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________________ उपसर्ग के पश्चात् आ. श्री विराग सागर जी का प्रथम प्रवचन भिलाई/विगत 17 अगस्त की रात्रि में लगभग 1.30 बजे | जाओ पुनः बच्चे कहते हैं महाराज हम नादान हैं हमसे भारी भूल कुछ अज्ञात व्यक्तियों द्वारा पू. आ. विरागसागर जी का अपहरण | हो गई हमें क्षमा करें। महाराज हँसते हुए कहते हैं कि बेटा जब किये जाने के बाद से पूरे भारत का श्रावक समाज आक्रोशित था | हमने क्रोध ही नहीं किया तो फिर क्षमा कैसी, क्षमा तो तब होती इस अवसर पर उपसर्ग विजेता प.पू. आ. श्री विराग सागर जी ने | है जब कोई बैर बाँधा हो। बच्चे पुनः कहते हैं महाराज आपको अपार जन समुदाय को संबोधित करते हुए कहा बहुत कष्ट हो रहा है आपकी आँखों से आँसू आ रहे हैं। तब संत बन्धुओ! कहते हैं कि बेटा यह आँसू चोट की पीड़ा से नहीं आ रहे हैं मुझे आज अपने गुरुदेव के कुछ उपदेश याद आ रहे हैं। | इसका कुछ और ही रहस्य है तुम लोग जाओ पर बच्चे तो बच्चे हमारे आचार्य श्री ने एक बार एक कहानी सुनाई थी कभी-कभी | ही होते हैं वह अड़ जाते हैं कि आपको तो वह रहस्य बताना ही ऐसे मौकों पर जब इस कहानी को आत्मसात करते हैं तब बड़ी | पड़ेगा। तब संत ने कहा कि बेटा यह आँसू इस बात से आ रहे हैं शांति उत्पन्न होती है। वह कहानी थी, एक जगह बहुत बड़ा कि मैं तुम्हें कुछ दे नहीं पा रहा हूँ तुमने यह पत्थर पेड़ को मारा आश्रम था उसमें गाँव-गाँव से बच्चे पढ़ने के लिए आया करते थे तो उसने पत्थर की चोट को सहकर भी तुम्हारे लिए खाने को वह समय एक ऐसा था जिसमें कोई विशेष सुविधाएँ उपलब्ध | मीठे-मीठे आम प्रदान किये किंतु मैं तुम्हें कुछ नहीं दे पा रहा हूँ। नहीं थीं। बच्चे बड़ी दूर-दूर से उस आश्रम में पढ़ने पैदल ही बंधुओ आचार्य श्री के इन उपदेशों को मैं सदैव याद आया करते थे, रास्ते में नदी, तालाब बगीचे पड़ा करते थे। एक | रखता हूँ कि ऐसे मौकों पर गुरुदेव के उपदेश मुझे बहुत बड़ा बार बच्चों की टोली आश्रम से छुट्टी होने के पश्चात घर की ओर संबल प्रदान करते हैं। यह एक वह संत परंपरा है जिसमें यशोधर जा रही थी कि सहसा तालाब के किनारे लगे आम के वृक्ष पर मुनिराज हुए जिनके गले में साँप डाला गया फिर भी उन्होंने उनकी दृष्टि पड़ गई। पके पके आमों को देखकर बच्चों के मन में आशीर्वाद ही दिया। यह एक वह परंपरा है जिसमें सिर पर जलती आम खाने की इच्छा जागृत हो गई। बस सभी ने आपस में सलाह हुई सिगड़ी रखने पर भी समता को ही धारण किया। धन्य है वे कर आम तोड़ने के लिए पत्थर फेंकना प्रारंभ कर दिये। मुनिराज जिन्होंने "अर्घावतारण असि प्रहारण में सदा समता धरें" आम तोड़ने के प्रयास में वे यह नहीं देख पाये कि आम | कि उक्ति को चरितार्थ किया। के नीचे कौन बैठा है, उन्हें तो बस आम ही दिख रहे थे। ऐसे में | लोग मुझसे बार-बार पूछते हैं कि क्या करें तो मैं एक ही ही एक पत्थर उस वृक्ष के नीचे बैठे एक संत के सिर में लगता है बात कहता हूँ कि भाई हम लोग उसी संत परंपरा के हैं जहाँ कहा और संत के सिर से खून की धार बहने लगती है। कुछ समय जाता है कि 'मार्गाच्यवन निर्जरार्थं परिषोढव्या:परिषहाः' अपने पश्चात बच्चों की दृष्टि संत के सिर से बहते खून पर पड़ती है वे ] मार्ग से च्युत न हो और कर्मों की निर्जरा के लिए समय-समय पर घबरा जाते हैं और सोचने लगते हैं कि हमसे बड़ा अपराध हो संतों को परिषह-सहन करते रहना वह भी समता के साथ। गया। संभवतः वे बच्चे किसी अच्छे परिवार के थे, जिन्हें माता मुझे लगता है कि जो पीड़ा मुझे उस समय नहीं थी वह पिता और गुरुजनों ने सद्संस्कारित किया था इस कारण उनके | अब हो रही है उस क्षण तो ध्यान का ऐसा आनंद था कि उठने का अंदर संत के प्रति करुणा आ गई। दूसरों की चोट भी उन्हें अपनी | मन ही नहीं करता था परंतु कितने सारे जगह से समाचार आ रहे लगने लगी। वे जानते थे कि दूसरों को कष्ट देने से अशुभ कर्मों थे कि अनेकों साधु/श्रावक भी उपवास पर बैठे हैं। तब मुझे लगा का बंध होता है। वे सोचने लगे कि अब न जाने हमारा क्या होगा। |कि भगवन् कितने सारे लोगों को मेरे कारण कष्ट हो रहा है। सच आपस में विचार कर बच्चों ने सोचा कि जब हम कुछ | बताएँ तो अकसर मेरे मन में यही आता है कि यदि किसी की मेरे नहीं कर सकते तो कम से कम उनके रक्त को तो पोंछ ही दें | प्रति कोई गलत भावना है तो वह सारे कष्ट मुझे ही दे दे। बार-बार लेकिन वह संत के पास तक जाने का साहस नहीं कर पा रहे थे। सबको परेशान क्यों करता है। मेरे से ही कोई बैर विरोध है तो तभी बच्चों ने देखा कि संत के सिर से खून ही नहीं वरन आँखों से | अवसर पाकर अपना काम कर लेना चाहिए किन्तु बार-बार सभी आंसू भी गिर रहे हैं। संत की आँखों से गिरते आँसू को देखकर को कष्ट देना अच्छा नहीं है। बच्चों ने सोचा कि संत को काफी गहरी चोट लगी है जिसकी बन्धुओ पार्श्वनाथ ने उपसर्ग सहा तो उन्हें मोक्ष मिला तब पीड़ा से उनकी आँखों से आँसू आ रहे हैं। बच्चे अपनी गलती का | मैं भी यही सोच रहा था कि यह घड़ी मेरे लिए भी कुछ ऐसी ही अहसास करते हुए संत के चरणों में पड़कर क्षमा प्रार्थना करने | बन जाये कि जिस लक्ष्य को लेकर साधना के पथ पर आगे बढ़े हैं लगते हैं। इस पर संत ने उन्हें उठाकर प्यार से कहा बच्चो घर | उसकी प्राप्ति हो सके। भगवान से निरंतर मैं एक ही प्रार्थना करता -सितम्बर 2003 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524277
Book TitleJinabhashita 2003 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size8 MB
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