम एवं कत्थई वर्ण में विराजमान हैं। प्रथम गंधकुटी- इसी बालयति मंदिर के ठीक सामने स्थित है। जिनालय में दायीं ओर एक गन्ध कुटी भी है। जिनमें भगवान | क्षेत्रीय अतिशय - किंवदन्तियों के द्वारा इस क्षेत्र के पार्श्वनाथ जी की श्याम वर्णीय पद्यमासन मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान | सम्बंध में अनेक अतिशय कहे गये हैं, जिनमें प्रमुख अतिशय है इनके पार्श्व में खंडित जिन प्रतिमाओं का एक संग्रहालय है। उक्त | निम्न प्रकार हैं 1. क्षेत्रीय भोयरे जी में देवों द्वारा किये गये नृत्य, गायन, -सितम्बर 2003 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भजन, कीर्तन एवं पूजन की क्रियाएँ अनेक श्रावकों ने सुनी हैं। । श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र पंक्तियों का संस्कृत 2. द्वितीय प्रांगण के प्रथम जिनालय में विराजमान भगवान जतारा (टीकमगढ़) के बड़ेबाबा देवनागरी लिपि में एक नेमिनाथ (बड़े बाबा)के दायें हाथ के पास से मूर्ति भंजकों ने मूर्ति शिलालेख है। प्रत्येक भंजन करने का प्रयास किया था। किंतु उन्हें सफलता नहीं मिली। पंक्ति में तेईस वर्ण हैं। छैनी के निशान आज भी प्रतिमा जी से देखे जा सकते हैं। शिलालेख के ऊपरी भाग 3. क्षेत्र में दशनार्थ पधारे परम पूज्य आचार्य श्री सन्मति में दो हिरण अंकित हैं' सागर जी, आचार्य श्री विराग सागर जी, आचार्य श्री कुमुद नन्दी इससे यह पता चलता है महाराज एवं अनेक परम पूज्य महाराजों एवं माताओं ने इस क्षेत्र कि संवत् 1153 (सन को अतिशयकारी कहा है। 1096) में इस मंदिर का क्षेत्र की ऐतिहासिकता एवं प्राचीनता - नगर जतारा निर्माण करवाया था। छटवीं शताब्दी में स्थापित तंत्र, मंत्र, यंत्र की सिद्धि स्थली रही है। शिलालेख निम्न जंत्र घटा, जंत्र घाटी, जयतारा, सलीमावाद आदि नामों से पूर्व में प्रकार हैयह नगर अलंकृत रहा है। सम्वत् 1153 नगर जतारा से लगी हुई घाटी का पूर्व नाम जंग घाटी था। सदी 13 सौ में गोला नगर जतारा के सुप्रसिद्ध साहित्कार एवं नगर पालिका जतारा के पूवनिषे साधु सिद्ध तस्य पूर्व अध्यक्ष आदरणीय श्री लक्ष्मी नारायण जी शर्मा एडवोकेट ने पुत्री पालदालल्ला सयः श्री जतारा जैन मंदिर की ऐतिहासिकता एवं क्षेत्रीय प्राचीनता का भगवान श्री नेमिनाथ जी वद्ध सुपालता स्व. स्वत्तल वर्णन अपने एक लेख (जंत्रघाटी) (जंत्रघटा) एवं जतारा की पत्थर विभिन्न मति भवति। यह पत्थर भोयरे जी में अभी भी लगा ऐतिहासिकता में लिखा है। हुआ है। 1. 'इसी घाटी में जैन संत शिरोमणि मदन कुमार जी ने | 2. इसी स्थान पर एक प्राचीन मूर्ति के नीचे चरण चौकी तपस्या की थी तथा श्री गुरुदत्त,अनंग कुमार जी क्रमशः द्रोणागिरि | पर एक फीट एक इंच लम्बा एवं 7 इंच चौड़ा एक शिलालेख है। व सोनागिर इसी जंत्र घाटी से लगे और वहाँ उन्होंने धर्म चक्र का इसमें नो इंच लम्बाई एवं (छः) इंच चौड़ाई में 13 पंक्तियाँ है। यह प्रवर्तन किया था।' | शिलालेख सम्वत् 1478 (सन् 1421) का है। जो निम्नानुसार हैउक्त वाक्याशों से स्पष्ट होता है कि नगर जतारा के समीप | 'सिद्ध श्री सम्वत् 1478 कार्तिक वदी 14 सौ में श्री मूल स्थित जंत्र घाटी में परम पूज्य मुनि श्री मदन कुमार जी मुनि श्री राधे कारे गणेश सरस्वती बाल ब्रह्मचारी भट्टारी रत्नकीर्ति टेवा गुरुदत्त महाराज एवं मुनि श्री अनंग कुमार जी ने तपस्या की जो | सरीद्र भट्टारक श्री प्रभू स्वापहित पावन श्री। क्रमश: श्री दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र अहार जी (टीकमगढ़), श्री उक्त विन्दुओं से स्पष्ट है कि जतारा जिन मंदिर जी का श्री द्रोणगिरि जी (छतरपुर) एवं श्री सोनागिरि जी (दतिया) में और | भौयरा जी एवं उनमें विराजमान प्रतिमाएँ आज से लगभग एक अधिक साधना कर, वहाँ से मोक्ष गये हैं। . हजार वर्ष से भी पूर्व की हैं। 2. जतारा म.प्र. के सातिशय भोयरे के संबंध में उन्होंने | 3. प्रांगण नं. 3 के मंदिर क्रमांक 3 के मूल नायक भगवान् आगे लिखा है कि राजा जय शक्ति की मृत्यु सन् 857 ई. में हो | पार्श्वनाथ के पादमूल में प्रतिष्ठित सम्वत् 1044 भी मंदिर जी की गयी थी। वह राजा भी जिन सिद्धांतों का पालन करता था। उसी प्राचीनता को स्पष्ट दर्शाता है। इसी प्रकार मंदिर क्र. एक में विराजमान के समय में जतारा के जैन मंदिर के भोयरे की मूर्तियों की प्रतिष्ठा बड़े बाबा भगवान् श्री नेमिनाथ जी के पादमूल में प्रतिष्ठित सम्वत् हुई। भोयरे के शिला लेखों में सम्वत् 993 का वर्णन है। उक्त | 1210 अंकित है, जो मंदिर जी की प्राचीनता का द्योतक है। वाक्यों से स्पष्ट होता है कि जतारा का भोयरा पूर्व का है और उसमें इस प्रकार श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र जतारा उसमें सन् 857 के पूर्व जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हुई थी। विराजमान अतिशय युक्त जिन प्रतिमाएँ अति प्राचीन एवं 3. पृथ्वी वर्मा का पुत्र मदन वर्मा सन् 1130 से 1165 तक | अतिशतकारी हैं। क्षेत्र की समुचित व्यवस्था के लिये एक 35 साल शासक रहा। जतारा के जैन मंदिर द्वितीय का निर्माण भी । प्रबंधकारिणी समिति है। क्षेत्रान्तर्गत श्री जैन नवयुवक संघ (दिव्य मदन वर्मा के शासन काल में किया गया। इससे स्पष्ट है कि मंदिर घोष), जैन महिला समिति, श्री दिगम्बर जैन महा समिति इकाई, जी का द्वितीय भाग का निर्माण सन् 1130 से 1165 के मध्य हुआ जतारा आदि संस्थाएँ भी हैं। जो समाज सेवा एवं क्षेत्रीय विकास में संलग्न रहती हैं। 2. इसी प्रकार श्री ठाकुर लक्ष्मण सिंह गौर ओरछा क्षेत्र से अनेक निर्माण कार्य चल रहे हैं। साधर्मी भाई (टीकमगढ़) ने अपनी कृति 'ओरछा राज्य का इतिहास' में जतारा बहिनों से क्षेत्र की वन्दना कर धर्म लाभ प्राप्त करने हेतु विनम्र जैन मंदिर के सम्बंध में लिखा है निवेदन है। 'जतारा में एक प्राचीन भोयरा है। इस तल घर में दो शिलालेख हैं । पहिला शिलालेख निसाब के पत्थर का है, जो एक श्री गोकल सदन, जतारा फीट डेढ इंज लम्बा, एक फीट चार इंज चौड़ा है। इसमें तीनों जिला-टीकमगढ़ (म.प्र.)472 118 16 सितम्बर 2003 जिनभाषित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतिक चिकित्सा स्वास्थ्य प्रत्येक मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है डॉ. वन्दना जैन स्वास्थ्य प्रत्येक मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है और | है। निरोग रहना मानव शरीर की स्वाभाविक स्थिति है, रोग या कष्ट । प्रस्तुत लेख का उद्देश्य प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में शरीर के शत्रु नहीं हैं कि हम उनसे संघर्ष करें या उन्हें दवाएँ। दवा । उपयोगी जानकारी देकर इस सरल एवं सस्ती चिकित्सा पद्धति अथवा डॉ. रोगी को रोग मुक्त नहीं करते, रोगी स्वयं अपने को को जन-जन तक पहुँचाना है, जिससे समाज के हर वर्ग में इस रोग मुक्त करता है। हमारे देश में कई चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलित | चिकित्सा के बारे में जागृति उत्पन्न हो सके तथा यह अहिंसक हैं जैसे एलोपैथी, आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी तथा प्राकृतिक | पैथी लोकप्रिय बन जाये। पिछले लेखों में मैंने कुछ रोग तथा चिकित्सा आदि इनमें से हर एक की अपनी-अपनी अच्छाईयाँ हैं, | उनकी प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में जानकारी दी उसका उद्देश्य कोई भी चिकित्सा पद्धति अपने आप में पूर्ण नहीं है, कहीं न कहीं | सिर्फ आपको स्वास्थ्य लाभ पहुंचाना है। पर उसे अन्य पद्धतियों का सहारा लेना पड़ता है। निरोग रहने के लिये केवल एक घंटा :जहाँ तक प्राकृतिक चिकित्सा का सवाल है इसके दो पक्ष "Prevention is Better Than Cure हैं, पहला सुरक्षात्मक और दूसरा उपचारात्मक । आज उपचार के इंग्लिश की इस कहावत का अर्थ है बीमार होकर ठीक साथ-साथ इस बात की भी जरूरत है कि हम लोगों को यह होने की अपेक्षा बीमार न पड़ना ही अधिक अच्छा है। कीचड़ में बताएँ कि किस प्रकार नियम पूर्वक रहने से वे बीमार नहीं पड़ेंगे। छप कर फिर साफ होने के बदले उससे बच कर निकल जाना प्राकृतिक चिकित्सा सिद्धांत के अनुसार मनुष्य शरीर के अंदर ही | बुद्धिमानी है । बीमार न होने के लिये शरीर व मन दोनों को शुद्ध वह प्राकृतिक जीवनी शक्ति है जो व्यक्ति को रोग मुक्त रखती है रखना चाहिये। आप कह सकते हैं कि ऐसी अवस्था केवल योगी और रोग को ठीक कर सकती है। यह जीवनी शक्ति प्रत्येक प्राणी साधुओं की ही हो सकती है, सामान्य व्यक्ति के लिये यह संभव को जन्म लेते ही प्राप्त होती है, जो जीवन भर शरीर को संचालित' | नहीं है, सामान्य मनुष्य के लिये खान पान में प्राय: गड़बड़ हो रखने में सहायता करती है। जीवनी शक्ति की कार्यक्षमता बढ़ाना जाती है, कभी अनियमितता आती है, कभी आलस्य, कभी ही प्राकृतिक चिकित्सा है। मानव शरीर का निर्माण प्रकति की मिलावटी चीजें खाने में आ जाती हैं. कभी जागरण. कभी दौडधप. प्रयोग शाला में होता है वायु, जल, सूर्य, ताप, पृथ्वी आदि तत्व के कभी झगड़ा, मानसिक तनाव आदि के प्रसंग आते रहते हैं, इससे अंश ही इसे बनाते हैं व जीवित रखते हैं, स्वस्थ रखते हैं। शरीर मनुष्य का अस्वस्थ या रोगी बना रहना अस्वाभाविक नहीं है। पर के उपचार व चिकित्सा के लिये भी इन्हीं मूल पांच तत्वों की हम थोड़ी सी सावधानी से स्वस्थ रह सकते हैं। आवश्यकता होती है। प्रभु पर आस्था, जीवनी शक्ति व प्रकृति पर बीच-बीच में मरम्मत करते रहने से मकान ठीक रहता है। विश्वास, धैर्य व सहनशीलता यह प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के साइकिल की देखभाल, हॉलिंग आदि से वह ठीक रहती है। मूल मंत्र है। मशीन की बीच-बीच में ओव्हर हालिंग करने से मशीन प्राकृतिक चिकित्सा में शुद्ध वायु के उपयोग, शुद्ध जल के ठीक चलती है। उपचार, गर्मी व ठंडक के प्रयोग, सूर्य