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________________ अतिथि देवो भव डॉ. श्रीमती ज्योति जैन आज मानव जीवन-शैली में हो रहे परिवर्तन चारों तरफ | हो रहा है। आज महिला-पुरूष के कामों का बंटवारा नहीं रहा। अपना प्रभाव दिखा रहे हैं । सामाजिक परिस्थितियाँ बड़ी तेजी से | प्रत्येक कार्य की जिम्मेदारी कोई भी निभा सकता है। इन बदलती बदल रही हैं और बदल रही हैं हमारी परम्परायें भी। इन्हीं परम्पराओं हुई परिस्थितियों में दरवाजा खुलते ही मुस्कराते पुरुष या ड्राइंग में से एक है अतिथि स्वागत सत्कार परम्परा। अतिथि अर्थात् | रूम में चाय-ठंडा की ट्रे लिये पुरुष अतिथि का स्वागत करते हुए जिसके आने की तिथि मालूम न हो। 'अतिथि देवो भव' को | दिखे तो आश्चर्य की बात नहीं। बदलती जीवन शैली में इन हमारी सामाजिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जैन | सबकी आदत तो बनानी ही पड़ेगी। दर्शन संस्कृति में अतिथि सत्कार को हमेशा महत्ता मिली है। संत आज संयुक्त परिवार लगभग समाप्त प्राय हैं। एकाकी तिरूवल्लुवर के कुरल काव्य में लिखा गया है जिस घर में आये | परिवार महानगरीय लाइफ रूटीन, एक या दो बच्चों का होना यह हुए अतिथि का सत्कार होता है उसका वंश कभी निर्वीज नहीं | सब व्यक्ति को अकेला बनाता जा रहा है। बहुत से रिश्ते जैसे होता है।' पं. आशाधर एवं अन्य विद्वानों ने भी अतिथि सत्कार बुआ, मौसी, चाचा, जीजा आदि कम होते जा रहे हैं। बुजुर्ग रिश्ते युक्त घर आर्दश घर बताया है। श्रावक के व्रतों में अतिथि संविभाग | भी दादा-दादी, नाना-नानी, युवा वर्ग से जुड़ नहीं पा रहे हैं, बस व्रत को रखा गया है श्रावक के लिये कहा गया है कि अतिथि का अंकल-आंटी में सभी रिश्ते कनवर्ड होते जा रहे हैं। रिश्तेदार के सत्कार करो। कुरल काव्य में भी लिखा है जो मनुष्य अपनी रोटी | यहाँ जाने-आने, छुट्टियाँ बिताने आदि के अवसर कम होते जा रहे दूसरों के साथ बांटकर खाता है उसको भूख की बीमारी कभी | हैं। होटल संस्कृति की भयावी दुनियाँ छुट्टियों के लुभावने विज्ञापन स्पर्श नहीं करती।' दे प्रोग्राम फिट कर देती है। पर इस भौतिकता व कृत्रिमता की आज भी भारतीय संस्कृति एवं परम्परा में गृहस्थ जीवन | चकाचौंध में वह सब कहाँ। परस्पर आने जाने से एक दूसरे से को पर्याप्त महत्व और घर की गृहिणी को पूरा सम्मान दिया जाता | मिलना होता है, बच्चों में भी अपनापन आता है आपसी संबंध है। गृहिणी के ऊपर ही घर की सारी जिम्मेदारी होती है। वह सृष्टि | बनते हैं और उनमें दृढ़ता आती है। आज की व्यस्ततम लाइफ में के सृजन से लेकर प्रथम पाठशाला रूपी माँ का दायित्व बखूवी आवश्यकता तो यही है कि संतुलित लाइफ स्टाइल हो और उसमें निर्वाह करती आ रही है। समर्पण व कर्त्तव्य पालन की भावना | हृयूमन -टच हो ताकि हमारी संवेदनायें जीवित रहें। हम सब एक लिये अधिकांश ग्रहिणीयाँ अपने दायित्व में संलग्न हैं। परन्तु दूसरे के सुख-दुख में सहभागी बनें तभी आतिथ्य कला भी जीवंत बदलती परिस्थितियाँ एवं अति व्यस्ततम लाइफ में आज अनेक | रहेगी। परम्परायें टूट रही हैं उनमें एक अतिथि सत्कार परम्परा भी है। | आज 'अतिथि देवो भव' जैसी भावनायें विलुप्त तो नहीं यद्यपि यह बदले हुए अनेक रूपों में सामने आयी है पर वह बात | पर कम होती जा रही हैं। बदलती परिस्थितियों में अतिथि सत्कार कहाँ? आज तो समय प्रोग्राम्स बताकर जो अतिथि आते हैं वे ही | 'आवश्यक पूर्ति व्यवहार' पर आधारित हो गया है। संस्कारों की स्वागत के सहभागी बन पाते हैं बाकी तो.... कमी एवं स्वार्थपरता के कारण अतिथि के आने पर अनेक घरों में आज कामकाजी महिलाओं ने अतिथि सत्कार परम्परा | माहौल खिंचा खिंचा सा हो जाता है। को समाप्त नहीं, तो सीमित अवश्य कर दिया है। आज घरेलू ___आज आवश्यक है कि हम बदलती परिस्थितियों में कुछ महिलाएँ भी अतिरिक्त कार्य लिये काम करती हैं। पहिले तो बदलाव लायें। आने-जाने से पूर्व अपने प्रोग्राम्स के बारे में अवश्य इनका कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी तक ही सीमित रहता था, पर | सूचित करें। घर में बिना किसी भेद-भाव, दिखावा, शो बाजी अब महिलाओं के ऊपर अनेक जिम्मेदारियाँ आ गयी हैं। अनेक | और टेन्शन रहित हो, अपने अतिथि का स्वागत करें। घर में 'जैसा बिल जमा करना, बैंक जाना, बच्चों के स्कूल संबंधी कार्य, घरेलू है वैसा ही ठीक है' की भावना आप पर अतिरिक्त बोझ नहीं शॉपिंग आदि अनेक कार्य करने पड़ते हैं। अब मौसम-बेमौसम डालेगी। आपकी सहज-सरल मुस्कान और आत्मीयता ही अतिथि सत्कार के लिये न समय रहा न स्टेमिना ही। अनके परिवार को आनंद से सराबोर कर देगी। घर में आये अतिथि का दिल अतिथि को देखते ही टेन्सन में हो जाते हैं। खोलकर स्वागत कीजिये बैठाइये, आवश्यकतानुरूप गरम-ठंडा, आजकल बहुधा घरों का संचालन स्त्री-पुरूष दोनों मिलकर | फिर कुछ अपनी कहें, उसकी सुनें । देखिए, स्वयं महसूस कीजिए कर रहे हैं। कहा भी जाता है कि स्त्री-पुरूष गृहस्थी रूपी गाड़ी | कितना सुकून मिलता है। रूटीन लाईफ में चेंज आता है। हाँ यदि के दो पहिए हैं, सच पूछो तो आज के परिवेश में ये कथन सार्थक | पॉजिटिव थिंकिंग रखो तो सब सहज लगेगा। 18 जून 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524274
Book TitleJinabhashita 2003 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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