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________________ - सम्पादकीय सराहनीय आलेख भा. दि. जैन महासभा के मुख पत्र जैन गजट के अंक 107 /36 व 37 में दिगम्बर मुनि चर्या के आगम सम्मत स्वरूप और वर्तमान में व्याप्त शिथिलाचार के संबंध में विद्वान सह सम्पादक श्री कपूरचंद जी पाटनी के लेख को पढ़कर प्रसन्नता हुई। सन् 1994 में मैं पर्युषण पर्व में गुवाहाटी गया था तब श्री पाटनी जी के साथ 10 दिन रहना हुआ था। उनका जैनागम का गहन स्वाध्याय है और वे समीचीन नय दृष्टि के आधार पर वस्तु स्वरूप का पक्षपात रहित निर्णय करते हैं। उनका आगम आधारित सकारात्मक सोच प्रशंसनीय है। अपने संपादकीय लेख में श्री पाटनी जी ने अत्यंत महत्वपूर्ण सामयिक मुद्दे पर आगम प्रमाण सहित सटीक विवरण प्रस्तुत किया है। महान तार्किक आचार्य समंतभद्रदेव द्वारा लगभग 2000 वर्ष पूर्व रचित प्रथम श्रावकाचार ग्रंथ में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को धर्म कहा है और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है । सच्चे गुरु का लक्षण विषयाशावशातीतता, अनारंभता, अपरिग्रहता एवं ज्ञानध्यान में लीनता बताया है। यदि हमारी श्रद्धा के पात्र परमेष्ठी रूप में उपरोक्त लक्षणों का अभाव अथवा विकृति पाई जायेगी तो ऐसे गुरुओं की श्रद्धा या आराधना से हम कैसे सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं और कैसे उसे सुरक्षित रख सकते हैं? अतः दिगम्बर मुनियों की उपरोक्त आगमचर्या दिगम्बर जैन धर्म का प्राण है और उसका संरक्षण हम सब की समीचीन धर्म की आराधना के लिए अनिवार्य है। कभी कभी लोग कहते हैं कि हम श्रावकों को मुनियों के आचरण की चर्चा करने अथवा आलोचना करने का अधिकार नहीं है। यह भी कहते हैं कि आज निकृष्ट काल के प्रभाव से श्रावक भी जब अपने आचरण का पालन नहीं करते हैं तो मुनियों से उनके आचरण की पालना की अपेक्षा करना उचित नहीं है। उपरोक्त बिदुओं पर आगम के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर हम पाते हैं कि सम्यग्दर्शन का कारण सच्चे देव, शास्त्र, गुरु हैं । देव, शास्त्र, गुरु सच्चे-झूठे दोनों प्रकार के पाए जाते हैं । अतः सच्चे देव, शास्त्र, गुरु को उनके लक्षणों के आधार पर हम को ही खोज कर सच्चे देव, शास्त्र, गुरु को प्राप्त कर उनकी शरण ग्रहण करनी पड़ेगी।अतः मुनि के आचरण की परीक्षा करना श्रावक का कर्तव्य भी है और अधिकार भी। हाँ केवल द्वेष बुद्धि से मुनियों के आचरण में निराधार दोषान्वेषण करने की प्रवृत्ति भी सच्चे गुरू के प्रति अश्रद्धा की ही सूचक है ! जैसे सदोष मुनियों की आराधना का कारण नहीं है वैसे ही निर्दोष आचरण वाले मुनियों की आराधना नहीं करने से भी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हो सकता है। रहा सवाल श्रावकों के आचरण का सो श्रावक तो अव्रती भी हो सकते हैं। उनके लिए व्रताचरण का पालन भजनीय तो है किंतु अनिवार्य नहीं। यह हम सब की गहन पीड़ा है कि दिगम्बर मुनियों में शिथिलाचार इस सीमा तक बढ़ गया है कि वह शिथिलाचार की सीमाएँ लांघकर दुराचार की सीमा में प्रवेश कर गया है। दिगम्बर जैन धर्म की तीर्थंकर सदृश प्रभावना और स्थापना करने वाले महान आचार्य कुंदकुंद ने अपने ग्रंथों में ऐसे शिथिलाचारी मुनियों की तीब्र भर्त्सना की है। इस संबंध में परवर्ती आचार्यों की पीड़ा का दिग्दर्शन भी श्लोक से होता है। पंडितै भ्रष्ट चारित्रै पठरैश्च तपोधनैः। शासनं जिन चन्द्रस्य निर्मलं मलिनी कृतं॥ आज समाज में तीन प्रकार की विचारधाराएँ हैं। एक वर्ग के लोग मुनि विरोधी हैं, उनकी दृष्टि में आज के मुनियों में कोई भी सच्चे मुनि नहीं हैं। दूसरे वर्ग की दृष्टि में सभी मुनि सच्चे हैं। चाहे उनकी चर्या कैसी भी हो। तीसरे वर्ग के लोग सच्चे मुनि को सच्चा मानकर उनकी आराधना करते हैं। ऐसे लोग संख्या में कम हो सकते हैं। उपरोक्त तीन वर्गों में से मुनियों के आचरण के इस अकल्पनीय ह्रास के लिए प्रथम और तृतीय वर्ग के व्यक्ति तो निर्विवाद रूप से उत्तरदायी नहीं हो सकते हैं। -सितम्बर 2003 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524277
Book TitleJinabhashita 2003 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size8 MB
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