किरणों के उपचार, योग - इसी तरह शरीर व मन को बीच-बीच में शुद्ध करके ठीक उपचार, शारीरिक शोधन क्रियाएँ प्राकृतिक वनस्पतियाँ, भोजन. | रखा जा सकता है । इसके लिए प्रतिदिन कम से कम एक घंटे का शोधक व पाचक जड़ी बूटियों के उपयोग तथा उपवास, रसाहार, | समय निकालना चाहिये, सप्ताह में कम से कम दो घंटे देना विश्राम आदि के द्वारा लाभ प्राप्त किये जाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा | चाहिये। हर छह महीने में दो या तीन दिन देना चाहिये और साल के नियमों का पालन अनुशासन एवं ईमानदारी से करने की जिम्मेदारी में एक सप्ताह का समय देना चाहिये। स्वयं रोगी पर होती है, इनका ठीक ठाक ज्ञान व अनुभव प्राप्त | दानक कायक्रम दैनिक कार्यक्रम में इसका अंतर्भाव करेंकरके व्यक्ति स्वयं घरेलू रूप से भी अपना उपचार करने में समर्थ. शुद्ध व ताजी हवा में टहलना, प्राणयाम व सूर्यस्नान। हो जाता है और स्वयं अपना चिकित्सक बनने में सक्षम हो जाता खेलना, आसन, व्यायाम, तैरना आदि। है। प्राकृतिक जीवन के सरल नियमों का नियमित पालन करने पर - पेट साफ रहे इसके लिये भोजन में शदार वस्तुओं को डॉक्टर व चिकित्सालय व उपचार की कोई विशेष आवश्यकता शामिल करें। और उनकी नहीं पड़ती। व्यक्ति स्वयमेव स्वस्थ और निरोग बना रह सकता स्वाध्याय, भजन, आत्मचिन्तन । मा फसलें, हरे भरे सम्बर 2003 जिनभाषित 19 . सम्बर 2003 जिनभाषित Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ताह में एक बार इसका अंतर्भाव करें - शरीर की अतंरबाह्य शुद्धि। एक दिन का उपवास। मनोरंजन कार्यक्रम। सत्संग, दान आदि धार्मिक कार्य । छह महीने में एक बार इसका अंतर्भाव करें- सामाजिक व रचनात्मक-कार्यों में भाग लेना। छोटा सा पिकनिक निसर्ग रम्य स्थल पर जाना। आस पास के तीर्थ स्थल पर जाकर एक दो दिन रहना। वर्ष में एक बार इसका अंतर्भाव करें: - सम्पूर्ण शरीर की ओव्हर हॉलिंग करना। धार्मिक व सांस्कृतिक पर्व मनाना। लम्बी तीर्थ यात्रा करना। प्राकृतिक रम्य स्थलों पर जाकर रहना। योग निद्रा में सोयें। इच्छा, अपेक्षा व आकुलता से दूर रहने का प्रयास करें। अपने स्वभाव की साधना में रहें। अपना प्रत्येक कार्य ईमानदारी व प्रसन्नता पूर्वक करें तथा मन लगाकर करें। अपना खान-पान संतुलित रखें, अपनी विचारधारा निर्मल व सात्विक रखें, समय पर उठें, समय पर सोयें तथा समय पर भोजन करें। चिंता तथा तनाव से मुक्त रहकर प्रसन्न रहें तो बीमारी से बचे रह सकते हैं । यही प्राकृतिक चिकित्सा के स्वस्थ रहने के नियम हैं। "कार्ड पैलेस" वर्णी कॉलोनी, सागर (म.प्र.) मैकडोनाल्ड पर एक करोड़ डॉलर का हर्जाना अमरीका की एक अदालत ने बहुराष्ट्रीय फास्ट फूड । सबसे बड़ा भाग वेजीटेरियन रिसोर्स ग्रुप नामक संगठन को कंपनी मैकडोनाल्ड को गाय की चर्बी मिले तेल में व्यंजन परोसने दिया जाएगा। इस संगठन को हर्जाना राशि का 14 फीसदी की सजा में 24 शाकाहारी व अल्पसंख्यक संगठनों को एक हिस्सा दिया जाएगा। इसके बाद नॉर्थ अमेरिकन वेजीटेरियन करोड़ डॉलर का हर्जाना देने का आदेश दिया है । कुककाउंटी के सोसायटी को 10 लाख डॉलर हर्जाने में दिया जाएगा। जिन सर्किट कोर्ट के जज रिचर्ड ए सीबेल ने इस फैसले में कहा कि | अन्य संगठनों को इस राशि के हिस्से दिए जाएंगे, उनमें मुस्लिम कंपनी ने गाय की चर्बी मिले तेल में व्यंजन परोस कर न सिर्फ कंज्यूमर ग्रुप फॉर फूड प्रोडक्ट्स (एक लाख डॉलर), अल्पसंख्यकों की धार्मिक भावना को आहत किया है बल्कि इंटरनेशनल अमेरिकन गीता सोसायटी (50 हजार डॉलर), अपने ग्राहकों को अंधेरे में भी रखा है। कंपनी को इलिनॉयस | हिन्दू हेरिटेज इंडोमेंट (ढाई लाख डॉलर), काउंसिल ऑफ सुप्रीम कोर्ट और अमेरिका की तमाम अदालतों द्वारा अतीत में | हिन्दू टेम्पल ऑफ नॉर्थ अमेरिका (दो लाख डॉलर), गुरु सुनाए गए फैसलों के अध्ययन के बाद यह सजा सुनाई गयी है। हरिकिशन इंस्टीट्यूट ऑफ सिख स्टडीज (50 हजार डॉलर), अदालत ने मैकडोनाल्ड द्वारा 24 शाकाहार व अल्पसंख्यक संगठनों | हिन्दू स्टूडेंट्स काउंसिल (पांच लाख डॉलर), जेविश कम्युनिटी को कुल एक करोड़ डॉलर का हर्जाना देने का आदेश दिया है।। सेंटर्स एसोसिएशन (दो लाख डॉलर) एवं टफ्ट्स यूनिवर्सिटी उल्लेखनीय है कि गाय की चर्बी मिले तेल में व्यंजन परोसने के | (8.5 लाख डॉलर) शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि सबसे पहले मैकडोनाल्ड के जुर्म के खिलाफ इलिनॉयस, कैलिफोर्निया, | भारतीय मूल के हरीश भारती ने ही इस कंपनी को अदालती न्यूजर्सी, टैक्सास और वाशिंगटन की कई अदालतों में याचिकाएँ कटघरे में खड़ा किया था, बाद में हरीश भारती के नक्शे कदम दायर की गयी थीं, इन याचिकाओं में कहा गया था कि कंपनी ने पर चलकर कई शाकाहार और अल्पसंख्यक संगठनों ने कंपनी गाय की चर्बी वाले तेल में व्यंजन तैयार कर शाकाहारियों और के खिलाफ मुकदमों की बाढ़ ला दी है। अल्पसंख्यकों की भावना आहत की है। उल्लिखित राशि का | नवभारत,2 जून 2003 8 सिम्बर 2003 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदलगा की भूमि पर आचार्य श्री विद्यासागर जी की शिष्याओं का चातुर्मास महासूर्य की जननी महाप्राची रूप सदलगा की धरती पर | अपूर्व व अद्वितीय हैं यद्यपि वे अपने माता पिता की द्वितीय संतान हो रहा है आर्यिका रत्न 105 आदर्शमति माताजी का संसघ सुखद | रहे किन्तु इस द्वितीय संतान ने अद्वितीयता के ही कीर्तिमान स्थापित चातुर्मास। किए जो प्रेरणादायी हैं, आदर्शमयी हैं, रोमांचकारी हैं। पूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागर महाराज की समस्त प्रथम अद्वितीयता तो यह है कि उनका पूरा परिवार शिवपथ शिष्य मंडली में महासौभाग्य शालिनी हैं श्री आदर्शमति माता जी, | गामी है। भाई महावीर प्रसाद अष्टगे भी घर में सपत्नीक अखण्ड जिन्होंने गुरु जन्म-भू पर वर्षायोग का प्रथम पावन अवसर पाया। ब्रह्मचर्य से रह रहे हैं, कर्तव्य निर्वाह हेतु । शेष तो गृहत्यागी हो मात्र पुण्यमयी धरा पर ही नहीं वरन् बिल्कुल उसी स्थान पर संघ | चुके हैं। चातुर्मास कर रहा है, जिस स्थान से कुछ वर्ष पूर्व सप्त ऋषियों की । दूसरी अद्वितीयता यह है कि उनके गुरु ने ही उनका भाँति निकल चुके थे सप्त आत्म-तत्व जेता, घर के एक सदस्य शिष्यत्व स्वीकारा। इस सदी के वे ऐसे गुरु हैं जो अपने गुरु के को भरत की भाँति कर्तव्य निर्वाह हेतु छोड़कर। पूरा परिवार | सम्मुख ही गुरु के गुरु बने । उनके गुरु आ. श्री 108 ज्ञानसागर जी पावन पथ पर बढ़ गया पुण्य पाप से परे होने। महाराज ने अपने कर कमलों से उन्हें आचार्यपद सौंपा। 80 वर्ष जहाँ छायी है विद्याधर की पावन स्मृतियाँ, जिस स्थान | के आचार्य वर जो कि मात्र वयोवृद्ध ही नहीं, ज्ञान वृद्ध, तपोवृद्ध का कण-कण सुनाता है 'पीलू' की पुण्यमयी कहानियाँ, जहाँ | और अनुभव वृद्ध के साथ आर्जववृद्ध भी थे, 26 वर्षीय युवा मुनि गूंज रही है 'गिनी' की गौरवमयी गाथाएँ, 'तोते' की तारणहारी | के चरणों में अपना महाशीश झुकाया युवा शिष्य की वंदना वृद्ध कथाएँ! उसी सन्निवेश में साधना रत है समस्त संघ आनंद के | गुरु ने की। शिष्य की चरण धूल गुरु ने अपने माथे पर लगाकर साथ ! हाँ, उस धरा का नाम तो आप जानते ही हैं । दक्षिण देश में | आर्जव की चरम सीमा का अनूठा आदर्श स्थापित किया। भी एक प्राची है और वह प्राची है सदलगा। जो दक्षिण बड़े-बड़े महाज्ञानी, महादानी, महाकवि, महासाधक, महामानजेता आचार्यों का दाता रहा उसी दक्षिण देश में जुड़ गया नाम सदलगा | महाचार्य-प्रदाता आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने इस युग की का भी जहाँ से 7 कि.मी. दूर पर भोज क्षेत्र है, जिसने कि इस युग श्रमण संस्कृति के पन्नों पर एक नया महाध्याय जोड़ दिया। जो के प्रथम आचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज को | कि युगों-युगों तक गर्व के साथ पढ़ा जाएगा। उन्होंने इस युग को जन्म देने का सौभाग्य पाया है और इसी सदलगा से 15 कि.मी. | वह संत दिया जो इस समय में श्री कुंदकुंदाचार्य की झाँकी दिखा कोपली क्षेत्र है जहाँ कि आचार्य श्री देशभूषण महाराज जी का जन्म हुआ था। सदलगा से ही 35 कि.मी. दूर शेडवाल है जहाँ गुरुवर के साथ जुड़ी तीसरी अद्वितीयता यह है कि उनकी कि विद्यानंद जी महाराज का जन्म हुआ सभी की जन्मभूमियाँ | समस्त शिष्य मंडली बाल ब्रह्मचारिणी है। यह इस युग का अद्भुत एक दूसरे को छू रही हैं। दक्षिण के चार महाग्रामों का संगम । चार | चमत्कार है कि माता-पिता की गोद से फिसल फिसलकर बच्चे आराधनाओं की प्रदात्री दक्षिण माटी है। शायद इसी वजह से इस | उनकी शरण ले रहे हैं। बुंदेल खण्ड के तो वे भगवान हो गए हैं। भारत वसुंधरा को रत्नगर्भा कहा गया है। सदलगा भी रत्नगर्भा है | बुदेलखण्ड के घर-घर में ही नहीं बुंदेलवासियों के दिल-दिल में जहाँ से एक नहीं, कई रत्न निकले और उन रत्नों में बन गया एक | उनकी तस्वीर है। बच्चा-बच्चा उनका नाम बड़े ही गर्व के साथ रत्न रत्नों का रत्न कोहिनूर हीरा, जिसका चारित्रिक नूर इतना | लेता है। माताएँ लोरियों में उनके विराग की गाथाएँ गागा कर निखर गया कि उसके सम्मुख कोहिनूर का निखार भी लज्जित हो | सुनाती हैं। हर माँ की कोख लालायित हो उठी श्रीमति माता की गया। सदलगा के रत्नों में से तीन और रत्न उस कोहिनूर हीरे के कोख बनने । पर प्राची दिशा तो एक ही होती है न! और प्राची ही साथ श्रमण संस्कृति के हार में जड़ित होकर जगमगा रहे हैं, और | नहीं सूर्य भी एक ही होता है और सूर्य भी नहीं शरद पूनम का वे तीन रत्न हैं मुनि श्री समयसागर जी महाराज, मुनि श्री योगसागर | चाँद भी तो एक ही होता है। जी महाराज, मुनि श्री नियमसागर जी महाराज। दो रत्न अपना | आधुनिक मशीनों की चीखों से दूर, कारखानों की कर्णभेदी रत्नपना सार्थक कर समाधिरूप हो गए, वे हैं मुनि श्री मल्लिसागर