Book Title: Jinabhashita 2003 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2529 दिगम्बर जैन तीर्थ सोनागिरि ज्येष्ठ, वि.सं. 2060 जून 2003 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 जिनभाषित जून 2003 मासिक वर्ष 2, अङ्क सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व पृष्ठ कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462016 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 . आपके पत्रः धन्यवाद . सम्पादकीय : द्रव्य और तत्त्व में भेदाभेद . प्रवचन : निरन्तर ज्ञानोपयोग : आचार्य श्री विद्यासागर जी . लेख सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर.के.मार्बल्स लि.) ___ किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर • माँ भारती के अवतरण का पर्व श्रुतपञ्चमी : ब्र. सन्दीप 'सरल' भारतीय संस्कृति का रुपहला कलश 'कटवप्र' चन्द्रगिरि : डॉ. स्नेहरानी जैन सोनागिरि तीर्थक्षेत्र : कैलाश मड़वैया भगवान् महावीर और महात्मा गाँधी : डॉ. कपूरचन्द्र जैन द्रौपदी जिसका न चीरहरण..... : डॉ. नीलम जैन • अतिथिदेवो भव : डॉ. ज्योति जैन पाप से घृणा करो पापी से नहीं : सुशीला पाटनी . जिज्ञासा समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2151428, 2152278 दिगम्बर जैन मुनि के संबंध... : सुरेश जैन आई.ए.एस. . आचार्य श्री विद्यासागर जी के विषय में प्रश्नावली . कविता : सत्पथ : डॉ.सुरेन्द्र जैन 'भारती' बोधकथा • तीन में कौन अच्छा : डॉ. जगदीश चन्द्र जैन साहित्य समीक्षा : डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' 19 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 500 रु. वार्षिक 100रु. एक प्रति 10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। समाचार 27-32 . सदलगा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पर विशेष आवरण आवरण पृष्ठ 3 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य अप्रैल अंक सम्पादकीय "यह कैसा धर्म संरक्षण" में आपकी शिकायत महासभा से है। कृपया सीधे उन्हें ही पत्र लिखते तो स्थितीकरण का श्रेय आपको जाता, या तो आप उन्हें समझा देते या आप उनसे समझ लेते। सही क्या है? इस विषय की जानकारी के और व्यक्तिगत आरोप प्रति आरोप के पाँच पेज के लेख के स्थान पर संत शिरोमणी १०८ आचार्य श्री के प्रवचन पढ़ने को मिलते तो अधिक लाभकारी होते । पत्रिका की गरिमा के लिए दूसरे पत्र-पत्रिकाओं पर टिप्पणी के स्थान पर आप आचार्य संघों की बात समाज के समक्ष रखने की कृपा करें । विनीत धनकुमार बड़जात्या 1 झ- 28 दादावाड़ी, कोटा "जिनभाषित " मासिक पत्रिका ने जैन साहित्य जगत की पत्र-पत्रिकाओं में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। पत्रिका का आकल्पन, कुशल संपादन और लेख स्तरीय हैं । मेरा आग्रह है कि पत्रिका के नयनाभिराम मुखपृष्ठ, जिसे सहेज कर फ्रेम करके रखने का मन होता है, के बारे में विवरण / ऐतिहासिक वृतांत, गवेषणापूर्ण, खोजपरक, अंतरंग जानकारी उसी अंक में अवश्य प्रकाशित करें। प्रूफ रीडिंग की त्रुटियाँ चावल में कंकड़ जैसी लगती हैं. कृपया इनसे निजात दिलायें। पत्रिका में पं. रतनलाल जी बैनाड़ा का "जिज्ञासा सामाधान" खोजपूर्ण, ज्ञानवर्धक और हृदय को छू लेता है, इसके लिए उन्हें साधुवाद। भवदीय डी. के. जैन, अवर सचिव 18/30 साऊथ टी.टी. नगर, भोपाल मान्यवर " जिनभाषित" पत्रिका माह अप्रैल का अंक पढ़ने को प्राप्त हुआ। मुझे बड़ा आश्चर्य है कि इस पत्रिका में जो विद्वानों के लेख लिखे जाते हैं, उन लेखों में बात की बात पर टीकाटिप्पणी अधिक छापी जाती है जिनको भी व्यक्तिगत सलाह व जबाव देना है, कृपया वे महानुभाव अपने विचार पत्रिका में न छपवाकर व्यक्तिगत पत्राचार द्वारा दें । 1 गुलाबचन्द जैन, पटनावाले सागर (म.प्र.) लम्बे इंतजार के बाद "जिनभाषित" मई अंक प्राप्त हुआ। इंतजार का फल मीठा होता ही है, एक ही बैठक में पूरा अंक पढ़ लिया। डॉ. मुन्नी पुष्पा जी का लेख "मानस कबै कबै है होनें " बहुत रोचक एवं ज्ञानवर्द्धक लगा । दिगम्बरों की जिनप्रतिमा की पहिचान के प्रमाण पर आपका सम्पादकीय, नीरज जी का स्पष्टीकरण एवं उस स्पष्टीकरण की समीक्षा एक सार्थक एवं विचारोत्तेजक लेखमाला है। हाँ, 'जिनभाषित' का लगभग एक तिहाई अंश अवश्य इस में खप गया। पत्रिका, (मैं इसे जिनवाणी का लघुरूप मानता हूँ) में समाचारों को बहुत कम स्थान दिया जाता है। पूरी पत्रिका में मात्र दो से चार पृष्ठ ही समाचारों के लिये दिये जाते हैं। कृपया आचार्य श्री विद्यासागर जी के संघस्थ साधुजनों एवं आर्यिका माताओं के समाचार प्रत्येक अंक में अवश्य दिया करें। अन्य संघों के समाचारों को भी स्थान दें, तो पत्रिका में चार चाँद लग जायेंगे। अन्य सुझाव यह है कि 'जिनभाषित' का इंतजार करना बड़ा मुश्किल कार्य है अतः प्रत्येक माह के प्रारंभ में ही पत्रिका मिल जाये तो अतिकृपा होगी। जिनेन्द्र कुमार जैन एच.बी.- 22 स्टाफ कॉलोनी, डायमण्ड सीमेन्ट नरसिंहगढ़, जिला- दमोह (म. प्र. ) "जिनभाषित" का मई 2003 अंक मिला। श्री अतिशय क्षेत्र पपौरा की भाव वन्दना कराता हुआ यह अंक अपने आप में पूर्ण सुशीलता का प्रतीक है। आचार्य श्री विद्यासागर जी का उपदेश " निरतिचार का मतलब ही यह है कि जीवन अस्त-व्यस्त न हो, शान्त और सबल हो, " कल्याणमय है। सम्पादकीय दिगम्बरों की जिनप्रतिमा की पहचान के प्रमाण आगमोक्त हैं आपने 'प्रमुख' की अपेक्षा अतिरिक्त' शब्द का प्रयोग ठीक समझा है, पर लेखक की सहमति भी इसके साथ होनी चाहिये। अंक की इकलौती कविता 'तुमको प्रणाम्' बहुत अच्छी है। डॉ. संकटाप्रसाद मिश्र को 'जिनभाषित' के सशक्त माध्यम से मेरी बधाई। डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' की बालवार्ता शिक्षाप्रद है। योगेन्द दिवाकर दिवा निकेतन, सतना (म.प्र.) जून 2003 जिनभाषित 1 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 सम्पादकीय द्रव्य और तत्त्व में भेदाभेद कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि द्रव्य और तत्त्व में क्या भेद है? इसके समाधानार्थ कुछ आर्षवचन नीचे उद्धृत किये जा रहे हैं । पञ्चास्तिकाय की नौवीं गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने 'द्रव्य' शब्द का निरुक्त्यर्थ इस प्रकार बतलाया है" द्रवति गच्छति सामान्यरूपेण स्वरूपेण व्याप्नोति तांस्तान् क्रमभुवः सहभुवश्च सद्भावपर्यायान् स्वभावविशेषानित्यानुगतार्थया निरुक्त्या द्रव्यं व्याख्यातम् ।" अर्थ जो भाव अपनी क्रमवर्ती और सहवर्ती पर्यायों में अर्थात् स्वभावविशेषों में व्यास होता है, उसे द्रव्य कहते हैं। = सहवर्ती पर्यायों का नाम 'गुण' है और क्रमवर्ती पर्यायों का नाम 'पर्याय' अतः जो भाव अपने गुणपर्यायरूप विशेष स्वभावों में समानरूप से विद्यमान होता है, वह द्रव्य है, यह अर्थ प्रतिपादित होता है। जैसे आत्मा की सहवर्ती (एक साथ रहने वाली) पर्यायें दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि गुण हैं तथा इन गुणों की मिथ्यादर्शनादि अवस्थाएँ क्रम से होने वाली पर्यायें हैं। इन सबमें आत्मा का अन्य द्रव्यों से भिन्न ( असाधारण) चैतन्यस्वभाव व्याप्त होता है, अतः वह आत्मा का सामान्य स्वभाव है । यह स्वत: सिद्ध होता है, इस कारण अनादि-अनन्त है। इसलिए इसका नाम पारिणामिकभाव है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु (द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु) का स्वकीय पारिणामिक भाव ही द्रव्य है। आचार्य जयसेन ने कहा भी है "तत्रौपशमिक- क्षायोपशमिक क्षायिकौदयिकभाव- चतुष्टयं पर्यायरूपं भवति, शुद्धपारिणामिकस्तु द्रव्यरूप इति ।" (समयसार, ता.वृ. गाथा ३२० ) अर्थात् जीव के पाँच भावों में से औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और औदयिक ये चार भाव तो पर्यायरूप हैं, किन्तु शुद्धपारिणामिकभाव द्रव्यरूप है। 'गुणपज्जयासयं दव्वं' (पं.का. १०) भी द्रव्य का लक्षण बतलाया गया है। अर्थात् गुण और पर्यायों का आश्रय द्रव्य कहलाता है। गुण और पर्याय वस्तु के विशेष स्वभाव हैं। विशेष-स्वभावों का आधार सामान्यस्वभाव होता है, जिसका दूसरा नाम पारिणामिक स्वभाव है। इस परिभाषा के अनुसार भी पारिणामिकभाव ही द्रव्य सिद्ध होता है। 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' (त.सू.५ / ३८ ) इन शब्दों में भी द्रव्य का लक्षण प्रतिपादित किया गया है। अर्थात् जो गुण और पर्यायों से युक्त होता है, वह द्रव्य है। वस्तु का पारिणामिकभावरूप सामान्यस्वभाव ही गुणपर्यायमय होता है, अतः इसके अनुसार भी पारिणामिकस्वभाव ही द्रव्य कहलाता है। निष्कर्ष यह कि वस्तु का पारिणामिक भाव (असाधारणधर्मरूप अनादि - अनन्त सामान्य स्वभाव) अपने गुणपर्याय रूप विशेष स्वभावों में द्रवित (व्याप्त) होने की अपेक्षा से द्रव्य कहलाता है। 'तत्त्व' शब्द 'तत्' सर्वनाम में भावार्थक 'त्व' प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है। इसकी व्याख्या पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि (१/२) में इस प्रकार की है "तत्त्वशब्दो भावसामान्यवाची कथम् ? तदिति सर्वनामपदम् । सर्वनाम च सामान्ये वर्तते। तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्य कस्य? योऽथ यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः ।" अर्थ 'तत्त्व' शब्द भावसामान्य का वाचक है, क्योंकि 'तत्' पद सर्वनाम है और सर्वनाम किसी भी पदार्थ का संकेत करने के लिए प्रयुक्त हो सकता है। अतः किसी भी पदार्थ के भाव अर्थात् स्वभाव को 'तत्त्व' कहते हैं । वस्तु के तत्त्व या स्वभाव दो प्रकार के होते हैं, सामान्य और विशेष जैसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि आत्मा के विशेष स्वभाव हैं तथा इन सब में समानरूप से व्याप्त रहने वाला एक चैतन्यभाव उसका सामान्य स्वभाव है, जिसका दूसरा नाम पारिणामिकभाव है। आत्मा के ये दोनों प्रकार के स्वभाव आत्मा के तत्त्व हैं। इनमें से चैतन्यरूप सामान्यस्वभाव या पारिणामिक स्वभाव अपने दर्शनज्ञानादि विशेष स्वभावों में द्रवित ( व्याप्त) होने की अपेक्षा द्रव्य कहलाता है, जो आत्मद्रव्य या जीव द्रव्य के नाम से प्रसिद्ध है । और उस आत्मद्रव्य का स्वभाव होने की अपेक्षा वह स्वयं ही आत्मा का तत्त्व कहलाता है । निम्नलिखित सूत्र में उमा स्वामी ने उसे आत्मा का स्वतत्त्व कहा है जून 2003 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ।" (त.सू. २ / १ ) इस प्रकार वस्तु का पारिणामिकभाव 'द्रव्य' और 'तत्त्व' दोनों नामों से अभिहित होता है। इसी कारण आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों को तत्त्व या तत्त्वार्थ शब्द से अभिहित किया हैजीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं । है तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता ॥९ ॥ ' तच्चत्था' शब्द की संस्कृत छाया ' तत्त्वार्था: ' है । 'तत्त्वार्थ' और 'तत्त्व' समानार्थी हैं, यह निम्न लिखित सूत्रों से ज्ञात होता 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।' (त.सू.१/२) 'जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।' (त.सू. १ / ४ ) यहाँ पहले सूत्र में जिन तत्त्वार्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है, उन्हीं को दूसरे सूत्र में 'तत्त्व' शब्द से अभिहित किया है। पूज्यपाद स्वामी ने भी सर्वार्थसिद्धि में स्पष्ट किया है कि तत्त्व ही अर्थ (पदार्थ) होता है इसलिए तत्त्व को तत्त्वार्थ कहा गया है- 'तत्त्वेमार्थस्तत्त्वार्थः ' (१/२) । किन्तु औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिकभाव जीव के तत्त्व (स्वभाव) होते हुए भी द्रव्य नहीं हैं क्योंकि वे उसकी तीनों कालों की पर्यायों में द्रवित (व्याप्त) नहीं होते। प्रथम तीन प्रकार के भाव मोक्षपर्याय में द्रवित नहीं होते तथा अन्तिम क्षायिकभाव संसारपर्याय में । अतः वे केवल तत्त्व ही कहलाते हैं । निष्कर्ष यह कि वस्तु का पारिणामिक स्वभाव द्रव्य और तत्त्व दोनों कहलाता है, किन्तु शेष औदयिकादि स्वभाव केवल 'तत्त्व' नाम से अभिहित होते हैं। 'जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्' सूत्र में 'जीव' और 'अजीव' शब्दों से छहों द्रव्यों को तथा आस्रवादि पाँच तत्त्वों को एक 'तत्त्व' नाम से ही वर्णित किया गया है। इस तरह जीव द्रव्य और जीव तत्त्व दोनों का लक्षण एक ही है। अर्थात् जिसमें चेतना या ज्ञानदर्शनादि गुण होते हैं, वह जीव द्रव्य या जीव तत्त्व है। तथा जीव द्रव्य की अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु नामक पर्यायें भी जीवतत्त्व (जीवस्वभाव) ही हैं। किन्तु, बुलन्दशहर के मुमुक्षुमंडल द्वारा प्रकाशित 'लघु जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला' नामक पुस्तिका में लिखा है कि जीव द्रव्य तो प्रत्येक जीव को कह सकते हैं, किन्तु जीवतत्त्व केवल स्वयं को कहा जा सकता है, क्योंकि "जिसमें मेरा ज्ञान दर्शन हो वही जीवतत्त्व है। जिनमें मेराज्ञानदर्शन नहीं है, वे अजीव तत्त्व हैं" (पृष्ठ २९-३०)। अर्थात् जिन जीवों में उनका अपना ज्ञानदर्शन है वे अजीव तत्त्व हैं । जीव और अजीव तत्त्वों की ऐसी विचित्र परिभाषा किसी भी दिगम्बर जैन आर्थग्रन्थ में देखने को नहीं मिलती। यदि प्रत्येक जीव की दृष्टि में केवल वही अकेला जीवतत्त्व हो, शेष सब अजीव तत्त्व, तो लोक में एक ही जीवतत्त्व का अस्तित्व सिद्ध होगा तथा पारिणामिकभाव की दृष्टि से जीवद्रव्य और जीवतत्त्व में अभेद है, इसलिए जीवतत्त्व के एक सिद्ध होने से जीवद्रव्य भी एक ही सिद्ध होगा, जिससे जैनमत में भी अद्वैत वेदान्त के समान एक ही आत्मा के अस्तित्व की मान्यता का प्रसंग आयेगा और 'जीव द्रव्य अनन्त हैं यह सर्वज्ञवचन झूठा सिद्ध हो जायेगा । 1 इसके अतिरिक्त अरहन्तों और सिद्धों में किसी भी संसारी जीव के ज्ञानदर्शन का अस्तित्व न होने से, वे सभी संसारी जीवों की दृष्टि में केवलज्ञानादि जीवगुणों से रहित पुद्गलादिवत् अजीवतत्त्व ठहरेंगे, जिससे उनकी पूजा भक्ति भी अनुचित ठहरेगी। क्योंकि 'पूज्यानां गुणेष्वनुरागो भक्ति:' इस वचन के अनुसार अरहन्तादि के केवलज्ञानादि गुणों में अनुराग होने को ही भक्ति कहते हैं तथा इन गुणों के ही कारण वे पूजनीय होते हैं किन्तु उन्हें अजीव तत्त्व मानने का अर्थ है उनमें इन गुणों का अभाव मानना । और इन गुणों का अभाव मानने का अर्थ है, उन्हें अपूज्य मानना । इस प्रकार स्वयं के अतिरिक्त शेष जीवों को अजीवतत्त्व मानने की मान्यता देवशास्त्रगुरु के प्रति भक्तिभाव के विरुद्ध है। और देवशास्त्रगुरु के प्रति भक्ति सम्यग्दर्शन का प्राथमिक लक्षण है और सम्यग्दर्शन मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है। अतः स्वयं के अतिरिक्त अन्य समस्त जीवों को अजीव तत्त्व मानने की मान्यता मोक्ष के विरुद्ध है। और जो मान्यता मोक्ष के विरुद्ध है वह संसार का कारण है। अतः उक्त मान्यता में सुधार करने की आवश्यकता है । रतनचन्द्र जैन जून 2003 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरन्तर ज्ञानोपयोग आचार्य श्री विद्यासागर जी ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। उसे सुखाया नहीं जा सकता, बदला जा सकता है। इसी प्रकार ज्ञान का नाश नहीं किया जा सकता है। उसे स्व-पर कल्याण की दिशा में प्रवाहित किया जा सकता है। यही ज्ञानोपयोग है। __ 'अभीक्ष्णज्ञानोपयोग' शब्द तीन शब्दों से मिलकर बना । अंधकार भी विनष्ट हो जाता है और केवलज्ञानरूपी सूर्य उदित है- अभीक्ष्ण + ज्ञान + उपयोग अर्थात् निरन्तर ज्ञान का उपयोग | होता है। अत: ज्ञानोपयोग सतत् चलना चाहिये। करना ही अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है। आत्मा के अनन्तगुण हैं और 'उपयोग' का दूसरा अर्थ है चेतना। अर्थात् अभीक्ष्ण उनके कार्य भी अलग-अलग हैं । ज्ञान गुण इन सभी की पहिचान | ज्ञानोपयोग अपनी खोज, चेतना की उपलब्धि का अमोघ साधन कराता है। सुख जो आत्मा का एक गुण है उसकी अनुभूति भी | है। इसके द्वारा जीव अपनी असली सम्पत्ति को बढ़ाता है, उसे ज्ञान द्वारा ही संभव है। ज्ञान ही वह गुण है जिसकी सहायता से | प्राप्त करता है, उसके पास पहुँचता है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का पाषाण में से स्वर्ण को, खान में से हीरा, पन्ना को पृथक् किया जा | अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान मात्र नहीं है। शब्दों की पूजा करने से सकता है। अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ही वह साधन है जिसके द्वारा आत्मा | ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। सरस्वती की पूजा का मतलब तो की अनुभूति, समुन्नति होती है, उसका विकास किया जा सकता | अपनी पूजा से है, स्वात्मा की उपासना से है। शाब्दिक ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं है। इससे सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती। आज तक इस ज्ञान धारा का प्राय: दुरुपयोग ही किया | शाब्दिक ज्ञान तो केवल शीशी के लेबिल की तरह है। यदि कोई गया है। ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। जैसे गंगा | लेबिल मात्र घोंट कर पी जाय तो क्या उससे स्वास्थ्य-लाभ हो नदी के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता, केवल उस प्रवाह के जायेगा? क्या रोग मिट जायेगा? नहीं, कभी नहीं। अक्षरज्ञानधारी मार्ग को हम बदल सकते हैं, उसी प्रकार ज्ञान के प्रवाह को | बहुभाषाविद् पण्डित नहीं हैं। वास्तविक पण्डित तो वह है जो सुखाया नहीं जा सकता केवल उसे स्व-पर हित के लिये उपयोग अपनी आत्मा का अवलोकन करता है। "स्वात्मानं पश्यति यः सः में लाया जा सकता है। ज्ञान का दुरुपयोग होना विनाश है और | पण्डितः।" पढ़-पढ़ के पण्डित बन जाये, किन्तु निज वस्तु की ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है, सुख है, उन्नति है। ज्ञान | खबर न हो, तो क्या वह पण्डित है? अक्षरों के ज्ञानी पण्डित अक्षर के सदुपयोग के लिये जागृति परम आवश्यक है। हमारी हालत | का अर्थ भी नहीं समझ पाते। 'क्षर' अर्थात् नाश होने वाला और उस कबूतर की तरह हो रही है जो पेड़ पर बैठा है और पेड़ के | 'अ' के मायने 'नहीं' अर्थात् मैं अविनाशी हूँ, अजर-अमर हूँ, नीचे बैठी हुई बिल्ली को देखकर अपना होश-हवास खो देता है। | यह अर्थ है अक्षर का, किन्तु आज का पंडित केवल शब्दों को अपने पंखों की शक्ति को भूल बैठता है और स्वयं घबराकर उस | पकड़ कर भटक जाता है। बिल्ली के समक्ष गिर जाता है, तो उसमें दोष कबूतर का ही है। शब्द तो केवल माध्यम है अपनी आत्मा को जानने के हम ज्ञान की कदर नहीं कर रहे, बल्कि जो ज्ञान द्वारा जाने जाते हैं | लिए, अन्दर जाने के लिए। किन्तु हमारी दशा उस पंडित की तरह उन ज्ञेय पदार्थों की कदर कर रहे हैं। होना इससे विपरीत चाहिए | है, जो तैरना न जानकर अपने जीवन से भी हाथ धो बैठता है। एक था अर्थात् ज्ञान की कदर होना चाहिए। | पंडित काशी से पढ़कर आये। देखा, नदी किनारे मल्लाह भगवान् ज्ञेयों के संकलन मात्र में यदि हम ज्ञान को लगा दें और / की स्तुति में संलग्न है। बोले - "ए मल्लाह ! ले चलेगा नाव में, उनके समक्ष अपने को हीन मानने लग जायें, तो यह ज्ञान का नदी पार।" मल्लाह ने उसे नाव में बिठा लिया। अब चलतेदुरुपयोग है। ज्ञान का सदुपयोग तो यह है कि हम अन्तर्यात्रा | चलते पंडित जी रौब झाड़ने लगे अपने अक्षरज्ञान का। मल्लाह से प्रारम्भ कर दें और यह अन्तर्यात्रा एक बार नहीं, दो बार नहीं, बोले - "कुछ पढ़ा लिखा भी है? अक्षर लिखना जानता है?" बार-बार अभीक्ष्ण करने का प्रयास करें। यह अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग | मल्लाह तो पढ़ा लिखा था ही नहीं सो, कहने लगा पंडितजी मुझे केवलज्ञान को प्राप्त कराने वाला है, आत्म-मल को धोने वाला है। अक्षर ज्ञान नहीं है। पंडित बोले तब तो बिना पढ़े तुम्हारा आधा जैसे प्रभात बेला की लालिमा के साथ ही बहुत कुछ अंधकार नष्ट | जीवन ही व्यर्थ हो गया। अभी नदी में थोड़े और चले थे कि हो जाता है, उसी प्रकार अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा आत्मा का | अचानक पूर आ गयी, पंडित जी घबराने लगे। नाविक बोला 4 जून 2003 जिनभाषित - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितजी मैं अक्षर लिखना नहीं जानता किन्तु तैरना जरूर जानता | मैं साध्य साधक मैं अबाधक कर्म अरु तसु फलनि तैं। हूँ। अक्षर ज्ञान न होने से मेरा तो आधा जीवन गया, परन्तु तैरना न चित पिंड चंड अखण्ड सुगुण-करण्ड च्युत पुनि कलनि तें। जानने से तो आपका सारा जीवन ही व्यर्थ हो गया। शुद्धोपयोग की यह दशा इसी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा ही हमें तैरना भी आना चाहिये। तैरना नहीं आयेगा तो हम | प्राप्त हो सकती है। अत: मात्र साक्षर बने रहने से कोई लाभ नहीं संसार समुद्र से पार नहीं हो सकते। अत: दूसरों का सहारा ज्यादा है। 