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प्रवचनांश
कर्मों की गति
कर्मभूमि में कर्मों की गति से कोई मुक्त नहीं हो सकता चाहे वह चक्रवर्ती हो, दिव्यपुरुष हो, भव्य पुरुष हो अथवा महापुरुष हो । अमरकण्टक की मनोरम वादियों में उपस्थित जन समुदाय को सत्य की अनुभूति कराते हुए दार्शनिक सन्त आचार्य विद्यासागर ने कहा कि जब तक तन में चेतन है, अर्थवान है, चलायमान है । चेतन का साथ छूटते ही निरर्थक हो जाता है, जो शेष है वह पार्थिव है, जो चलता भी नहीं, जिसे ले जाया जाता है । निजात्म भाव कर अडिग रहने की सीख देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि जल का स्वभाव अग्नि का शमन करना है, जल शीतल हो तो अग्नि को शांत करेगा, तथा ऊष्ण जल भी अग्नि को बुझायेगा ।
बादल दल के आवागमन के मध्य श्रोताओं की सभा को सम्बोधित करते हुए साधक शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी ने जीवन की जटिलताओं को सरल करने की सहज सीख दी। आचार्य श्री ने कहा कि अक्षय भंडार से भी निरन्तर केवल क्षय होता रहे क्षतिपूर्ति न की जाए तो वह रिक्त हो जाता है। उद्यमी मूलधन की सुरक्षा न करे अथवा कृषक बीज बोने के स्थान पर खोने या खाने में व्यय करने के उपरान्त जिस स्थिति का सामना करता है, वही स्थिति जड़ धन के संग्रह में संलग्र चेतन धन की उपेक्षा करने वालों की होती है, क्योंकि पूर्व डिपाजिट समाप्त होने वाला है, जमानत जब्त होने वाली है। एक पौराणिक घटना का उल्लेख करते हुए आचार्य श्री ने बताया कि कर्मों की गति के प्रभाव से अभेद, पूर्ण सुरक्षित बसी सुवर्ण नगरी द्वारका आग से धूं धूं कर जल गयी। बुझाने के सभी प्रयत्न विफल हो गये, आश्चर्य जल के मध्य स्थित नगरी जल गयी। चारों ओर जल ही जल फिर भी जल गयी। द्वारकाधीश दिव्य पुरुष के बल से सभी बलशाली थर-थर कांपते थे नासिका से शंख बजता था तो चारों दिशा गुंजायमान हो जाती हैं। ऐसे दिव्य पुरुषों के जन्म होते ही जनता आश्वस्त हो जाती है अब कोई अहित नहीं कर सकता। जीवन सुख, शांति के साथ गुजरेगा यह विश्वास व्याप्त हो जाता है। जिस नाग की आँखों से अग्नि की रश्मियाँ निकलती थी, शांत कर दिया, नाग के फन की शय्या बना ली। मखमल की शय्या पर सोना साधारण क्रिया है किन्तु नाग की शय्या बना लेना चक्रवर्ती के ही वश में था। आचार्य श्री ने हास्य के साथ कहा आज तो खतरे से सावधान करने के लिए अलार्म की व्यवस्था कर देते हैं, सायरन बज जाता है। किन्तु द्वारका के ऊपर खतरा आने का संदेह ही नहीं था, सुवर्ण नगरी पूरी तरह सुरक्षित है फिर चारों ओर जल ही जल है आग से खतरा तो हो ही नहीं सकता, किन्तु वही हुआ जल होते हुए भी जल गयी द्वारका नगरी संसार नश्वर यह बताने की आवश्यकता
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आचार्य श्री विद्यासागर जी
नहीं, सत्य को प्रमाण को आवश्यकता भीनहीं। जहाँ अनुमान होता है वहाँ प्रमाणित किया जाता है। तेल और जल दोनों सरल पदार्थ हैं किन्तु जल का स्वभाव आग बुझाना है तेल का स्वभाव आग उद्वीप्त करना। कितना भी जल डालो अब जलने से नहीं बचा सकते, चक्रवर्ती दिव्य पुरुष को ज्ञात था कि कर्मों के उदय का परिणाम होकर ही रहेगा, पुण्य का भंडार क्षय हो गया। जल के बीच बसी नगरी चल बसी ।
आयार्च श्री ने श्रोताओं को सचेत करते हुए कहा कि उपयुक्त घटना से आहत दोनों भाई निर्जन वन में एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे, भइया मुझे प्यास लगी है, ठहरो मैं अभी जल का प्रबंध करता हूँ यह कहते हुए अग्रज जल के प्रबंध के लिए चले गये। जंगल में रहने वाले शिकारी को दिव्य पुरुष के पैर में बना दिव्य प्रतीक 'पदम' मृग के नेत्र की भांति लगा एवं दूर से ही अनुमान कर तीर चला दिया। समीप आकर देखा ओह यह क्या अनर्थ हो गया, अपने पालनहार को ही वेध दिया, 'महाराज ! मुझसे अपराध हो गया'। 'नहीं, तुमने अपराध नहीं किया' । संसार में कर्मों के परिणाम से कोई वंचित नहीं रह सकता। क्षमा और रक्षा दिव्य पुरुषों के अलंकरण होते हैं, ऐसी स्थिति में भी इन्हीं भावना के साथ कहा, 'तुम शीघ्र यहाँ से भाग जाओ अन्यथा मेरे भाई के आने के उपरांत तुम्हारी रक्षा नहीं हो सकेगी। वही बल, वही पराक्रम, वही शक्ति किन्तु द्वारका की रक्षा नहीं हो सकी। आचार्य श्री ने कहा यह सम्पूर्ण घटना चेतना जागृत करने के लिए पर्याप्त है। दिव्य पुरुषों के माध्यम से समय रहते सावधान हो सकते हैं। अभी पुण्य पल्ले में हैं किन्तु क्षय होने के उपरांत कोई सहायता नहीं कर सकता। चेतन का साथ छूटते ही तन पार्थिव हो जाता है। जो चलता था उसे ले जाते हैं क्योंकि वह अचल हो गया शेष रह गयी मिट्टी आचार्य श्री ने कहा कि भोक्ता कभी भोग्य नहीं होता और कर्ता कभी कर्म नहीं होता। कर्ता असीम हो सकता है किन्तु कर्म की सीमा होती है यह बताते हुए आचार्य श्री ने कहा कि अविनश्नर लगने वाली सुवर्ण नगरी कितनी बार बसी और कितनी बार चल बसी, कितने ही भोक्ता आए पृथ्वी को भोग कर चले गये। पुराण पुरुषों से सीख मिलती है चेतन को जागृत करो । काया की माया छूटना निश्चित है, फिर भ्रम क्यों ? तन का अलंकरण निरर्थक है जब तन भी व्यर्थ है तो जब तक चेतन है तन का उपयोग किया जा सकता है स्वयं के उन्मूलन के लिए। साधक काया में परिवर्तन को अपना परिवर्तन नहीं मानते। काया का एक एक कण एक दिन बिखर जायेगा।
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प्रस्तुति वेदचन्द्र जैन गौरेला, पेण्ड्रारोड
-सितम्बर 2003 जिनभाषित
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