आवाजों से अछूता यह सदलगा ग्राम बड़ा ही सुरम्य है। पर भागते जी महाराज और आर्यिका श्री समय मति माताजी। वृषभ, उनको हाँकते कृषक, सर पर घट लिए पनिहारिने, गली- परमपूज्य आ. श्री विद्यासागर जी महाराज के साथ ऐसी | गली खेलते बच्चे, वृक्षों पर झूला डाले झूलती बालाएँ और उनकी कई घटनाएँ जुड़ी हैं, जो कि इस सदी के समस्त संतों के मध्य । सरल सहज उन्मुक्त हँसी, खेतों में लहलहाती फसलें, हरे भरे -सितम्बर 2003 जिनभाषित - 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झूमते निकट बुलाते बड़े-बड़े दरख्त, पक्षियों की चहचहाटें। भारतीय । की हैं और संपूर्ण भारतवर्ष से हैं। ग्रेजुएट तो सभी हैं ही अधिकांश संस्कृति के गौरव भूत ऐसे ग्राम में कदम रखते ही तन-मन में | पोस्ट ग्रेजुएट हैं। कई स्वर्ण पदक विजेता हैं। उच्च स्तरीय शिक्षा रोमांच दौड़ जाता है। को प्राप्त किए सभी बहनें पूर्ण अनुशासन से एकता बद्ध होकर यहाँ की प्रकृति ही नहीं यहाँ के लोग भी बड़े सीधे-सादे | संस्कृत का अध्ययन कर रही हैं। अध्यापनकार्य भोपाल निवासी हैं । छल प्रपंच, पद-प्रतिष्ठा का इन्हें कोई लोभ नहीं। चोरी, डकैती | प्रोफेसर पं. रतनचंद जी जैन करा रहे हैं। का कोई भय नहीं। महावीर भगवान का अस्तेय व्रत मानो इसी | जब ये 73 बहनें एक ड्रेस में पंक्तिबद्ध होकर निकलती सदलगा ग्राम ने ईमानदारी से पाल रखा हो। गुरु को पालने वाली | हैं, तो लगता है जैन धर्म की प्रभावना का इससे बड़ा दृश्य और गुरुभूमि भी वास्तव में गौरवमयी है। क्या होगा। प्रभात की बेला में साढ़े छह बजे सूरज की सुनहरी ता-तिन ता-तिन नाच नाचती फसलें खेत खलिहानों में। किरणें जब धरती को चूमती हैं तब उन्हीं की झिलमिलाहट में छम-छम छम-छुम चले बैल तो घंटी गूंजे कानों में।। | शामिल हो जाती है प्रतिभा मंडल की झिलमिलाती पंक्ति। सद्यः कुंह-कुंह करके गाए मीठा, तरू के ऊपर कोयलिया। | स्नाता हाथों में चमचमाते चाँदी के पूजन थाल, गंभीर चाल और ऐसे सदलगा ग्राम कोलखकरहर्षित होता सबका जिया॥ | पक्षियों की चहचहाट में जिनवर स्तुति व गुरुभक्ति के सुर मिलाती लहर लहर कर बहती नदियाँ, हवाएं चलती मंद अहा। | हुई जब ये बहनें जिनालय को बढ़ती हैं तो चलता राही भी थमकर धरा सजी दुल्हन सी लगती, आनन् आँचल हरित रहा। धर्म के प्रति अटूट गौरव व गर्व से भर जाता है। ग्राम की गलियाँ लता-गुल्म सब थिरक थिरक कर, हर्ष व्यक्त निज करते हैं। इनकी मृदु-मंजुल वाणी से गुंजायमान हो उठती हैं। दृश्य देख ये मधुर सलोना, अश्रु अविरल झरते हैं॥ | एक विशिष्ट व्यक्तित्व जिसने मुझे प्रभावित किया वह है इस सब विशेषताओं में आर्यिका संघ के चातुर्मास से और | आर्यिका संघ की नेत्री आर्यिका रत्न आदर्शमति माता जी इनकी भी विशेषता आ गई है। संपूर्ण ग्राम में नवनिर्मित मंदिर सहित तीन | प्रच्छन्न योग्यता को भांपकर परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी मंदिर और हैं- कल बसदि, दोडु बसदि, शिखर बसदि एक गुफा | ने इनके कन्धों पर संघस्थ 16 आर्यिकाओं, 14 ब्र. बहनों, 12 मंदिर भी है। भाग्योदय तीर्थ की बहनों और 73 प्रतिभा मंडल की बहनों के दोड्डु बसदि में दोपहर 2-3 बजे तक पूजन विधि की कक्षा अनुशासन का गुरतर भार सौंपा है। आप जिस शहर में, जिस गाँव उसके उपरांत 3-4 बजे तक तत्वार्थ सूत्र, 4-5 बजे रत्नकरंड में, जिस समाज में रहती हैं वहाँ की समाज को एकता के सूत्र में श्रावकाचार की कक्षाएं चलती हैं जिनमें बाल-युवा, वृद्ध सभी बाधंकर चलती हैं। इनकी काया जरूर कृश है किन्तु इस दुबली पूर्ण उत्साह से भाग ले रहे हैं। शाम को शांतिनाथ जिनालय में पतली कृश काया में इनकी दृष्ट पुष्ट आत्मा विद्यमान है। इनकी सामूहिक आचार्य भक्ति और आ. श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा | एक विशेषता यह है कि ये विहार में अपनी छोटी आर्यिकाओं को रचित हिन्दी भक्तियों की कक्षा लगती है, जिन्हें बच्चे बच्चे कंठस्थ आगे रखकर चलती हैं। ये एक माता के समान सभी का ध्यान कर रहे हैं। सप्ताह में एक दिन रविवारीय प्रवचन होता है । सदलगा | रखती हैं। ये बहुत सरल हैं। ग्राम में आर्यिका संघ का प्रवेश बड़े ही धूमधाम से दिनांक आज सदलगा की धरती अपने पुत्र से कह रही है कि 10.7.2003 को हुआ था। चातुर्मास स्थापना दिनांक 13.7.03 | पुत्र! जब से तुम यहाँ से गए हो एक बार मुडकर भी देखा अपनी रविवार को हुई थी। प्रतिभा मंडल शिविर का शुभारंभ 22-7-03 | मातृभूमि को जिस गोद में खेलकूदकर बड़े हुए उस गोद को ऐसा नवमी को पूर्ण उत्साह के साथ हुआ। 12 अगस्त 2003 को | सूना किया कि फिर उस गोद की ओर निगाह तक न उठायी इतना वात्सल्यपर्व श्री अकम्पनाचार्य और श्री विष्णु कुमार महामुनिराज | पराया कर दिया तूने मुझे कि मैं चरण परस के भी काबिल न की पूजन के साथ संपन्न हुआ। श्रावकों ने मंदिर में ही आपस में रही? वत्स, मैं सुनती हूँ तू अब वीतरागी हो गया है । तेरे अंदर से एक दूसरे को रक्षा-सूत्र बाँधकर एक दूसरे से गले मिलकर आपसी अपने-पराये के तमाम भेद समाप्त हो गए हैं। सुन बेटा, मुझे सौहार्द का परिचय दिया। छोड़कर तू सारे देश में विचरेगा तो वीतरागी होकर भी पक्षपाती 4 अगस्त 2003 को श्री पार्श्वनाथ स्वामी का निर्वाणोत्सव कहलाएगा। क्योंकि अब तू श्रमण है और वत्स, श्रमण के लिए मनाया गया। 29-3-03 को चारित्र चक्रवर्ती आ. श्री शांतिसागर समता से बढ़कर कोई साधना नहीं। महाराज जी की पुण्य तिथि पूर्ण धर्म प्रभावना के साथ जोर शोर से मैं तो सुनती हूँ तू इस युग का उत्कृष्ट श्रमण है। उत्कृष्ट मनाने की तैयारियां चल रही हैं। इसके साथ ही 2 अक्टूबर से 11 | श्रमण होकर यह पक्षपात क्यों कर रहा है मेरे पुत्र! मेरा कहना अक्टूबर तक भाषयोदय प्राकृतिक चिकित्सा का शिविर संपन्न | मान एक बार सदलगा आ जा। दक्षिण की राह पकड़ ले। तेरी होने जा रहा है। वर्षायोग में धर्म ध्यान रतसंघ में सत्रह आर्यिकाओं | विरागता भी सुरक्षित रहेगी और मेरी भावना भी रक्षित रहेगी। सहित चौदह बाल ब्र. बहनें हैं। और उनके साथ ही प्रतिभा मंडल की आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत धारिणी 73 बहनें हैं। सभी संपन्न परिवार सदलगा का एक भक्त 20 सितम्बर 2003 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिलाई अपहरण काण्ड बनाम कमठ का हृदय परिवर्तन सुरेश जैन 'सरल' गया। पर आचार्य श्री नहीं उठे । कांड के विषय में सामान्य पाठकगण इतना जानते हैं कि । विश्रुतसागर जी एवं ब्रह्मचारीगणों के सहयोग से चौका लगाया 17 अगस्त 03, रविवार को प्रातः (रात्रि) करीब डेढ़ बजे, जब प.पू. आचार्य 108 श्री विराग सागर जी महाराज वसतिका परिसर में ही कुछ दूरी पर, नित्य की तरह, शौच को गये, तब शौच के बाद कुछ दुष्ट जनों ने उन्हें कुछ सुंघा कर बेहोश कर दिया, उनके हाथ साफ कराने आये सेवक श्री अनिल जैन को भी बेहोश कर दिया, फिर दोनों को एक मारूती-वेन में डालकर ले गये। भिलाई से करीब 80 कि.मी. दूर एक तालाब के किनारे, मेंड़ के उस पार, उन्हें फेंक कर भाग गये। उनका भागना ही उनके हृदय परिवर्तन का परिचय देता है, अन्यथा सुबह 3 बजे के धुंधलके में वे आचार्यश्री के सिर पर बड़े-बड़े बोल्डर पटक सकते थे, या पास में रखे खंजर से उन पर हृदय विदारक प्रहार कर सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया और भाग गये। इससे सिद्ध होता है कि जिनशासन की कृपा. से उनका हृदय / विचार बदल गया और देश के एक महान् आचार्य के साथ अनहोनी नहीं हो पाई। कुछ माह पूर्व पढ़ने मिला था कि गुजरात में बेड़िया नामक मंदिर--स्थल पर करीब 20 लुटेरों ने रात्रि 11 बजे धावा बोल कर, वहाँ अवस्थित दिगम्बर मुनि के सिर पर घातक वार किये थे और उन्हें खून से लतपथ छोड़ दिया, कुछ कीमती मूर्तियों एवं धर्मपेटी की राशि ले उड़े थे। दिगम्बर मुनियों- आचार्यों के साथ हो रहे ये हादसे समाज और समाजसेवियों के लिए चिंता के विषय बन गये हैं। राष्ट्रीय नेता अपने स्तर पर पुलिस कार्यवाही तो करते हैं, स्थानीय समितियाँ भी कार्यवाही के लिए निरंतर गतिशील रहती हैं, किन्तु अपराधी तत्व पकड़ में नहीं आ पाते। भिलाई और रायपुर सहित अनेक नजदीकी वस्तियों को सहित अनेक नजदीकी बस्तियों को सुबह जब सूचना मिली कि आचार्य श्री खरोरा ग्राम के निकट एक तालाब के किनारे हैं, तो भक्तों को पहुँचने में विलंब नहीं लगा। देखते ही देखते हजारों की संख्या में जैनाजैन लोग इकट्ठे हो गये। तब तक भिलाई समिति की सूचना पर पुलिस अधिकारी भी जा पहुंचे। इस बीच पू. आचार्य श्री ने मौन धारण कर नियम- संलेखना का विचार बना लिया। सामाजिक नेता, विद्वान और पुलिस अधिकारी बार बार प्रार्थना करते रहे कुछ बतला देने के लिए, पर वे मौन लेकर जाप देते रहे। किसी से न बोले, न संकेत किया, पद्मासन में सामायिक में लीन रहे आये । धीरे-धीरे दोपहर होने लगी, भिलाई से पहुँचे ऐलक पू. जब एक बज गया तो युवकों ने गाँव से एक काष्ठ चौकी प्राप्त की और आचार्य श्री को हाथोंहाथ उठाकर वहां से चल पड़े। कुछ भक्तों ने कहा कि ऐसे कहाँ तक चलेंगे और कब तक पहुँचेंगे, अत: कार में ले चलें। चौकी को एक कार में धरा गया तब विश्रुत सागर कार के समक्ष बैठ गये और बोले- वाहन से नहीं चलेंगे। उनका रुख देखते हुए युवकों ने उनका समर्थन दिया और पुनः चौकी पर उठाकर चलने लगे। कुछ किलोमीटर चलने के बाद चौकी के नीचे मोटे बांस लगा दिये गये, फलतः अनेक लोगों को एक साथ पकड़कर चलने की सुविधा हो गई। कुछ दूर ऐसे ही चले । तब तक एक हाथ ठेला लिये आदमी दिखा। लोगों ने उससे वह प्राप्त कर लिया और चौकी सहित आचार्यश्री को उस पर बैठा दिया। हाथ-ठेला रायपुर पहुँचा, वहाँ पू. मुनि प्रज्ञासागर संघ सहित थे। उनके और समाज के अनुरोध से आचार्य श्री को रात्रि विश्राम के लिए वहाँ रोकने का विनम्र प्रयास किया गया। भिलाई के भक्त एक मिनट भी रुकने को तैयार न हुए, वे सब व्याकुल थे। तब तक रायपुर में एक अच्छे हाथ ठेले की व्यवस्था की गई, उस पर काष्ठासन रखा गया और आचार्य श्री को बैठाया गया। उनका मौन और उदासत्व ज्यों का त्यों था । शाम 8 बजे रायपुर से चल कर सुबह चार बजे विशाल जुलूस जो श्रेष्ठ पुरुषार्थ गुरुभक्ति का द्योतक था, भिलाई पहुँचा । वहाँ तो रतजगा हो गया था। यहाँ भी हजारों भक्त आचार्य श्री की प्रतीक्षा में थे । वैद्य, डाक्टर उनके स्वास्थ्य निरीक्षण के लिए हाजिर थे। आचार्य श्री को त्रिवेणीतीर्थ, जहाँ वर्षायोग स्थापित किया गया था, की धर्मशाला के तीसरे खण्ड पर स्थित उनके कक्ष में ले जाया गया और उन्हें अपने तख्त पर बैठा दिया गया, वे सामायिक में ही लीन रहे। लोगों ने पुनः पूछा पर वे मौन सो मौन । रविवार का 'दिन' निर्जला उपवास करा गया था, अतः सोमवार को शीघ्र चौके लगाये गये, भक्त पड़गाहने खड़े हो गये, परन्तु 9.30 से चलकर 12 बज गये, आचार्य श्री आहारों के लिए नहीं उठे, तब भक्तगण उनकी मनः धारणा समझ गये कि मरणांतक अन्न-जल का त्याग न कर बैठें। फोनों की घंटियाँ भिलाई और रायपुर के जैन परिवारों में रात भर बजती रहीं थीं, वार्ताएँ होती रहीं थीं, अतः सुबह तक फोनों और अखवारों के माध्यम से सारे देश को घटना की जानकारी मिल चुकी थी। हर शहर ग्राम के भक्त आकुल व्याकुल थे। - सितम्बर 2003 जिनभाषित 21 . Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिलाई के भक्त तो मंदिर जी में ही अनशन पर बैठ गये कि जब । तो करुणा के सागर हैं, निस्पृह संत हैं, फिर उपसर्ग समाप्त हो जाने तक आचार्यश्री आहार नहीं लेंगे, भिलाई के किसी घर में चूल्हा | के बाद भी, यह मौन क्यों? नहीं जलेगा। तभी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री अजीत जोगी का संदेश भक्तगण आचार्यश्री को मना रहे थे, पूरा साधु-संघ मना | उनके राज्यमंत्री श्री बदरुद्दीन कुरेशी ने सविनय सुनाया। रहा था, तब तक देश में विभिन्न स्थानों पर चातुर्मास कर रहे। | कमेटी की प्रार्थना पृथक जोर मार रही थी, दोपहर के दो साधु-संतों के प्रतिनिधियों के फोन आने लगे। सभी का एक ही | बज गये थे, भिलाई के भक्त उपवास पर थे। दयालु आचार्यश्री ने कथन था"आचार्यश्री विराग सागर मौन तोड़ें, आहार को उठे।" देश के संतों और भिलाई के भक्तों की बात रखी, ठीक ढाई बजे जिन प्रमुख आचार्यों के संदेशों ने आचार्यश्री को सोचने | दोपहर को ससंघ, नित्य की तरह, आहारों को उठे। पर विवश कर दिया, उनमें परमपूज्य मासोपवासी तपस्वी सम्राट भिलाई नगर में प्रसन्नता छा गई। सारे देश में फैले आचार्य आचार्य सन्मति सागर जी महाराज, राष्ट्र संत प्रज्ञाश्रमण परमपूज्य श्री के शिष्यगण भी उपवास पर थे, अतः भिलाई वालों ने हर साधु आचार्य विद्यासागर जी महाराज , वात्सल्य रत्नाकर प.पू. आचार्य | के चातुर्मास स्थल पर, फोन से सूचना दे दी। भरत सागर जी महाराज, जिनधर्म प्रभावक प.पू. आचार्य वर्धमान | सब कुछ सामान्य हो गया। जिनधर्म की विजय हुई, कमठ सागर जी महाराज, पू.आचार्य कुंथुसागर जी महाराज, पू. आ. | रूपी पापाचारियों को सद्बुद्धि मिली और देश का एक आचार्य कनकनंदी जी महाराज, पू. आ. पुष्पदंत सागर जी महाराज, पू. | 'बच' गया। अनेक शहरों एवं तीर्थों से अन्यान्य संतों के संदेश आ. देवनंदी जी महाराज, पू. आ. सुविधि सागर जी महाराज, पू. | वाहकों और डाक आदि से पहुंच रहे हैं। उपसर्ग के समय कठिन आ. रयन सागर जी महाराज, पू. आ. विवेक सागर जी महाराज | श्रम कर उन्हें लाने वाले श्रावकों को धन्यवाद ही कहा कहा जा पू. आ. देवनंदी महाराज, पू. आचार्य कल्प हेम सागर जी महाराज, | सकता है, वे पक्के भक्त हैं, संतों के आशीष उनपर बरसते रहेंगे। पू. मुनि प्रज्ञासागर जी, पू. मुनि प्रार्थनासागर जी, पू. मुनि अजयसागर | इस घटना से देश के दिगम्बर संतों की 'संत-संस्था' की जी आदि के कृपापूर्ण संदेश कमेटी ने प्राप्त कर आचार्य श्री को | जो एकता देखने मिली वह सतयुगी है। इसी तरह पू.आचार्य श्री बतलाये । तब तक दुर्ग में वर्षायोग कर रहे पू. आ. स्याद्वाद सागर | विराग सागर जी संयम और क्षमा भाव 'संयम वर्ष' की प्रथम जी संघ और श्रावकों के साथ उनके कक्ष में गये और कहा कि | श्रेष्ठता का प्रतीक बन गया है। देश भर के संतों के संदेश को आप अनसुना नहीं कर सकते, आप 293, गढ़ाफाटक, जबलपुर (म.प्र.) क्रमश.. व्यंग्य नहीं सत्य संकलन : श्रीमती सुशीला पाटनी | 1. ऐसा कोई इंसान नहीं, जिसके पास एक भी गुण नहीं है। ऐसा कोई इंसान नहीं, जिसके पास एक भी औगुण नहीं है। इसीलिए मैं आपसे बार-बार कहता हूँ। दूसरों के अवगुण को देखना, यह आपका अच्छा गुण नहीं है। 2. जो दूसरों के दुख को देखकर दुखी होते हैं वे इंसान कहलाते हैं। जो अपने पाप कर्म से दुखी हैं वे हैवान कहलाते हैं। किन्तु दुनियाँ में सबसे ज्यादा दुखी तो वे रहते हैं। जो दूसरों को सुखी देखकर दुखी हैं वे शैतान कहलाते हैं। 3. हर किसी जीव के भाव को समझना आसान काम नहीं है। जैसे केवली भगवान को जानना शैतान का काम नहीं है। किसी के भावों को समझे बिना निर्णय ले लेना | आप जैसे सज्जन का अच्छा काम नहीं है। 4. कोई जन्म से ही महान् होता है। कोई पुरुषार्थ से महान् होता है। किन्तु आज का मानव महान् बनने के चक्कर में अपनी मानवता को ही खो देता है। 5. अपने नाम के पीछे दूसरों को बदनाम करना अच्छा नहीं है। अपने काम के पीछे दूसरों को बेकाम करना अच्छा नहीं है। यदि आपके जीवन में यश का उदय नहीं तो हम क्या करें | अपने यश के पीछे दूसरों का अपयश फैलाना अच्छा नहीं है। मदनगंज-किशनगढ़ (राजस्थान) 22 सितम्बर 2003 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्ग के पश्चात् आ. श्री विराग सागर जी का प्रथम प्रवचन भिलाई/विगत 17 अगस्त की रात्रि में लगभग 1.30 बजे | जाओ पुनः बच्चे कहते हैं महाराज हम नादान हैं हमसे भारी भूल कुछ अज्ञात व्यक्तियों द्वारा पू. आ. विरागसागर जी का अपहरण | हो गई हमें क्षमा करें। महाराज हँसते हुए कहते हैं कि बेटा जब किये जाने के बाद से पूरे भारत का श्रावक समाज आक्रोशित था | हमने क्रोध ही नहीं किया तो फिर क्षमा कैसी, क्षमा तो तब होती इस अवसर पर उपसर्ग विजेता प.पू. आ. श्री विराग सागर जी ने | है जब कोई बैर बाँधा हो। बच्चे पुनः कहते हैं महाराज आपको अपार जन समुदाय को संबोधित करते हुए कहा बहुत कष्ट हो रहा है आपकी आँखों से आँसू आ रहे हैं। तब संत बन्धुओ! कहते हैं कि बेटा यह आँसू चोट की पीड़ा से नहीं आ रहे हैं मुझे आज अपने गुरुदेव के कुछ उपदेश याद आ रहे हैं। | इसका कुछ और ही रहस्य है तुम लोग जाओ पर बच्चे तो बच्चे हमारे आचार्य श्री ने एक बार एक कहानी सुनाई थी कभी-कभी | ही होते हैं वह अड़ जाते हैं कि आपको तो वह रहस्य बताना ही ऐसे मौकों पर जब इस कहानी को आत्मसात करते हैं तब बड़ी | पड़ेगा। तब संत ने कहा कि बेटा यह आँसू इस बात से आ रहे हैं शांति उत्पन्न होती है। वह कहानी थी, एक जगह बहुत बड़ा कि मैं तुम्हें कुछ दे नहीं पा रहा हूँ तुमने यह पत्थर पेड़ को मारा आश्रम था उसमें गाँव-गाँव से बच्चे पढ़ने के लिए आया करते थे तो उसने पत्थर की चोट को सहकर भी तुम्हारे लिए खाने को वह समय एक ऐसा था जिसमें कोई विशेष सुविधाएँ उपलब्ध | मीठे-मीठे आम प्रदान किये किंतु मैं तुम्हें कुछ नहीं दे पा रहा हूँ। नहीं थीं। बच्चे बड़ी दूर-दूर से उस आश्रम में पढ़ने पैदल ही बंधुओ आचार्य श्री के इन उपदेशों को मैं सदैव याद आया करते थे, रास्ते में नदी, तालाब बगीचे पड़ा करते थे। एक | रखता हूँ कि ऐसे मौकों पर गुरुदेव के उपदेश मुझे बहुत बड़ा बार बच्चों की टोली आश्रम से छुट्टी होने के पश्चात घर की ओर संबल प्रदान करते हैं। यह एक वह संत परंपरा है जिसमें यशोधर जा रही थी कि सहसा तालाब के किनारे लगे आम के वृक्ष पर मुनिराज हुए जिनके गले में साँप डाला गया फिर भी उन्होंने उनकी दृष्टि पड़ गई। पके पके आमों को देखकर बच्चों के मन में आशीर्वाद ही दिया। यह एक वह परंपरा है जिसमें सिर पर जलती आम खाने की इच्छा जागृत हो गई। बस सभी ने आपस में सलाह हुई सिगड़ी रखने पर भी समता को ही धारण किया। धन्य है वे कर आम तोड़ने के लिए पत्थर फेंकना प्रारंभ कर दिये। मुनिराज जिन्होंने "अर्घावतारण असि प्रहारण में सदा समता धरें" आम तोड़ने के प्रयास में वे यह नहीं देख पाये कि आम | कि उक्ति को चरितार्थ किया। के नीचे कौन बैठा है, उन्हें तो बस आम ही दिख रहे थे। ऐसे में | लोग मुझसे बार-बार पूछते हैं कि क्या करें तो मैं एक ही ही एक पत्थर उस वृक्ष के नीचे बैठे एक संत के सिर में लगता है बात कहता हूँ कि भाई हम लोग उसी संत परंपरा के हैं जहाँ कहा और संत के सिर से खून की धार बहने लगती है। कुछ समय जाता है कि 'मार्गाच्यवन निर्जरार्थं परिषोढव्या:परिषहाः' अपने पश्चात बच्चों की दृष्टि संत के सिर से बहते खून पर पड़ती है वे ] मार्ग से च्युत न हो और कर्मों की निर्जरा के लिए समय-समय पर घबरा जाते हैं और सोचने लगते हैं कि हमसे बड़ा अपराध हो संतों को परिषह-सहन करते रहना वह भी समता के साथ। गया। संभवतः वे बच्चे किसी अच्छे परिवार के थे, जिन्हें माता मुझे लगता है कि जो पीड़ा मुझे उस समय नहीं थी वह पिता और गुरुजनों ने सद्संस्कारित किया था इस कारण उनके | अब हो रही है उस क्षण तो ध्यान का ऐसा आनंद था कि उठने का अंदर संत के प्रति करुणा आ गई। दूसरों की चोट भी उन्हें अपनी | मन ही नहीं करता था परंतु कितने सारे जगह से समाचार आ रहे लगने लगी। वे जानते थे कि दूसरों को कष्ट देने से अशुभ कर्मों थे कि अनेकों साधु/श्रावक भी उपवास पर बैठे हैं। तब मुझे लगा का बंध होता है। वे सोचने लगे कि अब न जाने हमारा क्या होगा। |कि भगवन् कितने सारे लोगों को मेरे कारण कष्ट हो रहा है। सच आपस में विचार कर बच्चों ने सोचा कि जब हम कुछ | बताएँ तो अकसर मेरे मन में यही