'साक्षर' का विलोम 'राक्षस' होता है। साक्षर मात्र बने रहने से मत ढूँढो। शब्द भी एक तरह का सहारा है। इसके सहारे, अपना राक्षस बन जाने का भी भय है। अतः अन्तर्यात्रा भी प्रारम्भ करें, सहारा लो। अन्तर्यात्रा प्रारम्भ करो। ज्ञान का निरन्तर उपयोग करें, अपने को शुद्ध बनाने के लिए। ज्ञेयों का संकलन मात्र तो ज्ञान का दुरुपयोग है। ज्ञेयों में हम अमूर्त हैं, हमें छुआ नहीं जा सकता, हमें चखा नहीं मत उलझो, ज्ञेयों के ज्ञाता को प्राप्त करो। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग से | जा सकता, हमें सूंघा नहीं जा सकता, किन्तु फिर भी हम मूर्त बने ही में कौन हूँ, इसका उत्तर प्राप्त हो सकता है। हुये हैं, क्योंकि हमारा ज्ञान मूर्त में सँजोया हुआ है। अपने उस परमाण नय निक्षेप को न उद्योत अनुभव में दिखै। अमूर्त स्वरूप की उपलब्धि, ज्ञान की धारा को अन्दर आत्मा की दृग ज्ञान सुख बलमय सदा नहिं आन भाव जुमो बिखै॥ | ओर मोड़ने पर ही सम्भव है। मान को खंडित करने के साधन को मान से मंडित करने का साधन न बनायें आचार्य श्री विद्यासागर जी "भगवान् महावीर स्वामी को केवल ज्ञान होता है, वैसे । वाली प्रतिमा रहती है। मान स्तम्भ में चैतन्य भगवान् नहीं बैठते, ही इन्द्र ने आज्ञा देकर कुबेर के माध्यम से समोशरण की रचना | मूर्ति होती है, चैत्यालय होते हैं। उन्हें देखकर ऐसा परिणाम उसे कराई। केवलज्ञान और समोशरण की रचना एक समय में हो | हुआ उसको जो गर्व था वह चूर हो गया। अहंकार समाप्त हो जाती है। विस्मयकारी घटना यह है कि एक दिन, दो दिन, तीन गया। नम्रता से वहीं से अपनी यात्रा प्रारंभ करता है। दिव्य ध्वनि दिन ऐसे लगातार २ माह निकल गये। ६ दिन और निकल गये का सार बताने का सार गौतम स्वामी को ही प्राप्त हुआ, अर्न्तमुहूर्त दिव्य ध्वनि नहीं खिर रही। समोशरण की सभी सभाएँ भर गईं। में ही श्रुत कैवल्य प्राप्त हो गया।६६ दिन के बाद तीर्थंकर महावीर दिव्य ध्वनि नहीं खिर रही, क्यों नहीं खिर रही कोई सुने तो। कोई | की दिव्य ध्वनि खिरना प्रारंभ हो गयी। गणधर पदवी महत्त्वपूर्ण दीक्षित पुण्यशाली भव्य संयमी ही दिव्य ध्वनि झेल सकता है। मानी गई है। ऐसे व्यक्ति की तलाश शुरू हो गई। असंयमी को प्रवचन नहीं आचार्यश्री ने कहा कि मान को खंडित करने के जो साधन सनाया जा सकता। संयमी और दीक्षित होना चाहिये। सना है | हैं उन्हें मान से मंडित करने का साधन नहीं बनाना चाहिए। जो तीर्थंकर अकेले दीक्षित नहीं होते। भगवान् महावीर अकेले ही शिलादान कर रहा है, उसे अहंकार नहीं करना चाहिए। दान के दीक्षित हुये, स्वयं दीक्षित हुये, न दीक्षा ली, न दी।" उक्त उद्गार ऊपर अभिमान नहीं करें। यदि बड़ा दान करनेवाला अभिमान विश्वबन्ध महान् तपोनिधि आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी करता है, तो उसका पूरा का पूरा दान व्यर्थ चला जाता है, छोटे महाराज ने बड़े बाबा की अतिशय स्थली कुण्डलपुर में रविवारीय | दान से त्याग किया, कर्म निर्जरा हो गई, अभिमान नहीं किया प्रवचन श्रृंखला के दौरान व्यक्त किये। आगे कहा कि इन्द्रभूति | विकास हो जाता है। मोह के हनन से विकास होता है। कषायों के गौतम में सम्यकपना नहीं आया था। गर्व के साथ इन्द्रभूति आ रहे | मिटने से विकास होता है। वस्त्र की गंदगी साबुन सोड़ा से निकलेगी। हैं, जैसे ही उन्हें मान स्तम्भ दिख गया पूरा का पूरा अभिमान चर | दानपुण्य के द्वारा अपने अंदर की गर्मी धो डालें। रागद्वेष से मलिन चूर हो गया। हिमालय जैसा अभिमान मान स्तम्भ देखने मात्र से | आत्मा से गंदगी हटाना आवश्यक है, जितनी जल्दी गंदगी दूर चूर-चूर हो गया। आगे बढ़ा, इरादा गायब हो गया, स्मरण नहीं | करेंगे, हमारे अंदर की आत्मा का स्वरूप बाहर आने में देर नहीं आ रहा, भाव विभोर हो गया। उत्साह से चला हमें बहुमूल्य लगेगी। भगवान् महावीर के समोशरण में जाने के पूर्व मानस्तंभ सम्पदा मिलने वाली है और वह दीक्षित हो गया। आज वर्तमान | देखने मात्र से इन्द्रभूति गौतम का सारा मान दूर हो गया। यदि आगे में साक्षात भगवान् नहीं हैं। जब साक्षात् भगवान् थे, तब मान | हमें बढ़ना है, तो जैसी गणधर परमेष्ठी ने शुरुआत की, वैसी ही स्तम्भ समोशरण के सामने भूमिका का काम करते। जो मंदिर के | हम शुरुआत करें, आस्था के साथ दिखावा न करते हुए आत्मा का सामने मान स्तम्भ होता है, उसमें ऐसा चमत्कार होता है। मान उत्थान करें। पतन से हम बच सकते हैं। स्तम्भ में चतुर्मुखी प्रतिमा होती है। समोशरण में चारों ओर मुख शाह मुकेश जैन एडव्होकेट' प्रचार मंत्री एवं जय कुमार जैन "जलज" - जून 2003 जिनभाषित 5 nternational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ भारती के अवतरण का पर्व श्रुतपंचमी ब्र. सन्दीप 'सरल' भगवान् ऋषभ देव के तीर्थकाल से भगवान् महावीर के | श्रुतपंचमी और हमारा उत्तरदायित्व तीर्थकाल तक श्रुतज्ञान की अविरल धारा चलती रही। भगवान् देव, शास्त्र और गुरु ये तीनों हमारे आत्मकल्याण में साधक महावीर के मोक्ष गमन करने के पश्चात् (६८३) छ:सौ तेरासी | हआ करते हैं। हमारे पूर्वजों ने हर प्रकार के साधनों के अभाव में वर्ष तक श्रुत परम्परा अर्थात् ज्ञान की अविरल धारा चलती रही। पूर्वाचार्यों द्वारा लिखी माँ जिनवाणी को ताड़पत्र, भोजपत्र एवं इस समय तक श्रुत को लिपिबद्ध करने का कार्य प्रारम्भ नहीं हुआ | कागज पर लिखकर, लिखवाकर हर मंदिरों में विराजमान करवाते था क्योंकि बुद्धि की प्रखरता के कारण शिष्य गुरु मुख से ही ग्रहण | रहे। वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि पाण्डुलिपियाँ कर लेते थे, लेकिन क्षयोपशम के उत्तरोत्तर क्षीण होने से अब | हमारी जैन संस्कृति/इतिहास, आचार-विचार की अमल्य धरोहर द्वादशांग वाणी का ज्ञाता कोई नहीं रहा। गुणधराचार्य के पश्चात् | हैं। इस धरोहर की सुरक्षा, व्यवस्था एवं प्रचार प्रसार में प्राणपण अगपूर्व के एकदेश ज्ञाता धरसेनाचार्य हुए। ये अष्टांग महानिमित्त | से जुटे रहे। हमारे पूर्वज इस पर्व के दिन सभी पाण्डुलिपियों के के पारगामी और लिपिशास्त्र के ज्ञाता थे, इन्होंने अपना समय पुराने वेष्टन (वस्त्र) बदलकर नवीन वेष्टन में पुनः बंद करके अल्प जानकर एवं अंगश्रुत के विच्छेद हो जाने के भय से शास्त्रज्ञान रखते थे किन्तु आज की भोग विलासी पीढ़ी को इस कार्य की जरा की रक्षा हेतु महिमानगरी में आयोजित मुनियों के एक विशाल भी चिंता नहीं रही है। आज के इस मुद्रण के युग में हमारा ध्यान सम्मेलन में आचार्यों के पास एक पत्र भेजा। पत्र में लिखे गये उन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों की ओर से हट सा ही गया है। ऐसे धरसेनाचार्य के आदेश को स्वीकार करके महासेनाचार्य ने अपने कितने ही स्थान हैं जहाँ पर शास्त्रभण्डारों को चूहों और दीमकों संघ में से उज्जवल चरित्र के धारी, सेवाभावी, समस्त विद्याओं के | ने बिल्कुल समाप्त कर दिया है। श्रुत संरक्षण के रूप में हम निम्न पारगामी और आज्ञाकारी दो मुनियों को धरसेनाचार्य के निकट कार्यों को अंजाम दे सकते हैंगिरिनार पर्वत की ओर भेजा। जिस दिन ये दोनों मुनिराज धरसेनाचार्य श्रुतपंचमी और पाण्डुलिपि संग्रहालय केन्द्र के पास पहुँचने वाले थे, उस दिन पिछली रात्रि में धरसेनाचार्य ने यदि हमने अपनी विरासत में मिली हुई पाण्डुलिपियों की कुन्दपुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान श्वेत वर्ण के धारी हृष्टपुष्ट सुरक्षा हेतु कुछ प्रबन्ध नहीं किया तो इतिहास हमें क्षमा नहीं दो बैलों को अपने चरणों में प्रणाम् करते हुए देखा। ऐसे सुखद करेगा। आज हम गन्धहस्तिमहाभाष्य, विद्यानंद महोद, वादन्याय स्पप्न को देखकर आचार्य श्री को अपार हर्ष हुआ। और उन्होंने आदि शताधिक ग्रन्थों को लुप्त घोषित कर चुके हैं। इसमें हमारा कहा- समस्त जीवों का कल्याण करने वाली, संदेहों का निवारण ही प्रमाद रहा है। ये ग्रन्थ न जाने कब चूहों और दीमकों ने नष्ट करने वाली, श्रुतदेवी जिनवाणी जयवन्त हो। प्रात: दो मुनि आए कर दिये होंगे। वर्तमान में भी बहुत सारी अप्रकाशित पाण्डुलिपियाँ और आचार्य श्री को नमस्कार कर बड़ी विनय के साथ निवेदन काल कवलित होती जा रही हैं। यदि पाण्डुलिपियों को सुरक्षित किया कि आप हमें ज्ञानदान दीजिए। रखने के लिए हमारी समाज प्रान्तीय, राष्ट्रीय स्तर पर पाण्डुलिपि आ. धरसेन जी उन्हें आशीर्वाद देकर दो-तीन दिन उन्हें संग्रहालय केन्द्रों की स्थापना करें और उस संग्रहालय में पाण्डुलिपियों अपने पास रखकर उनकी बुद्धि, शक्ति और सहनशीलता की की लेमीनेशन अथवा माइक्रोफिल्म बनाकर पूर्ण सुरक्षा की जावे। परीक्षा लेते हैं । परीक्षा में सफल हो जाने पर श्रुतोपदेश देना प्रारम्भ इन पंक्तियों के लेखक को यह गौरव प्राप्त हुआ है कि भारतवर्ष के किया, जो आषाढ़ शुक्ला एकादशी को समाप्त हुआ। गुरु धरसेन कोने-कोने में यत्र-तत्र विकीर्ण पाण्डुलिपियों के संकलन, संरक्षण ने इन शिष्यों का नाम पुष्पदंत और भूतबलि रखा। गुरु के आदेश के उद्देश्य से २४ मार्च १९९५ से शास्त्रोद्धार शास्त्र सुरक्षा अभियान से ये शिष्य गिरिनार से चलकर अंकलेश्वर आए और वहीं पर का प्रणयन कर लगभग ५०० स्थलों से ८००० हस्तलिखित ग्रंथों वर्षाकाल व्यतीत किया। दोनों मुनियों ने गुरुमुख से सुने हुए ज्ञान को बान में लाकर पाण्डुलिपि संग्रहालय में संरक्षित किया है। को लिपिबद्ध किया जो आज हमें षट्खण्डागम के रूप में उपलब्ध आज यह पाण्डुलिपि संग्रहालय एक आदर्शपूर्ण संग्रहालय बन है, भूतबली ने षड्खण्डागम की रचना ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को चुका है। अन्य स्थानों पर भी इस प्रकार के केन्द्रों की शुरुआत पूर्ण करके चतुर्विध संघ के साथ उस दिन श्रुतज्ञान की पूजा की श्रुतपंचमी पर्व पर की जा सकती है। थी। जिससे वह तिथि आज भी श्रुतपंचमी अथवा ज्ञानपचंमी के नवीन पीढ़ी को पाण्डुलिपि प्रशिक्षण शिविर नाम से जानी जाती है उसी समय से उसी की पावन स्मृति में हमारी नवीन पीढ़ी के विद्वान् इन पाण्डुलिपियों को पढ़ उसके समस्त अनुयायी आज भी श्रुतपंचमी मनाते आ रहे हैं। 6 जून 2003 जिनभाषित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाने में असमर्थता प्रगट करते है, अत: पाण्डुलिपि प्रशिक्षण शिविरों | शास्त्रोद्धार शास्त्र सुरक्षा अभियान के बढ़ते चरण का भी आयोजन करके हम इस दिशा में सफलता प्राप्त करके - ज्ञान ही मनुष्य जीवन का सार है। ज्ञान के अभाव में पाण्डुलिपियों के सूचीकरण सम्पादन आदि में आशातीत सफल जगत के सभी प्राणी अंधे हैं। ज्ञान-स्व-पर प्रकाशी है। ज्ञान की हो सकेंगे। प्रभावना से स्व-पर की प्रभावना हुआ करती है। अनेकान्त ज्ञानमंदिर श्रुतपंचमी और विद्वानों का सम्मान बीना ने 'शास्त्रोद्धार शास्त्र सुरक्षा अभियान' के अन्तर्गत अनेक __ हमारे विद्वानों ने कठोर परिश्रम करके विषम परिस्थितियों | स्रजनात्मक कार्यों का प्रारम्भ किया है। ज्ञान मंदिर बीना के माध्यम में अनेकानेक ग्रन्थों का सम्पादन एवं अनुवाद करके माँ भारती के से उठी एक चिनगारी ने चहुँ ओर व्यापकता ग्रहण कर ली है। भंडार की वृद्धी करते रहे हैं किन्तु वे विद्वान् अभावों की जिन्दगी स्वाध्याय की प्रवृत्ति को जाग्रत करने के लिए युवा पीढ़ी के लिए ही जीते रहे। श्रुतपंचमी पर्व पर हम विद्वानों को उचित धर्म के संस्कारों से जोड़ने के लिए अनेक स्थानों पर वाचनालयों सम्मान/पुरस्कार आदि देकर उनकी साहित्य साधना में सहायक | की स्थापना का कार्य भी प्रारम्भ किया जा चुका है। बनें एवं विद्वानों को प्रेरित करके अप्रकाशित ग्रन्थों के सम्पादन वर्तमान समय में बालक-बालिकाओं को धार्मिक संस्कार हिन्दी अनुवाद आदि के कार्य को प्रारम्भ करवायें। देने के लिए रात्रि कालीन पाठशालाएँ पूर्णत: बंद हैं। इसकी पूर्ति श्रतपंचमी पर्व और वाचनालयों की शरुआत । प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से की जा सकती है। पिछले २-३ आज समाज में चारों ओर अशांति, वैमनुष्यता एवं कलह वर्षों से अनेकान्त ज्ञानमंदिर बीना द्वारा प्राकृत भाषा प्रशिक्षण, नय का वातावरण बना हुआ है, इसका मुख्य कारण स्वाध्याय-ज्ञान प्रशिक्षण, पूजन प्रशिक्षण, ध्यान प्रशिक्षण आदि के माध्यम से का अभाव है। स्वाध्याय की वृद्धि हेतु संस्कारों की जागृति के समाज का हर वर्ग लाभान्वित हो रहा है। लिए वाचनालयों की स्थापना करनी चाहिए ताकि समाज में अच्छा आगम गन्थों का प्रकाशन वातावरण स्थापित हो सके। अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान बीना अप्रकाशित ग्रन्थों के प्रकाशन के संदर्भ में भी संस्थान ने इस दिशा में १७ स्थानों पर अनेकान्त वाचनालयों की स्थापना प्रयासरत है। इस वर्ष संस्थान द्वारा आप्तमीमांसावृत्तिः, परीक्षामुख कर उल्लेखनीय कार्य किया है। प्रश्नोत्तरी, प्रारम्भिक प्राकृत प्रवेशिका एवं प्रारम्भिक नय प्रवेशिका ग्रन्थों का प्रकाशन किया गया है। निम्न ग्रन्थों का भी सम्पादन श्रतपंचमी पर्व और साधु समाज कार्य पूर्ण हो चुका है, उदारमना दानदातारों का सहयोग प्राप्त होने प्रारम्भकाल से ही मुनिराजों का समाज में अच्छा प्रभाव पर ग्रन्थ शीघ्र प्रकाशित हो सकते हैं। रहा है। आज इन्हीं मुनिराजों की पावन प्रेरणा एवं सान्निध्य में १. आचार्य अनंतवीर्य कृत सर्वज्ञसिद्धि, २. पं. देवीदासकवि बड़े-बड़े कार्यक्रम सफलता पूर्वक आयोजित हो रहे हैं। किन्तु कृत प्रवचनसार पद्यानुवाद, ३. भारतीय ऐतिहासिक श्राविकायें और प्राचीन आगम के संरक्षण/सम्बर्द्धन की ओर कोई ठोस कार्य नहीं ४. प्रमाणपरीक्षा वचनिका। हो रहा हैं। यदि साधु समाज इस पर्व पर श्रावकों को प्रेरित करके हमें पूर्ण विश्वास है कि इस दिशा में श्रेष्ठीवर्ग, विद्वत्वर्ग पाण्डुलिपियों को सुरक्षित करवाने की प्रेरणा दे, विद्वानों को उचित अपना ध्यान आकर्षित कर उपरोक्त ग्रन्थों के प्रकाशन में अवश्य सुविधाएँ प्रदान करवाकर पाण्डुलिपियों का सम्पादन / प्रकाशन ही सहयोग प्रदान करेगा। करवाया जा सकता है। पूर्ण विनय के साथ साधु समाज से इस एक जिनवाणी शिशु द्वारा शास्त्रोद्धार शास्त्र सुरक्षा अभियान दिशा में आशा की जाती है। हमारी जैन समाज में उदारमना का प्रारम्भ सीमित साधनों से प्रारम्भ किया गया था किन्तु इस दानदाताओं की कमी नहीं है। प्रतिवर्ष श्रुतपंचमी पर्व पर एक | पुनीत कार्य में हमें समस्त साधुवृन्दों का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, अप्रकाशित ग्रन्थ का प्रकाशन हर नगर की समाज कर सकी तो | विद्वानों की शुभकामनायें साथ ही आगम के प्रति अटूट आस्था महान् कार्य हो सकता है। एवं समर्पण रखने वाले जिनवाणी सपूतों का आर्थिक सहयोग वस्तुत: यह श्रुतपंचमी पर्व शास्त्र भण्डारों के प्रारम्भ किये | प्राप्त न होता तो आज ज्ञानमंदिर की जो छवि लोगों के हृदय में जाने का पर्व है। आज के दिन हम श्रुत देवी की पूजा उपासना के | अंकित हो चुकी है, वह न हो पाती। साथ संकल्पित हों कि वर्तमान में जितना भी आगम उपलब्ध है, | अनेकान्त दर्पण का यह संयुक्त अंक श्रुतपंचमी पर्व के उसकी पूर्ण सुरक्षा करने में हम तन-मन और धन से सदैव आगे | पुनीत अवसर पर श्रुतोपासकों के लिए समर्पित करता हुआ विराम रहेंगे और माँ जिनवाणी का स्वयं पान करते हुए उसको जन-जन | लेता हूँ। ब्र. संदीप'सरल' तक पहुँचाने में अग्रसर रहेंगे। अनेकान्त ज्ञान मंदिर शोध संस्थान, बीना जून 2003 जिनभाषित 7 Jain Education Interational For Private & Personal use only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति का रुपहला कलश 'कटवप्र' चन्द्रगिरि डॉ. स्नेहरानी जैन कर्नाटक प्रांत के क्लान्त शांत अंचल में बिन्ध्यगिरी के | संस्तर का अनुभव देता था। ऊपर तारों भरा आकाश चिन्तन को पास ही कुछ एकड़ों में फैली हुई (लगभग २० एकड़ में पसरी) | अनंत गहराई देता था। छोटी वाली चट्टानी पहाड़ी है जिसे इतिहासकारों ने "चन्द्रगिरि" आचार्य भद्रबाहु का मन उस चट्टान पर इतना स्वस्थ हो के नाम से पुरातत्त्व विभाग की सुरक्षार्थ समर्पित किया है। सर्वधर्मी | गया कि उन्होंने भी वहीं अपनी वृद्धावस्था को सल्लेखना से यहाँ पर सैलानी बनकर आते तो हैं, किन्तु इस पहाड़ी के अध्यात्म- | समापन देने का निर्णय किया। नीचे चारों दिशाओं में ग्राम तब भी वैभव को न जानते हुए घोर उच्छृखलता और उपद्रव कर जाते हैं। | रहे होंगे किंतु जंगल पार करके कुछ दूरी पर थे जहाँ साधु भिक्षावृत्ति आदिनाथ ऋषभदेव के प्रथम तेजस्वी चक्रवर्ती पुत्र भरत की | हेतु जाते तथा जहाँ से यदा-कदा श्रावक उनकी वैय्यावृत्ति करने सुन्दर खड्गासन प्रतिमा यहाँ अनेकों शताब्दियाँ पूर्ण कर चुकी आ जाते थे। शिलाओं की ऐसी ही एक ओट को आचार्य भद्रबाहु थी। किंतु पिछली शताब्दी के ६० वर्ष पार करते-करते किसी जी ने अपना आवास चुन लिया जो आज भी भद्रबाहु की गुफा के आक्रान्तक ने उसके लिंग और नाक खण्डित कर दिए। बायें हाथ | नाम से जानी जाती है। वहीं उनके चरण भी बना दिए गए हैं। को भी कंधे से कोहनी तक क्षतिग्रस्त कर दिया है। तब से ही ऐसा | कटवप्र पर जब कभी कोई साधु समाधिमरण को प्राप्त प्रतीत हुआ कि यहाँ देखरेख की आवश्यकता है और कुछ सुरक्षा होता तब श्रावकगण उनकी प्रशस्ति का वर्णन संकेतों में पत्थर सेवक उसे देखते भी हैं। किंतु पर्यटकों में एक सी गंभीरता रहना | पर उत्कीर्ण कर देते। वह उकेर इतनी गहरी होती थी कि हजारों संभव नहीं है। पर्वत के वक्ष पर पुरा-संपदा के रूप में सब ओर | वर्षों से बारिश, आंधी और गर्मी को झेलते हुए भी वह अब भी प्राचीन शिलालेख बिखरे फैले हुए हैं। कन्नड़ भाषा में लिखे गए | स्पष्ट देखी जा सकती है। अनेकों चरण धुल-धुल कर अस्पष्ट भी शिलालेख तो लगभग सारे ही पढ़े जा चुके हैं, किंतु अत्यंत | हो गए हैं। लिपि को समझ ना पाने के कारण उत्तर-कालीन प्राचीन लिपि में विस्तृत शिला पर उत्कीर्ण शिलालेखों की सुरक्षा पीढ़ियों ने उस पर ध्यान नहीं दिया। चन्द्रगुप्त मौर्य ने मंदिर बनवाया की तो बात ही दूर, उन को कोई पहचान भी नहीं पाया कि वे क्या और अपने गुरू भद्रबादु की सल्लेखना-मृत्यु के बाद स्वयं भी कहते हैं। उन्हें दर्शकों के पैरों तले उपेक्षा ही मिलती रही जैसे कि | उसी पर्वत पर सल्लेखना द्वारा मरण को प्राप्त हुआ। उस कटवप्र वे व्यर्थ के चिन्ह हों। का नाम "कलवप्पु" हो गया था किंतु चन्द्रगुप्त के कारण उसे लगभग २४०० वर्ष पूर्व जैनाचार्य भद्रबाहु अपने १२००० बाद में चन्द्रगिरि कहा जाने लगा। चन्द्रगुप्त के मंदिर के आसपास साधुओं के विशाल संघ सहित जब उज्जयिनी से दक्षिण भारत कालांतर में अनेक मंदिर बनते गए। बड़ी-बड़ी शिलाएँ कट - की ओर गए तब उनके साथ उनका भक्त शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त कट कर रूप बदलने लगीं और उन्हें पर्वत पर घसीटा उठाया मौर्य भी चला गया। चन्द्रगिरि जिसे "कटवप्र" कहा जाता रहा जाता रहा। लोगों का आना जाना, मलमे का उतरना, उठाना सब उसके मन भा गई। उसने वहाँ एक सुन्दर जिन-मंदिर बनवा चलता रहा। पता नहीं कितनी ही अंकित कथाएँ मसाले में दब दिया। पुरातात्त्विक प्रशस्ति यही दर्शाती है। गईं। कितनी ही मंदिरों के नीचे दफन हो गईं। उनकी ओर किसी कटवप्र अर्थात् " पुण्यजीवियों का मकबरा'' (श्रमण की दृष्टि ही नहीं गई। काल का प्रभाव है कि सब ओझल होता बेलगोल, ष, शेट्टर, अनुवादक सदानंद कलवल्लि, रुवाड़ी, गया। गोम्मटेश के बाद अचानक चन्द्रगिरि की भी वंदना करते धारवाड़, १९८१ कर्नाटक पर्यटन के सहयोग से), भी ऐसी ही हुए मंदिर नं. ४/५ के सिढ़ाव से उतरते ही धूप की उजास में उन पहाड़ी थी जिस पर प्राचीनकाल से ही जैन साधु और श्रावक लकीरों को देखा तो पैरों ने जवाब दे दिया। वहीं बैठकर उस तपस्या करते हुए सल्लेखना लीन हो जाते थे। लावा के उफानों से पसरते हुए शिलालेखी अंकन को टटोला तो लगा कि ये सारी बनी यह पहाड़ी कठोर पाषाण वाली थी जिसके चारों ओर घने उतरित कड़ियाँ अपना रहस्य खोल रही हैं। वह सामान्य अंकन जंगल और झीलें थीं। वनों में बाघ, हरिण, हाथी, खरगोश, सर्प नहीं हड़प्पा' और 'मोहनजोदडो' में दृष्ट चित्रलिपि की ही प्रस्तुति रेंगते थे। लावा के विस्फोट से उगलती आग ने अनेक बड़ी-बड़ी | थी जिन्हें मैने जैन दृष्टिकोण से देखने पर आत्मबोधक पाया था। लुढ़कती बूंदों ने चट्टानों का रूप भी पा लिया था। ये सब अपनी उस लिपि पर मैं तीन बार अपनी लेखनी का ज्ञापन भी दे चुकी ओट में गुफाओं का सा वातावरण बना देती थीं। चट्टानी खुले | थी। आश्चर्य, कि चन्द्रगिरि के पूरे पाषाणी विस्तार पर वही लिपि विस्तार में लेटकर रात्रि काटी जा सकती थी क्योंकि जलवायु सम | 'उत्कीर्ण होकर' सामने यूँ बिखरी पड़ी थी। जितनी चाहो, पढ़ थी और चट्टान का वक्ष अपने ऊँचे नीचे विस्तार में अत्यंत सुखद | लो। प्रथम कड़ी में मुझे एक वृत्तांत लगा।"