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क्योंकि वे तो शिथिलाचारी मुनियों के संपर्क में ही नहीं आते हैं। विचार करने पर हम निर्णय पर पहुंचते हैं कि अपने को मुनि भक्त कहलाने वाले ये दूसरे वर्ग के लोग ही मुनियों के शिथिलाचार में हर प्रकार से सहयोगी बन रहे हैं। आगम के प्रतिकूल आचरण करते हुए अपने अंध भक्तों के सहयोग के बल पर ही वे मुनि शिथिलाचार के क्षेत्र में नए-नए कीर्तिमान स्थापित करते हुए निरंतर आगे बढ़ रहे हैं।
वस्तुतः मुनियों का यह बढ़ता हुआ शिथिलाचार आज दिगम्बर जैन समाज एवं दि. जैन धर्म की सर्वाधिक भयावह समस्या है जिसके समुचित त्वरित समाधान के लिए समाज द्वारा गहन चिंतन आवश्यक है। यदि समाज की अखिल भारतीय प्रतिनिधि संस्थाएँ संगठित होकर इस चिंतनीय समस्या के समाधान में ठोस कार्यक्रम बनाकर उनकी क्रियान्विति सुनिश्चित करें तो पूर्ण नहीं तो आंशिक सफलता अवश्य ही प्राप्त होगी। यह निश्चित है कि शिथिलाचारी मुनियों को शिथिलाचार के प्रति अनुत्साहित करने एवं संबोधन निवेदन द्वारा स्थितिकरण करने के स्थान पर यदि हम उन्हें महिमा मंडित करते रहेंगे तो उससे उनके शिथिलाचार को समर्थन व प्रोत्साहन मिलता रहेगा। सम्पूर्ण समाज में मुनियों को लक्षणों के प्रति बोध और मुनियों के द्वारा उसकी पालना की ऐसी सबल चेतना जाग्रत हो कि कोई मुनि आचरण में अवांच्छित शैथिल्य का सहसा साहस ही नहीं कर सके।
सम्यग्दृष्टि के कर्तव्यों में जिस प्रकार सच्चे गुरुओं की श्रद्धा भक्ति का उल्लेख है उसी प्रकार आगम विरूद्ध आचरण होने पर उनके स्थितिकरण का भी विधान है। मुनियों के शिथिलाचार को सहते रहने से हम निर्मल जैन शासन की उनके द्वारा होने वाली अप्रभावना और अवर्णवाद के स्वयं दोषी ठहरेंगे।
हम यह जानते हैं कि समस्या गंभीर है और कई बार चर्चाएँ होते रहने पर भी इस दिशा में कुछ सार्थक कार्य नहीं हो सका है। किंतु आज हमारे सामने यह शुभ संकेत है कि महासभा के मुख पत्र के सह संपादक जी ने दो अंकों में इस गंभीर समस्या पर आगम और तर्क के आधार पर गंभीर प्रकाश डाला है। यह माना जाना चाहिए कि जैन गजट के सम्पादकीय लेख को महासभा का नीतिगत समर्थन अवश्य प्राप्त है और इसके लिए हम महासभा को अनेक साधुवाद देते हैं। महासभा, महासमिति परिषद, दक्षिण भारत महासभा, विद्वत परिषद, शास्त्री परिषद आदि सभी दि. जैन समाज की अखिल भारतीय प्रतिनिधि संस्थाएँ एक मंच पर एकत्र हो मुनियों के शिथिलाचार को रोके जाने की दिशा में यदि ठोस कार्य करने का संकल्प ले सकें तो वह दिगम्बर जैन धर्म की प्रभावना का आज के युग का एक महत्वपूर्ण कार्य होगा।
मूलचंद लुहाड़िया
आचार्य-वचन * दर्शन-विशुद्धि भावना और दर्शन में मौलिक अन्तर है। दर्शन विशुद्धि में केवल तत्त्वचिन्तन ही होता
है, विषयों का चिंतन नहीं चलता, किन्तु दर्शन में विषय - चिन्तन भी संभव है। * अविनय में शक्ति का विखराव और विनय में शक्ति का केन्द्रीकरण है। यह विनय तत्त्व-मंथन से ही
उपलब्ध हो सकता है। विनयी आदमी वही है जो गाली देने वाले के प्रति भी विनय का व्यवहार
करता है। * अतिचार दोष है जो लगाया नहीं जाता, प्रमाद वश लग जाता है। अनाचार-सम्पूर्ण व्रत नष्ट करने की
क्रिया है। * शब्दिक ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं। इससे सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती है।
महाकवि आ. विद्यासागर ग्रन्थावली, भाग चार
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सितम्बर 2003 जिनभाषित
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