आता है कि यदि किसी की मेरे नहीं कर सकते तो कम से कम उनके रक्त को तो पोंछ ही दें | प्रति कोई गलत भावना है तो वह सारे कष्ट मुझे ही दे दे। बार-बार लेकिन वह संत के पास तक जाने का साहस नहीं कर पा रहे थे। सबको परेशान क्यों करता है। मेरे से ही कोई बैर विरोध है तो तभी बच्चों ने देखा कि संत के सिर से खून ही नहीं वरन आँखों से | अवसर पाकर अपना काम कर लेना चाहिए किन्तु बार-बार सभी आंसू भी गिर रहे हैं। संत की आँखों से गिरते आँसू को देखकर को कष्ट देना अच्छा नहीं है। बच्चों ने सोचा कि संत को काफी गहरी चोट लगी है जिसकी बन्धुओ पार्श्वनाथ ने उपसर्ग सहा तो उन्हें मोक्ष मिला तब पीड़ा से उनकी आँखों से आँसू आ रहे हैं। बच्चे अपनी गलती का | मैं भी यही सोच रहा था कि यह घड़ी मेरे लिए भी कुछ ऐसी ही अहसास करते हुए संत के चरणों में पड़कर क्षमा प्रार्थना करने | बन जाये कि जिस लक्ष्य को लेकर साधना के पथ पर आगे बढ़े हैं लगते हैं। इस पर संत ने उन्हें उठाकर प्यार से कहा बच्चो घर | उसकी प्राप्ति हो सके। भगवान से निरंतर मैं एक ही प्रार्थना करता -सितम्बर 2003 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूँ कि मुझे इतनी शक्ति प्रदान करें कि जिस पथ पर चल रहा हूँ। अंत में इस समय सभी के लिए मुझे यही कहना है कि उस पर अडिग बना रहूँ। सभी लोग समता, शांति का परिचय दें। जहाँ-जहाँ से भी श्रद्धा इस अवसर पर आचार्य श्री की न जाने कितनी सारी बातें | भक्ति से लोग दौड़े आये हैं, इससे उनकी श्रद्धा और अधिक ध्यान में आती हैं एक बार जब मेरा अलग विहार होने लगा तब निर्मल हो गई। मुझे लगता है कि मेरी परीक्षा के साथ-साथ मैंने आचार्य श्री से कहा कि भगवन् कोई उपदेश दीजिए जो पाथेय | आपकी श्रद्धा की परीक्षा भी हो गई। इस घटना से केवल जैन बन सके, तब उन्होंने कुंद-कुंद महाराज की एक गाथा सुनाई थी- समाज ही नहीं परंतु अन्य श्रद्धालु जन भी द्रवित हैं, तो मुझे लगता ऋण पोयणं पि मण्णे, उपसग्गं परिषहं तित्वं। है कि भारत में आज भी आत्मीयता जीवित है। पाव फलं मे एदे, मया वि संचयं पुव्वं॥ आप सभी को मेरा आशीर्वाद है कि अपनी सहनशीलता इसका मतलब है कि संत के जीवन में जब कभी उपसर्ग का परिचय देते हुए अपनी श्रद्धा को निर्मल बनाएँ। श्री प.पू. आ. आते हैं तो वह यह सोचते हैं कि मैं कर्म मुक्त हो गया। निश्चित | विमलसागर जी महाराज की जय। है कि पूर्व कर्म सत्ता में रहते हैं और जब तक वह सत्ता में रहते हैं तब तक कर्म के रूप में रहते हैं। कर्म तो चुकाना ही पड़ता है चाहे प्रस्तुति : ब. पंकज रोकर दिया जाए या हँसकर, इसलिए संत लोग कर्मोदय में भी हंसते ही रहते हैं। मंगल-कामना डॉ. वन्दना जैन जब-जब बादल मेघ बरसता आँखों से बरसातों सा जब-जब भू पर क्रंदन होता नभ में उठती ज्वालायें जब-जब दुख से कातर होकर त्राण चाहती मानवता तब गुरु हाथ उठाकर कहते सर्वेषां स्वस्तिर्भवतु। जब धरती भी कांपने लगती हिंसा के आघातों से बूचड़ खाने खोल-खोल कर । करें कमाई सरकारें बढ़ते अत्याचार देखकर सिसक सिसक कर रोती करूणा तब मेरे गुरुवर गाते हैं। सर्वेषां शान्तिर्भवतु। सागर की लहरों सा जीवन गंदे नाले में बदला तलवारों की प्यास बुझी जब झुका पाप का ही पलड़ा मानवता के खाते में बस आया ख्वाब अधूरा सा फिर गुरुवर की वाणी गूंजी सर्वेषां पूर्णंभवतु। 'कार्ड पैलेस' वर्णी कॉलोनी, सागर (म.प्र.) 24 सितम्बर 2003 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा समाधान जिज्ञासा तत्वार्थसूत्र की आर्थिका स्याद्वादमती द्वारा संपादित टीका में लोकान्तिक देवों के भेदों में 'आदित्य' नाम के देवों की परिभाषा 'देवमाता आदिति की संतान' लिखा है, यह किस अपेक्षा से है ? प्रश्नकर्ता - श्रीमती ज्ञानमाला जैन, भोपाल । · समाधान- टीकाकर्ती ने तत्वार्थसूत्र अध्याय - 4, सूत्र नं. 25 की टीका में आदित्य देवों की परिभाषा 'देव माता आदिति की संतान' जो लिखा है, वह श्रुतसागर सूरि की टीका के अनुसार है पर वास्तविकता ऐसी प्रतीत नहीं होती। आप्टे शब्द कोश के अनुसार, आदित्य शब्द का हिन्दी अर्थ भी इसी प्रकार लिखा है । लौकान्तिक देवों के नाम के अनुसार, उनकी परिभाषा बनाना सर्वार्थसिद्धिकार, राजवार्तिककार तथा श्लोकवार्तिककार जैसे महान् आचार्यों को अभीष्ट नहीं था । इसीलिए इन आचार्यों ने ऐसा कुछ नहीं लिखा। अतः श्रुतसागर सूरी द्वारा शब्दार्थ के रुप में लिखित परिभाषाओं को प्रमाणीक कैसे मान लिया जाए। इन परिभाषाओं को तर्क की कसौटी पर कसने से बहुत आपत्तियाँ आएँगी जैसे1. टीका में सारस्वत देव उन्हें कहा है, जो चौदह पूर्व के ज्ञाता होते हैं। तो क्या अन्य सात प्रकार के देव 14 पूर्व के ज्ञाता नहीं होते, जबकि महान् आचार्यों ने सभी लौकान्तिक देवों को 'चतुर्दश पूर्वधराः ' कहा है। , 2. आदित्य देव की जो उपरोक्त परिभाषा लिखी है वह तो किसी तरह भी उचित प्रतीत नहीं होती। सभी देव उपपाद जन्म वाले होते हैं, अतः इनकी माता कौन हो सकती है। 3. वन्हि देव की परिभाषा में लिखा है जो वन्हि के समान दैदीप्यमान हों। यह भी परिभाषा उचित नहीं है। सारे लौकान्तिक देव शुक्ल लेश्या के धारक होते हैं। उनके शरीर की द्रव्य लेश्या शुक्ल होती है, अतः वन्हि के समान दैदीप्यमान कैसे। 4. जिनके कामादिजनित बाधा नहीं है वे अव्याबाध लिखे हैं, तो क्या अन्य देवताओं को कामादि की बाधा होती है। अन्य चार देवों की परिभाषाएँ भी नाम के अनुसार उचित नहीं बैठती। सभी लौकान्तिक देव चौदह पूर्व के ज्ञाता, अहमिन्द्रों के समान स्वतन्त्र, किसी भी प्रकार के हीन या अधिकपने से रहित, विषयों से विरक्त, ऋषितुल्य आदि सभी गुणों की अपेक्षा समान हैं। केवल नाम निक्षेप से अन्तर है। इन लौकान्तिक देवों को देवमाता आदिति की सन्तान कहना तो देवों का अवर्णवाद हो जायेगा। अतः व्याकरण के अनुसार इनके नामों की परिभाषा बनाना आगम परम्परा से उचित प्रतीत नहीं होता । जिज्ञासा- पद्मनन्दिपंचविशंतिका अधिकार - 7, श्लोक नं. 23 में बलि शब्द का क्या अर्थ गृहण किया जाये ? समाधान पूजा प्रकरण में बलि शब्द अन्य शास्त्रों में भी आया है जैसे सागारधर्मामृत अध्याय २/२९ 'बलि स्नपन नाट्यादि .......' इसकी टीका करते हुए आर्यिका सुपार्श्वमती जी ने तथा पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री ने इस शब्द का अर्थ उपहार लिया है। अर्थात् छत्र या भामण्डल आदि वस्तुएँ उपहार स्वरूप मंदिर में भेंट करना । इसको भी बलि शब्द से कहते हुए पूजाओं में गर्भित किया है । अतः बलि शब्द का अर्थ उपहार या भेंट लेना चाहिए। जिज्ञासा अढ़ाई द्वीप के तीनों क्षेत्रों के अलग-अलग कितने वृषभाचल हैं? समाधान- वृषभाचल उन पर्वतों को कहा जाता है, जिन पर उस क्षेत्र का चक्रवर्ती दिग्विजय के उपरांत अपना नाम अंकित करने के लिए जाता है। ये वृषभाचल म्लेच्छ खण्ड में होते हैं । इनकी संख्या के बारे में श्री त्रिलोकसार गाथा नं. 710 में इस प्रकार कहा है- सत्तरिसयवसहगिरी मज्झगयमिलेच्छखंडबहुमज्झे । कणयमणिकंचणुदयति भरिया गयचक्किणामेहिं ॥ 710 ॥ अर्थ- मध्यगत म्लेच्छ खण्ड के ठीक मध्य भाग में स्वर्ण वर्ण वाले मणिमय वृषभाचल पर्वत हैं। ये प्रत्येक देश में एकएक हैं, अत: इनकी कुल संख्या 170 है। इनके उदय आदि तीनों प्रमाण कान्वन पर्वत सदृश हैं। ये पर्वत अतीत कालीन चक्रवर्ती राजाओं के नामों से भरे हुए हैं | 710 ॥ जिज्ञासा - अनादिकाल से छह महीने आठ समय में 608 जीव मोक्ष चले जाते हैं, तब यह संसार कभी तो जीवों से रहित हो जायेगा ? समाधान- यह संसार कभी भी भव्य जीवों से रहित नहीं होता। आपके प्रश्न का समाधान श्री वृहदद्रव्यसंग्रह की गाथा नं. 37 की टीका में, श्री ब्रह्मदेव सूरी ने इस प्रकार किया है शंका- अनादिकाल से जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं अतः यह जगत कभी शून्य हो जायेगा ? समाधान- जिसप्रकार भविष्यकाल के समय क्रम क्रम से व्यतीत होने से यद्यपि भविष्यकाल की समय राशि में कमी होती है तो भी उसका कभी भी अंत नहीं होता है। उसीप्रकार जीव मोक्ष में जाने पर यद्यपि जीवों की राशि में कमी होती है तो भी उसका अंत नहीं होता है। यदि जीव मोक्ष में जाने पर संसार में जीव की शून्यता होती हो तो भूतकाल में बहुत जीव मोक्ष गये हैं। तो भी अभी जगत में जीवों की शून्यता क्यों नहीं दिखाई देती है। तथा अभव्य जीवों और अभव्य समान भव्य जीवों का मोक्ष नहीं है, तो फिर जगत में जीवों की शून्यता किस प्रकार होगी ॥ 37 ॥ सितम्बर 2003 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा यक्ष, क्षेत्रपाल आदिकों को शास्त्रों में कैसा देव कहा गया है ? श्रीमती प्रतिभा जैन, जयपुर प्रश्नकर्ता समाधान ये क्षेत्रपाल, यक्ष-यक्षिणी आदि भवनत्रिक देवों में आते हैं। इनको शास्त्रों में असुर कहा गया है। तथा वैमानिक देवों को सुर कहा गया है। इस संबंध में कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं - चडविह विकहासत्तो ममयत्तो असुह भाव पडत्थो । होऊण कुदेवत्तं पत्तोसि अणेयवाराओ | 16 ॥ अर्थ- हे मुने । चार प्रकार की विकथा में आसक्त एवं ज्ञान पूजादि आठ प्रकार के मद से उन्मत्त होकर तथा निरन्तर हिंसा आदि पाप रूप वा आर्तरौद्र ध्यान रूप अशुभ भावों में रत होकर तू अनेक बार देव दुर्गति को प्राप्त हुआ है...... अनेक बार असुरादि कुदेव गति में गया है। (हिन्दी टीका आर्यिका सुमती जी) श्रुतसागर सूरी की टीका तथा पं. पन्नालाल जी की हिन्दी टीका में भी, 'कुदेव-असुर आदि नीच देवों की गति को,' ऐसा लिखा है। 