पंचम गति (मुक्ति) 8 जून 2003 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए किसी श्रमण ने मांगी तुगी तीर्थ से आकर शेष दो कषायों | कलश"है जो अचानक दमक उठा। (ऐसा बतलाया जाता है (प्रत्याख्यान और संज्ज्वलन) को त्याग करने हेतु रत्नत्रय धारते कि) किंवदन्ती है कि सल्लेखना-मृत्यु से पूर्व जब मुनि दशा में हुए तीन शुक्लध्यानों को पाकर सल्लेखना अपनाते हुए बारहवें चन्द्रगुप्त अनेक उपवासों के बाद भिक्षावृत्ति हेतु निकले तब तीन दिन मुक्ति पाई।" दिशाओं के ग्रामों में भटकने पर भी उन्हें भिक्षा प्राप्त नहीं हुई। तब तभी दूसरी पंक्ति ......? चौथी दिशा के जिनदासपुर नामक ग्राम में उन्हें आहार प्राप्त हुआ ___ सो भी ऐसी ही कुछ थी- (तीसरे) इस अवसर्पिणी काल था। जिनदासपुर अब भी अपनी पुरानी कथा दर्शाता है। यहाँ का के प्रारंभ में ही पुरुषार्थ बढ़ाकर क्षपक ने स्वसंयमी सल्लेखना प्राचीन जिन मंदिर अत्यंत सुंदर कला-युक्त है किंतु असुरक्षित लेकर अरहंत-सिद्ध को जपते हुए तीन धर्म ध्यानों सहित अपने होने के कारण उसकी बाह्य मूर्तियों को बेरहमी से नष्ट किया गया दुानों को त्याग कर शुक्ल ध्यानों सहित सल्लेखना ली। उसे है और कुछ गायब भी हैं। वैय्यावृत्ति भी मिली और तीर्थंकर के चरण भी। तीन दिन तक | पंचम दुषमा काल का ऐसा कुप्रभाव हुआ है कि मनुष्य ऐसा चला। सल्लेखना लेने पर पंचमगति का साधन एक ही दिन ने मानवता छोड़ दी है। हर ओर हिंसा और मांसाहार की बहुलता आवश्यक रहा, पश्चात् सल्लेखना पूर्ण हुई।" फिर तो जितनी हुई है। समीप ही "कम्मदल्ही" के आसपास के लगभग ७२ भी पंक्तियों को देखा यही पाया कि उस सल्लेखी को कितने दिन जिन मंदिरों को तोड़-तोड़ कर १८ एकड़ में पसरे तालाब में फेंक में वैय्यावृत्ति प्राप्त हुई और उसकी कितने दिनों बाद समाधि हुई।। दिया गया। मात्र ६ मंदिर वहाँ अब शेष बचे हैं। अत्यंत सुंदर लगभग १४८ संकेताक्षर सैंधव लिपि के देखने में आए। सब इतने पंचकूट बसदि में जो सबसे सुन्दर है तथा जिसमें छत पर अब भी गहरे हैं कि अब भी भली भाँति पढ़े जा सकते हैं। बीच-बीच में अष्टदिक्पालों की सुन्दर मूर्तियाँ हैं, पर मांसाहारियों ने डेरा डाल ऊँ भी दिखाई दिया, स्वास्तिक भी और आवर्ति-चतुर्दिक भी।। रखा था। "जिन-मुद्राओं वाले विशाल सुंदर रंगमंडप में उन्होंने हाथी, बैल, चिड़िया, कुत्ता भी।" बकरे, मुर्गी बाँधना और मांस पकाना प्रारंभ कर दिया था। सामने इन सबों के बीच में अनेक चरण-चिन्ह भी मिले हैं। ही पाषाणी फर्श पर ओखल बना रखी थी। वेदियों के कुंडों से कुछ मंदिरों की नीवों से अधदबे झाँक रहे हैं तो कुछ एक पर बैंचें बनाकर आराम से वे उन पर सोते बैठते थे। बाहरी कलाकृति अनेक बार चरण पुन: उकेर दिये गये हैं। साथ ही प्रशस्तियाँ भी यहाँ देखते ही बनती है। उपलब्ध शिलालेखों के अनुसार (नागमंगल अलग-अलग कालों की हैं। कई बेहद धुंधले हो गए हैं फिर भी २०) इस मंदिर के संरक्षण हेतु गंगवंश के नेमिदण्डेश और मुद्दाशे सुबह के हल्के प्रकाश में झलक ही पड़ते हैं। ने २४ एकड़ सिंचित एवं ५० एकड़ असिंचित जमीन इसे समर्पित आचार्य भद्रबाहु की गुफा को अब दीवारें उठाकर सहेज की थी। श्री शांतिनाथ चैत्यालय के शिलालेख (नागमंगल १२९) दिया गया है कितु वहां तो छत वाली चट्टान ने अद्भुत ही दृश्य | के अनसार सामन्तराज भरतनायक ने १८ एकड बाले बड़े तालाब दिखलाया। उसम सात मानव आकृतिया मानव-जावाष्मा क रूप के पास वाली एक एकड़ जमीन भी इस देवस्थान की सेवार्थ में दिखती हैं। इनमें तीन तो संपूर्ण मानवाकृतियाँ हैं चार के मात्र समर्पित की थी। जिसे (नागमंगल १३०) शिलालेख के अनुसार मुण्डों की छाप है। ये दर्शा रहे हैं कि कभी इन सात सोते समाधिस्थ होय्यसलवंशी महाराज नरसिंह ने "सेवा आगे भी जारी रहे" का मानवों पर ज्वालामुखी ने अपने लावे का बड़ा छींटा फेंक कर आदेश दिया था। (नागमंगल १३१ के अनुसार इसे “एक कोटि उन्हें भस्म कर दिया किंतु वह छींटा एक चट्टान बनकर रह गया जिनालय" घोषित किया गया था) जो कदाचित भूकंप के भारी धक्के में अपना आधार बदलकर इन किंतु कालान्तर में यहाँ के अधिकांश जैन विषम मानव-जीवाष्मों को गुफा की छत पर दर्शाने लगा। उसी को गुफा परिस्थितियों-वश पलायन कर गए। जो बचे, वे मुगलों और जैसा पाकर उत्तरवर्ती श्रमणों ने उसे अपना आवास बना लिया ब्रिटिश प्रभाव में कुंठा और विपदाग्रस्त होकर धर्म-च्युत हो कर्त्तव्यहोगा। वह घटना लाखों वर्षों पूर्व की ही संभव है जब दक्षिणी बोध ही भूल गए। मंदिरों के आसपास की लगभग सारी ही भूमि पठार ने अपनी अंतिम लावा-गर्जना के बाद "मौन" प्रारंभ किया। पर ये कब्जा करके रहने लगे, सो भी संस्कार-विहीन । भट्टारक मानव सभ्यता का इसे "केन्द्र-बिन्दु" कहा जावे तो अतिशयोक्ति चारू-कीर्ति जी के संरक्षण में यहाँ भट्टारक भानुकीर्ति जी को नहीं होगी क्योंकि हड़प्पा भी डायनासर और मैमथ काल की स्थापित किया गया और राज्य सरकार ने भी उदारता से वहाँ की मानव सभ्यता को इसी के समकालीन बना देते हैं। सैधव लिपि पुरातात्विक धरोहर के जीर्णोद्धार का कार्य प्रारंभ किया है। का चट्टानों में गहरा उकेरा जाना स्पष्ट दर्शाता है कि यह कटवप्र फलस्वरूप लोगों में चेतना लौटती दिखाई दी है। कर्नाटक प्रांत सैंधव-लिपि के साथ तब भी उतना ही महत्वपूर्ण रहा है जब का ये दुर्भाग्य है कि वहाँ संस्कृति की जड़ें गहरी होने के बाद भी ज्वालामुखी अंतिम बार अचानक दक्षिण भारत में सक्रिय हो उठा धर्म का विनाश हुआ और भारत की प्राच्य गौरव संपदा को था, जितना कि आचार्य भद्रबाहु के काल म। आर इस तरह यह | अज्ञानियों द्वारा क्षत-विक्षत किया गया। ऐसी स्थिति में लगता है भारत की प्राच्य-संस्कृति और अध्यात्मिक जीवन का "रुपहला | कि भटटारक परम्परा के द्वारा ऐसे क्षेत्रों को सुरक्षित रखा जाना जून 2003 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दरिद्रता में बखोई सुप्त समाज को जगाकर दिशा बोध देना । ही प्रतिपादित करते है जिन्हें बाद में "हिन्दू" पुकारा जाने लगा। अब भी वास्तव में अत्यंत आवश्यक है। बदले माहौल और | शिव और शक्ति की कल्पना भी बहुत बाद की है। इसीलिए भारतीय संस्कृति के पतन की रफ्तार को देखकर लगता है कि | ऋग्वेद में अरिष्टनेमि तक का उल्लेख है। ऋषभ और उनके हमारी अज्ञानता से हमने बहुत कुछ खोया है। हमने खोकर भी | लांछन के गौरव से परिपूर्ण ऋग्वेद ऋषभ को प्रजाप्रति, पशुपति, किसी बाहर से आकर उद्धार करने वाले की वृथा राह देखी है। | केशी, नाग्न, ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, मौनी (मुनि), व्रात्य, अर्हत, अपेन अंदर की निधि की ओर नहीं देखा। ब्राह्मण का दंभ रखकर अर्हन, वातरशना पुकारता है। उनकी हॉ-मा की दंडव्यवस्था की भी अंदर बैठे ब्रह्म (आत्मा) को पहचानने को पुरुषार्थ नहीं याद करता है। स्त्रियों के तप को महत्व देता है। विदूषियों से उठाया। इसीलिए भ्रम में उलझकर बिखर गए। ज्ञानप्राप्ति का समर्थन करता है। कृषि परम्परा हेतु वृषभ, जिसमें हड़प्पा के शांत योगी का रूप हमें रुद्र का रूप दिखने | हिंसा का यज्ञ विषयक कोई उल्लेख नहीं है, वरूण, सूर्य, धरती लगा। हड़प्पा के रूद्र का उन्नत लिंग मूर्ति में नाभि तक पहुँचता और पवन की महत्ता बतलाता है। प्राचीन संपूर्ण हिन्दू साहित्य है जिसे कालांतर में शिव-लिंग के रूप में पूजा जाने लगा है किंतु | उन्हें ही आदिनाथ मानता है किंतु उत्तर कालीन शिव की कल्पना हड़प्पा का योगी सामान्य है। उसका लिंग जंघा जोड़ से ऊपर नहीं | उनसे बहुत भिन्न है। दिखता अर्थात् वह उन्नत नहीं सौम्य है। इसीलिए वह रूद्र नहीं कंकाली टीले, मथुरा और हड़प्पा से प्राप्त धड़ की कायोत्सर्गी जिनलिंग है। और हड़प्पा का योगी शिव नहीं, ऋषभ "पशुपति " मुद्राओं में दिगम्बर परम्परा का साम्य, "कटवप्र" की दृष्ट निरंतरता ही है। से आता हुआ प्रतीत होता है। इस प्रकार कटवप्र भारतीय-प्राच्यपुरातात्त्विक प्रतीकों से यह भी ज्ञात होता है कि तब | वैभव और सभ्यता की शाश्वत परम्परा की निरन्तरता को दर्शाता हड़प्पा-मोहनजोदड़ो काल में भारत से जल और थल दोनों ही | हुआ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मार्गों से व्यपार चलता था। समद्र पार कर इजिप्त, बेबीलोन, ग्रीक पुरातत्त्व दृष्टि से तक्षशिला और नालंदा-विश्व-विख्यात जैसे सुदूर देशों में भी व्यापार हेतु जलपोतों से श्रेष्ठी जाते थे। तब | शिक्षा केन्द्र थे जहाँ विदेशों से शिक्षार्थी आकर ज्ञान लाभ लेते थे। बिना परिचय उन देशों में विनिमय भला संभव कैसे होता? अत: आज उनके खंडहर भी अपने वैभव की कथा बतलाते हैं। कहा भाषा का कुछ न कुछ माध्यम अवश्य रहा जिसके द्वारा ब्राम्ही- जाता है कि तक्षशिला और नालन्दा के ग्रंथागारों की आग छह लिपी और भाषा के शब्द वहाँ पहुँचे साथ ही पहुँची हमारी संस्कृति | माह तक नहीं बुझी थी। अनेक समर्पित विदेशी विद्यार्थियों ने यदि के प्रतीकात्मक तथा अभिव्यक्ति स्वरूप "चार गतियाँ'' और | कुछ साहित्य जलने से बचा भी लिया हो तो कोई आश्चर्य नहीं "स्वास्तिक" चिन्हों वाला अध्यात्म। कुछ ने वहाँ दीर्घ संपर्क से होगा। उसे वे अपने साथ ले गए हों तो भी कोई आश्चर्य नहीं। विवाह भी किए होंगे और संततियों को ऋषभ-परम्परा का संदेश आज भी विदेशी ग्रंथागारों में लाखों की संख्या में भारतीय देने हेतु दिगम्बरत्व की मूर्तियाँ भी दी होंगी। रेषफ और "कूरो" पांडुलिपियाँ सुरक्षित होने को क्रमबद्ध पड़ी हैं। मात्र बर्लिन की मूर्तियाँ वैसी ही घटनाओं का प्रतिफल प्रतीत होती हैं। भारत विश्वविद्यालयीन पुस्तकालय में लाखों की तादाद में पांडुलिपियाँ ने देवपूर्व आदिकाल से ही आत्मबोध का वैभव विश्व को दिया अनपठ पड़ी हैं। यह प्राच्य लिपि के महत्त्व को घटाता नहीं बढ़ाता है। वैदिकों ने पूजन, विधान, मंदिर-निर्माण, आध्यात्म जिनों से | है। ही सीखा है। रामायण और महाभारत जिन-धर्म के सिद्धांतों को | ___६३/ए, औद्योगिक क्षेत्र गोविन्दपुरा, भोपाल ४६२०२३ (म.प्र.) आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुभाषित शब्द अर्थ नहीं है वह तो अर्थ की ओर ले जाने वाला संकेत मात्र है। शब्दों में ऐसा जादू है कि टूटता हुआ दिल जुड़ जाता है और जुड़ता हुआ टूट जाता है। निर्भीकता, गम्भीरता व मधुरता से बोला गया शब्द ही प्रभावक होता है। आचरण के बिना साक्षर मात्र बने रहने से ठीक उसके विपरीत राक्षस बन जाने का भी भय रहता है। 10 जून 2003 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोनागिरि तीर्थ क्षेत्र कैलाश मडबैया झाँसी गले की फाँसी, पंक्तियों के लेखक ने पैंतीस वर्ष पहले सोनागिरि के दर्शन करके दतिया गले का हार, लिखा थाललितपुर तब तक न छोड़िये, चाँदी जहाँ धरापर बिछती नभ सोना बरसाये, जब तक मिले उधार। चन्द्र प्रभु के मंदिर में जहाँ चंदा दूध नहाये। उक्त कहावत भले अंग्रेजों के जमाने की हो पर "दतिया सोने से सँवरे श्रमणगिर। गले का हार" वाली बात आज भी सार्थक प्रतीत होती है। एक बन्दों रे तीर्थ सोनागिर॥ तो पूरे मध्यप्रदेश में सबसे छोटा जिला और उस में सोनागिरि प्राचीनकाल में महर्षियों ने सोनागिरि के बारे में लिखा थाजैसा विशाल जैन तीर्थ, फिर तंत्र मंत्र का गढ़ पीताम्बरा पीठ। सुवर्ण स्यैव भो राज राजन्निश्रेवयेन स पर्वतः बुन्देली कलाओं का ख्यात स्थान एवं चर्चित गामा पहलवान। तत एवं सुवर्णद्रिीयते न तु नामतः इन्हीं कारणों से बुन्देलखण्ड के गले का हार तो दतिया है ही। अर्थात् पर्वत सोने का ही है और इसलिये उसे स्वर्णगिरि इस क्षेत्र के बारे में श्री देवदत्त दीक्षित कृत प्राचीन ग्रन्थ श्री | या सोनागिरि कहते हैं, केवल नाम से ही नहीं। "स्वर्णांचल महात्म्यम्" के प्रारंभ की पंक्तियाँ देखिये: वस्तुत: सोना एक ऐसी धातु है जिसके आकर्षण से आदमी "द्वीपे जम्बू मतिख्याते भरत क्षेत्र उत्तमें हर उत्कृष्ट वस्तु की, सोने से तुलना करता है। इसीलिए सोनागिरि बुन्देलदेशो भाषायां बद्रदेश: प्रभाति वे" आध्यात्म और साधना के क्षेत्र में सोने का ही गिरि है। कहा गया अर्थात् जम्बूद्वीप के उत्तम भरत क्षेत्र में बद्र नाम का देश है जिसे भाषा में "बुन्देलों" का देश कहते हैं। विविध समृद्धियों दुर्लभो विषयत्यागः स तु स्वर्णाद्रिपूजनात्। से भरपूर है। उक्त से ऐसा प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र का प्राप्यते भव्यजीवेर्हि तस्मात्पूज्यों गिरीश्वरः। राजकीय नाम भले कभी बद्रदेश और कभी कुछ रहा हो, पर विशेष: इसी सोनागिरि पर्वत तीर्थ से नंग और अनंग भाषा बुन्देली रही है। तात्पर्य यह कि बुन्देली भाषा बोलने वाले कुमार सहित साढ़े पाँच करोड़ मुनियों ने सतत् साधना कर मुक्ति बुन्देले कहलाये न कि बुन्देलों की भाषा बुन्देली। इससे बुन्देली | प्राप्त की थी इसीलिए यह सिद्ध तीर्थ है। भाषा किसी जाति विशेष की भाषा नहीं कही जा सकती। यह नंग और अनंग कुमार साधारण राजकुमार न होकर तीर्थ-स्थिति : उक्त दतिया जिला मुख्यालय से ग्वालियर | विशाल साम्राज्य भोग रहे, राजवंशीय नरेश थे, जिन्होंने तैलांग की ओर मात्र १२ किलो मीटर दूर स्थित सनावल ग्राम से सटे साम्राज्य से युद्ध जीतकर विजय पताका फहराई थी। पर जब हुये प्राकृतिक परिपूर्ण पर्वत के ७७ जिन मंदिरों की उत्तुंग शिखर- तीर्थंकर चन्द्रप्रभु के समवशरण में आये तो दर्शन कर वैराग्य ऐसा श्रृंखला बहुत दूर से ही आगंतुकों को आकर्षित करने लगती है। उपजा कि सब कुछ सम्पदा आदि तिनके के समान त्याग दी और पर्वत के इस सोनागिरि तीर्थ का पुराना नाम स्वर्णगिरि और आत्मविजय में ही सच्ची जीत जानकर तपस्या में संलग्न हो गये। श्रमणगिरि रहा है। दोनों राजकुमारों के साथ पन्द्रह सौ राजाओं ने भी जिन दीक्षा ली स्वर्णगिरि भले ही विशेषणात्मक प्रतीत हो पर श्रमणगिरि थी, यह काल तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का ही था। तो सचमुच सार्थक लगता है। क्योंकि श्रमण-संस्कृति अर्थात् औधेय देश के महाराजा अरिंजय की रानी विशाला ने जैन धर्मावलम्बियों का महत्वपूर्ण केन्द्र हुए बिना यहाँ इतने श्रीपुर में नंग एवं अनंग राजकुमारों को जन्मा था। दोनों राजकुमार विशाल और भव्य जिनालय बन ही नहीं सकते थे। श्रमण संतों विलक्षण वीर और विद्वान थे। सोनागिरि पर आध्यात्म का नया की साधना का केन्द्र होने से ही सोनागिरि अपनी तरह का इतिहास इन्होंने ही चंद्रप्रभु तीर्थंकर के काल में लिखा था। अद्भुत जैन तीर्थ है। एक तरफ प्रकृति की भरपूर सम्पदा, दूसरी धंगाणंग कुमारो कोड़ी पंचद्ध मुणिवरे सहिया। ओर आध्यात्म की महक और ऊपर से पुरातत्व का शिल्प सोनागिरि वर सिहरे जिवाणगया णमोतेसिम्॥ सौन्दर्य। तीर्थ-रचना- पर्वत पर स्थित ७७ मंदिरों की रचना शैली आठवें जैन तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का समवशरण यहाँ आने | सामान्य मंदिर शैली है। इन मंदिरों में विद्यमान जिन तीर्थंकरों की का अर्थ है- इस स्थल का उल्लेखनीय पुण्याकर्षण होना। इन | मूर्तियाँ भी चौबीसों तीर्थंकरों की सामान्य कोटि की दर्शनीय हैं। जून 2003 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदिर संख्या ६ अवश्य मेरू शैली का है जिसे चक्की का आकार । का मनोहारी दृश्य । सचमुच सुखद प्रतीत होता है। का होने से गाँव वाले चक्की मंदिर भी कहते हैं। मंदिर संख्या ५२ पर्वत के नीचे १८ जिन मंदिर भी विशाल और पुरातन हैं। प्राचीन शैली का है और संख्या ५८ गुम्बजदार मंदिर है। इसके | धर्मशालाओं की संख्या भी एक दर्जन से अधिक लगभग १५ है। चारों कोनों पर बड़ी-बड़ी और बीच में छोटी मीनारें हैं, जो मुगल दर्शनार्थियों को समस्त सुविधाएँ उपलब्ध हैं। शैली का प्रभाव छोड़ती हैं। मुख्य तीर्थ-नायक चंदाप्रभु का मंदिर सोनागिरि तीर्थ दिल्ली-झाँसी मेन रेल लाइन पर, केन्द्र में अत्यन्त विशाल और विशिष्ट है। इसके गर्भगृह में दो लेख हैं जो होने, विशालता, सिद्धता, भव्यता और प्राकृतिक रम्यता के कारण आधुनिक देवनागरी लिपि में हैं, जिनमें जीर्णोद्धार करने वाले तथा विशाल भूभाग में फैले होने के साथ ही आधुनिक सुविधाएँ दानदाता का उल्लेख है। एक शिलालेख में संवत् ३३५ अंकित है उपलब्ध होने से, यहाँ कुछ वर्ष पूर्व जैन विश्वविद्यालय स्थापित जो लिपि देखकर प्रतीत होता है कि १३३५ संवत् होना चाहिये, १ करने का कार्यक्रम बना था पर पता नहीं किसकी नजर लगी कि कदाचित दब या मिट गया है। वह खटाई में पड़ गया। इस मंदिर में १२ फुट उतुंग भगवान् चंदाप्रभु की खड्गासन कुछ वर्षों पूर्व यहाँ कुछ हिंसक अजैनियों ने द्वेष वश, में प्राचीन मूर्ति ध्यान मुद्रा युक्त है। अत्यंत भावपूर्ण मनोयोग वाली अहिंसक जैनियों को न केवल परेशान करने की गरज से वरन् यह प्रतिमा सचमुच प्राण प्रतिष्ठित, सजीव-विहंसित मुद्रा में सिद्ध शताब्दियों पुराने जिन तीर्थ पर जबरन कब्जा करने की नियत से मूर्ति है। षड्यंत्र भी रचा था। इस अराजक आक्रमण की देश भर में निन्दा सोनागिरि पर्वत पर मंदिरों के अतिरिक्त दो प्राचीन आकर्षण | हुई थी तब जाकर वातावरण शान्त हो सका था। भी दर्शनीय हैं, एक नारियल कुण्ड जो गहराई में नारियल के जो भी हो देश के सम्पन्न अल्प संख्यक जैन समाज के आकार का है और दूसरा बाजनी शिला जिसे बजाने पर धातु जैसी | पास, आजादी के पचास वर्ष से अधिक बीत जाने के बाद भी खनकदार आवाज निकलती है। एक साधना और शोध का केन्द्र, विश्वविद्यालय तक नहीं है। जैन कुछ आधुनिक मूर्तियाँ, संगमरमर से निर्मित नये मंदिरों में समाज के लिये यह अत्यंत विचारणीय मुद्दा है। भारतवर्षीय जैन स्थापित की जा चुकी हैं, जो दर्शनीय हैं। मुख्य आनन्द है पर्वत | समाज के पास उसके स्वतंत्र व समर्थ सम्पन्न दर्शन, सम्पदा एवं की प्राकृतिक रमणीयता में। शीतल मंद सुगंध वायु का संप्रेषण भरपूर प्राचीन साहित्य होने के बाद भी आज उनका एक जैन और वंदना करते हुए बीच-बीच में पैरों के पास नाचते हुए मोर | विश्वविद्यालय नहीं है, जिसकी आज महती आवश्यकता है। एवं अन्य जंगली अहिंसक पशु-पक्षी। वर्षा में प्रवाहित हल्के- | शायद भविष्य में कभी चन्द्रप्रभु भगवान् के दरबार में यह विचार हल्के मदमस्त झरने, गलीचे सी हरी-हरी घास और पर्वत से नीचे | आकार ग्रहण करे? ७५, चित्रगुप्त नगर, कोटरा, भोपाल सत्पथ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' जन सजन हो रहा है लोग कहते हैं सत्संग चल रहा है। सत् से सत्य बनता है जिसकी शान बड़ी निराली है मानव की, मानवीयता की कहानी है बिना सत् के तू चल नहीं सकता मर तो सकता है मगर जी नहीं सकता। सत्य से 'हरिश्चन्द्र' जिन्दा है असत्य के कारण 'वसु' पर समाज शर्मिन्दा है सत्य संत और सतीत्व की निशानी है मर्यादा पुरुषोत्तम पुरुषों की, राम की कहानी है। सत्य मर्यादा है, राम है सत्य है तो आराम ही आराम है सत्य के बिना जीवन हराम है, अकाम है। सत्य चिह्न है धर्म का, ध्वज का ध्येय का, कर्म का सत्य पाथेय बने/पथ में आलोक दिखे मर्म यही पथ का/सत् का, सत्पथ का। 