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जिज्ञासा यक्ष, क्षेत्रपाल आदिकों को शास्त्रों में कैसा देव कहा गया है ?
श्रीमती प्रतिभा जैन, जयपुर
प्रश्नकर्ता समाधान ये क्षेत्रपाल, यक्ष-यक्षिणी आदि भवनत्रिक देवों में आते हैं। इनको शास्त्रों में असुर कहा गया है। तथा वैमानिक देवों को सुर कहा गया है। इस संबंध में कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं
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चडविह विकहासत्तो ममयत्तो असुह भाव पडत्थो । होऊण कुदेवत्तं पत्तोसि अणेयवाराओ | 16 ॥ अर्थ- हे मुने । चार प्रकार की विकथा में आसक्त एवं ज्ञान पूजादि आठ प्रकार के मद से उन्मत्त होकर तथा निरन्तर हिंसा आदि पाप रूप वा आर्तरौद्र ध्यान रूप अशुभ भावों में रत होकर तू अनेक बार देव दुर्गति को प्राप्त हुआ है...... अनेक बार असुरादि कुदेव गति में गया है। (हिन्दी टीका आर्यिका सुमती जी) श्रुतसागर सूरी की टीका तथा पं. पन्नालाल जी की हिन्दी टीका में भी, 'कुदेव-असुर आदि नीच देवों की गति को,' ऐसा लिखा है।
3. कुपात्रदान का फल लिखते हुए श्रीप्रवचनसार गाथा 257 में (अविदिदपरमत्थेसु य.......) कहा है 'जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है और जिसके विषय कषाय की प्रबलता है, ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा, उपकार या दान कुदेव रूप में (नीच देवों में) और कुमनुष्य रूप में फलता है।'
आचार्य वीरसेन महाराज के अनुसार द्वितीय शुक्ल ध्यान ११ वें तथा १२ वें दोनों गुणस्थानों में कहा गया है। क्योंकि ध्यान
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2. मोक्षपाहुड गाथा 92 (कुच्छिय देवं धम्मं .......) में के चार भेद निरूपण में तृतीय शुक्ल ध्यान को सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति सूर्य, चन्द्रमा, यक्ष, भैरवी आदि को कुत्सित देव कहा है।
कहा गया है अर्थात् यहाँ सूक्ष्मकाय योग रह जाने के कारण सूक्ष्मक्रिया है और यहाँ से मुनिराज नीचे नहीं गिरते इसलिए इस तृतीय शुक्ल ध्यान का अप्रतिपाति विशेषण भी दिया गया है। इससे यह अपने आप स्पष्ट हो जाता है कि एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यान अप्रतिपाति नहीं है और इससे मुनिराज नीचे आ सकते हैं। यदि एकत्व वितर्क शुक्लध्यान का गुणस्थान मात्र १२ वां ही माना जाए तो इससे नीचे उतरने का कोई प्रसंग न होने से, एकत्ववितर्क के साथ अप्रतिपाति विशेषण लगाना चाहिए था परन्तु आचार्यों ने ऐसा नहीं किया जो इस बात का परिचायक है कि एकत्ववितर्क शुक्लध्यान से मुनिराज नीचे जा सकते हैं। यह नीचे जाना ११ वें गुणस्थान में सम्भव है अतः एकत्ववितर्क शुक्लध्यान के ११ और १२ गुणस्थान मानना उचित है। सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/37 की टीका में कहा है ' श्रेण्योः शुक्ले इति व्याख्यायते' अर्थ- दोनों श्रेणियों में आदि के दो शुक्ल ध्यान होते हैं, ऐसा व्याख्यान करना चाहिए।
पं. सदासुखदास जी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार की टीका में कुपात्रदान के फल से कुदेवों में (व्यंतर भवनवासी, ज्योतिषी) देवों में उत्पत्ति होना लिखा है।
4. श्री वृहदुदुव्यसंग्रह गाथा - 4 की टीका में श्री ब्रह्मदेवसूरी ने सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में इस प्रकार लिखा है अथ देवगतौ पुनः प्रकीर्णकदेव, वाहन देव, किल्विष देव नीच देवत्रयं विहायान्येषु महार्द्विकदेवेषूत्पद्यते सम्यग्दृष्टिः । अर्थ - तथा देवगति में प्रकीर्णक देव, वाहन देव, किल्विष देव और तीन नीच देवों । (व्यन्तर, भवनवासी ज्योतिषी) के अतिरिक्त महाऋद्धिधारक देवों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं।
उपरोक्त प्रमाणों के अनुसार यक्ष यक्षिणी आदि भवनत्रिक देवों को आगम में असुर कुदेव, कुत्सित देव, नीच देव तथा देवदुर्गति आदि शब्दों द्वारा कहा गया है।
जिज्ञासा कौन सा शुक्लध्यान किस गुणस्थान में होता है कृपया स्पष्ट करें ?
1. जो परम्परा सप्तम गुणस्थान से शुद्धोपयोग स्वीकार करती है, उसके अनुसार पृथक्त्ववितर्क नामक प्रथम शुक्ल ध्यान आठवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक, द्वितीय एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यान १२ वें गुणस्थान में, तृतीय सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति शुक्ल ध्यान १३ वे गुणस्थान में और व्युपस्तक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यान चौदहवें गुणस्थान में पाया जाता है। चौबीस ठाना में इसीप्रकार वर्णन है।
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26 सितम्बर 2003 जिनभाषित
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2. दूसरी परम्परा श्री धवलाकार आचार्य वीरसेन महाराज की है जो, १० वें सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक धर्मध्यान स्वीकार करते हैं। इन आचार्य के अनुसार प्रथम शुक्ल ध्यान ११ वें एवं १२ वें गुणस्थान में कहा गया है। क्योंकि जो क्षपक श्रेणी चढ़ने वाले मुनिराज हैं वे ११वें गुणस्थान में नहीं जाते। वे १० वें गुणस्थान से सीधे १२ वे गुणस्थान में जाते हैं, अतः ऐसे मुनिराजों के प्रथम शुक्ल ध्यान १२ वे गुणस्थान में होता है, तथा उपशम श्रेणी वाले मुनिराजों की अपेक्षा ११ वें गुणस्थान में कहा गया है।
प्रश्नकर्ता - ब्रह्मचारिणी बहिन अर्चना, कोटा
समाधान उपरोक्त प्रश्न से संबंधित शास्त्रों में पुपत्तविदकवीचारस्स वि संभवसिद्धि दो। ध्यान/गुणस्थान की दो परम्पराओं का निरूपण मिलता है।
भावार्थ : उपशम श्रेणी में भी दोनों शुक्लध्यान होते हैं। ओर क्षपक श्रेणी में भी अर्थात् प्रथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान बारहवें गुणस्थान में भी होता है और एकत्व वितर्क शुक्लध्यान, ग्यारहवें गुणस्थान ( उपशम श्रेणी में होने के कारण) में भी होता है।
श्री धवला पु. १३ पृष्ठ 81 पर कहा है 'ण च खीणकसायद्धाए सव्वत्थ एयत्त'- विदक्कावीचारज्झाणमेव, जोग परावत्तए एकसमय परुवणण्णहाणुववत्तिवलेण तदद्धदीए
अर्थ- क्षीण कषाय गुणस्थान में सर्वत्र एकत्व वितर्क ध्यान ही होता है, ऐसा कोई नियम नहीं हैं क्योंकि वहाँ योग
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