3. कुपात्रदान का फल लिखते हुए श्रीप्रवचनसार गाथा 257 में (अविदिदपरमत्थेसु य.......) कहा है 'जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है और जिसके विषय कषाय की प्रबलता है, ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा, उपकार या दान कुदेव रूप में (नीच देवों में) और कुमनुष्य रूप में फलता है।' आचार्य वीरसेन महाराज के अनुसार द्वितीय शुक्ल ध्यान ११ वें तथा १२ वें दोनों गुणस्थानों में कहा गया है। क्योंकि ध्यान - 2. मोक्षपाहुड गाथा 92 (कुच्छिय देवं धम्मं .......) में के चार भेद निरूपण में तृतीय शुक्ल ध्यान को सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति सूर्य, चन्द्रमा, यक्ष, भैरवी आदि को कुत्सित देव कहा है। कहा गया है अर्थात् यहाँ सूक्ष्मकाय योग रह जाने के कारण सूक्ष्मक्रिया है और यहाँ से मुनिराज नीचे नहीं गिरते इसलिए इस तृतीय शुक्ल ध्यान का अप्रतिपाति विशेषण भी दिया गया है। इससे यह अपने आप स्पष्ट हो जाता है कि एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यान अप्रतिपाति नहीं है और इससे मुनिराज नीचे आ सकते हैं। यदि एकत्व वितर्क शुक्लध्यान का गुणस्थान मात्र १२ वां ही माना जाए तो इससे नीचे उतरने का कोई प्रसंग न होने से, एकत्ववितर्क के साथ अप्रतिपाति विशेषण लगाना चाहिए था परन्तु आचार्यों ने ऐसा नहीं किया जो इस बात का परिचायक है कि एकत्ववितर्क शुक्लध्यान से मुनिराज नीचे जा सकते हैं। यह नीचे जाना ११ वें गुणस्थान में सम्भव है अतः एकत्ववितर्क शुक्लध्यान के ११ और १२ गुणस्थान मानना उचित है। सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/37 की टीका में कहा है ' श्रेण्योः शुक्ले इति व्याख्यायते' अर्थ- दोनों श्रेणियों में आदि के दो शुक्ल ध्यान होते हैं, ऐसा व्याख्यान करना चाहिए। पं. सदासुखदास जी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार की टीका में कुपात्रदान के फल से कुदेवों में (व्यंतर भवनवासी, ज्योतिषी) देवों में उत्पत्ति होना लिखा है। 4. श्री वृहदुदुव्यसंग्रह गाथा - 4 की टीका में श्री ब्रह्मदेवसूरी ने सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में इस प्रकार लिखा है अथ देवगतौ पुनः प्रकीर्णकदेव, वाहन देव, किल्विष देव नीच देवत्रयं विहायान्येषु महार्द्विकदेवेषूत्पद्यते सम्यग्दृष्टिः । अर्थ - तथा देवगति में प्रकीर्णक देव, वाहन देव, किल्विष देव और तीन नीच देवों । (व्यन्तर, भवनवासी ज्योतिषी) के अतिरिक्त महाऋद्धिधारक देवों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं। उपरोक्त प्रमाणों के अनुसार यक्ष यक्षिणी आदि भवनत्रिक देवों को आगम में असुर कुदेव, कुत्सित देव, नीच देव तथा देवदुर्गति आदि शब्दों द्वारा कहा गया है। जिज्ञासा कौन सा शुक्लध्यान किस गुणस्थान में होता है कृपया स्पष्ट करें ? 1. जो परम्परा सप्तम गुणस्थान से शुद्धोपयोग स्वीकार करती है, उसके अनुसार पृथक्त्ववितर्क नामक प्रथम शुक्ल ध्यान आठवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक, द्वितीय एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यान १२ वें गुणस्थान में, तृतीय सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति शुक्ल ध्यान १३ वे गुणस्थान में और व्युपस्तक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यान चौदहवें गुणस्थान में पाया जाता है। चौबीस ठाना में इसीप्रकार वर्णन है। - 26 सितम्बर 2003 जिनभाषित 2. दूसरी परम्परा श्री धवलाकार आचार्य वीरसेन महाराज की है जो, १० वें सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक धर्मध्यान स्वीकार करते हैं। इन आचार्य के अनुसार प्रथम शुक्ल ध्यान ११ वें एवं १२ वें गुणस्थान में कहा गया है। क्योंकि जो क्षपक श्रेणी चढ़ने वाले मुनिराज हैं वे ११वें गुणस्थान में नहीं जाते। वे १० वें गुणस्थान से सीधे १२ वे गुणस्थान में जाते हैं, अतः ऐसे मुनिराजों के प्रथम शुक्ल ध्यान १२ वे गुणस्थान में होता है, तथा उपशम श्रेणी वाले मुनिराजों की अपेक्षा ११ वें गुणस्थान में कहा गया है। प्रश्नकर्ता - ब्रह्मचारिणी बहिन अर्चना, कोटा समाधान उपरोक्त प्रश्न से संबंधित शास्त्रों में पुपत्तविदकवीचारस्स वि संभवसिद्धि दो। ध्यान/गुणस्थान की दो परम्पराओं का निरूपण मिलता है। भावार्थ : उपशम श्रेणी में भी दोनों शुक्लध्यान होते हैं। ओर क्षपक श्रेणी में भी अर्थात् प्रथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान बारहवें गुणस्थान में भी होता है और एकत्व वितर्क शुक्लध्यान, ग्यारहवें गुणस्थान ( उपशम श्रेणी में होने के कारण) में भी होता है। श्री धवला पु. १३ पृष्ठ 81 पर कहा है 'ण च खीणकसायद्धाए सव्वत्थ एयत्त'- विदक्कावीचारज्झाणमेव, जोग परावत्तए एकसमय परुवणण्णहाणुववत्तिवलेण तदद्धदीए अर्थ- क्षीण कषाय गुणस्थान में सर्वत्र एकत्व वितर्क ध्यान ही होता है, ऐसा कोई नियम नहीं हैं क्योंकि वहाँ योग Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परावृत्ति का कथन एक समय प्रमाण अन्यथा नहीं बन सकता। उत्तर- ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए। क्योंकि उपशांत इससे क्षीण कषाय (१२ वें गुणस्थान) काल के प्रारंभ में पृथक्त्व | कषाय गुणस्थान में केवल पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यान ही होता वितर्क वीचार ध्यान का अस्तित्व भी सिद्ध होता है। भावार्थ- | है, ऐसा कोई नियम नहीं है (अर्थात् ११ वें गुणस्थान में द्वितीय प्रथम शुक्लध्यान १२ वें गुणस्थान में भी संभव है। शुक्ल ध्यान भी होता है) निष्कर्ष ११ वें तथा १२ वें, दोनों इस पृष्ठ पर यह भी कहा है कि 'उवसंत कसायम्मि | गुणस्थानों में प्रथम व द्वितीय, दोनों शुक्ल ध्यान संभव हैं। एयत्तविवक्त वीचारसंते उवसंतो दु पुछत्तं इच्चेदेण विरोहो होदित्ति | तृतीय शुक्लध्यान १३ वें गुणस्थान के अंतिम अन्तर्मुहूर्त णासंकणिज्ज, तत्थ पुषत्तमेवेत्ति णियमाभावादो।' में समुद्घात के उपरांत ही होता है। गंधकुटी में विराजमान, ___ अर्थ -प्रश्न- यदि उपशांत कषाय गुणस्थान में एकत्व | अरिहंत परमेष्ठी के कोई ध्यान या शुक्लध्यान नहीं होता। चतुर्थ वितर्क अवीचार ध्यान होता है तो 'उवसंतोदु पुछत्तं' इत्यादि गाथा शुक्लध्यान केवल अयोग केवली नामक चौदहवें गुणस्थान में वचन के साथ विरोध आता है। होता है। फेनिल पेय और कीटनाशक हाल में ही सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट | लिंडेन एक घातक कीटनाशक होता है जो शरीर के केन्द्रीय (सी.एस.ई.) के प्रदूषण निगरान प्रयोगशाला (पीएमएल)ने दिल्ली | तंत्रिका तंत्र के साथ प्रतिरक्षी को नष्ट करता है और यह एक जाने वाले उन बारह सॉफ्ट ड्रिंक्स के नमूनों के विश्लेषण का | निश्चित कैंसरजन भी होता है। यह कोल्ड ड्रिंक के शत प्रतिशत परिणाम घोषित किया जिनका विपणन दो बहुराष्ट्रीय कंपनियों | नमूनों में पाया गया। क्लोरोपाइरीफोज़ से निमोनिया, मांसपेशीय कोका कोला और पेप्सिको द्वारा किया जाता है। प्रयोगशाला पक्षाघात, यहां तक कि श्वसन तंत्र की विफलता के कारण मौत परीक्षणों से यह स्पष्ट हुआ कि इन कंपनियों द्वारा विपणन किए भी हो सकती है और यह विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं और जाने वाले सॉफ्ट ड्रिंक में यूरोपीय आर्थिक आयोग (ईईसी) के | बच्चों के लिए खतरनाक होता है क्योंकि यह एक संभावित मानकों से कई गुना अधिक कीटनाशकों की मात्रा मौजूद थी। | न्यूरोटेरैटोजेन है (इससे भ्रूण में विकृति उत्पन्न होती है)। यह पेप्सिको के सभी ब्रांडों में कुल कीटनाशकों की औसत मात्रा कीटनाशक शत प्रतिशत नमूनों में पाया गया। इन सभी नमूनों में 0.0180 मिलीग्राम प्रति लीटर थी जो यूरोपीय आर्थिक आयोग | पाये गये क्लोरोपाइरीफोज़ की औसत मात्रा ई.ई.सी. के मानक से (ईईसी) के द्वारा मान्य कुल कीटनाशक सीमा (0.0005mg/ 42 गुना अधिक थी। मैलाथियान 97 प्रतिशत नमूनों में पाया 1) से 36 गुना अधिक है। कोका कोला के सभी ब्रांडों में कुल | गया। मिरिंडा लेमन के नमूने में इसका संदूषण सबसे अधिक कीटनाशकों की औसत मात्रा 0.0150 मिली ग्राम प्रति लीटर थी | था, किसी एक कीटनाशक के लिए ई.ई.सी. की अनुमन्य सीमा जो ई.ई.सी. द्वारा मान्य सीमा से 30 गुना अधिक है। मिरिंडा से 196 गुना अधिक। कोका कोला में ई.ई.सी. के मानक से 137 लेमन संभवतः सबसे संदूषित हैं जिसमें स्वीकृत सीमा से 70 | गुना अधिक मैलाथियान पाया गया।मैलाथियान मानव के यकृत गुना अधिक कीटनाशक पाये गये। पी.एस.एल. ने 16 में सक्रिय होकर मैलाओक्सॉन का निर्माण करता है जो तंत्रिका आर्गेनोक्लोरीन कीटनाशकों, 12 आर्गेनोफास्फोरस कीटनाशकों | तंत्र के लिए घातक होता है। यह एक निश्चित म्यूटाजेन भी हैऔर 4 संश्लेषित पाइरेथ्राइड्स के लिए सॉफ्ट ड्रिंक के नमूनों | अर्थात् यह शरीर की रंगसूत्रीय (क्रोमोसोमल) व्यवस्था के साथ का परीक्षण किया। ये सभी आम तौर पर खेतों या घरों में | छेड़-छाड़ कर सकता है। इन कीटनाशकों के मिश्रण का सर्वाधिक कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं। घातक प्रभाव होता है। मिश्रण के प्रत्येक घटक की मात्रा अलगसॉफ्ट ड्रिंक्स में मुख्य रूप से चार कीटनाशक डी.डी.टी. | अलग कम प्रभावी हो तो भी एक संकेंद्रण में उपलब्ध होने पर लिंडेन क्लोरोपाइरीफोज़ और मैलाथियान पाये गये (रोचक तथ्य | इसके कई प्रकार के प्रभाव हो सकते हैं। यहां तक कि इन सॉफ्ट यह है कि अमेरिका से प्राप्त कोला के नमूनों में ये संदूषक नहीं पाये | ड्रिक्स का अपशिष्ट उत्पाद भी सुरक्षित नहीं है। केरल के प्लाचीमाड़ा गये)181 प्रतिशत सॉफ्ट ड्रिंक्स के नमूनों में डी.डी.टी.और इसके | कोक संयंत्र से प्राप्त अपशिष्ट उत्पाद में, जो स्थानीय कृषकों को मेटाबोलाइट्स पाये गये।