12 जून 2003 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषांश भगवान् महावीर और महात्मा गाँधी प्रस्तुति : डॉ. कपूरचन्द्र जैन एवं डॉ. ज्योति जैन जैन इतिहास का धुंधला पृष्ठ जब अंग्रेजों ने उनका लेख और जमानत जब्त कर ली एक जब्तशुदा लेख भगवान् महावीर के बारे में महर्षि शिवव्रतलाल जी बर्मन आजकल का जमाना आप सब लोगों के सामने मौजूद है। एम.ए. 'साधूनाम' के माहवारी रिसाला, माह जनवरी १९११ में | आज भारतवर्ष में लाखों बेजुबान जानवर मांस खाने के लिए रोज (प्रकाशित) हुए 'महावीर स्वामी के पवित्र जीवन' में फरमाते हैं | काटे जाते हैं। दूध देने वाली गायों के गलों पर छुरी चलाई जाती कि "यह जबरदस्त रिफारमर और जबरदस्त उपकारी बड़े ऊँचे | है। भारतवर्ष के आदमी भूखों मर रहे हैं, बेकारी की चक्की में दर्जे के उपदेशक और प्रचारक थे। यह हमारी कौमी तारीख के | दरड़े जा रहे हैं, मौजूदा हुकूमत ने हिन्दुस्तान के तमाम उद्योग रत्न हैं। तुम कहाँ और किन धर्मात्मा प्राणियों की खोज करते हो, | हिरफत पर पानी फेर दिया, किसानों पर लगान और सौदागरों पर इन्हीं को देखो। उनसे बेहतर साहबे कमाल तुमको और कहाँ टैक्स इतना ज्यादा लगा दिया कि लोग टैक्स के बोझ से दबे जा मिलेंगे? इनमें त्याग था, वैराग्य था, धर्म का कमाल था। इन्सानी | रहे हैं। माल पर टैक्स, गल्ले पर टैक्स, घी-खांड पर टैक्स, दूधकमजोरियों से बहुत ही ऊँचे थे। इनका खिताब 'जिन' था। उन्होंने | दही पर टैक्स, बर्तन-भाँडे पर टैक्स, कपड़े पर टैक्स, खाने के मोह-माया, मन और काया को जीत लिया था। यह तीर्थंकर थे। | सामान पर टैक्स, पीने के सामान पर टैक्स, रोटी-पानी पर टैक्स । इनमें बनावट नहीं थी, दिखावट नहीं थी, जो बात थी साफ-साफ यहाँ तक की नमक जैसी कारआमद चीज पर भी टैक्स । थी। यह वह लाशानी शख्सियत हो गुजरी है जिनको इन्सानी | इन टैक्सों की ज्यादती से हिन्दुस्तान इस कदर दब गया है कि छह कमजोरियों ओर ऐबों को छिपाने के लिए किसी जाहिरा पोशाक | करोड़ हिन्दुस्तानी एक वक्त भी पेट भरकर नहीं खा सकते। कहन की जरूरत महसूस नहीं हुई, क्योंकि उन्होंने तप करके, जप (अकाल) जुदा पड़ रहे हैं। बवाई (छूत की बीमारी) इमराज ने करके, योग का साधन करके, अपने आपको मुकम्मिल और पूर्ण जुदा दम पी रक्खे हैं। आमदनी का यह हाल है कि हिन्दुस्तान की बना लिया था।" वगैरह ...... मजमुई आमदनी फीकस छह-सात पैसे दैनिक होती है, जिससे भगवान् महावीर सब इन्सानों का एक जैसा ख्यात करते | एक आदमी एक वक्त पेट भरकर रोटी नहीं खा सकता, फिर थे। क्या ब्राह्मण! क्या शूद्र ! क्या क्षत्री! क्या वैश्य! भगवान् महावीर | हिन्दुस्तानियों के सर पर साठ लाख मुफ्तखोर फकीरों का भार, के पैरोकार और चेले सब तबके के लोग थे। इन्द्रभूति वगैरह | जिनकी वजह से पन्द्रह लाख रुपया रोज इन गरीबों की पाकिट से उनके ग्यारह गणधर ब्राह्मण कुल में से थे, उद्दापन मेघ कुमार | निकलता है। यह सब होते हुए भी हिन्दुस्तान की हिफाजत के वगैरह क्षत्री महावीर के चेले थे, शालिभद्र वगैरह वैश्य और | नाम पर फौज का करोड़ों रुपयों का खर्च । एक अंग्रेज की तनख्वाह हरीकेशी वगैरह शूद्र ने भी भगवान् की दी हुई पवित्र दीक्षा को | हिन्दुस्तानी से कई गुनी ज्यादा। हासिल कर ऊँचे पद को हासिल किया था। गृहस्थों में वैशालीपति गरीब किसान गर्मी-सर्दी की सदा तकलीफ उठाकर राजा चेटक, मगध नरेश श्रेणिक और उनका लड़का कोतक वगैरह कड़कती धूप में बदन को जलाकर रात दिन जाग-जाग कर भूखा कई क्षत्री राजा थे। इसीलिए भगवान् उस जमाने की आमफहम प्यासा रहकर जो कुछ जिन्स पैदा करता है उसका ज्यादातर भाषा में ही उपदेश दिया करते थे ताकि हर खास-आम धर्म हिस्सा तो लगान की नजर कर देता है। बाकी बचे खुचे में कर्ज हासिल कर सके। जैन ग्रन्थ भी प्राकृत में लिखे गये थे ताकि सब की अदायगी और दीगर लोगों की नजर नियाज का भुगतान । इस लोग समझ सकें। बेचारे पर क्या बचता है, यह मालूम करना हो तो गाँव में जाकर - जून 2003 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालूम करो। जहाँ देखोगे कि गरीब किसान के चूल्हे पर बर्तन | गुजारें। नहीं, छान पर फंस नहीं, तन को कपड़ा नहीं और पेट को पेटभर महात्मा जी अपनी डायरी में तहरीर फरमाते हैं कि "मुझ रोटी नहीं। लेकिन यह सब कुछ होते हुए भी हुकूमत के कानों पर | पर तीन महापुरुषों ने गहरी छाप डाली है: टालस्टाय, रस्किन और जूं तक नहीं रेंगती। अगर कोई अपनी मुसीबत का रोना हुकूमत के | रायचन्द्र भाई। टालस्टाय ने अपनी एक किताब व कुछ खतों आगे रोता है, भूख प्यास का सवाल पेश करता है, तो बिना पूँछ- किताबत से, रस्किन ने 'अन्टु दि लास्ट' किताब से, जिसका नाम प्रतीत किये जेल में ढूंस दिया जाता है। अगर ज्यादा शोर मचाता | मैंने गुजराती में 'सर्वोदय' रखा है, और रायचन्द्र भाई से तो मेरा है तो ठोकरें मारकर गिरा दिया जाता है, सच है बहुत संबंध हो गया था। जब १८९७ ई. में मैं जनूबी अफरीका में न तड़पने की इजाजत है न फरियाद की है। था तब मुझको चन्द ईसाई लोगों के साथ अपने कामकाज की घुट के मर जाऊँ यह मर्जी मेरे सैय्याद की है। वजह से मिलना होता था। वह लोग बहुत साफ रहते थे और बेकारी का रोना कहाँ तक रोया जाय, न कोई तिजारत है, | धर्मात्मा थे। दूसरे धर्म वालों को ईसाई बनाना ही इनका काम था। न धंधा, जिसको देखो वह ही बेकारी का शाकी है, मुफलिसी का | मुझे भी ईसाई बन जाने के लिये कहा गया, लेकिन मैंने अपने दिल शिकार, फिर ऐसी हालत में क्या किया जाये, कहाँ जाया जाये, | में पक्का इरादा कर लिया कि जब तक हिन्दू धर्म को न समझ लूँ, ऐसे वक्त में कौन सँभाल करेगा? हमको तो गरीबी की वजह से तब तक बाप-दादा के धर्म को नहीं छोडूंगा। हिन्दू धर्म पर मुझको अपना प्यारा धर्म भी छोड़ना पड़ रहा है। लाखों भारतवर्ष के लाल बहुत शकूक पैदा हो चुके थे। मैंने रायचन्द्र भाई से खतो-किताबत ईसाइयों की गोद में चले जा रहे हैं। हा भगवान् ! न हम दीन के रहे | शुरु की। उन्होंने मेरे तमाम शकूक रफै कर दिये। जिससे मुझको और न दुनियाँ के। शान्ति हासिल हुई और हिन्दू धर्म की फिलासफी पर मेरा और दृढ एक सदी में सारी दुनियाँ की लड़ाई में जितने इन्सान मर श्रद्धान हो गया और मैंने समझा कि सिर्फ हिन्दू धर्म ही एक ऐसा सकते हैं। इससे बहुत ज्यादा सिर्फ हमारे देश के अन्दर दस साल धर्म है जो शांति देने वाला है। इस वाकफियत के जरिये रायचन्द्र में भूख की वजह से मर जाते हैं। यह कितना बड़ा गजब है जो भाई थे। इसलिए रायचन्द्र भाई में और भी विश्वास बढ़ गया।" आला खानदान की औरतें हैं वह घर की चाहर दीवार के अन्दर | भारतवर्ष की दुर्गति देखकर महात्मा गाँधी ने अपने जीवन भूख के मारे तड़फ कर प्राण पहले ही दे देती हैं, लेकिन किसी के का लक्ष्य पाँच व्रत बनाये जो कि भगवान् महावीर ने धारण किये आगे हाथ नहीं पसार सकतीं। थे। उन पर अमल करना शुरू किया यानि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अब ऐसी हालत में हमारा उद्धार कौन करेगा, हमारी | ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । आज महात्मा जी अहिंसा, अदमतशदुद मुसीबतों का खात्मा किस आत्मा के जरिये होगा और हमको | सत्याग्रह से अपने देश को हुकूमत की ज्यादतियों के नीचे से आजादी कौन दिलायेगा? बस यह एक सवाल हिन्दुस्तानियों के | निकालने को तैयार हुए हैं, जिस तरह भगवान् महावीर ने उस रूबरू आता है कि फौरी ही एक महान् आत्मा यानि महात्मा गाँधी | जमाने के जानदारों को छुड़ाया था। महात्मा जी हमेशा सच बोलते जी का जहूर होता है, बैरिस्टरी पास कर लेने के बाद आपको एक | हैं, इसका सबूत उनकी खुद की डायरी से मिल रहा है। महात्मा महान् जैन विद्वान् कवि रायचन्द्र जी शतावधानी की सोहबत मिलती | जी चोरी नहीं करते और शीलवान भी आप अरसे दराज से हैं, है और आप आत्मबल प्राप्त करके कहते हैं कि हिन्दुस्तान की | अपरिग्रही तो आप इस कदर हैं कि सिर्फ एक लँगोट के सिवाय मुसीबतों का खात्मा मैं करूँगा और मैं ही मुल्क को आजादी | और कुछ भी कपड़ा नहीं पहनते। दिलाऊँगा, इस काम में मैं अपने को हर तरह से कुर्बान करूँगा। कई लोगों का कहना है कि अहिंसा कायरों और बुजदिलों चूँकि सब इन्सान एक बराबर हैं, वह गोरे हों या काले, ब्राह्मण हों | का धर्म है। अहिंसा इन्सान को बुजदिल व डरपोक बना देती है, या शूद्र, छूत हों या अछूत, गरीब हो या अमीर, गर्ज सब का हक | जिनमें से लाला लाजपतराय जी मरहूम एक शख्स थे, लेकिन बराबर है, इन्सानी दर्जा एक है, एक को क्या हक है कि जब छह | आज महात्मा जी ने भगवान् महावीर की अहिंसा का सिंहनाद करोड़ हिन्दुस्तानी भर पेट खाना भी नहीं खा सकते, तो वह लाखों | दुनियाँ के हर एक कोने में बजा दिया है और साबित करके रुपया सालाना ऐसे गरीब देश से तनखाह के नाम से वसूल करे। | दिखला दिया है कि अहिंसा धर्म बहादुरों व बेखौफ लोगों और यह अजीब तमाशा है कि घरवाले घर से बाहर मारे-मारे फिरें | धर्म पर कुर्बान हो जाने वाले परवानों का धर्म है। अहिंसा धर्म के और दूसरे लोग बड़े-बड़े महलों में ऐशो आराम की जिन्दगी | जरिये से जबरदस्त से जबरदस्त मजालिम भी दूर हो जाते हैं। 14 जून 2003 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज महात्मा जी ने पन्द्रह साल सावरमती आश्रम में | सावरमती आश्रम में ब्राह्मण-क्षत्री-वैश्य-शूद्र, मुसलमान, फारसी, तपस्या करने के बाद अहिंसा धर्म का सुदर्शन चक्र लेकर हुकूमत | ईसाई, अंग्रेज, गरज हर एक तबका के लोग रहते हैं। किसी से के साथ टक्कर खाने की ठानी है। अहिंसा धर्म बुजदिली सिखाता | कोई नफरत नहीं की जाती। एक अमरीकन लेडी जिसका नाम है या बेखोफी और बहादुरी, यह आज कोई महात्मा गांधी से | महात्मा गाँधी ने 'मीरा बहिन' रक्खा है, आश्रम में महात्मा जी के दरयाफ्त कर सकता है। आज महात्मा जी का त्याग और तप | साथ रहती है और भी कई अंग्रेज लोग रहते हैं, जो कि महात्मा महावीर भगवान् के राजपाट के त्याग का नजारा फिर आँखों के | गांधी के बड़े भगत हैं। सामने लाकर खड़ा कर देता है। जिस तरह भगवान् महावीर नंगे | जैसे भगवान् महावीर ने हर तरह के कष्ट सहन किये थे, पाँव, नंगे सर और नंगे जिस्म पैदल विहार करते थे आज इसी | लेकिन क्या मजाल जो उफ की हो, इसी तरह महात्मा जी भी तरह महात्मा जी भी कूच कर रहे हैं। आज महात्मा जी की इस | अदमतशदुद से काम ले रहे हैं। चाहे हुकूमत कैद करे, पाँव तले जबरदस्त हुकूमत के साथ टक्कर लेना भगवान् महावीर के उस | कुचले, लेकिन हम अपना हाथ बदला लेने के लिए नहीं उठायेंगे। जमाने की याद दिलाये बगैर नहीं रह सकती जबकि हिंसा के | दरअसल देखा जाये तो महात्मा गांधी के अन्दर भगवान् खिलाफ भगवान् महावीर ने बड़ी जबरदस्त टक्कर ली थी। महावीर के जीवन की सच्ची झलक दिखाई दे रही है। महात्मा आज कई लोग फरमाते हैं कि महात्मा जी की हुकूमत पर | जी को मेरे ख्याल से अगर भगवान् महावीर का पक्का भगत चढ़ाई ऐसी है, जैसे कि रामचन्द्र जी की रावण पर, और कृष्ण जी कहा जाये तो बिल्कुल बजा और दुरुस्त है। अगर जैन धर्म का की कौरवों पर, लेकिन नहीं! यह बिल्कुल गलत है। उन दोनों की मर्म समझा है, तो महात्मा गांधी ने समझा है। भगवान् महावीर की जंग में खून की नदियाँ बह गईं थीं, लेकिन महात्मा गांधी प्रेम, सन्तान कहलाने वालो! अहिंसा धर्म की डींग मारने वालो! महावीर अहिंसा, अदमतशदुद और सत्याग्रह के हथियार से लड़ाई लड़ के पुजारी बनने वालो! मन, वचन, काय से धर्म को पालने का रहे हैं, 'इस सादगी पै कौन न मर जाये ऐ खुदा। लड़ते हैं मगर | ठेका लेनेवालो! और भगवान् महावीर की जै-जैकार बोलने वालो! हाथ में तलवार भी नहीं।' इसी तरह से आज से तकरीबन अढ़ाई | क्या तुम अपने ठण्डे दिल से अपने सीने पर हाथ रखकर बतला हजार साल पहले भगवान् महावीर भी अहिंसा, प्रेम वगैरह के | सकते हो कि क्या तुम भगवान् महावीर के सच्चे भक्त कहलाने के हथियार लेकर सामने डटे थे। मुस्तहक हो? मैं तो कहूँगा कि हरगिज भी नहीं। तुम्हारा फर्ज था महात्मा जी ने जो एल्टीमेटम वायसराय हिन्द को दिया है, कि सबसे पहले इन मजालियों को दूर कराने में, मुल्क को निजात वह एक अंग्रेज के हाथ भेजा गया था। वह इसलिए कि मेरी | दिलाने में और छह करोड़ भाइयों को भूख से मरते हुये बचाने में, दुश्मनी किसी अंग्रेज से नहीं है, बल्कि उन मुजालिमों से है जो | आप खुद को खतरों में डालकर मैदाने अमल में आन उतरते। हिन्दुस्तानियों को तहबोवाला (छोटी बड़ी) कर रहे हैं। मेरे नजदीक | लेकिन अफसोस, कि तुम्हारे कान पर जूं भी नहीं रेंगी। तो अंग्रेज भी मेरे ऐसे भाई हैं कि जैसे हिन्दुस्तानी। भगवान् महावीर का नाम ले लेना बहुत आसान है, मंदिर जिस तरह भगवान् महावीर नशीली चीजों के खिलाफ थे | में जाकर पूजा कर लेना भी बहुत सरल है। लेकिन कभी आपने इसी तरह से आज महात्मा जी भी शराब, भंग, सिगरेट वगैरह के | इस पूजा के राज को भी समझा है? अगर आप पहले कुछ नहीं खिलाफ हैं और इनके बायकाट पर पूरा जोर लगा रहे हैं। महात्मा | कर सके, तो अब महात्मा गांधी जी का साथ दें और दुनियाँ को गांधी अछूत उद्धार के उतने ही जबरदस्त और कट्टर हामी हैं कि | दिखला दें कि अहिंसा धर्म के मायने बुजदिली नहीं है, बल्कि जैसे भगवान् महावीर थे। भगवान् महावीर जिस तरह हर तबके | सच्ची बहादुरी और वीरता का नाम अहिंसा है। अगर अब भी के इन्सान को एक जैसा ख्याल करते थे वैसे ही महात्मा गाँधी भी | आपने दुनियाँ के साथ चलना न सीखा और अगर अब भी आपने करते हैं, जिसका जिन्दा सबूत यह है कि महात्मा जी ने एक शूद्र | अपनी पुरानी और दकियानूसी रफ्तार को न बदला, तो मैं पुरजोर लड़की लक्ष्मीबाई को अपनी लड़की बनाया है। महात्मा जी सबसे अलफाज से कहे देता हूँ कि आप इन सफाहहस्ती से मिट जायेंगे पहले आत्मशुद्धि करके मैदान में निकले हैं। और आपका ढूँढे से भी पता न चलेगा। लिहाजा जागो ! समझो ! ___ महात्मा गांधी सब इन्सानों को एक जैसा ख्याल करते हैं। | और काम करना सीखो। क्या ब्राह्मण! क्या शूद्र ! क्या क्षत्री ! क्या वैश्य ! क्या हिन्दू ! क्या शिक्षक आवास ६ कुन्दकन्दु महाविद्यालय परिसर मुसलमान ! क्या हिन्दुस्तानी ! और क्या अंग्रेज ! महात्मा गांधी के खतौली- २५१२०१(उ.प्र.) जून 2003 जिनभाषित 15 mational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदी जिसका न चीरहरण हुआ न शीलहरण डॉ. नीलम जैन द्रौपदी एक सम्पूर्ण चरित्र है नारी का । उसमें तेज भी है, । पुरुषों की दृष्टि में युगीन नारी का सच्चा आकलन है। कहाँ थी शीतलता भी, दाहकता भी है, सहिष्णुता भी, वाचाल भी है, चुप | नारी के महत्त्व के प्रति श्रद्धा, उसकी योग्यता के प्रति आस्था भी है, कांन्ति भी है, शांति भी है। उसका चरित्र विशालतर अथवा उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व के प्रति समान दृष्टि? विवाह के मानवीय उदात्त और उर्वर पृष्ठभूमि पर प्रतिष्ठित रहा है। उसकी पश्चात् जैसे वह क्रय की गई जड़ वस्तु हो गई थी। नारी का जीवन यात्रा एक वीरांगना की यात्रा थी, जिसने सदा ही यह माना | आकलन बस भव्य प्रासादों और प्राचीरों के मध्य किसी कि "जीवन तो संपूर्ण ही स्वीकार होता है, उसकी किश्तें नहीं | चित्रालंकरणवत् ही था। होतीं। जीवन को किश्तों में ढूंढना सत्य के टुकड़े करने के समान | वीर बालाओं के इतिवृत में विद्रोह, क्रांति और परिवर्तन है, अधूरापन है, पलायन है, स्वयं को अस्वीकार करना है।" वह | की चिनगारी नारी प्रतिष्ठा के लिए द्रौपदी के चरित्र में प्रचुरता भरे दरबार में पूरे कुरुवंश की धज्जियाँ उड़ा देती है। भीष्म, | से है। विरोध और संघर्ष को झेलकर भी वह महिलाओं के द्रोणाचार्य जैसे वीरों, नीतिज्ञों, कुलपुरुष को ललकार कर चुनौती । लिए अपनी सामर्थ्य से नवीन मार्ग का निर्माण करती है। देती है। वह अपने अकाट्य तर्कों से सबको चुप करने की क्षमता | कदाचित् उनकी दुर्धर्ष क्षमता के बल पर ही चीरहरण' एक रखती है। उसके भीतर का स्वाभिमान, संस्कार-शीलता और | मुहावरा और जन-प्रचलित शब्द बन गया है। चीरहरण भले मानवीयता का उदाहरण था। वह पत्नी बनकर आई थी या वस्तु, | ही द्रौपदी का हुआ पर द्रौपदी तो फिर भी अपनी आत्मशक्ति वह घर की वधू है या वीरांगना? यही उत्तर बार-बार उसने अपने | से सवस्त्र रह कर अपनी चरित्र महत्ता को बचा गई पर पूरे प्रश्न में ढूँढा । न्याय के मंच पर बैठने वाले अपने ही घर में होते | आर्यावर्त को उसने निर्वस्त्र करा ही दिया। घर के एक-एक दुष्कृत्य को नहीं रोक पाये? माना, युधिष्ठिर आवेश में गलती कर | सदस्य के पौरुष और पौरुषहीनता, हृदयहीनता को उसने सरे ही गए तो क्या किसी का दायित्व नहीं था कि उन्हें रोकते-टोकते चौराहे पर बिखरा ही दिया ! द्रौपदी का चरित्र पुरुषों की सोच को और कहते हे धर्मराज ! यह क्या अनर्थ कर रहे हो, द्रौपदी इस घर | धिक्कारने वाला चरित्र है। वह एक स्त्री नहीं पूरी शक्ति पुंज बन का, वंश का, कुल का सम्मान है। तुम हमारे होते हुए ऐसे अनर्थ | कर अपनी शक्ति का लोहा तथाकथित उद्भटों से मनवा लेती है। नहीं कर सकते और कुछ दाँव पर लगाओ पर एक कुल वधू को भरी सभा में मुँह लटकाये हुए मुख पर करारा तमाचा था द्रौपदी नहीं। पर वहाँ किसको था नारी के सम्मान बचाने का भाव। नारी का स्वयं अपने अपमान की सुरक्षा करते हुए निष्कलंक बचकर का मूल्य ही क्या था? सारे पुरुष ही तो बैठे थे। घर की मान- निकल जाना। नारी की गरिमा, महिमा, वीरता को पावों तले मर्यादाएँ-परंपराएँ तो तब स्मरण होती हैं, जब नारी कोई ऐसा पग | कुचलनेवाले अपनी किसी भी प्रकार मर्यादा बचा नहीं पाये थे। स्वयं उठा ले, अपनी किसी व्यक्तिगत आंकाक्षा की पूर्ति कर ले। | पुरुषप्रधान समाज भले ही पुरुषों को अनेकानेक विशेषणों की भरे दरबार में नहीं पूरे हस्तिनापुर में द्रौपदी की चीख-चिल्लाहट | आड़ में बचा गया। किन्तु सच तो सच ही है और द्रौपदी ने उस से कोई द्रवित नहीं हुआ। नारी के प्रति हृदयहीनता का, सरेआम | सत्य का जीवन्त प्रतीक बनकर सबके चरित्र की धज्जियाँ उड़ा अमर्यादित अपमान का आज भी द्रौपदी जैसा कोई उदाहरण नहीं दी। | द्रौपदी की भाँति आज भी महिलाएँ वस्तु की भाँति ही सारे परिवार ने तो मिल कर उसका चीरहरण सहजता से | प्रयोग की जाती हैं। क्या आज भी पति अपने अत्याचारों से उस देखा। कल्पना कीजिए उस दृश्य की , जब सतयुग था। प्रत्येक के | पर पौरुष नहीं दिखाते? अपहरण और लज्जाजनक प्रसंग उनसे लिए समान अवसर थे, धर्म प्रत्येक अणु-अणु में विद्यमान था, | नहीं जुड़ते? और आधारहीन अवस्था में वे अपनी दुरावस्था की तब भी नारी की यह दुरावस्था थी। लज्जाजनक परिस्थितियाँ नहीं भोगतीं? द्रौपदी का चरित्र आज भी वर्तमान के सम्मुख विशाल दुर्घटनाजनित तथ्यों का सत्य तथा उनसे जन्मी स्थितियों प्रश्नचिह्न की भाँति खड़ा हो जाता है। इसको पढ़ते ही मानस में का सामना करने के लिए आज भी नारी सामाजिक आचारसंहिता पुरुषों की सोच के अध:पतन पर अश्रुओं की प्रगाढ़ स्रोतस्विनी | और पुरुष के उदारदृष्टिकोण की अपेक्षा समाज से करती है, यह फूट पड़ती है। वस्तु की भाँति नारी अस्मिता के प्रयोग का द्रौपदी | दायित्व किसका है? किसकी मनोवृत्ति अंकुश की अपेक्षा रखती जैसा उदाहरण अन्यत्र दिखलाई नहीं पड़ता। युधिष्ठिर सदृश धर्मज्ञ, | है, तो स्पृहणीय बन जाता है- वह इन्द्र हो या अहिल्या या वीर, गंभीर पुरुष के द्वारा अनुज वधू को दाँव पर लगा दिया जाना उद्धारकर्ता राम। किन्तु नारी ने पुरुष से संपर्क किया नहीं वह 16 जून 2003 जिनभाषित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलटा, चंचला, वेश्या कह दी जाती है। चेष्टाएँ आज भी नहीं हो रही हैं, क्या आज भी द्रौपदियों का पंचभर्तारी कहलाने की व्यथा-कथा पूर्वोपार्जित पाप का | कदम-कदम पर चीरहरण नहीं हो रहा है? सब कुछ वही का ही परिणाम था। वह एकनिष्ठ पतिव्रता सती क्या विवेकहीना थी? | वही है, अन्तर सिर्फ यही है कि नाम, देश, काल और वातावरण वह युधिष्ठिर और भीम को पितृतुल्य मानती थी और देवर नकुल- परिवर्तित है। बहुत दूर जाने पर द्रौपदी वर्तमान की महिलाओं को सहदेव को पुत्रवत् स्नेह प्रदान करती थी। अर्जुन की वामांगी थी प्रेरणा दे रही है। जैसे आकाश में एक-एक बादल जीवन लेकर लेकिन सुनना क्या-क्या नहीं पड़ा? क्षत्रिय कुल की क्षत्राणी | आता है और सूखी प्यासी धरती उसकी ओर याचना भरी दृष्टि से राजकन्या भी नारी होने के कारण सामान्य नारी से अधिक नहीं देखती है और वह बादल स्वयं को नि:शेष कर पृथ्वी के सूखे आँकी गई। आँगन को उर्वर कर जाता है, ठीक इसी प्रकार वर्तमान की नारियों नारद अपनी अहं पुष्टि के लिए उसका अपहरण करा देता | के लिए द्रौपदी का चरित्र है। वह नारी जीवन के वास्तविक है। द्रौपदी के महल से शैय्या सहित उड़वाकर राजा पद्मनाभ के | परिचय को प्राप्त कराती है तथा स्वयं अपने इतिहास को महिमान्वित अन्तः पुर में द्रौपदी के शील की खील बिखरवाने भेज देते हैं। करती है। नारी साधना का चरमोत्कर्ष इनके चरित्र में निर्माण कर अर्थात् नारी के लिए सुर-असुर, राजा-महाराजा सब एक ही हैं। | अवतरित हुआ। नारी जागृति की लहर फूंकनेवाली द्रौपदी ऐसी नारी के चरित्र का उनकी दृष्टि में कोई अर्थ नहीं। किन्तु पद्मनाभ नारी है जिसने समाज के गत्यवरोध में बहनेवाली काली कुरूप के घर में भी वह उसे दुत्कारते हुए कह देती है कुरीतियों का विध्वंस किया। इनकी परिस्थिति ने सतीत्व का "हे राजन् यदि तू अपना कल्याण चाहता है तो सर्पिणी के | अमर संचरण किया। वन में भटकते हुए भी अपने अन्तस् में समान मुझे शीघ्र ही वापिस भेज दे । तूने मेरा अपहरण कर साँप | सेवा, सौहार्द, प्रेम सहयोग का उद्रेक रखा। इसके स्वर में युगनारी के बिल में ही हाथ डाला है।" द्रौपदी ने मासोपवास करके वहाँ के स्वर की गूंज है और इसके चरित्र में अमिट और स्पष्ट रेखाओं अपने शील की रक्षा की। वह तनिक भी नहीं घबराई और न ही | में बंधी नारी की लटकती तस्वीर है जिसने नारीत्व के विकास को कर्तव्यपथ से विचलित हुई। अभिप्रेरणा दी। आज भी क्या नारी के चरित्र पर कीचड़ उछालने वाले के.