Book Title: Jinabhashita 2003 06 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 5
________________ " औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ।" (त.सू. २ / १ ) इस प्रकार वस्तु का पारिणामिकभाव 'द्रव्य' और 'तत्त्व' दोनों नामों से अभिहित होता है। इसी कारण आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों को तत्त्व या तत्त्वार्थ शब्द से अभिहित किया हैजीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं । है तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता ॥९ ॥ ' तच्चत्था' शब्द की संस्कृत छाया ' तत्त्वार्था: ' है । 'तत्त्वार्थ' और 'तत्त्व' समानार्थी हैं, यह निम्न लिखित सूत्रों से ज्ञात होता 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।' (त.सू.१/२) 'जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।' (त.सू. १ / ४ ) यहाँ पहले सूत्र में जिन तत्त्वार्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है, उन्हीं को दूसरे सूत्र में 'तत्त्व' शब्द से अभिहित किया है। पूज्यपाद स्वामी ने भी सर्वार्थसिद्धि में स्पष्ट किया है कि तत्त्व ही अर्थ (पदार्थ) होता है इसलिए तत्त्व को तत्त्वार्थ कहा गया है- 'तत्त्वेमार्थस्तत्त्वार्थः ' (१/२) । किन्तु औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिकभाव जीव के तत्त्व (स्वभाव) होते हुए भी द्रव्य नहीं हैं क्योंकि वे उसकी तीनों कालों की पर्यायों में द्रवित (व्याप्त) नहीं होते। प्रथम तीन प्रकार के भाव मोक्षपर्याय में द्रवित नहीं होते तथा अन्तिम क्षायिकभाव संसारपर्याय में । अतः वे केवल तत्त्व ही कहलाते हैं । निष्कर्ष यह कि वस्तु का पारिणामिक स्वभाव द्रव्य और तत्त्व दोनों कहलाता है, किन्तु शेष औदयिकादि स्वभाव केवल 'तत्त्व' नाम से अभिहित होते हैं। 'जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्' सूत्र में 'जीव' और 'अजीव' शब्दों से छहों द्रव्यों को तथा आस्रवादि पाँच तत्त्वों को एक 'तत्त्व' नाम से ही वर्णित किया गया है। इस तरह जीव द्रव्य और जीव तत्त्व दोनों का लक्षण एक ही है। अर्थात् जिसमें चेतना या ज्ञानदर्शनादि गुण होते हैं, वह जीव द्रव्य या जीव तत्त्व है। तथा जीव द्रव्य की अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु नामक पर्यायें भी जीवतत्त्व (जीवस्वभाव) ही हैं। किन्तु, बुलन्दशहर के मुमुक्षुमंडल द्वारा प्रकाशित 'लघु जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला' नामक पुस्तिका में लिखा है कि जीव द्रव्य तो प्रत्येक जीव को कह सकते हैं, किन्तु जीवतत्त्व केवल स्वयं को कहा जा सकता है, क्योंकि "जिसमें मेरा ज्ञान दर्शन हो वही जीवतत्त्व है। जिनमें मेराज्ञानदर्शन नहीं है, वे अजीव तत्त्व हैं" (पृष्ठ २९-३०)। अर्थात् जिन जीवों में उनका अपना ज्ञानदर्शन है वे अजीव तत्त्व हैं । जीव और अजीव तत्त्वों की ऐसी विचित्र परिभाषा किसी भी दिगम्बर जैन आर्थग्रन्थ में देखने को नहीं मिलती। यदि प्रत्येक जीव की दृष्टि में केवल वही अकेला जीवतत्त्व हो, शेष सब अजीव तत्त्व, तो लोक में एक ही जीवतत्त्व का अस्तित्व सिद्ध होगा तथा पारिणामिकभाव की दृष्टि से जीवद्रव्य और जीवतत्त्व में अभेद है, इसलिए जीवतत्त्व के एक सिद्ध होने से जीवद्रव्य भी एक ही सिद्ध होगा, जिससे जैनमत में भी अद्वैत वेदान्त के समान एक ही आत्मा के अस्तित्व की मान्यता का प्रसंग आयेगा और 'जीव द्रव्य अनन्त हैं यह सर्वज्ञवचन झूठा सिद्ध हो जायेगा । 1 इसके अतिरिक्त अरहन्तों और सिद्धों में किसी भी संसारी जीव के ज्ञानदर्शन का अस्तित्व न होने से, वे सभी संसारी जीवों की दृष्टि में केवलज्ञानादि जीवगुणों से रहित पुद्गलादिवत् अजीवतत्त्व ठहरेंगे, जिससे उनकी पूजा भक्ति भी अनुचित ठहरेगी। क्योंकि 'पूज्यानां गुणेष्वनुरागो भक्ति:' इस वचन के अनुसार अरहन्तादि के केवलज्ञानादि गुणों में अनुराग होने को ही भक्ति कहते हैं तथा इन गुणों के ही कारण वे पूजनीय होते हैं किन्तु उन्हें अजीव तत्त्व मानने का अर्थ है उनमें इन गुणों का अभाव मानना । और इन गुणों का अभाव मानने का अर्थ है, उन्हें अपूज्य मानना । इस प्रकार स्वयं के अतिरिक्त शेष जीवों को अजीवतत्त्व मानने की मान्यता देवशास्त्रगुरु के प्रति भक्तिभाव के विरुद्ध है। और देवशास्त्रगुरु के प्रति भक्ति सम्यग्दर्शन का प्राथमिक लक्षण है और सम्यग्दर्शन मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है। अतः स्वयं के अतिरिक्त अन्य समस्त जीवों को अजीव तत्त्व मानने की मान्यता मोक्ष के विरुद्ध है। और जो मान्यता मोक्ष के विरुद्ध है वह संसार का कारण है। अतः उक्त मान्यता में सुधार करने की आवश्यकता है । रतनचन्द्र जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only जून 2003 जिनभाषित 3 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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