ये कीटनाशक विभिन्न प्रजातियों के लैंगिक | उर्वरक के रूप में बहुत सस्ते दाम में बेचा जा रहा है, भारी धातु विकास में हेर-फेर, वीर्य की गुणवत्ता में क्षरण और महिलाओं में | संदूषक जैसे सीसा व कैडमियम पाये गये। स्तन कैंसर के मामलों में वृद्धि के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं।। ड्रीम 2047, अगस्त 2003 सितम्बर 2003 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बिलहरी जिनेन्द्र कुमार जैन कटनी शहर से पंद्रह किलोमीटर दूर स्थित बिलहरी नगर, जो कभी पुष्पावती नगरी के नाम से विख्यात था। इन दिनों जनजन की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। तारण पंथ के प्रवर्तक संत तारण-तरण की जन्मस्थली होने के साथ-साथ यह क्षेत्र दिगम्बर जैन संस्कृति का महान् केन्द्र रहा है। यहाँ विराजमान आठमीनवमी शताब्दी की भगवान् बाहुबली की मनोज्ञ युगल प्रतिमाओं के कारण एक ओर इस देश की सबसे प्राचीन बाहुबली प्रतिमा से मंडित होने का गौरव प्राप्त है यहाँ उपलब्ध शताधिक मूर्तियाँ, पुरावशेषों एवं चारों तरफ खाली पड़े मंदिरों के विशाल शिखरों को देखकर यह सहज ही अनुमान लग जाता है कि यह नगरी कभी किया तथा वहाँ उपस्थित श्रद्धालुओं को मंदिर के जीर्णोद्धार के साथ प्रतिमाओं को भव्य वेदी पर विराजमान करने का मार्ग दर्शन दिया। जैन संस्कृति का बहुत बड़ा केन्द्र रही होगी। अगले दिन मंदिर की जीर्णअपने गरिमामयी अतीत को समेटी यह नगरी चर्चा का गरिमामयी अतीत को सोयह नगरी चर्चा का शीर्ण अवस्था को ध्यान में विषय तब बनी जब विगत् दो वर्षों पूर्व यहाँ के पंचायती जैन मंदिर रखते हुये इंजीनियरों से की दीवार की खुदाई से दीवार में चुनी चौदह जिन प्रतिमाएँ प्रकट दाई से दीवार में चनी चौदह जिन पतिमापक परामर्श लेकर पूरे मंदिर के हुईं। प्रतिमाओं के प्रकट होने का समाचार सुनते ही कटनी और जीर्णोद्धार सहित तीन वेदी आस-पास के जैन श्रद्धालुओं का तांता लग गया। सभी के मन में का और भव्य शिखर युक्त इन प्रतिमाओं को भव्य वेदी पर विराजमान करने की उत्कृष्ट मंदिर बनाने का संकल्प अभिलाषा थी। परंतु मंदिर जी जीर्ण-शीर्ण दशा और चार घर की कटनी की जैन समाज ने साधन हीन स्थानीय जैन समाज इस कार्य को आगे बढ़ाने का ठोस लिया। मुनिद्वय के प्रेरक उपक्रम नहीं कर सकी। प्रवचनों से प्रभावित होकर इसी बीच इस वर्ष कटनी से बहोरीबंद चातुर्मास के लिये दानदाताओं ने मुक्त हस्त से बिहार करते हुये संत शिरोमणि आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी संत शिरोमणि आचार्य गरुवर विद्यासागर जी | दान की घोषणा की स्थानीय महाराज के परम प्रभावक शिष्य-मुनिश्री १०८ समता सागर जी. | जैन समाज ने भी उदारता मुनिश्री १०८ प्रमाण सागर जी, ऐलक १०५ श्री निश्चय सागर जी पूर्वक दानराशि घोषित की। महाराज जिन प्रतिमाओं के दर्शनार्थ बिलहरी पहुँचे। यहाँ विराजित मंदिर अत्यंत जीर्णप्रतिमाओं के दर्शन से मुनिद्वय मुग्ध हो उठे। मुनिद्वय ने भगवान् | शीर्ण स्थिति में था। उसके आदिनाथ की अत्यंत मनोज्ञ प्रतिमा को देखकर अपार हर्ष व्यक्त गुमटीनुमान शिखरों पर लगी 28 सितम्बर 2003 जिनभाषित . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्थरों की डाटे चटकी हुई थीं। आजू-बाजू की दीवार मिट्टी से चिनी आदिनाथ की दो प्रतिमाएँ अत्यंत मनोज्ञ हैं जो कि आंशिकरुपसेखंडित हुई थी। सारी स्थितियों को देखते हुए विशेषज्ञों ने यह निर्णय लिया कि हैं। अभी यहाँ पर और भी प्रतिमाओं के प्रकट होने की संभावना व्यक्त वर्तमान स्वरूप को बदले बिना यहाँ कोई भी निर्माण संभव नहीं है। इस की जा रही है। वर्तमान में तीन शिखर और तीन वेदी से युक्त भव्य मंदिर के निर्माण की योजना प्रस्तावित है जिसमें प्रतिमाओं की प्राचीनता को देखते हुये देशी पाषाण में बंदी बनाने की योजना है। लगभग 20 लाख की लागत से सम्पन्न होने वाली इस योजना में श्री अशोक पाटनी महत् कार्य हेतु पंडित जगनमोहनलाल जी शास्त्री कटनी के सुपुत्र श्री (आर.के.मार्बल्स), श्री रतन लाल जी बैनाड़ा (आगरा), श्री सुरेशचंद प्रमोद कुमार जैन ने अपने सहयोगी श्री संतोष मालगुजार जिन्होंने यहाँ जी जैन (बिलहरी),श्री शंकरलाल जैन (कटनी),श्री वीरेन्द्र कुमार स्थित अपने पैतृक मंदिर का पूरा जीर्णोद्धार अपने द्रव्य से कराया एवं श्री लट्ट भईया, श्री बब्लू सरावगी आदि का विशेष योगदान प्राप्त हुआ है। विजय जैन विश्व एवं स्थानीय समाज के श्री सुरेश चंदजी जैन संप्रति बिलहरी नगरी में तीन जिनालय हैं, जिनमें से तीन शिखरों से (सुराजीलाल) एवं सुबोध जैन, ताराचंद जैन, कस्तूरचंद जैन, कैलाश युक्त बड़ा जैन मंदिर का जीर्णोद्धार अभी हाल में ही कटनी के चंद जैन, प्रेमचंद जैन, राजेश जैन एवं बालचंद जैन के साथ इस कार्य मालगुजार परिवार द्वारा कराया गया है, इस मंदिर का निर्माण उनके ही को संपन्न कराने में जुट गये। इस क्रम में श्रद्धालुओं का हर्ष तब और बढ़ पूर्वजों द्वारा कराया गया था। गया जब मंदिर की दूसरा जिन मंदिर अच्छी स्थिति में है तथा तीसरे मुख्य मंदिर पुरानी मिट्टी की दीवार में निर्माण कार्य चल रहा है। तीनों जैन मंदिरों का प्रबंधन स्थानीय समाज को हटाते समय वहाँ द्वारा किया जाता है। कटनी की दिगम्बर जैन समाज द्वारा भी समयदीवार के भीतर चिनी समय पर आपेक्षित सहयोग मिलता रहता है। हुई आठ और प्रतिमाएँ मंदिर जीर्णोद्धार समिति पूरी तत्परता से अपने कार्य में जुटी निकल पड़ी। इनमें हुई है। यह गुरुतर कार्य आप सबके सहयोग के बिना सम्पन्न नहीं एक ही फलक पर हो सकता। जैन संस्कृति की इस अनुपम धरोहर को सुरक्षित रखना अंकित प्रतिमाओं के हम सबका दायित्व है। युगल अत्यंत मनोज्ञ मंदिर जीर्णोद्धार समिति और बिलहरी की दिगम्बर जैन हैं। दोनों फलकों पर समाज सभी उदारमना धर्म प्रेमी बंधुओं से इस महत् कार्य को खडगासन मुद्रा में सम्पन्न कराने के लिये अधिक से अधिक दान राशि प्रदान करने की अंकित युगल अपील करती है, आपका थोड़ा सा सहयोग भी क्षेत्र के विकास के प्रतिमाओं को देखकर लिये मील का पत्थर बनेना। कृपया दान की राशि निम्न पते पर ब्रिटिश म्यूजियम भेजें लंदन स्थित भगवान् श्री पार्श्वनाथ दि. जैन पंचायती मंदिर, आदिनाथ और बिलहरी (कटनी) म.प्र. महावीर स्वामी की स्वास्तिक ट्रेडिंग कम्पनी, नेहरु पार्क, कटनी (म.प्र.) प्रतिमाओं का सहज ही स्मरण हो आता है। इसके अतिरिक्त चार अन्य अभियंता, भारत संचार निगम लिमिटेड, प्रतिमाएँ भी यहाँ से प्राप्त हुई हैं। जिसमें पद्मासन मुद्रा की भगवान भोपाल - सितम्बर 2003 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदलगा (कर्नाटक) में आर्यिकारत्न आदर्शमति का ससंघ चातुर्मास महानेह की खान सदलगा की पावन भू को बारम्बार प्रणाम। जिस धरा ने दिया एक महासन्त जो महाबसन्त बन फैला रहे हैं वैराग्य सावन की सुरभित खुशबू। एक तरफ महावैरागी गोमटेश विश्व पताका बनकर दक्षिण प्रान्त में लहरा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ दक्षिणांचल-आदित्य की सुनहली किरणों से शिष्य कमल दल ही नहीं वरन् सारा विश्व सुवासित है। अहिंसा का शंखनाद करने वाले मुक्तांवर श्री गुरुवर का बचपन बीता दक्षिण की हरित - भरित धरा पर । हमारा सौभाग्य है कि आज इस धरा पर, परम पूज्य १०८ आचार्य विद्यासागर जी महाराज की परम शिष्या आर्यिका रत्न १०५ श्री आदर्शमति माताजी का ससंघ यहाँ पर चातुर्मास हो रहा है। हम सबकी मनोभावना यही है अभी महासूर्य आचार्य परमेष्ठी की किरणें यहाँ आयी हैं, विश्वास है एक दिन वह महासूर्य स्वयं अपनी तेजस्वी किरणों के साथ यहाँ आयेंगे। सदलगा की धरती एवं संपूर्ण महाराष्ट्र एवं दक्षिण प्रान्त प्रतीक्षारत है। चातुर्मास के कार्यक्रम एवं व्यवस्थापाकों का विवरण 1. सदलगा प्रवेश 2. चातुर्मास कलश स्थापना १०-०७-२००३ १३-०७-२००३ 3. प्रतिभा मंडल कलश स्थापना २२-०७-२००३. 4. मुकुट सप्तमी पर्व ०४-०८-२००३ 5. रक्षा बंधन पर्व १२-०८-२००३ 6. श्री रवीन्द्र बाबू प्रधान (सदलगा ) १०८ आ. श्रीविद्यासागरजी महाराज के चित्र का अनावरण 7. चातुर्मास स्थापना कलश की बोली लेने वाले श्रावक श्री अभयकुमार बाबूराव बरगाले व परिवार इचलकरंजी श्री कुमार अ. संभोजे, सदलगा बहन ब्रे. गीता दीदी अशोक नगर (म.प्र.) श्री बाबूजी आप्पण्णा बाजक्के श्री आण्णासो पारीसा तवनक्के श्री कुंतल आदप्पा तवनक्के व परिवार 10. जहाँ आर्यिका संघ रुका है श्री 1008 शांति दिगम्बर उस स्थान का नाम जैन मंदिर अतिशय क्षेत्र सदलगा 8. 9. 30 प्रतिभा मंडल स्थापना कलश लेने वाली बहिन प्रतिभा मंडल को आवास प्रदान करने वाले श्रावक समाचार सितम्बर 2003 जिनभाषित 11. इचलकरंजी से सहयोग देनेवाले श्रावकों के नाम 12. सदलगा चातुर्मास समिति के सदस्य श्री छीतरमजी पाटणी श्री तेजराजजी बोहरा श्री धनराज जी बाकलीवाल श्री शोभारामजी पाटनी श्री ग्यानचंदजी पाटनी श्री विमलजी कासलीवाल श्री अभयकुमार बरगाले श्री महावीर अष्टगे, सदलगा श्री रवींद्र बाबू प्रधान, सदलगा श्री सुरेंद्र आ. प्रधान श्री बाळासो आप्पासो पाटील श्री 'बाबू आप्पाण्णा बाजक्के श्री दादासो शिवगौडा पाटील श्री प्रकाश जिनगौडा पाटील श्री कुमार आदप्पा संभोजे श्री श्रीकांत दास उगारे श्री चवगौड़ा बाळगौडा पाटील श्री रावसो प्रधाने श्री महावीर आदगौडा पाटील श्री मल्लप्पा तात्या तवनक्के श्री रावसाहेब बदनीकाई श्री चंद्रकांत पाटील श्री उदय बाबासाब पाटील श्री चंद्रकांत हुक्केरी श्री बाळासाहेब पाटील श्री कलगौडा भाऊ तारदाळे श्री कुमार भाऊ बदनीकाई श्री रावसाब लडगे श्री सातप्पा नकाते श्री अजीत उदगावे श्री सुभाष काळे श्री डॉ. सुरगौडा पाटील श्री राजेंद्र अ. काळे श्री बापुसो नांद्रे अध्यक्ष और कमेटी - वीर सेवा 11 " " 19 11 ** 11 " 17 11 "" " 19 11 37 :::::: दल, सदलगा अध्यक्ष और कमेटी- वीर महिला मंडल, सदलगा प्रस्तुति : दादा साहब एस. पाटिल सदलगा (कर्नाटक) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षय जैन को सर्वश्रेष्ठ छात्र का गौरवशाली एवार्ड प्राप्त हुआ सतना। आई.आई.