एच.-२१६ कविनगर गाजियाबाद लम्पटी दरिन्दे विद्यमान नहीं है? क्या व्यंग्यबाणों से अश्लीलतापूर्ण बोधकथा तीनों में कौन अच्छा? करना।" किसी ब्राह्मणी के तीन लड़कियाँ थीं। ब्राह्मणी अपनी | लड़की ने अपनी माँ से जाकर कहा। माँ बोली, "बेटी लड़कियों से बहुत प्रेम करती थी और चाहती थी कि वह उन्हें | तू निश्चिन्त रह । तेरा पति भी तेरा दास बनकर रहेगा। परन्तु तू किसी अच्छे कुल में दे जिससे वे जीवन भर सुखी रह सकें। | उसे विशेष अप्रसन्न मत करना, मर्यादापूर्वक चलना।" जब लड़कियाँ सयानी हुई तो उनकी माँ ने उन्हें समझाया, | तीसरी लड़की ने भी यथावत् माँ के आदेश का पालन "देखो बेटियो, विवाह के पश्चात् अपने पति से लात से बात | किया। जब उसने अपने पति के ऊपर पाद-प्रहार किया तो उसके पति ने रुष्ट होकर उसकी खूब मरम्मत की, और गुस्से में तीनों लड़कियों का विवाह हो गया और वे अपनी- | आकर वहाँ से उठकर वह चला गया। अपनी ससुराल चली गयीं। पहली लड़की ने जब अपने पतिदेव लड़की डरती-डरती अपनी माँ के पास पहुँची और उसे को लात मारी तो वह उसके चरणों को हाथ से सहलाता हुआ सब हाल कह सुनाया। माँ ने कहा, "बेटी, तू चिन्ता न कर । तुझे कहने लगा, "देवि, कहीं तुम्हारे फूल-जैसे इन कोमल चरणों सर्वोत्तम वर मिला है। तू होशियारी से रहना। अपने पति की को चोट तो नहीं पहुँची?" कभी अवज्ञा न करना। उसकी देवता के समान पूजा करना, लड़की ने यह बात अपनी माँ से कही। माँ ने कहा, क्योंकि नारियों का भर्ता ही देवता है।" "बेटी, तू निश्चिन्त होकर रह । तेरा पति तेरा दास बनकर लड़की ने अपने पति के पास जाकर क्षमा माँगी। उसने रहेगा।" दूसरी लड़की ने भी प्रथम परिचय में अपने पति को | कहा, "स्वामी यह हमारे कुल में रिवाज चला आता है, किसी लात जमायी। पति ने साधारण क्रोध प्रदर्शित किया, परन्तु वह | दुर्भावना से मैंने ऐसा नहीं किया।" बिना कुछ विशेष कहे-सुने शांत हो गया। _ 'दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ': डॉ. जगदीशचन्द्र जैन जून 2003 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि देवो भव डॉ. श्रीमती ज्योति जैन आज मानव जीवन-शैली में हो रहे परिवर्तन चारों तरफ | हो रहा है। आज महिला-पुरूष के कामों का बंटवारा नहीं रहा। अपना प्रभाव दिखा रहे हैं । सामाजिक परिस्थितियाँ बड़ी तेजी से | प्रत्येक कार्य की जिम्मेदारी कोई भी निभा सकता है। इन बदलती बदल रही हैं और बदल रही हैं हमारी परम्परायें भी। इन्हीं परम्पराओं हुई परिस्थितियों में दरवाजा खुलते ही मुस्कराते पुरुष या ड्राइंग में से एक है अतिथि स्वागत सत्कार परम्परा। अतिथि अर्थात् | रूम में चाय-ठंडा की ट्रे लिये पुरुष अतिथि का स्वागत करते हुए जिसके आने की तिथि मालूम न हो। 'अतिथि देवो भव' को | दिखे तो आश्चर्य की बात नहीं। बदलती जीवन शैली में इन हमारी सामाजिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जैन | सबकी आदत तो बनानी ही पड़ेगी। दर्शन संस्कृति में अतिथि सत्कार को हमेशा महत्ता मिली है। संत आज संयुक्त परिवार लगभग समाप्त प्राय हैं। एकाकी तिरूवल्लुवर के कुरल काव्य में लिखा गया है जिस घर में आये | परिवार महानगरीय लाइफ रूटीन, एक या दो बच्चों का होना यह हुए अतिथि का सत्कार होता है उसका वंश कभी निर्वीज नहीं | सब व्यक्ति को अकेला बनाता जा रहा है। बहुत से रिश्ते जैसे होता है।' पं. आशाधर एवं अन्य विद्वानों ने भी अतिथि सत्कार बुआ, मौसी, चाचा, जीजा आदि कम होते जा रहे हैं। बुजुर्ग रिश्ते युक्त घर आर्दश घर बताया है। श्रावक के व्रतों में अतिथि संविभाग | भी दादा-दादी, नाना-नानी, युवा वर्ग से जुड़ नहीं पा रहे हैं, बस व्रत को रखा गया है श्रावक के लिये कहा गया है कि अतिथि का अंकल-आंटी में सभी रिश्ते कनवर्ड होते जा रहे हैं। रिश्तेदार के सत्कार करो। कुरल काव्य में भी लिखा है जो मनुष्य अपनी रोटी | यहाँ जाने-आने, छुट्टियाँ बिताने आदि के अवसर कम होते जा रहे दूसरों के साथ बांटकर खाता है उसको भूख की बीमारी कभी | हैं। होटल संस्कृति की भयावी दुनियाँ छुट्टियों के लुभावने विज्ञापन स्पर्श नहीं करती।' दे प्रोग्राम फिट कर देती है। पर इस भौतिकता व कृत्रिमता की आज भी भारतीय संस्कृति एवं परम्परा में गृहस्थ जीवन | चकाचौंध में वह सब कहाँ। परस्पर आने जाने से एक दूसरे से को पर्याप्त महत्व और घर की गृहिणी को पूरा सम्मान दिया जाता | मिलना होता है, बच्चों में भी अपनापन आता है आपसी संबंध है। गृहिणी के ऊपर ही घर की सारी जिम्मेदारी होती है। वह सृष्टि | बनते हैं और उनमें दृढ़ता आती है। आज की व्यस्ततम लाइफ में के सृजन से लेकर प्रथम पाठशाला रूपी माँ का दायित्व बखूवी आवश्यकता तो यही है कि संतुलित लाइफ स्टाइल हो और उसमें निर्वाह करती आ रही है। समर्पण व कर्त्तव्य पालन की भावना | हृयूमन -टच हो ताकि हमारी संवेदनायें जीवित रहें। हम सब एक लिये अधिकांश ग्रहिणीयाँ अपने दायित्व में संलग्न हैं। परन्तु दूसरे के सुख-दुख में सहभागी बनें तभी आतिथ्य कला भी जीवंत बदलती परिस्थितियाँ एवं अति व्यस्ततम लाइफ में आज अनेक | रहेगी। परम्परायें टूट रही हैं उनमें एक अतिथि सत्कार परम्परा भी है। | आज 'अतिथि देवो भव' जैसी भावनायें विलुप्त तो नहीं यद्यपि यह बदले हुए अनेक रूपों में सामने आयी है पर वह बात | पर कम होती जा रही हैं। बदलती परिस्थितियों में अतिथि सत्कार कहाँ? आज तो समय प्रोग्राम्स बताकर जो अतिथि आते हैं वे ही | 'आवश्यक पूर्ति व्यवहार' पर आधारित हो गया है। संस्कारों की स्वागत के सहभागी बन पाते हैं बाकी तो.... कमी एवं स्वार्थपरता के कारण अतिथि के आने पर अनेक घरों में आज कामकाजी महिलाओं ने अतिथि सत्कार परम्परा | माहौल खिंचा खिंचा सा हो जाता है। को समाप्त नहीं, तो सीमित अवश्य कर दिया है। आज घरेलू ___आज आवश्यक है कि हम बदलती परिस्थितियों में कुछ महिलाएँ भी अतिरिक्त कार्य लिये काम करती हैं। पहिले तो बदलाव लायें। आने-जाने से पूर्व अपने प्रोग्राम्स के बारे में अवश्य इनका कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी तक ही सीमित रहता था, पर | सूचित करें। घर में बिना किसी भेद-भाव, दिखावा, शो बाजी अब महिलाओं के ऊपर अनेक जिम्मेदारियाँ आ गयी हैं। अनेक | और टेन्शन रहित हो, अपने अतिथि का स्वागत करें। घर में 'जैसा बिल जमा करना, बैंक जाना, बच्चों के स्कूल संबंधी कार्य, घरेलू है वैसा ही ठीक है' की भावना आप पर अतिरिक्त बोझ नहीं शॉपिंग आदि अनेक कार्य करने पड़ते हैं। अब मौसम-बेमौसम डालेगी। आपकी सहज-सरल मुस्कान और आत्मीयता ही अतिथि सत्कार के लिये न समय रहा न स्टेमिना ही। अनके परिवार को आनंद से सराबोर कर देगी। घर में आये अतिथि का दिल अतिथि को देखते ही टेन्सन में हो जाते हैं। खोलकर स्वागत कीजिये बैठाइये, आवश्यकतानुरूप गरम-ठंडा, आजकल बहुधा घरों का संचालन स्त्री-पुरूष दोनों मिलकर | फिर कुछ अपनी कहें, उसकी सुनें । देखिए, स्वयं महसूस कीजिए कर रहे हैं। कहा भी जाता है कि स्त्री-पुरूष गृहस्थी रूपी गाड़ी | कितना सुकून मिलता है। रूटीन लाईफ में चेंज आता है। हाँ यदि के दो पहिए हैं, सच पूछो तो आज के परिवेश में ये कथन सार्थक | पॉजिटिव थिंकिंग रखो तो सब सहज लगेगा। 18 जून 2003 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज के भौतिक परिवेश में अतिथि-सत्कार नित नये । जिस घर में त्यागी-ब्रती की आहार व्यवस्था होती है वहाँ रूपों में सामने आ रहे हैं। व्यक्ति का सोशल स्टेटस भी इससे निश्चित ही अतिथि परम्परा का निर्वाह होता है। पूरा का पूरा प्रभावित होता है। इस तरह से अतिथि सत्कार होने लगा है कि । परिवार अपने दायित्व को निभाता है। समाज में एक से एक बस देखते रह जाओ पर यह सब एक वर्ग तक सीमित है, आम | | उदाहरण भरे पड़े हैं। अतिथि तो आम ही है। आज हमारा दायित्व है कि 'अतिथि देवो भव' जैसी आज गौरव एवं प्रसन्नता की बात तो यह है कि जैन | परम्पराएँ स्वस्थ रूप में विकसित होती रहें जिससे नयी पीढ़ी भी समाज के धार्मिक संस्कार युक्त परिवार आज भी 'अतिथि देवो | अतिथि सत्कार आवभगत जैसे शब्दों के टच में रहेगी। आपकी भव' की परम्परा का निर्वाध रूप से पालन कर रहे हैं। आज भी | अपनी आतिथ्य कला से बच्चों में संस्कार पड़ेंगे। वे सोशल बनेंगे मंदिर में बाहर से आये दर्शनार्थी व्यक्तियों, विद्वानों, श्रावकों आदि | और सूखते हुए मानवीय रिश्तों में प्रगाढ़ता रूपी हराभरापन तो को सम्मान पूर्वक आतिथ्य दिया जाता है। हमारे आचार्यों, गुरु, | आयेगा ही। संत, विद्वानों द्वारा समाज को सदैव मार्गदर्शन मिलता रहा है, शिक्षक निवास ६ अपने उपदेशों, प्रवचनों आदि के माध्यम से इन सुसंस्कारों को श्री कुन्दकुन्द महावद्यिालय परिसर खतौली- २५१२०१ उ.प्र. बल मिलता है। साहित्य समीक्षा कृतिनाम- अमृतवाणी प्रवचनकार - परमपूज्य मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज प्रस्तोता - श्री ओमप्रकश गुप्ता ( कार्यकारी संपादक राजस्थान टाइम्स) अलवर (राज.) प्रकाशक-बंसल प्रकाशन, अलवर (राज.) पृष्ठ संख्या - 4+vi + 375, मूल्य 35 रुपये समीक्ष्य कृति में परमपूज्य, आध्यात्मिक संत, तीर्थ | बेसहारे को आश्रय देना सीखो तभी सुखी बन पाओगे। जीर्णोद्धारक, भारतीय श्रमण संस्कृति के प्रबल संरक्षक, मुनिपुंगव | 2. संयम और त्याग के बिना आज तक किसी का श्री सुधासागर जी महाराज के वर्ष 1999 में अलवर चातुर्मास | कल्याण नहीं हुआ है और न होगा। काल में दिये गये प्रवचनों के अंशों का संकलन है जो प्रतिदिन | 3. पाप करते वक्त इतना ज्ञान जरूर कर लेना कि मैं 'राजस्थान टाइम्स' में श्री ओमप्रकाश गुप्ता द्वारा लिपिबद्ध कर | क्या कर रहा हूँ और इनका परिणाम क्या है? समाचार के रूप में प्रकाशित किये गये थे। किसी जैन श्रमण 4. अंधकार को मिटाना है तो प्रकाश पुंज की मर्यादाओं संत की विमल वाणी का किसी अजैन भक्त द्वारा किया गया यह | को अंगीकार करो। अनूठा प्रयास सराहनीय एवं श्लाघनीय है। अमृतवाणी में कुल 5. अहंकार पापों को बढ़ाने वाला है। जब तक वह 142 प्रवचनांशों का शीर्षकवद्ध संयोजन है, जिन्हें पढ़कर मर्म समाप्त नहीं होगा तब तक परमात्मा से दूरी बनी रहेगी। स्पन्दित होता है और धर्म की अनुभूति होती है। प.पू. मुनि श्री 6. मन को पवित्र व संकल्प को दृढ़ बनाओ तभी तो एकमात्र ऐसे संत हैं जो 365 दिन (वर्षभर) प्रवचन देकर जन- अपने परिणाम मंगलमयी रूप में परिणत होंगे। जन को कृतार्थ करते हैं। उनके प्रवचन अध्यात्म की शीतलता 7. शरीर नाशवान है आत्मा अविनाशी है। से सराबोर होते हैं और श्रोताओं को अन्त:दृष्टि प्रदान कर आत्म 8. धर्म को चर्चा में नहीं अपनी चर्या में लाओ, तभी परमात्म से जुड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। 'अमृतवाणी' में | धर्म का आनन्द ले पाओगे। संकलित ये विचार ध्यातव्य हैं इस तरह सम्पूर्ण कृति अमृतमयी विचारों से संयुक्त है 1. कराहते जीव की वेदना का अनुभव करो, पीड़ित को | जिसे पढ़ना अमरता के मार्ग से गुजरने के समान है। प्रस्तोता दवा, भूखे को रोटी, प्यासे को पानी, निर्धन को वस्त्र, अनाथ व | का श्रम सराहनीय है। समीक्षक- डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' जून 2003 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप से घृणा करो पापी से नहीं प्रस्तुति : सुशीला पाटनी पाप करने में मनुष्य जितना आगे बढ़ जाता है उतना | करती है। अत: हम अपनी आत्म प्रशंसा कभी न करें क्योंकि जानवर नहीं, सबसे अधिक क्रोध करने में, सबसे अधिक अहंकार | जो प्रशंसनीय होता है उसकी प्रशंसा स्वयं होती है करने की करने में, सबसे अधिक छल कपट करने में और सबसे अधिक आवश्यकता नहीं। लालच करने में मात्र मनुष्य ही आगे रहता है, जानवर नहीं। जीवन को उन्नत बनाने का सबसे अच्छा तरीका यह है मनुष्य क्या-क्या नहीं करता सभी कुछ तो करता है, इस मनुष्य ने | कि हम अपने द्वारा किये गये अतीत के अनर्थों की ओर देखें, और सबको सुखा दिया और स्वयं ताजा रहना चाहता है, वह मनुष्य है उनका संशोधन करें, उनका परिमार्जन करें और आगामी काल में जो हरी को समाप्त करके हरियाली की चाह करता है, स्वयं उन अनर्थों को नहीं करने का संकल्प करें, इस शरीर को अहिंसा टमाटर की तरह लाल रहना चाहता है और दूसरों को काला करने के लिए काम में लायें और मन को भविष्य के उज्जवल के लिए की सोचता है। यह मनुष्य ही अतिक्रमण करता है, प्रतिकरण लगायें, दूसरों की अच्छाई करने में अपनी बुद्धि लगाएँ और करता है। यह अनुसंधान तो करता है, अतिसंधान भी करता है।| कर्त्तव्य की ओर आगे बढ़े तभी हमारा जीवन सार्थक हो सकता इस प्रकार यह मनुष्य इस सृष्टि में नाश और विनाश के काम करता है, अन्यथा नहीं। अनर्थ वही करता है जो परमार्थ को भूल है। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य को अतीत के समस्त जाता है, जो परमार्थ को याद रखता है वह व्यक्ति अनर्थ नहीं पापों का प्रायश्चित कर लेना चाहिए और अपनी आत्मा को पाप कर सकता। अपना स्वभाव ही तो परमार्थ है, अपनी आत्मा से दूर कर लेना चाहिए और हमेशा पाप से घृणा करना चाहिए | का ख्याल ही तो परमार्थ है, अनर्थों से बचना ही तो परमार्थ पापी से नहीं। है, पापों को तोड़ना ही तो परमार्थ है और अहिंसा ही सही स्टेन्डर्ड का अर्थ तो आदर्श होता है। हमारे जीवन में | परमार्थ है। हम अहिंसा को जीवन में उतारें तभी सही मायने में आस्था, विवेक और कर्त्तव्य का स्टेन्डर्ड होना चाहिए और वह हम्परा जीवन उन्नत हो सकता है, अन्यथा अवनति ही होगी। आस्था अन्धी न हो अपितु विवेक के साथ हो और वह विवेक, मनुष्य को चाहिए कि वह जानवरों के लिए आदर्श बने। कर्त्तव्य के साथ हो। यदि हमारे जीवन में आस्था, विवेक और | पशु तो आज भी अपनी मर्यादाओं में रहते हैं लेकिन इस मनुष्य ने कर्तव्य तीनों का एक साथ गठबंधन हो जाये तो हमारा जीवन | सारी मर्यादाओं को छोड़ दिया। मनुष्य को अपनी जीवन शैली महक उठे, सुगन्धित हो जाये। जीवन महान् बन सकता है हम शुद्ध कर लेना चाहिए यदि मनुष्य सुधर जायेगा तो सारी दुनियाँ दूसरों के लिए आदर्श बन सकते हैं, उदाहरण बन सकते हैं, | सुधर जायेगी, खतरा प्रकृति से नहीं खतरा मनुष्य से है। प्रकृति ने शर्त है कि हम अपनी आत्म प्रशंसा न करें। आत्म प्रशंसा | मनुष्य को खराब नहीं किया लेकिन इस मनुष्य ने प्रकृति को हमको अपने कर्तव्यों से चलित करती है, विमुख करती है, | तबाह कर दिया। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य आत्म प्रशंसा हमको कमजोर करती है और अहंकार को पुष्ट | प्रकृति के अनुरुप चले। आर.के. हाऊस, मदनगंज किशनगढ़ कबीर वाणी अहम् एकै साधै सब सधै, सब साधै सब जाय। माली सींचै मूल को, फूलै फलै अघाय॥ एक जानि एकै समझ, एकै कै गुन गाय। एक निरख एकै परख, एकैसों चित्त लाय॥ विश्व ख्याति अर्जित करने से अहं कहाँ घटता है। अगणित तारों जैसा वह तो और चमकता है। भीतर से परिवर्तन होता तो घट जाता अहंकार भी, निर्मल मन के दर्पण से अध्यात्म प्रगटता है। योगेन्द्र दिवाकर दिवा निकेतन, सतना (म.प्र.) 20 जून 2003 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासु - पं. सनतकुमार विनोदकुमार जैन रजवाँस। । चारित्रं पुनरधिगमजमेव तस्य श्रुतपूर्वकत्वात्तद्विशेषस्यापि जिज्ञासा - तरबूज भक्ष्य है या अभक्ष्य ? निसर्गजत्वाभावात् द्विविधहेतुकत्वं न सम्भवति । समाधान - तरबूज अभक्ष्य ही है। सभी श्रावकाचारों में अर्थ- चारित्र तो अधिगम से ही उत्पन्न होता है, निसर्ग तरबूज को अभक्ष्य कहा है, जिसके कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं- | (परोपदेश के बिना अन्य कारण समूह) से उत्पन्न नहीं होता है। (१) श्री अमितगति श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है- | क्योंकि प्रथम ही श्रुतज्ञान से जीव आदि तत्वों का निर्णय कर नाली सूरणकन्दो दिवसद्वितयोषिते चदधिमथिते। चारित्र का पालन किया जाता है, अतः श्रुतज्ञानपूर्वक ही चारित्र विद्धं पुष्पितमन्नं कालिङ्गं द्रोणपुष्पिका त्याज्या॥८४॥ | है। इसके भेद अर्थात् सामायिक, परिहारविशुद्धि आदि भी निसर्ग अर्थ- कमलनाल, सूरण, जमीकन्द तथा दो दिन का बासी से उत्पन्न नहीं होते। अत: चारित्र, निसर्ग व अधिगम दोनों प्रकार दही, छाछ, बींधा अन्न, अंकुरित अन्न, कलींदा (तरबूज) और | से नहीं होता (अपितु अधिगम से ही होता है)। श्री राजवार्तिक द्रोण पुष्पिका इन वस्तुओं का भक्षण त्यागने के योग्य है। अध्याय १/३ में कहा है- अर्थ चारित्र है सो अधिगम ही है जातें (२) प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है- श्रुतज्ञान पूर्वक ही हो हैं। वृन्ताकं हि कलिंङ्गं वा कूष्माण्डादिफलं तथा। उपर्युक्त प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि मतिज्ञान, अन्यद्वा दूषितं लोके शास्त्रे वा वर्जयेत्सुधीः ॥१०४॥ | अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान केवल निसर्गज होते हैं। श्रुतज्ञान, अर्थ - बैंगन, तरबूज, कूष्माण्ड तथा और भी जो कुछ केवलज्ञान अधिगमज ही होते हैं तथा चारित्र मात्र अधिगमज ही लोक में व शास्त्रों में सदोष कहे गये हैं, उन सबका त्याग कर देना होता है निसर्गज नहीं। चाहिए। यहाँ इतना और भी जान लेना अच्छा होगा कि श्री (३) श्री व्रतोद्यतन श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है- | श्लोकवार्तिक पुस्तक-२ के अनुसार, जिसप्रकार औपशमिक करीरं कोमलं विल्वं कलिंगं तुम्बिनी फलम्। सम्यग्दर्शन निसर्ग एवं अधिगम दोनों से होता है, उसी प्रकार बदरी फलजं चूर्ण सन्त्याज्यं फलपंचकम्॥२३७॥ क्षायिक एवं क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी दोनों प्रकार से होते हुए अर्थ- करीर (कैर), कोमल बेलफल, तरबूज, तुम्बा, | भली प्रकार प्रतीत हो रहे हैं। बेरों का चूर्ण, इन पाँच फलों को त्यागना चाहिए। जिज्ञासा - क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल ६६ इसके अलावा सागारधर्मामृत, श्रावकाचारोद्धार, पुरुषार्था- | सागर है या १३२ सागर? नुशासन श्रावकाचार, किशनसिंह श्रावकाचार तथा रत्नकरण्ड समाधान - क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल ६६ श्रावकाचार की पण्डित सदासुखदास की टीका में भी तरबूज को सागर है। यह ६६ सागर उसी जीव की अपेक्षा सिद्ध होता है अत्यन्त हिंसाकारक अभक्ष्य कहा है। जिसने ६६ सागर के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में दर्शन मोहनीय की जिज्ञासा - निसर्गज, अधिगमज का भेद सम्यक्त्व में ही क्षपणा का प्रारम्भ कर दिया हो। अन्यथा वह जीव अन्तर्मुहूर्त कम होता है या सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में भी होता है? ६६ सागर के उपरान्त सम्यग्मिथ्यात्व या मिथ्यात्व को प्राप्त हो समाधान - उपर्युक्त प्रश्न के समाधान में श्री राजवार्तिक जाता है। श्री धवला पुस्तक ५/१ में इस सम्बन्ध में इस प्रकार १/३ में इस प्रकार कहा है- (हिंदी टीका) केवलज्ञान श्रुतज्ञान | कहा है पूर्वक होता है, इसलिये उसमें निसर्गपना नहीं। श्रुतज्ञान अर्थ-- मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम २ x ६६ परोपदेशपूर्वक ही होता है। स्वयं बुद्ध के जो श्रुतज्ञान होता है वह सागरोपम काल है । कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य १४ सागरोपम जन्मान्तर के उपदेश पूर्वक है (इसलिये निसर्गज नहीं है) मतिज्ञान, आयु स्थितिवाले लांतव, कापिष्ठ देवों में उत्पन्न हुआ, वहाँ १ अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान निसर्गज ही हैं। सागरोपम काल बिताकर दूसरे सागरोपम के आदि समय में सम्यक्त्व सम्यक्चारित्र के सम्बन्ध में श्री श्लोकवार्तिक २/१ में इस | को प्राप्त हुआ। १३ सागरोपम काल वहाँ रहकर सम्यक्त्व के साथ प्रकार कहा है | ही च्युत हुआ और मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भव में संयम - जून 2003 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा संयमासंयम को अनुपालन कर इस मनुष्य भव सम्बन्धी आयु से कम २२ सागरोपम आयु की स्थिति वाले आरण, अच्युत कल्प के देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ। इस मनुष्य भव में संयम का अनुपालन कर उपरिम ग्रैवेयक में मनुष्य आयु से कम ३१ सागरोपम आयु की स्थितिवाले अहिमन्द्रों में उत्पन्न हुआ। वहाँ पर अन्तर्मुहूर्त कम ६६ सागरोपम काल के अन्तिम समय में परिणामों के निमित्त से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। उस सम्यग्मिथ्यात्व में अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त होकर विश्राम ले च्युत हो मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भव में संयम को अथवा संयमासंयम का परिपालन कर इस मनुष्य भव सम्बन्धी आयु से कम २० सागरोपम २२ सागरोपम और २४ सागरोपम स्थितिवाले देवों में उत्पन्न होकर, अन्तर्मुहूर्त कम २०६६ सागरोपम काल के अन्तिम समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । यह ऊपर बताया गया उत्पत्ति का क्रम अव्युत्पन्नजनों को समझाने के लिये कहा गया है। परमार्थ से तो जिस किसी भी प्रकार से ६६ सागरोपम काल पूरा किया जा सकता है। उपर्युक्त प्रमाण से यह स्पष्ट है कि १३२ सागर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल नहीं है, बल्कि मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तरकाल है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल तो, दर्शन मोह की क्षपणा करने वाले जीव की अपेक्षा ६६ सागर है, जबकि अन्य जीवों की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम ६६ सागर प्रमाण है। जिज्ञासा मुनि के आहार स्थान पर चंदोवा लगाना क्या आवश्यक है ? समाधान- श्रावकाचार ग्रंथों में चंदोबा लगाने के सम्बन्ध में एक छन्द इस प्रकार उपलब्ध होता है प्रथम रसोईघर को थान, चक्की उखली द्वयत्रय जान । चौथे अन्न शोधन को थान, जीमन चौका पंचम मान । छठमो आटा छानन सोय, सप्तम थान शयन का होय ॥ पानी को थल अष्टम जान, सामायिक को नवमों थान ॥ अर्थ रसोईघर में चक्की पर ओखली के ऊपर, अन्न शोधन के स्थान पर, भोजन करने के स्थान पर, आटा छानने के स्थान पर, सोने के स्थान पर, जल रखने के स्थान पर और सामायिक के स्थान पर चंदोबा लगाना चाहिए। यद्यपि वर्तमान में उपरोक्त ९ स्थानों के बजाय, केवल मुनिराज के आहार स्थान के ऊपर चंदोबा लगाने की परम्परा यत्र-तत्र शेष रह गई है। मूलाचार आदि ग्रन्थों में आहार संबंधी ४६ दोष और ३२ अन्तराय के वर्णन में अथवा श्रावक की नवधा भक्ति एवं दाता के सप्तगुणों के वर्णन में चंदोबा का कोई वर्णन नहीं मिलता है। आचार्य शान्तिसागर महाराज की परम्परा के तृतीय आचार्य जून 2003 जिनभाषित 22 - श्री धर्मसागर महाराज १९७५ में हस्तिनापुर में विराजमान थे । उस समय संघस्थ मुनि श्री वृषभसागर जी की सल्लेखना चल रही थी। एक दिन एक चौके के चंदोबे में कबूतर के २ अण्डे दिखाई दिए । विचारणीय बात यह थी कि यदि चंदोबा हटाया जाता है तो अण्डे समाप्त हो जाते हैं और यदि अण्डे न हटाएँ तो वहाँ आहार कैसे कराया जाए। बाद में संघ में यह चर्चा चली और पूज्य आचार्य धर्मसागर महाराज ने निर्णय दिया कि पक्की छत वाले कमरों में चंदोबा लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है। कड़ियों वाली कच्ची छत के कमरों में ऊपर से घास-फूस, जीव-जन्तु आदि गिरने की सम्भावना रहती है, अतः उनमें चन्दोबा लगाना आवश्यक है। समाधान जिज्ञासा- अर्ध पुद्गल परावर्तन काल में असंख्यात वर्ष होते हैं, फिर भी इसको अनन्तकाल क्यों कहा जाता है ? श्री धवला पुस्तक १/१ में इस प्रकार कहा है- अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालः सक्षयोऽप्यनन्त: छद्मस्थैरनुपलउधपर्यन्तत्वात् । केवलमनन्तस्तद्विषयत्वाद्वा अर्द्धपुद् गल परिवर्तनकाल क्षय सहित होते हुए भी इसीलिए अनन्त है कि छद्मस्थ जीवों के द्वारा उसका अन्त नहीं पाया जाता है। वास्तव में केवलज्ञान अनन्त है अथवा अनन्त को विषय करने वाला होने से यह अनन्त है। - श्री धवला पुस्तक ३, ४ व पुस्तक १४ में भी इसी प्रकार का वर्णन है। श्री त्रिलोकसार में इस प्रकार कहा है जावदियं पच्चक्खं जुगवं सुदओहिकेवलाण हवे। तावदियं संखेज्जमसंख्यमणंतं कमा जाणे ॥ ५२ ॥ गाथार्थ - जितने विषय युगपत् प्रत्यक्ष श्रुतज्ञान के हैं, अवधिज्ञान के हैं और केवलज्ञान के हैं, उन्हें क्रम से संख्यात, असंख्यात और अनन्त जानो । विशेषार्थ - जितने विषयों को श्रुतज्ञान जानता है, उसे संख्यात कहते हैं। जितने विषयों को अवधिज्ञान जानता है, उसे असंख्यात कहते हैं और जितने विषयों को केवलज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है उसे अनन्त कहते हैं । इस परिभाषा के अनुसार अर्धपुद्गल परिवर्तन भी अनन्त है, क्योंकि वह अवधिज्ञान के विषय से बाहर है। किन्तु वह परमार्थ अनन्त नहीं है, क्योंकि अर्धपुद्गल परिवर्तन काल व्यय होते-होते अन्त को प्राप्त हो जाता है अर्थात् समाप्त हो जाता है अर्थात् यह सक्षय अनन्त है। आय के बिना व्यय होते रहने पर भी जिस राशि का अन्त न हो वह राशि अक्षय अनन्त कहलाती है। उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार अर्धपुद्गल परावर्तन काल में यद्यपि असंख्यात वर्ष होते हैं, वह बहुत काल बाद समास भी हो जाता है, परन्तु मात्र केवलज्ञान का विषय होने से उसे अनन्त कहा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। गया है। हैं, जो अष्टमंगलद्रव्य एवं अष्टप्रातिहार्य सहित हैं तथा प्रातिहार्य से जिज्ञासु - श्रीमती प्रतिभा जैन, जयपुर रहित सिद्ध भगवान् की प्रतिमा भी विराजमान है।" जिज्ञासा- श्री मूलाचार गाथा २५ की टीका के अनुसार अकृत्रिम चैत्यालय के मानस्तम्भ के समीप चैत्यवृक्ष एवं सभी अकृत्रिम प्रतिमाएँ सिद्ध प्रतिमाएँ हैं और कृत्रिम प्रतिमाएँ सिद्धवृक्ष हैं, चैत्यप्रासाद भूमि में जगह-जगह स्तूप हैं, जिनमें अरिहंत प्रतिमाएँ हैं। कृपया स्पष्ट करें? अर्हत एवं सिद्ध परमेष्ठी के बिम्ब हैं। समाधान - श्री मूलाचार गाथा २५ की टीका में इस श्री तिल्लोयपण्णत्ति अधिकार-४ में पंचमेरु के जिनालयों प्रकार कहा है-“अष्टमहाप्रातिहार्यसमन्विता अर्हत्प्रतिमा, तद्रहिता | में विराजमान जिन प्रतिमाओं का वर्णन करते हुए इस प्रकार कहा सिद्धप्रतिमा। अथवा कृत्रिमायास्ता अर्हत्प्रतिमाः, अकृत्रिमा: सिद्धप्रतिमाः॥" छत्तत्तयादि-जुत्ता, पडियंकासण-समण्णिदा णिच्चं। अर्थ-अष्टमहाप्रातिहार्य से युक्त अर्हन्त प्रतिमा होती है समचउरस्सायारा, जयंतु जिणणाह-पडिमाओ॥१९०१॥ और इनसे रहित सिद्ध प्रतिमा है अथवा जो कृत्रिम प्रतिमाएँ है वे अर्थ - तीन छत्रादि सहित, पल्कङ्कासनसमन्वित और अरिहंत प्रतिमा हैं और जो अकृत्रिम प्रतिमाएँ हैं वे सिद्ध प्रतिमाएँ | समचतुरस्न आकारवाली वे जिननाथ प्रतिमाएँ नित्य जयवन्त हैं। श्री सिद्धान्तसार दीपक के १५ वें अधिकार में इस प्रकार उपर्युक्त गाथा की टीका के अनुसार आपका कथन सत्य | कहा हैहै, परन्तु जब अन्य ग्रन्थों से उपर्युक्त सन्दर्भ का मिलान किया नन्दीश्वरमहाद्वीपे नियमेन सुराधिपाः। जाता है तब अष्टप्रातिहार्य से युक्त प्रतिमा को अरिहंत प्रतिमा वर्षमध्ये त्रिवारं च दिनाष्टावधिमूर्जितम्॥३४५॥ कहना और उनसे रहित प्रतिमा को सिद्ध प्रतिमा कहना तो वसुनन्दि महामहं प्रकुर्वन्ति भूत्या स्नानार्चनादिभिः । प्रतिष्ठा पाठ, तृतीय परिच्छेद, श्लोक नं. ६९-७० तथा जयसेन जिनालयेषु सर्वेषु प्रतिमारोपितार्हताम्॥३४६॥ प्रतिष्ठा पाठ श्लोक नं. १८०-१८१ से, मिलान कर जाता है परन्तु अर्थ - सर्व देव समूहों से युक्त होकर इन्द्र नियम से वर्ष सभी अकृत्रिम प्रतिमा सिद्ध प्रतिमा होती हैं यह बात अन्य शास्त्रों में तीन बार (आसाढ़, कार्तिक, फाल्गुन) नन्दीश्वर द्वीप जाते हैं से घटित नहीं होती। करणानुयोग के ग्रन्थों में जिनप्रतिमा और | और वहाँ के सर्व जिनालयों में स्थित अर्हन्त प्रतिमाओं की अष्टसिद्धप्रतिमा का वर्णन बहुतायत से पाया जाता है, इनमें अरिहन्तों | अष्ट दिन पर्यन्त अभिषेक आदि क्रियाओं के साथ-साथ महामह की प्रतिमाओं को जिनप्रतिमा कहा गया है। | पूजा करते हैं। श्री त्रिलोकसार में अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन करते श्री तिलोयण्णत्ति अधिकार ८ में देवों के जन्म लेते समय हुए इस प्रकार कहा है का वर्णन करते हुए इस प्रकार कहा हैमूलगपीठणिसण्णा चउद्दिसं चारि सिद्धजिणपडिमा। छत्तत्तय-सिंहासण-भामण्डल-चामरादि-चारुणं। तप्पुरदो महकेदू पीठे चिटुंति विविहवण्णणगा॥१००२॥ जिणपडिमाणं पुरदो, जय-जय सई पकुव्वन्ति ॥६०५॥ गाथार्थ - चारों दिशाओं में उन वृक्षों के मूल में जो पीठ अर्थ- पुन: वे देव तीन छत्र, सिंहासन, भामण्डल और अवस्थित हैं, उन पर चार सिद्ध प्रतिमाएँ और चार अरिहन्त प्रतिमाएँ | चामरादि से (संयुक्त) सुन्दर जिन प्रतिमाओं के आगे जय-जय विराजमान हैं। उन प्रतिमाओं के आगे पीठ हैं जिनमें नाना प्रकार | शब्द उच्चरित करते हैं। के वर्णन से युक्त महाध्वजाएँ स्थित हैं। श्री हरिवंश पुराण सर्ग ५ में नन्दीश्वरदीप के जिनालयों श्री त्रिलोक सार गाथा १०१२ में अकृत्रिम जिन चैत्य वृक्षों का वर्णन करते समय इस प्रकार कहा हैकी प्रतिमाओं के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा है-पल्यङ्कप्रातिहार्यगा: पंचचापशतोत्सेधा रत्नकांचनमूर्तयः । चतुर्दिशामूलगता जिनप्रतिमाः ॥१०१२॥ प्रतिमास्तेषु राजन्ते जिनानां जितजन्मनाम्॥६७९॥ अर्थ- उन चैत्यवृक्षों के मूल की चारों दिशाओं में अर्थ - उन चैत्यालयों में संसार को जीतने वाले जिनेन्द्र पल्यङ्कासन और प्रातिहार्यों से युक्त जिनबिम्ब विराजमान हैं। । भगवान् की पाँच सौ धुनष ऊँची रत्न एवं स्वर्ण निर्मितमूर्तियाँ जयसेन प्रतिष्ठा पाठ श्लोक ६९/७० तथा १८०-१८१ में | विराजमान हैं। इस प्रकार कहा है"अकृत्रिम चैत्यालयों में गर्भगृह में १०८ पद्मासन रत्नमयी १/२०५, प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा - २८२ ००२ ५०० धनुष अवगाहनावाले अरिहन्त परमेष्ठी के प्रतिबिम्ब विराजमान जून 2003 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर जैन मुनि के संबंध में मार्कोपोलो के विचार सुरेश जैन, आई. ए. एस. वाशिंगटन, डी.सी., यू. एस. ए. से प्रकाशित अंतरर्राष्ट्रीय | मार्कोपोलो ने ऐसे व्यक्तियों का अपनी पुस्तक में वर्णन किया है, स्तर की महत्वपूर्ण पत्रिका नेशनल ज्योग्रेफिक खण्ड २०० क्रमांक जिन्होंने संसार को त्याग दिया। अतः माइक एडवर्ड और माइकेल १ जुलाई २००१ के अंक में लेखक श्री माइक एडबर्ड, सहायक यमशिता ने ऐसे साधु की खोज की। संपादक एवं छायाकार श्री माईकेल यमशिता ने Marco Polo Journey Home, Part-III के नाम से अपना आलेख प्रकाशित किया है। इस आलेख में उन्होंने पृष्ठ ४४-४५ पर दिगम्बर जैन मुनि का चित्र प्रकाशित करते हुए दिगम्बर जैन मुनि के संबंध में ७०० से अधिक वर्ष पूर्व लिखित मार्कोपोलो के निम्नांकित विचार उद्धत किए हैं: "We go naked because we wish nothing of this world." Thus Marco quotes a holy man similar to this sadhu in Bombay, who has not worn clothes in 16 years. He owns only a bowl and a feather duster. "It is a great wonder how they do not die," Marco wrote. Polo. Blessed moment Close encounter in the foot steps of Marco Photographer Michael Yamashita received a blessing with no disguise from a 76 years old sadhu at a temple in Mumbai (Bombay), India. The sadhu also uses the feather duster to clean his platform. "We sought him out because Marco Polo described people who renounce worldly possessions," says mike. मार्को पोलो ने सन् १२९१ में भारत की यात्रा की थी । उसने अपने विश्वप्रसिद्ध ऐतिहासिक पुस्तक The Description of the World में दिगम्बर जैन मुनि के संबंध में उपरिलिखित विचार अंकित किए हैं। माइक एडवर्ड और माइकेल यमशिता ने ७०० वर्षों के पश्चात मार्कोपोलो द्वारा स्थापित मार्ग पर पुन: चलकर मार्कोपोलो द्वारा उल्लेखित ७६ वर्षीय दिगम्बर जैन साधु के मुम्बई के जैन मंदिर में दर्शन किए और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। 24 जून 2003 जिनभाषित अमेरिका प्रवासी श्री यशवंत मलैया, दमोह वालों ने इस संदर्भ की जानकारी ई-मेल से हमें प्रेषित की है। हम उनके प्रति अनुगृहीत हैं। हमने इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ फारेस्ट मैनेजमेन्ट, भोपाल के पुस्तकालय से संबंधित अंक प्राप्त कर इस आलेख का अध्ययन किया और यह महत्त्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक जानकारी सभी शोधार्थियों और विद्वानों की जानकारी हेतु प्रसारित की जा रही है। ७०० वर्ष पूर्व तत्कालीन जैन मुनि द्वारा मार्कोपोलो को दिया गया यह कथन कि "हम नग्न हो जाते हैं क्योंकि हम इस विश्व से कुछ नहीं चाहते हैं" जैनधर्म और संस्कृति में व्याख्यायित मुनिधर्म का सहज और सरल शब्दों में निष्कर्ष प्रस्तुत करता है। दूसरी ओर मार्कोपोलो का कथन कि "यह बड़ा आश्चर्य है कि मृत्यु से वे कैसे बच पाते हैं" दिगम्बर जैन मुनि की भीषणतम एवं कठिन तपश्चर्या और जीवनचर्या का सार प्रस्तुत करता है। इसी आलेख के प्रथम एवं द्वितीय भाग क्रमशः The Adventures of Marco Polo" और " Marco Polo in China" के नाम से क्रमशः इसी पत्रिका के मई एवं जून, २००१ के अंकों में प्रकाशित किए गए हैं। नेशनल ज्योग्रेफिक की बेबसाईट www. national geographic.com है। यह पत्रिका निम्नांकित पते से प्राप्त हो सकती है: National Geographic Society, P.O. Box No. 60399 Tsat Tsz Mui Post Office Hong Kong आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुभाषित वक्ता की विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता से ही उसके द्वारा कही गई बातों पर विश्वास जमता है। अपनी प्रतिष्ठावश अज्ञात विषय के समाधान का साहस वक्ता को कभी नहीं करना चाहिए। जो विपक्ष की बात सुनने की क्षमता नहीं रखता और बात-बात में उत्तेजित हो उठता है वह सभा मंच पर बैठने के अयोग्य है। ३०, निशात कॉलोनी, भोपाल म.प्र. ४६२००३ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दर्शन से अनुभूति नीचे एक प्रश्नावली दी जा रही है। उसके उत्तर आपसे अपेक्षित हैं। आपके उत्तर ग्रन्थरूप में प्रकाशित किये जायेंगे। आप अपने उत्तर सुन्दर भाषा में लिखकर नीचे लिखे पते पर भेजने की कृपा करें। 19. 22. प्रश्न-उत्तर खण्ड इस खण्ड के प्रश्नों के उत्तर लिखें अथवा पृथक् | 16. यदि आपने आचार्य श्री विद्यासागर जी के दर्शन नहीं से अपने विचार गद्य या पद्य में लिखकर भेजें। किये हैं तो उनके चित्र को देखकर ही आपकी मानसिकता 1. आचार्य श्री विद्यासागर जी के बारे में आप क्या सोचते पर क्या प्रभाव पड़ा? 17. आचार्य श्री विद्यासागर जी का नाम सुनकर आप क्या आचार्य श्री विद्यासागर जी आप को कैसे लगते हैं? सोचते थे? क्या सोचते हैं? आचार्य श्री विद्यासागर जी के दर्शन से आप को क्या | 18. आचार्य श्री विद्यासागर जी का चित्र या फोटो-ग्राफ लाभ हुआ? देखकर आप क्या सोचते हैं? आचार्य श्री विद्यासागर जी के जीवन-दर्शन से आप समाचार-पत्र, पत्रिकाओं आदि में आचार्य श्री विद्यासागर को क्या शिक्षा मिली है? जी के प्रवचन पढ़कर आप पर क्या प्रभाव पड़ा? आचार्य श्री विद्यासागर जी के प्रवचन सुनने के बाद आचार्य श्री विद्यासागर जी के प्रवचन की ऑडियो या आप के जीवन में क्या बदलाव आया? वीडियो कैसिट सुनकर या किसी टी.वी. चैनल पर आचार्य श्री विद्यासागर जी के पास कोई भी बाह्य प्रवचन सुनकर-देखकर आपके ऊपर क्या प्रभाव पड़ा? आडम्बर की सामग्री देखने में नहीं आती, फिर भी | आचार्य श्री विद्यासागर जी की प्रवचन पुस्तकें पढ़कर उनके पास आने से आपको क्या प्रेरणा मिलती है? आप पर क्या प्रभाव पड़ा? उसके प्रति आपके क्या आचार्य श्री विद्यासागर जी की दिगम्बर मुद्रा से आप विचार हैं। को क्या शिक्षा मिली है? आचार्य श्री विद्यासागर जी का संस्कृत या हिन्दी काव्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की नीचे देखकर चलने साहित्य या पद्य साहित्य पढ़कर आप पर क्या प्रभाव की दृष्टि से आप को क्या शिक्षा मिली है? पड़ा या उसके बारे में आपका क्या विचार चिन्तन है। आचार्य श्री विद्यासागर जी की आहारचर्या देखकर | 23. आचार्य श्री विद्यासागर जी द्वारा किए गए अनुवादित आप पर क्या प्रभाव पड़ा? साहित्य को पढ़कर आप के मन में क्या विचार आया? आचार्य श्री विद्यासागर जी की पद-यात्रा देखकर आप । आचार्य श्री विद्यासागर जी द्वारा लिखित दोहा-साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा? पढ़कर आप के मन में क्या विचार-चिन्तन आया? आचार्य श्री विद्यासागर जी से यदि कभी तत्त्वचर्चा | 25. आपके नगर-गाँव में आचार्य श्री विद्यासागर जी के की हो, तो उसका आप पर क्या प्रभाव पड़ा या क्या पधारने से वहाँ पर स्थित मंदिर, ट्रस्ट, समाज या किसी कैसा समाधान मिला? व्यक्ति को क्या कोई आर्थिक, सामाजिक, नैतिक या 12. आचार्य श्री विद्यासागर जी की शास्त्रसभा या वाचना राजनैतिक लाभ हुआ या दर्शन करने मात्र से क्या में आपने यदि भाग लिया हो, तो उसका क्या प्रभाव आर्थिक, सामाजिक, नैतिक या राजनैतिक विकास हुआ? पड़ा अथवा उससे क्या सीखा? 26. आचार्य श्री विद्यासागर जी के पधारने से समाज, गाँव 13. आचार्य श्री विद्यासागर जी की ध्यान-मुद्रा, सामायिक या शहर के लोगों का क्या चारित्रिक-नैतिक विकास क्रिया आदि को देखकर आप क्या सोचते हैं? हुआ? आचार्य श्री विद्यासागर जी की दिनचर्या के सम्बन्ध में | 27. आपके गाँव-नगर में आचार्य श्री विद्यासागर जी के आप के क्या विचार हैं? पधारने से उन दिनों में अपराध में क्या कमी आई थी? 15. आचार्य श्री विद्यासागर जी के मुख से जो वचन-शब्द पुलिस थाने से रिकार्ड प्राप्त करना। वाणी निकलती है, वह चित्त पर क्या प्रभाव डालती | 28. आचार्य श्री विद्यासागर जी के केशलोंच देखकर मन में क्या विचार या वैराग्य के भाव आए? - जून 2003 जिनभाषित 25 24. आचावत्रा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. 30. 31. 32. 33. 