टी. मद्रास से जून 2003 में बी. टेक. की डिग्री प्राप्त करने वाले सतना के होनहार छात्र अक्षय जैन को सर्वश्रेष्ठ छात्र के शंकर दयाल शर्मा एवार्ड से सम्मानित किया गया है। चेन्नई में आयोजित इण्डियन इंस्टीट्यूट आफ टेक्नालाजी के चालीसवें दीक्षांत समारोह के अवसर पर केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री श्री मुरली मनोहर जोशी ने अक्षय जैन को यह मैडेल, प्रमाण पत्र तथा पुरस्कार राशि का चैक प्रदान किया। सन् 1999 से 2003 तक के चार वर्ष के इंजीनियरिंग की सभी शाखाओं के संयुक्त सत्र में शैक्षणिक और अन्य गतिविधियों केन्द्रीय मंत्री श्री मुरली मनोहर जोशी से डॉ. शंकर दयाल शर्मा एवार्ड प्राप्त करते हुये अक्षय जैन। में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले एक छात्र को पूर्व राष्ट्रपति के नाम पर स्थापित यह एवार्ड दिया जाना था। पढ़ाई, तैराकी, पेंटिंग और जर्मनी में तैयार किये शोध पूर्ण प्रोजेक्ट के आधार पर अक्षय का इस हेतु चयन किया गया था । अक्षय की इस उपलब्धि पर राजस्थान के राज्यपाल महामहिम निर्मल चन्द्र जैन सहित अनेक व्यक्तियों ने उसे बधाइयाँ प्रेषित की हैं। सुधीर जैन आचार्य समंतभद्र महाराजश्री की पुण्यतिथि संपन्न श्री पार्श्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल, एलोरा इस संस्था के संस्थापक, गुरुकुल प्रणेते स्व. समंतभद्र महाराज के निर्वाण दिन के उपलक्ष में 'गुणवंत विद्यार्थी सत्कार समारोह' श्री सुभाषसा केशरसा साहुजी भोजनालय वास्तु में आयोजित हुआ। इस कार्यक्रम के अध्यक्ष गुरुकुल संस्था सदस्य, भूतपूर्व शिक्षाधिकारी श्री प्रभाकरजी गोसी थे। मुख्य अतिथि सर्वश्री पूनमचंदजी गंगवाल कन्नड, श्री संतोष जी टोले लासुर (रवि मसाला उत्पादक), श्री अजित इंगलवारऔरंगाबाद, श्री महावीर जी पाटणी-कन्नड, भंडारदाता तथा भूतपूर्व छात्र श्री सुभाषसा केशरसा साहुजी- जालना तथा सत्कार मूर्ती भूतपूर्व नायब तहसीलदार एन. बी. कासलीवाल थे। कार्यक्रम में करीबन 70000 रु. के पुरस्कार मेहमानों के हाथ से होनहार छात्रों को दिये गये । दातारों में विशेष रूप से प्रायोजक के रूपमें श्री आर. के. मार्बल और विद्यालय के सभी शिक्षकगण का योगदान रहा। इस कार्यक्रम में छात्रों ने सभा के समक्ष तत्वार्थसूत्र, रत्नकरंडक श्रावकाचार आदि ग्रंथों को कंठस्थ सुनाया। कार्यक्रम में करीबन 150 छात्रों को पुरस्कृत किया। कार्यक्रम का समापन विद्यालय के अध्यापक सुकुमारजी नवले ने किया। अंतमें सामूहिक भोज का आयोजन हुआ सभा संचालन श्री पं गुलाबचंद जी बोरालकर ने किया । भगवान महावीर शताब्दी ट्रेन प्रारंभ करने की मांग जबलपुर ! भगवान महावीर स्वामी के 2602 वें जन्म महोत्सव के अवसर पर श्री दिगम्बर जैन शाकाहार परिषद ने भगवान महावीर शताब्दी ट्रेन प्रारंभ करने की माँग केन्द्र सरकार से की है। उक्ताशय की जानकारी देते हुये परिषद के अध्यक्ष श्री सुरेश चंद जैन (बरगी वालों) ने बताया कि उक्त माँग से संबंधित ज्ञापन केन्द्रीय रेल मंत्री श्री नितीश भारद्वाज को सौंपा जा चुका है। भारत शासन के 21 सांसदों के समर्थन पत्र भी इस आशय से एकत्रित किये जा चुके हैं। इस ट्रेन की विशेषता बताते हुए श्री जैन ने कहा कि इसमें माँस, मछली व अंडों का विक्रय पूर्णतः प्रतिबन्धित होगा, यह ट्रेन मुंबई से हावड़ा के बीच चलाई जावेगी। इससे पूर्व श्री जैन के निरंतर प्रयासों से जबलपुर के मेडिकल, ऐल्गिन्एविक्टोरिया अस्पतालों में एक-एक वार्ड को अहिंसा वार्ड घोषित किया जा चुका है। पर्यटन स्थल भेड़ाघाट को अहिंसक शाकाहारी क्षेत्र घोषित किया जा चुका है, जिससे यहाँ मछली मारने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। हिन्दुओं की आस्था स्थली माँ बूढ़ी खेरमाई का मंदिर, जहाँ सैकड़ों वर्षों से पशु बली दी जाती थी, वहाँ पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिया गया है। अमित पड़रिया चार समाजसेवियों को 'विद्या रत्न' की उपाधि जबलपुर, 30 अगस्त, सूरत में आयोजित श्री ओमप्रकाश, पुष्पा जैन षष्ठिपूर्ति समारोह में नगर के राजेन्द्र जैन, नरेश जैन गढ़वाल, अजित जैन एवं अरविंद जैन को 'जैन विद्यारल' की उपाधि से सम्मानित किया गया, राष्ट्र स्तरीय इस आयोजन में 108 आचार्य श्री भरत सागर जी महाराज ससंघ एवं देशभर से आये हुए 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के भक्तों की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। सितम्बर 2003 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | रही है। अमरकंटक में आ.श्री विद्यासागर जी के ससंघ | भी आयोजित किया गया है। महोत्सव में लगभग दो लाख लोगों सान्निध्य में जैन कुंभ की भव्य तैयारियाँ । के पहुंचने की उम्मीद है, इसी प्रकार व्यवस्थायें की जा रही हैं। महोत्सव के लिए दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता, अहमदाबाद, पटना से मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा नदी के उद्गम स्थल विशेष रलेगाड़ियां चलाने के प्रयास किये जा रहे हैं। इसके अलावा अमरकंटक में६ नवम्बर २००३ को विशाल जैनकुंभ' का आयोजन म.प्र. एवं छत्तीसगढ़ राज्य सरकारों से आग्रह किया गया है कि संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के ससंघ सान्निध्य महोत्सव में आने वाले वाहनों को तीन दिन के लिए परमिट शुल्क में किया जा रहा है। इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह बनने देश के से मुक्त रखा जाये। इस महोत्सव में यात्रियों को ठहराने, उनके महामहिम उपराष्ट्रपति श्री भैरोसिंह शेखावत सहित लाखों जैन भोजन व्यवस्था के लिए अनुभवी कार्यकर्ताओं की टीम बनाई जा अनुयायियों के अमरकंटक पहुँचने की संभावना है। आचार्य श्री की प्रेरणा से अमरकंटक में अक्षरधाम की रवीन्द्र जैन (पत्रकार) तर्ज पर विशाल सर्वोदय तीर्थ का निर्माण किया जा रहा है। यहां १०- बी. प्रोफेसर कॉलोनी, भोपाल १४४ फीट ऊंचा, ४२४ फीट लम्बा, १०१ फीट चौड़ा मंदिर तेजी से आकार ले रहा है। लगभग ३०० मजदूर पिछले दो वर्ष से वंशी गाय का दूध पीएं चैन की नींद सोए पहाड़ (राजस्थान) के गुलाबी पत्थरों को तराशकर इस विशाल सुनने में यह बात भले ही अटपटी लगे किन्तु ब्रिटेन के जिनालय को आकार दे रहे हैं। वैज्ञानिकों की बात पर विश्वास करें तो यह उन लोगों के लिये लगभग बीस करोड़ की लागत से बनने वाले इस मंदिर | बहुत अच्छी खबर है, जो रात में अच्छी नींद लेने के लिये तरसते के वास्तुविद् भी अक्षरधाम मंदिर बनाने वाले श्री सी.बी. सोमपुरा रहते हैं और नींद की गोलियां निगलने के बाद कभी चिंतामुक्त ही हैं। इस मंदिर में भगवान आदिनाथ की २४ हजार किलोग्राम गहरी नींद नहीं ले पाते, वैज्ञानिकों का कहना है रात को सोते वजन की अष्टधातु की विशाल प्रतिमा बनकर तैयार हो गई है तथा समय एक गिलास गाय का दूध पीने से बहुत अच्छी नींद आती अमरकंटक पहुंच गई है। इस प्रतिमा के लिये १८ हजार किलोग्राम है। ब्रिटेन के एक डेयरी फार्म ने ऐसा दूध लांच किया है, जो वजनी कमल सिंहासन भी अष्टधातु का बनाया गया है जो कि | अनिद्रा के शिकार व्यक्तियों के लिये रामबाण दवा के समान अहमदाबाद से तैयार होकर अमरकंटक पहुंच रहा है। साबित हो रहा है। ब्रिटेन के 'रेड व्हाइट फार्म' नामक इस डेयरी इस जिनालय के निर्माण के लिए लगभग चार एकड़ भूमि | फार्म में गायों का दूध (स्लम्बर बेडटाइम मिल्क) दिन के बजाय ली गई है तथा जमीन में तीस फीट खुदाई करके उसमें मजबूत रात के समय दुहा जाता है ताकि उसमें नींद लाने वाला तत्व पत्थरों से नींव तैयार की गई है ताकि यह मंदिर हजारों वर्षों तक | मेलेटोनिन अधिक मात्रा में हो, वैज्ञानिकों का कहना है कि दिन में जैन धर्म की पताका फहरा सके। मंदिर के निर्माण में लोहा, सीमेंट दूध दुहने से इसमें मेलेटोनिन का स्तर अपेक्षाकृत कम रहता है का उपयोग कतई नहीं किया जा रहा है बल्कि चूना, गुड़, उड़द, | जबकि रात के समय यह काफी बढ़ जाता है। यह तत्व शरीर की बेलपत्री, गोंद आदि के मसाले से पत्थरों की जुड़ाई की जा रही | घड़ी को नियंत्रित करता है और अनिद्रा को दूर भगाता है। है। इस विधि से बनने वाला भवन हजारों वर्षों तक मजबूती से आलू से भी हो सकता है कैंसर खड़ा रहा सकता है। जर्नल ऑफ फूड केमिस्ट्री में प्रकाशित एक रिपोर्ट के ६ नवम्बर २००३ को आयोजित इस भव्य समारोह के अनुसार पहले यह माना जाता था कि कैंसर बढ़ाने वाला तत्व अवसर पर आदिनाथ भगवान की प्रतिमा जिनालय के सिंहासन एक्रिलामाइड सिर्फ तम्बाकू में ही पाया जाता है, लेकिन हाल के पर विराजमान की जायेगी। इस कार्य के लिए एक विशेष क्रेन शोधों से यह ज्ञात हुआ है कि एक्रिलामाइड अधिक पकाये गये अमरकंटक में लगाई गई है। क्रेन के लिये पटरी आदि बिछा दी आलुओं में भी उपस्थित रहता है, जो कैंसर को उत्पन्न करता है। गई है। इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह बनने देश के उपराष्ट्रपति रिपोर्ट में बताया गया है कि आलू को खूब भूनकर खाना जाय या महामहिम श्री भैरोसिंह जी शेखावत को मुख्य अतिथि के रूप में फ्रेंच फ्राई या चिप्स के रूप में खाया जाये तो इससे न सिर्फ आमंत्रित किया गया है। इसके अलावा मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ मोटापा ही बढ़ता है, बल्कि धमनियों में रक्त प्रवाह में बाधा तथा राजस्थान के राज्यपालों व मुख्यमंत्रियों को भी विशिष्ट अतिथि उत्पन्न होकर कैंसर का भी खतरा बढ़ा सकता है। के रूप में आमंत्रित किया जा रहा है। महोत्सव की शुरूआत ५ नवम्बर २००३ को आचार्यश्री दैनिक भास्कर, ६ जुलाई, २००३ . के मंगल आशीर्वाद से होगी। इसी दिन सर्वोदय तीर्थ का सम्मेलन 32 सितम्बर 2003 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखर बस्ती, सदलगा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि.नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 कल बस्ती, सदलगा 06 स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित। -202004 .