35. आचार्य श्री विद्यासागर जी के चरणों की सेवा करते दर्शन-अनुभूति खण्ड वक्त आप के मन में क्या विचार उत्पन्न हुए? आचार्य श्री विद्यासागर जी के केशलोंच के पहले एवं गद्य या पद्य में लिखकर भेजेंबाद में उनकी छविदर्शन से आप के मन में क्या तरंगें आचार्य श्री विद्यासागर जी के पहली, दूसरी या तीसरी उठीं? , बार आदि में आपको दर्शन करने से जो अनुभूति-प्रेरणा आदि प्राप्त हुई एवं उसके बाद के दर्शन की अनुभूति में कैसा/क्या आचार्य श्री विद्यासागर जी जब अपने शिष्य जनों को महसूस हुआ? मुनिदीक्षा, आर्यिकादीक्षा, ऐलकदीक्षा या क्षुल्लकदीक्षा उनके दर्शन के पहले उनके प्रति आपके क्या सोच विचार देते हैं, उस प्रसंग को देखकर आपके मन में क्या भाव थे तथा दर्शन के बाद अब क्या सोच विचार हैं? आया? नोट (अ) यह संकलन सात खण्डों में विभाजित है आचार्य श्री विद्यासागर जी जब किसी साधु, त्यागी, इस हेतु समस्त देशवासियों के विचार आमंत्रित हैं। आर्यिका माताओं की सल्लेखना-समाधिमरण कराते हैं, प्रश्न-उत्तर खण्ड -गद्य में उस प्रसंग को देखकर आप आचार्यश्री जी के बारे में दर्शन की अनुभूति खण्ड - गद्य में क्या सोचते हैं या उस वक्त आपको वे कैसे निदेशक दर्शन की अनुभूति एवं उस पर भावात्मक विचारों का चित्र लगते हैं? बनाएँ-चित्र खण्ड आचार्य श्री विद्यासागर जी के सामाजिक, चारित्रिक | 4. दर्शन की अनुभूति- काव्य पद्य खण्ड में एवं शिक्षा की उन्नति के कार्य देखकर आपको क्या | 5. हाथ से लिखे हुए विचार पत्र जो शुद्ध, सुन्दर लिखाई में प्रेरणा मिलती है? लिखे हों तथा पढ़ने समझ में आने वाले हों - हस्तलिखित आचार्य श्री विद्यासागर जी जब प्रतिक्रमण करते हैं, खण्ड। चिन्तन करते हैं, लेखन कार्य करते हैं, या स्वाध्याय | 6. , आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक आकड़ा खण्ड आदि कराते हैं, उस दृश्य को देखकर या उस समय की | 7. चारित्रिक-नैतिक आँकड़ा खण्ड मुद्रा देखकर आपके मन में क्या विचार आता है? (ब) इसके अतिरिक्त अपने मन से प्रश्न बनाकर भी उत्तर लिख सकते हैं तथा अन्य सुझाव भी दे सकते हैं। प्रश्नों के उत्तर आचार्य श्री विद्यासागर जी की मौन-मुद्रा या समय अथवा पृथक् से अपने विचार एक कागज में अलग से या अपने समय पर स्मित मुस्कान देखकर आप के मन में क्या लेटर पेड पर या सामान्य कागज पर लिखकर अपनी सील हो तो विचार-चिन्तन आता है? उसे लगाकर अन्त में अपने हस्ताक्षर करें और अपनी सुविधा के आचार्य श्री विद्यासागर जी की सुबह शाम की आचार्य अनुसार अन्य साधन से लिखकर भिजवा सकते हैं। भक्तिरूप गुरु वन्दना की क्रिया देखकर आप को किस (स) विचार-अनुभूति एवं प्रश्न-उत्तर पत्र के अन्त में प्रकार की शिक्षा-प्रेरणा मिलती है? अपने हस्ताक्षर करें एवं तारीख अवश्य लिखें, साथ में पूरा पता/फोन आचार्य श्री विद्यासागर जी के दर्शन कर एवं आशीर्वाद नम्बर को एस.टी.डी. कोड नम्बर सहित लिखें। स्कूल, कॉलेज में प्राप्त कर आपने क्या शारीरिक-स्वास्थ्यलाभ प्राप्त किया पढ़ने वाले विद्यार्थी अपनी शिक्षा भी लिखें। सर्विस करने वाले या समस्या का क्या कोई समाधान प्राप्त किया अथवा अपना पद एवं कार्यालय का पूरा पता भी लिखें, साथ में स्थायी उनकी आशीर्वाद की मुद्रा से आप को क्या शिक्षा, पता को एस.टी.डी. कोड नम्बर एवं फोन नम्बर तथा पिन कोड प्रेरणा मिली है? नम्बर के साथ में अवश्य ही लिखें। आचार्य श्री विद्यासागर जी आपके नगर, गाँव या शहर विशेष में जब पधारे थे, उस समय कोई अतिशय चमत्कार या 1. साहित्यकार एवं कवियों की कविताएँ इन्हीं सब विषयों पर घटना-संस्मरण आपकी स्मृति में हो, तो लिखकर भेजें आमंत्रित हैं। या उनके कहीं पर दर्शन करने आए हों उस समय की | 2. इन्हीं सब विषयों पर चित्रकारों के चित्र भी आमंत्रित हैं। स्मरणीय घटना आदि भी लिखकर भेजें। 3. समाज में विचार लिखवाने के लिए प्रतियोगिता कराई जा आचार्य श्री विद्यासागर जी आपके नगर, गाँव में जब सकती हैं तथा चित्र प्रतियोगिता। आए थे, उस समय का सन्, तारीख, दिन का उल्लेख 4. आवश्यकतानुसार संकलन का नाम या खण्डों में भी परिवर्तन किया जा सकता है। करते हुए अगवानी,प्रवेश, जुलूस, प्रवचन या अन्य कृपया अपने विचार, पत्र इस पते पर अतिशीघ्र भेजेंसमय के फोटोग्राफ हों, तो उन पर विवरण लिखकर 'जिनभाषित' भेजें, आहार-चर्या के फोटो ग्राफ छोड़कर। ए/2 मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल - 462 016 जून 2003 जिनभाषित 36. 37. 39. 26 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार क्षुल्लिका श्री वीरमती माता जी की समाधि नवापारा - राजिम । जैन समाज में वात्सल्यमयी एवं मृदुव्यवहार के लिए विख्यात श्रीमती चमेलीदेवी धर्मपत्नी. पं. सुरेशचंद जैन (पुत्रवधू स्व. पं. बालचंद जी जैन) ने अपनी अल्पायु का अनुभव करते हुए दिनांक १९/४/०३ को सल्लेखना का संकल्प लेते हुए दर्शन एवं व्रत प्रतिमा को ग्रहण किया पश्चात् क्रमश: प्रतिमाओं की साधना में वृद्धि करते हुए ब्रह्मचारिणी चमेलीदेवी ७ प्रतिमा के बाद गृह त्याग करके वर्णीभवन में साधनारत हो गईं। A दिनांक २४/४/०३ को विराजमान पूज्य क्षुल्लक विनयसागर जी महाराज से ब्रह्मचारिणी क्षपक चमेलीदेवी ने क्षुल्लिका के व्रत ग्रहण करने के लिए निवेदन करने पर महाराजश्री ने अपने उद्बोधन में कहा कि मुझे न तो दीक्षा देने का कोई अधिकार है और न ही मैं कोई दीक्षा दे रहा हूँ, मैं तो सिर्फ श्री जिनेन्द्रदेव को साक्षी मानकर क्षपक चमेलीदेवी को ११ प्रतिमाओं के व्रत दिलवा रहा हूँ । पश्चात् उपस्थित जनसमूह से एवं क्षपक के पारिवारिक जनों से स्वीकृति लेकर क्षुल्लिका दीक्षा के संस्कार विधिवत् कराकर क्षुल्लिका वीरमति माताजी के नाम से अलंकृत की गई वीरमति माताजी अपनी साधना में रत रहते हुए क्रमशः अन्नत्याग, रसत्याग के बाद जल पर २ दिन रहीं। अंत में स्वास्थ्य की क्षीणता एवं इंद्रियशक्ति की हीनता के कारण अंतिम समय अर्द्धचेतनावस्था जैसी स्थिति में रहीं एवं दि. ६/५/०३ को अंतिम समय आँखों को खोलकर बाजू में रखे हुए भगवान् पार्श्वनाथ के चित्र एवं आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चित्र को निहारते हुए चिरनिद्रा में लीन हो गई। मृत्यु महोत्सव की समाधि यात्रा में अपार जनसमूह द्वारा एकत्रित होकर माताजी को पद्मासन मुद्रा में पालकी में बैठाकर समाधि स्थल में विधि-विधान अनुसार चंदन लकड़ी-कपूर-घीनारियलों द्वारा अंतिम संस्कार की क्रिया ब्रह्मचारी द्वय संजय भैया एवं अखिलेश भैया द्वारा सम्पन्न कराई गई। पं. ऋषभकुमार शास्त्री नवापारा राजिम राजस्थान के चौदहवें राज्यपाल श्री निर्मलचन्द जी जैन बने केन्द्र सरकार ने विगत दिनों राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश एवं जम्मू-कश्मीर में नए राज्यपालों की नियुक्ति किए जाने हेतु राष्ट्रपति को नाम प्रेषित किये थे, उनमें से एक नाम जैन समाज के ख्यातिलब्ध एडवोकेट श्री निर्मलचन्द्र जी जैन जबलपुर का भी था । २ मई ०३ को राष्ट्रपति भवन से जारी अधिकारिक घोषणा में नव नियुक्त छह राज्यपालों में श्री निर्मल चन्द जैन को राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त किया गया । २४ सितम्बर १९२८ को जन्मे श्री जैन एम. ए. (अर्थशास्त्र) एवं एल. एल. बी. करके अधिवक्ता के रूप में कार्यरत हुये। एक पुत्र एवं तीन पुत्रियों के साथ धर्मपत्नी श्रीमती रोहिणी जैन सदा श्री जैन के सेवाभावी कार्यों में सह भागिता दर्ज कराती हैं । महाकौशल अंचल ही नहीं, बल्कि समस्त मध्यप्रदेश के जैन समाज के लिए यह गौरव की बात है कि जैन समाज का एक व्यक्ति इतने महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन हुआ है। हालाँकि गुजरात के निवर्तमान राज्यपाल श्री सुन्दरसिंह भंडारी तथा उ. प्र. के सहारनपुर के सुप्रसिद्ध राजनेता स्व. श्री अजित प्रसाद जैन तथा स्व. श्री जय सुखलाल हाथी जैसे कुशल राजनेता भी राज्यपाल के पद पर आसीन होकर जैन समाज का गौरव बढ़ा चुके हैं । किन्तु म.प्र. के लिए यह अवसर पहली बार मिला है, जब जैन समाज के एक वरिष्ठ जन को राज्यपाल का सम्मानित पद मिला । मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री जैन ने वर्ष १९६१ में जबलपुर के ऊषा भार्गव काण्ड में विशेष अभियोजक के रूप में नियुक्त होकर उस समय म.प्र. भर में धूम मचाई थी। सिवनी (म.प्र.) संसदीय निर्वाचन क्षेत्र का लोकसभा में प्रतिनिधित्व करते हुये श्री जैन ने क्षेत्र के सर्वांगीण विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था । म.प्र. में भाजपा की सुन्दरलाल पटवा की सरकार के समय म.प्र. उच्च न्यायालय में एडवोकेट जनरल रह चुके जैन की गिनती कुशल कानूनविद् के रूप में की जाती है। म.प्र. के बहुचर्चित चुरहट लाटरी काण्ड को सुर्खियों में लाकर श्री जैन के कारण प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ राजनेता अर्जुन सिंह को खासी राजनीतिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा था । म.प्र. भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष कैलाश जोशी ने तब उस संबंध में याचिका दायर की थी । निर्मलचंद जैन तब विशेषरूप से सुर्खियों में आए जब जून 2003 जिनभाषित 27 . Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९२ में पटवा सरकार की बर्खास्तगी के दौरान उन्होंने म.प्र. उच्च न्यायालय में याचिका दायर की और वहाँ फैसला हुआ कि पटवा सरकार की वर्खास्तगी गलत थी। श्री जैन ने ही जबलपुर हाई कोर्ट में गोवध निषेध अधिनियम के समर्थन में पैरवी करके जीत हासिल की थी। म.प्र. के पूर्व महाधिवक्ता श्री जैन एक कुशल अर्थ शास्त्री भी हैं। इसी कारण प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने आपको ग्यारहवें वित्त आयोग के सदस्य के रूप में चयनित किया था। राजस्थान के महामहिम पद के उत्तरदायित्व सौंपे जाने की जानकारी मिलते ही श्री जैन सर्वप्रथम सुप्रसिद्ध श्री दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह) पहुँचे एवं परम पूज्य श्री बड़े बाबा तीर्थंकर ऋषभदेव के चमत्कारी एवं अतिशयकारी जिनबिम्ब के श्री चरणों में श्री फल समर्पित किया। साथ ही क्षेत्र पर ग्रीष्मकालीन वाचना काल में विराजित जैन समाज के श्रेष्ठ संत दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के श्री चरणों में भक्तिपूर्वक श्री फल समर्पण करके मंगल आशीष प्राप्त किया। १४ मई ०३ को जयपुर में राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री अनिलदेव सिंह ने ७४ वर्षीय निर्मल चन्द जैन को राजभवन के लान में आयोजित गरिमापूर्ण एवं उत्साह भरे समारोह में १०.३० बजे राज्यपाल के रूप में पद एवं गोपीनयता की शपथ दिलाई। श्री जैन के द्वारा हिंदी में शपथ लेने के पूर्व राजस्थान के मुख्य सचिव आर. के. नायर ने राष्ट्रपति द्वारा श्री जैन की नियुक्ति से संबंधित अधिपत्र पढ़ा। शपथ ग्रहण समारोह में राजस्थान के मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री विधानसभा अध्यक्ष अनेक पूर्व मुख्यमंत्री, मंत्री परिषद् के सदस्य, उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष, वरिष्ठ प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारियों के साथ अन्य जनप्रतिनिधि, पत्रकार, गणमान्य नागरिक भी उपस्थित थे। श्री निर्मल चन्द जैन के राजस्थान के महामहिम राज्यपाल पद पर आसीन होने के अवसर पर जैन समाज की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें। डॉ. भागचन्द्र 'भास्कर' पुरस्कृत डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, पालि प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय एवं पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, अहिंसा इन्टरनेशनल डिप्टीमल आदीश्वर लाल जैन साहित्य पुरस्कार २००२ से सम्मानित किये गये । उन्हें यह सम्मान उनके विशिष्ट साहित्यिक योगदान पर २० अप्रैल को दिल्ली में आयोजित समारोह में श्री विजय गोयल केन्द्रीय मंत्री, भारत सरकार के हस्ते श्रीफल, शाल, प्रतीक चिह्न और इकतीस हजार की राशि के साथ प्रदान किया गया। दीपचन्द्र जैन, सदर, नागपुर 28 जून 2003 जिनभाषित डॉ. रमेशचन्द जैन, डी. लिट्. 'अहिंसा' के लिये पुरस्कृत श्री दिगम्बर जैन साहित्य, संस्कृति संरक्षण समिति, दिल्ली की ओर से जैन दर्शन के प्रमुख अध्येता, श्री अ. भा. दि. जैन विद्वत् परिषद् के पूर्व अध्यक्ष डॉ. रमेशचन्द्र जैन, डी. लिट. (वरिष्ठ संपादक पार्श्व ज्योति), बिजनौर (उ.प्र.) को उनके द्वारा लिखित 'अहिंसा' कृति पर समिति द्वारा पूर्व में घोषित प्रतियोगिता नियमों के अनुरूप निर्णायकों द्वारा सर्वश्रेष्ठ कृति अनुशंसित किये जाने पर परमपूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में एक महती धर्मसभा के मध्य समिति की संरक्षिका श्रीमती शिखरचन्द जैन एवं उनके सुपुत्र श्री प्रवीण कुमार जैन तथा परिजनों ने पुष्पहार, शाल, श्रीफल एवं ५१०००रु. की राशि भेंट कर पुरस्कृत किया। डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' 'जैन धर्म की मौलिक विशेषताएँ' कृति का विमोचन जैन दर्शन के प्रमुख अध्येता, अनेकान्त मनीषी डॉ. रमेशचन्द जैन, डी. लिट्, बिजनौर (उ.प्र.) द्वारा चार वर्ष के गहन शोध एवं अध्ययन के बाद लिखित 'जैन धर्म की मौलिक विशेषताएँ ग्रंथ का विमोचन प. पू. उपाध्याय श्री नयनसागर जी महाराज एवं पूज्य क्षु. श्री समर्पण सागर जी महाराज के सान्निध्य में जलालाबाद (उत्तरांचल) में सम्पन्न हुआ । डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' खानपुर (चांदखेड़ी जिला- झालावाड़) के श्री शंकरलाल जैन की सुपुत्री शशि जैन लगातार परिश्रम, अध्ययनशीलता, दृढसंकल्प एवं प्रबल इच्छा शक्ति के परिणाम स्वरूप सत्र २००२-२००३ में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के कलावर्ग की बारहवीं कक्षा में ८६ प्रतिशत अंक अर्जित कर प्रथम स्थान पर रहीं। उन्हें अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। अभिनन्दन । चातुर्मास हेतु निवेदन बड़े बाबा कुण्डलपुर में विराजित छोटे बाबा संत शिरोमणि महान् दिगम्बराचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज को अजमेर के १५० धर्मानुरागी बन्धुओं ने श्री कुमुद सोनी, श्री अजय दनगसिया, श्री अशोक साह बजाज, श्री हीराचन्द जैन, श्री युवराज कासलीवाल आदि के साथ दिनांक २७ अप्रैल २००३ को अजमेर चातुर्मास हेतु निवेदन किया व श्रीफल समर्पित किये। मधुसूदन जैन " Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनांक २५ व २८ अप्रैल को उपर्युक्त महानुभावों ने विज्ञाननगर कोटा में विराजित मुनि १०८ श्री क्षमासागर जी एवं भव्यसागर जी महाराज ससंघ को अजमेर चातुर्मास हेतु निवेदन किया व श्रीफल समर्पित किये। आचार्य श्री अभी बड़े बाबा मन्दिर के जीर्णोद्धार में तथा ग्रीष्मकालीन वाचना में कुण्डलपुर विराज रहे हैं। आचार्यश्री से आग्रहपूर्वक निवेदन किया कि अगर आपका आगमन चातुर्मास हेतु अभी संभव न हो तो अपने सुशिष्य मुनि १०८ श्री क्षमासागरजी महाराज को अजमेर चातुर्मास हेतु निर्देश प्रदान करने की अनुकम्पा करें हीराचन्द जैन प्रचार प्रसार संयोजक ३ च १८ कंचन सदन, वैशाली नगर, अजमेर वर्णी जी की धर्मस्थली शाहपुर में प्राकृत भाषा प्रशिक्षण सम्पन्न बुन्देलखण्ड के आध्यात्मिक सत्पुरुष, ज्ञान के प्रचारक परम श्रद्धेय क्षु. १०५ गणेश प्रसाद जी वर्णी की धार्मिक-साधना स्थली शाहपुर गणेशगंज (सागर) में अनेकान्त ज्ञान मंदिर शोध संस्थान, बीना द्वारा २२ अप्रैल से ३० अप्रैल तक ऐतिहासिक प्राकृत भाषा एवं ध्यान शिविर का अनूठा आयोजन ब्र. संदीप जी 'सरल' के पावन निर्देशन में मधुर स्मृतियों के साथ सम्पन्न हुआ । अनेकान्त वर्णी वाचनालय की स्थापना १ मई ०३ को शिविर समापन के अवसर पर अनेकान्त ज्ञान मंदिर शोध संस्थान, बीना की १७ वीं शाखा अनेकान्त वर्णी वाचनालय की शाहपुर, में स्थापना की गई। श्रद्धेय वर्णी जी की धर्मस्थली में स्थापित यह वाचनालय न सिर्फ वर्णी जी की पुण्यस्मृतियों की याद दिलाता रहेगा, अपितु आबाल-वृद्ध, नर नारियों में ज्ञान के प्रति जन चेतना जागृत करेगा । वाचनालय में चारों अनुयोगों के ग्रन्थों के साथ-साथ बालोपयोगी कथा साहित्य एवं धार्मिक पत्र-पत्रिकाओं का भी समायोजन किया गया है। वाचनालय में समस्त ग्रन्थों का वर्गीकरण किया जा चुका है। अनेकान्त वर्णी वाचनालय के विधिवत् संचालन के लिए स्थानीय समाज के उत्साही लोगों की संचालन समिति बनाकर कार्यभार सौंपा गया। समस्त समाज के बन्धुओं ने वाचनालय स्थापना के अवसर पर माँ जिनवाणी की स्थापना करते हुए आरती सम्पन्न की। पारस जैन शिवपुरी संग्रहालय शिवपुरी जिला संग्रहालय की स्थापना १९६२ में हुई। संग्रहालय में वर्तमान में लगभग ६५० मूर्तियाँ हैं, जिसमें ४०० से अधिक जैन मूर्तियाँ ९ वीं से १८ वीं शताब्दी की हैं। ६०० सिक्के ब्रिटिश, मुस्लिम शासन काल के हैं, २४ पेन्टिंग लघु चित्र एवं ९ पोट्री हैं। क्षेत्रीय विधायिका श्रीमती यशोधरा राजे सिंधिया के विशेष प्रवासों से संग्रहालय का विस्तार कर विकास किया जा रहा है। संग्रहालयाध्यक्ष डॉ. चैतन्य सक्सेना एवं वरिष्ठ मार्गदर्शक जी. पी. सिंह चौहान से मिली जानकारी के अनुसार ११ सितम्बर २००२ को अधीक्षण पुराविद् श्री ओटा सा. के साथ दिल्ली, ग्वालियर, हैदराबाद एवं सी. पी. डब्लू डी की एक टीम सर्वेक्षण हेतु आई थी। जो विस्तृत सर्वेक्षण करके गई है। यह राज्य स्तरीय संग्रहालय अब केन्द्र की सहायता से अपने आप में देश का अनूठा संग्रहालय होगा। वर्तमान में शिवपुरी-गुना दोनों जिलों का कार्यक्षेत्र शिवपुरी जिला संग्रहालय है, इसलिये संग्रहालय में टेलीफोन, कम्प्यूटर एवं जीप अति आवश्यक है। इन सुविधाओं से दोनों जिलों में बिखरी हुई पुरातात्त्विक संपदा के अभिलेख रख-रखाव एवं विकास में प्रगति अधिक संभव है। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ संरक्षिणी महासभा के पुरातत्त्व संपर्क अधिकारी श्री सुरेश जैन मारौरा ने अपनी टीम के साथ एक सर्वेक्षण किया। जिसमें बताया कि विकास खण्ड पोहरी के अंतर्गत पिपरधार, घटाई, वेरजा, पवाराई, ईदार एवं विकास खण्ड पिछोर के अन्तर्गत देवगढ़, मोती, करारखेड़ा, कमलेश्वर, खुरई महादेव, मनपुरा, मायापुर, गोचोनी, जराय ढला आदि ग्रामों में अपार सम्पदा बिखरी पढ़ी है । इसके लिये महासभा का निर्देशन प्राप्तकर संग्रहालय अध्यक्ष को अवगत कराया जायेगा । सुरेश जैन पारीरा, शिवपुरी (म.प्र.) ज्ञान-विद्या जैन शोध पीठ अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह की संस्कृति ने समूची मानवता को प्रेरित प्रभावित, विकास के सोपान सौंपे हैं। यह प्रक्रिया सतत समूची दुनिया को प्रकाशवान् बनाये रखे, इस हेतु अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा ने जैन समाज के आग्रह पर ज्ञान विद्या जैन शोध पीठ स्थापना की सैद्धान्तिक स्वीकृति दी है । व्यवहारिक रूप से इसे शुरु करने हेतु सम्पूर्ण जैन समाज से रुपये ३० लाख के अनुदान की माँग भी की है। यह प्रक्रिया पूरी होने पर म.प्र. शासन भोपाल एवं यू.जी.सी. नई दिल्ली से भी इतनी ही राशि का अनुदान मिलने की संभावना रहेगी। आप इस संस्कृति के विद्वान्/उदारमना व्यक्तित्व हैं। कृपया इस शुभ आयोजन में अपनी सक्रिय भूमिका अदा कर इसे मंजिल तक पहुँचाने में मदद करें। हम इस दिशा में आपके महत् सहयोग / मार्गदर्शन का स्वागत करेंगे। डॉ. बारेलाल जैन संयोजक ज्ञान-विद्या जैन शोध पीठ हिन्दी विभाग अ.प्र.सिं.वि.वि., रीवा जून 2003 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्याचार्य डॉ. (पं.) पन्नालाल जी के पुण्य । पूर्व प्राचार्य, श्री एस. पी. जैन गुरुकुल उच्च.माध्य.विद्यालय खुरई, स्मरण पर आयोजित नव प्रतिभा प्रोत्साहन सागर रहे। इस सत्र में भी विषय विशेषज्ञ के रूप में डॉ. भागचन्द जी 'भास्कर' नागपुर, श्री ऋषभचन्द जैन 'फौजदार' वैशाली एवं संगोष्ठी : एक झलक डॉ. भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' दमोह उपस्थित थे। पूज्य मुनि श्री १०५ विभवसागर जी महाराज ने इस अवसर संगोष्ठी में प्रथम वक्ता के रूप में कु. चन्द्रकान्ता जैन, पर अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा कि डॉ. पं. पन्नालाल जी सागर 'आदिपुराण में प्रतिपादित शिक्षा शास्त्रीय मान्यताओं का ज्ञान के क्षेत्र में सूर्य के समान रहे। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, वर्तमान सन्दर्भ में परिशीलन' विषय पर शोध आलेख का वाचन लेकिन उनके द्वारा जो साहित्य सृजन किया गया है, वह अमूल्य किया। द्वितीय वक्ता के रूप में कु. रितु विश्वकर्मा दमोह ने 'जैन निधि के रूप में है। पं. जी के सिद्धान्तों, आदर्शों का अनुसरण दर्शन में ऊँकार की अवधारणा' विषय पर शोध आलेख का करके हम अपना जीवन उन्नत बना सकते हैं। हम उनके द्वारा वाचन किया। इसी मध्य साहित्याचार्य डॉ. पं. पन्नालाल जी के सृजित साहित्य, जिनवाणी का चिन्तन/मनन करें व उसे अपने कृतित्व व व्यक्तित्व पर आधारित स्मारिका वसंत परिमल २००३ जीवन में उतारें। यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजली होगी। का विमोचन श्रीमंत सेठ डालचन्द के कर कमलों द्वारा सम्पन्न श्री पी.सी. जैन, प्रोफेसर गणित विभाग, शासकीय विज्ञान हुआ। तत्पश्चात् विमोचित प्रतियाँ उनके द्वारा मुनिद्वय को भेंट की महाविद्यालय, सागर ने डॉ. पन्नालाल जी के प्रति श्रद्धांजली व्यक्त गईं। संगोष्ठी में अन्य वक्ताओं में श्री सुनील जैन, सागर ने 'भारतीय करते हुए उनकी जीवन शैली, साहित्य व शिक्षा के क्षेत्र में उनके ज्योतिष वाङ्मय में जैन ज्योतिष वाङ्मय का अवदान' व कु. अविस्मरणीय योगदान के ऊपर प्रकाश डाला। तत्पश्चात् वन्दना जैन, ने 'विदिशा जिला का जैन सांस्कृतिक वैभव' विषय राजनांदगाँव से आगत प्रथम प्रतिभागी श्रीमती अनीता जैन ने नव पर प्रकाश डाला। पूर्व शिक्षामंत्री श्री प्रकाश जैन गिड्डे ने अपने प्रतिभा प्रोत्साहन संगोष्ठी में 'गृहस्थ जीवन में ध्यान व योग' सम्बोधन में पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य को जैन समाज का विषय पर अपने पत्र का वाचन किया। द्वितीय वक्ता के रूप में कु. श्रेष्ठ विद्वान बताते हुए अपनी श्रद्धांजली अर्पित की। शोध पत्रों के रेखा जैन, दमोह ने 'जैन अनुशासन के मूलतत्त्व' विषय पर शोध वाचन के उपरान्त मुनिश्री १०५ विभवसागर जी महाराज के आलेख प्रस्तुत किया। श्री ऋषभ समैया 'जलज' सागर ने पं. मांगलिक प्रवचन हुये। तत्पश्चात् आगत विद्वज्जनों ने पं. जी के पन्नालाल जी पर भावपूर्ण कविता का पाठ कर श्रोताओं को प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित किये। मुख्य अतिथि श्रीमंत सेठ डालचन्द भावविह्वल कर दिया। मुख्य अतिथि डॉ. जीवनलाल जी ने सुप्रसिद्ध जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि पं. जी ज्ञान के भंडार थे। उन्होंने साहित्य मनीषी डॉ. पन्नालाल जी के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित अपनी गतिशील लेखनी से आगम ग्रन्थों के अध्ययन, स्वाध्याय करते हुए कहा कि पं. जी ज्ञान व आचरण के अद्भुत संगम थे। का सुगम मार्ग उपलब्ध कराया है। वह सदैव स्मरणीय रहेगा। उनके अपने गुरु के प्रति असीम समर्पण के भाव थे। उनकी आज्ञा कार्यक्रम अध्यक्ष डॉ. नेमीचन्द्र जी ने कहा कि पं. जी संपूर्ण देश को शिरोधार्य कर उन्होंने श्री गणेश वर्णी संस्कृत महाविद्यालय, के गौरव थे। देशवासी उनकी सराहनीय सेवाओं के लिये उन्हें सागर में अल्प वेतन पर ही अपनी दीर्घकालीन सेवायें दीं। उच्चवेतन युगों-युगों तक याद रखेंगे। इस कार्यक्रम में अनेक विद्वज्जनों व पर कहीं भी अन्यत्र जाने की भावना नहीं की। ऐसे उनके गुरु के श्रेष्ठी वर्ग का समागम हुआ। प्रति त्याग के भाव रहे। पं. जी अध्ययन व अध्यापन कार्य में राकेश जैन निरन्तर मन, वचन व कर्म से संलग्न रहा करते थे। यही उनकी दिल्ली में प्रशिक्षण शिविर सानंद सम्पन्न सफलता का सूत्र रहा। श्री वर्णी दि. जैन गुरुकुल पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर के कार्यक्रम के अध्यक्ष डॉ. नेगी ने अपने उद्बोधन में कहा तत्त्वावधान में १५ मई से २५ मई २००३ तक दिल्ली में विभिन्न कि- पं. पन्नालाल जी अपने गुरुवर प्रातःस्मरणीय पूज्य गणेशप्रसाद स्थानों पर अध्यात्मिक एवं धार्मिक प्रशिक्षण शिविर सम्पन्न हुआ। जी वर्णी की वाणी थे। वर्णी जी के मनन, चिन्तन व आदर्शों को जिसमें आर्यपुरा (सब्जी मंडी), शालीमार बाग आदि के हजारों उन्होंने हृदयंगम कर उन्हें अपनी लेखनी से उतारा है। पं. जी जैन श्रद्धालुओं ने भाग लेकर धर्म लाभ लिया। प्रशिक्षण प्रदान करने दर्शन के मूलसिद्धान्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की श्री वर्णी गुरुकुल से अधिष्ठाता श्री ब्र.जिनेश जी शास्त्री',ब. महेश त्रिवेणी थे। जी, ब्र. त्रिलोक जी, ब्र. नरेश जी, ब्र, महेन्द्र जी एवं ब्र. पुष्पेन्द्र जी संगोष्ठी का द्वितीय सत्र अपराह्न २.३० बजे परम पूज्य एवं विजय भाईसाहब् पहुँचे थे। मुनिद्वय श्री विभवसागर जी महाराज एवं मुनिश्री विश्वशीलसागर प्राचार्य जी महाराज के मंगल सान्निध्य में प्रारंभ किया गया। इस सत्र में श्री वर्णी दि. जैन गुरुकुल मुख्य अतिथि श्रीमंत सेठ डालचन्द जैन, पूर्व सांसद व कोषाध्यक्ष, उ.मा.वि.मढ़िया जी म.प्र. कांग्रेस कमेटी (ई) सागर तथा अध्यक्ष डॉ. नेमीचन्द जैन, | जबलपुर (म.प्र.) 30 जून 2003 जिनभाषित - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर उदासीन आश्रम कुण्डलपुर के । टी.वी. सुमित्रा देवी, तुमकूर को समर्पित किया गया। एवं श्री नवीन आश्रम हेतु भूमि पूजन सर्वेश जैन, मूडबिद्री, को 'श्री ए.आर. नागराज प्रशस्ति' से सम्मानित किया गया। श्री १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के ससंघ डॉ. एन. सुरेश कुमार सान्निध्य में ता. ८ जून २००३ को साहू गेस्ट हाऊस के पूर्व में तालाब के किनारे छह घरिया मार्ग पर क्षेत्र कमेटी द्वारा पुराने श्री स्वदेश जैन का आकस्मिक निधन जर्जर भवन को ध्यान में रखते हुए, भूमि आवंटित की है। जबलपुर (म.प्र.) के एक प्रमुख समाज सेवी, प्रतिष्ठित इस भूमि पर १९१५ में बने उदासीन आश्रम के संस्थापक | व्यवसायी एवं समर्पित निष्ठावान कांग्रेसजन श्री स्वदेश जैन का जो स्व. ब्र. गोकुल चन्द जी वर्णी ने त्यागियों, व्रतियों तथा गृह से कि "भालू सेठ" के लोकप्रिय संबोधन से संबोधित किये जाते उदासीन श्रावकों को आत्म सम्मान पूर्वक जीवन यापन द्वारा समाधि | थे, आकस्मिक और असामयिक निधन गत ८ जून की रात्रि को साधना का लक्ष्य बनाया था। विगत् ८८ वर्ष से क्षेत्र पर स्वतंत्र उपनगरीय मदनमहल रेल्वे स्टेशन के समीप एक ट्रेन दुर्घटना में इकाई के रूप में चलते इस आश्रम को नए भवन में स्थापित करने हो गया। का श्रेय (अनुदान) स.सि. कन्हैया लाल गिरधारी लाल श्री चन्द्रप्रभु सुबोध जैन दिगम्बर जैन मंदिर कटनी को प्राप्त है। श्री कैलाश मडबैया, बुन्देलखण्ड परिषद के आचार्य श्री के आशीर्वाद एवं सान्निध्य में तथा कमेटी राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित एवं यात्रियों की उपस्थिति में पूजनादि क्रियाएँ स.सि. प्रसन्न कुमार भोपाल, दि. ६ जून २००३ "बुन्देली समारोह-२००३" अमर चंद द्वारा सम्पन्न की गईं। के दूसरे दिन स्वराज भवन में "अखिल भारतीय बुन्देलखण्ड छह माह में यह भवन तैयार हो जायगा। अधिष्ठाता के साहित्य एवं संस्कृति परिषद्" के श्री कैलाश मड़बैया पुन: राष्ट्रीय लिए गृहविरत, ब्रह्मचारी, वृद्धश्रावक जिन्होंने समाधिसाधना का लक्ष्य बनाया हो आवेदन करें। अध्यक्ष चुने गये। मनोज जैन ब्र. अमरचन्द्र जैन श्री महावीर उदासीन आश्रम ग्रीष्मकालीन शिक्षण शिविरों की श्रृंखला से कुण्डलपुर (दमोह) अपर्व धर्म प्रभावना डॉ. सुदीप जैन 'गोम्मटेश विद्यापीठ प्रशस्ति' कोपरगाँव- श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर के सान्निध्य (२००३) से सम्मानित में दिनांक १ मई से १४ मई तक का शिविर सन्मति सेवादल द्वारा श्री एस.डी.एम.आई. मैनेजिंग कमेटी, श्रवणबेलगोला | आयोजित किया गया। श्रमण संस्कृति संस्थान के अधिष्ठाता विद्वत् (कर्नाटक) के द्वारा स्थापित एवं संचालित दक्षिण भारत के श्रेष्ठी श्रीमान् रतनलाल जी बैनाड़ा अपने सहयोगियों एवं ज्ञानपीठ पुरस्कार के समान प्रतिष्ठित 'श्री गोम्मटेश विद्यापीठ ब्रह्मचारीगणों के साथ दिनांक १ मई को कोपरगाँव स्टेशन पर जैसे पुरस्कार' (वर्ष २००३) का समर्पण-समारोह दिनांक १४.४.२००३ ही उतरे सन्मति सेवादल के कार्यकर्ताओं द्वारा अभूतपूर्व, भावभीना को सायंकाल ७.०० बजे श्रीक्षेत्र श्रवणबेलगोला में भव्य स्वागत किया गया। समारोहपूर्वक सम्पन्न हुआ। इसमें उत्तर भारत के विशिष्ट विद्वान् दिनांक २ मई को पूरे कोपरगाँव में भव्य जिनवाणी डॉ. सुदीप जैन को प्राकृतभाषा और साहित्य के क्षेत्र में अनन्य शोभायात्रा निकाली गई एवं सभी साधर्मी भाइयों ने अपने द्वार पर योगदान के लिए इस वर्ष का 'गोम्मटेश विद्यापीठ प्रशस्ति पुरस्कार' जिनवाणी की आरती उतारकर भक्ति भाव से अर्चना की। दिनांक समर्पित किया गया। पुरस्कार-समिति के कार्याध्यक्ष श्री ए. शांतिराज ३ मई को शिविर का उद्घाटन हुआ। 12-12 घंटे के चार सत्र शास्त्री एवं कार्यादर्शी श्री एस.एन. अशोक कुमार की देखरेख में धार्मिक शिक्षण के लगते थे। रात्रि में स्कूल की फील्ड में शांत एवं गरिमापूर्वक आयोजित इस समारोह में पूज्य भट्टारक स्वस्तिश्री चारुकीर्ति स्वामी जी ने अपने करकमलों से डॉ. सुदीप जैन को प्रसन्न वातावरण में ८ बजे से विद्वत् श्रेष्ठी श्रीमान् रतनलाल जी माल्यार्पण, शॉल, श्रीफल एवं प्रशस्ति-पत्र सहित यह सम्मान बैनाड़ा द्वारा भक्तामर स्तोत्र के चार काव्यों का उच्चारण एवं अर्थ प्रदान किया। सिखाया जाता था, तदुपरांत ४५ मिनिट तत्व चर्चा/शंका समाधान इस समारोह में तीन दक्षिण भारतीय विद्वानों को भी उनके होता था। कोपरगाँव से लगभग ४०० शिविरार्थियों ने तथा पूरे विशेष योगदान के लिए सम्मानित किया गया। वे हैं - महाराष्ट्र से आए हुए २५० शिविरार्थियों ने शिविर में अध्ययन १. श्री पी.सी. गुंडवाडे (रिटायर्ड जज) बेलगाम, २. श्री किया। रात्रि में लगने वाली कक्षा में तो पूरी समाज एवं श्वेताम्बर रतनचंद नेमिचंद कोठी, इंडी ३. डॉ. सरस्वती विजय कुमार, । समाज के लोगों ने भी उत्साह पूर्वक भाग लिया। मैसूर । इनके साथ ही दिनांक १६.४.२००३ को आयोजित कार्यक्रम | शिविर द्वारा ज्ञानार्जन तो हुआ ही, साथ ही सभी शिविरार्थियों में 'श्री गोम्मटेश्वर विद्यापीठ सांस्कृतिक पुरस्कार' भी श्रीमती | को सच्चरित्र बनाने के लिए विभिन्न नियम भी दिलाए गए। - जून 2003 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०-५० शिविरार्थियों को दशलक्षण पर्व में प्रवचन देने सेक्टर-७ आगरा में संयुक्त रुप से विद्वत् श्रेष्ठी श्रीमान् निरंजनलाल का भी अभ्यास कराया गया। शिविर में बालबोध, छहढ़ाला | जी रतनलाल जी बैनाड़ा के निर्देशन में शिविर सम्पन्न हुआ। तत्वार्थसूत्र तथा समयसार का अध्ययन कराया गया। प्रतिदिन प्रातः एवं सांय 1/2 -1/2 घंटे की कक्षाओं में तत्वार्थ सूत्र का अध्ययन कराने वाली श्रीमती पुष्पा बैनाड़ा | बालबोध, छहढाला, तत्वार्थसूत्र एवं "कुन्द कुन्द का कुन्दन" एवं समय सार का अध्ययन कराने वाले विद्वत् श्रेष्ठी श्रीमान् रतनलाल | ग्रंथों का अध्ययन कराया जाता था। श्रमण संस्कृति संस्थान के जी बैनाड़ा की सभी लोगों ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की। कोपरगाँव अधिष्ठाता विद्वत् श्रेष्ठी श्रीमान् रतनलाल जी बैनाड़ा स्वयं "कुन्द की समाज ने अगले ५ वर्षों तक शिविर लगाने का संकल्प लिया कुन्द का कुन्दन" के ग्रन्थ का अध्यापन कराते थे। दोनों स्थानों पर करीब ३५० शिविरार्थियों ने अध्ययन किया तथा सभी को बारामती- श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर के सान्निध्य सच्चरित्र बनाने के लिए कुछ न कुछ नियम जरुर लेने को प्रोत्साहित में दिनांक २८ मई २००३ से ५ जून २००३ तक श्री दिगम्बर जैन किया गया। दिनांक १९ जून को पुरस्कार वितरण के साथ भव्य समाज बारामती द्वारा महावीर भवन में शिविर का आयोजन किया समारोह में समापन सम्पन्न हुआ। गया। पं. सुनील शास्त्री प्रत्येक दिन श्रमण संस्कृति संस्थान के विद्वानों द्वारा 1/2 ९६२, सेक्टर-७ बोदला, आगरा -12 घंटे के चार सत्रों में बालबोध, छहढ़ाला, द्रव्य संग्रह, फोन नं. २२७७०९२ तत्वार्थसूत्र का अध्ययन कराया जाता था। रात्रि में ३०-४० मिनिट | डॉ. श्रेयांस कुमार जैन बड़ौत को मातृ-शोक इष्टोपदेश का उच्चारण एवं अर्थ की कक्षा श्री पी.सी. पहाड़िया जैन जगत के मनीषी विद्वान अ.भा. दिगम्बर जैन शास्त्री भीलवाड़ा वाले लेते थे, तदुपरांत श्रमण संस्कृति संस्थान के अधिष्ठाता परिषद के उपाध्यक्ष डॉ. श्रेयांस कुमार जैन (बड़ौत) की माता जी विद्वत् श्रेष्ठी श्रीमान् रतन लाल जी बैनाड़ा स्वयं ३०-४० मिनिट श्रीमती रजन देवी जैन ध.प. श्री जोरावल जैन का स्वर्गवास धर्मध्यान तत्व चर्चा की कक्षा लेते थे। करीब २००-२५० शिविरार्थियों ने पूर्वक ग्राम दुमदुमा (म.प्र.) में ६ जून २००३ को हो गया। श्रीमती ज्ञानार्जन का लाभ लिया। रजन देवी जैन की आयु ८२ वर्ष की थी। धर्मपरायणा, मुनिभक्ता तारंगा- दिनांक १८ मई से २४ मई तक शिविर का श्रीमती रजनदेवी जी ने अपने जीवन काल में प्रतिमा स्थापना और आयोजन सम्पन्न हुआ। करीब २५० शिविरार्थियों ने अध्ययन वेदिका निर्माण आदि अनेक धार्मिक कार्य सम्पन्न किए। सरल किया। श्रमण संस्कृति संस्थान सांगनेर से आए हुए विद्वानों द्वारा स्वभावी श्रीमती रजन देवी जैन अन्तिम क्षण तक णमोकार मंत्र शिक्षण कार्य सम्पन्न कराया गया। का स्मरण करती रहीं, हम उनकी सद्गति हेतु प्रार्थना करते हैं। ईडर-श्री १००८ चिंतामणि पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में दिनांक २५ मई से ३० मई तक शिविर अपूर्व धर्म प्रभावना के सहायता प्राप्त साथ सम्पन्न हुआ। धूलियान (मुर्शिदाबाद) निवासी श्री मोहनलाल जी अजमेरा शिविर में श्रमण संस्कृति संस्थान से आये हुए विद्वानों (फर्म मै. धन्नालाल जी मोहन लाल जी) के सुपौत्र एवं जिनेन्द्र द्वारा बालबोध, छहढ़ाला का अध्यापन कराया गया। प्रथम शिविर | कुमार जैन सी.ए. कलकत्ता के सुपुत्र चि. राजीव कुमार के साथ होते हुए भी करीब ४०० शिविरार्थियों ने अध्ययन किया। गौहाटी निवासी श्री सुशील कुमार रारा की सुपुत्री सौ. निधि के आगरा- श्री १००८ पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, | शुभ विवाह के अवसर पर दिनांक १४.१२.०२ को रु. २५०/- की छीपीटोला एवं श्री दि. जैन मंदिर, आवास विकास कॉलोनी, | सहायता राशि प्राप्त हुई। आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुभाषित परमार्थ अभिव्यक्त होने पर शब्द बौने/निरर्थक से हो जाते हैं, अतः शब्दों के माध्यम से स्वयं जागें और परमार्थ की अभिव्यक्ति कर उसका रसपान करें। शब्दों के माध्यम से मन जितना-जितना अर्थ की ओर जाता है उसकी एकाग्रता उतनी ही बढ़ती जाती है। वास्तविक उपदेश वह है जिसके द्वारा हम अपने देश (आत्मा) के पास आ सकें अन्यथा वह उपदेश उपदेश नहीं पर- देश ही समझो। 32 जून 2003 जिनभाषित - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदलगा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पर विशेष आवरण जारी विगत दिनों कर्नाटक की संत प्रसविनी पवित्र धरा पर एक ऐतिहासिक प्रतिष्ठा महोत्सव सानंद एवं निर्विघ्न संपन्न हुआ था । बेलगांव जिले की सीमा के अंतिम छोर पर चिक्कोडी तालुका के अंतर्गत 'सदलगा' वह गाँव अवस्थित है जिसने अनेक दिगम्बर जैन सन्त एवं डॉ. एन. एन. उपाध्ये जैसे मनीषी समाज को दिये हैं। भले ही नगर के सुश्रेष्ठ श्रावक श्री मल्लप्पा जी अष्टगे की धर्मांगिनी श्रीमती श्रीमती जी अष्टगे की कुक्षी से बालक 'विद्याधर' का जन्म १० अक्टूबर १९४६ को चिक्कोड़ी के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में हुआ था । किन्तु बालक गिनी, मरी, तोता आदि उपनामधारी 'विद्याधर' का लालन पालन जिस पवित्र भूमि में हुआ था, सहोदर अनन्तनाथ, शांतिनाथ जैसे भ्राता एवं शांता और सुवर्णा जैसी भगिनियों के साथ ज्येष्ठ भ्राता महावीर ने भी जहाँ जन्म लिया था, उस भूमि के विशिष्ट स्पर्श से ही प्रायः पूरा घर वैराग्यरूपी मोक्षपथ पर आरुढ़ हो गया। प्रसाद जैन ( २ / ११ रूपनगर, देहली- ११०००७, फोन०११ - २३९१७३८९३/२३९३५६८२ ) के परिजन एवं साथीजनों ने इस स्थली को जिनायतन का रूप देने का कार्य श्री महावीर अष्टगे परिवार तथा सदलगा निवासी जैन बन्धुओं के सहयोग से प्रारम्भ किया। और वह अतिशीघ्र अब 'कल्याणोदय तीर्थ' का रूप धारण कर सके, इस पवित्र भावना से अष्टधातु से निर्मित तीर्थंकर शांतिनाथ भगवान् की पद्मासनस्थ प्रतिमा का निर्माण जयपुर में कराकर धर्म प्रभावना पूर्वक सदलगा के इस जिनालय हेतु लाई गई। २ फरवरी से ८ फरवरी २००३ तक इस अतिमनोज्ञ जिनबिंब की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव मुनि श्री नियमसागर जी महाराज एवं आर्यिका गुरुमति जी के ससंघ सान्निध्य में लगभग १२० पिच्छिका सौरभ मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक एवं क्षुल्लिका माता जी एवं सैकड़ों ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणियों तथा त्यागी वृन्दों की उपस्थिति में प्रतिष्ठाचार्य प्रदीप जैन अशोक नगर द्वारा शास्त्रोक्त विधिविधान पूर्वक संपन्न हुआ। दक्षिण भारत जैन सभा, वीर सेवादल, पूर्व सांसद श्री अवाड़े, श्री सुरेन्द्र प्रधाने आदि के मार्गदर्शन में उस अंचल के प्रत्येक परिवार के किसी न किसी रूप में इस महोत्सव में सहभागी होने से लोगों की भीड़ होने के बाबजूद तथा पुलिस की उपस्थिति के बिना भी सारा महोत्सव निर्विघ्न सानंद सम्पन्न हुआ । इस विशिष्ट अवसर पर प्रतिष्प आयोजन समिति के सूत्रधार श्री महावीर प्रसाद जैन दिल्ली ने प्रयास करके एक विशेष आवरण जारी करवाया है। उस पर एक ओर जहाँ संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की प्रसन्न मुद्रा है, तो दूसरी ओर स्थापित होने जा रहे शांतिनाथ भगवान् की अष्टधातुमय बिम्ब के बीच में भव्य, आकर्षक शिल्पांकन युक्त शांतिनाथ जिनालय भी दृष्टिगोचर होता है । ८ फरवरी को पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के उल्लेख युक्त पूज्य गुरुदेव के चित्र सहित विशेष डाक मुहर (सील) डाक तार विभाग द्वारा जारी की गई थी। यह विशेष डाकमुहर युक्त रंगीन आवरण श्री महावीर प्रसाद जैन, दिल्ली के उपर्युक्त पते पर संपर्क करके प्राप्त किया जा सकता है। आचार्य श्री शांतिसागर जी से नववर्ष की बाल्यावस्था में जागरण के सूर्यग्रहण करने वाले 'विद्याधर' ने आचार्य देशभूषण जी से ब्रह्मचर्य व्रत सप्तमप्रतिमाधारण की और मुनिश्रेष्ठ श्री ज्ञानसागर जी महाराज से जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर 'विद्याधर' से 'मुनि विद्यासागर' बन गए। 'खरबूजा का संग पाकर खरबूजे का रंग बदलना' उक्ति सार्थक हो उठी । और फिर आचार्य विद्यासागर जी से दीक्षा पाकर शांतिनाथ जी बन गए 'मुनि समय सागर जी' एवं अनंतनाथ जी बन गए 'मुनि योगसागर जी'। भरे-पूरे परिवार की तीन पवित्र आत्माओं की वैराग्यदशा से प्रेरणा लेकर आचार्य प्रवर श्री धर्मसागर जी महाराज से दीक्षा पाकर पिता श्री मल्लप्पा जी हुए 'मुनि श्री मल्लिसागर जी एवं माता श्रीमती जी हुई आर्यिका श्री समयमती जी । इन्हीं के साथ शांता और सुवर्णा ने भी चारित्र का मार्ग अंगीकार कर लिया। एक ही परिवार के ८ में से ७ सदस्य कल्याण- पथ पर अविराम रूप से यात्रा करने लगे । ऐसे पुण्य शाली परिवार ने जहाँ पर गृहस्थ जीवन में श्रावकोचित षट्आवश्यकों का यथोक्त परिपालन किया था, वही स्थली 'कल्याणोदय तीर्थ' श्री १००८ शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर के रूप में जैन समाज के बीच धर्माराधना का केन्द्र बनने वाली थी। दिल्ली निवासी श्री महावीर शाह मुकेश जैन 'एडव्होकेट' प्रचार मंत्री, जय कुमार जैन 'जलज' Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि.नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 विशेष आवरण पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव "कल्याणोदय तीर्थ" सदलगा (कर्नाटक) 591 239 दिनांक 2 फरवरी 2003 से 8 फरवरी 2003 श्री 1008 शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर जन्मभूमि-विद्याधर (संतशिरोमणि दिगम्बर जैन आचार्य श्री 108 विद्यासागर मुनिराज) Shri 1008 Shantinath Digambar Jain Mandir Janmbhumi-Vidyadhar (Sant Shiromani Digambar Jain Acharya Shri 108 Vidyasagar Muniraj) PANCHKALYANAK PRATISHTHA MAHOTASAV "Kalyanodaya Tirth" SADALGA (Karnataka) 591 239. Date-2 Feb. To8 Feb.2003 स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, Joinedhooniभोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित /