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________________ आज के भौतिक परिवेश में अतिथि-सत्कार नित नये । जिस घर में त्यागी-ब्रती की आहार व्यवस्था होती है वहाँ रूपों में सामने आ रहे हैं। व्यक्ति का सोशल स्टेटस भी इससे निश्चित ही अतिथि परम्परा का निर्वाह होता है। पूरा का पूरा प्रभावित होता है। इस तरह से अतिथि सत्कार होने लगा है कि । परिवार अपने दायित्व को निभाता है। समाज में एक से एक बस देखते रह जाओ पर यह सब एक वर्ग तक सीमित है, आम | | उदाहरण भरे पड़े हैं। अतिथि तो आम ही है। आज हमारा दायित्व है कि 'अतिथि देवो भव' जैसी आज गौरव एवं प्रसन्नता की बात तो यह है कि जैन | परम्पराएँ स्वस्थ रूप में विकसित होती रहें जिससे नयी पीढ़ी भी समाज के धार्मिक संस्कार युक्त परिवार आज भी 'अतिथि देवो | अतिथि सत्कार आवभगत जैसे शब्दों के टच में रहेगी। आपकी भव' की परम्परा का निर्वाध रूप से पालन कर रहे हैं। आज भी | अपनी आतिथ्य कला से बच्चों में संस्कार पड़ेंगे। वे सोशल बनेंगे मंदिर में बाहर से आये दर्शनार्थी व्यक्तियों, विद्वानों, श्रावकों आदि | और सूखते हुए मानवीय रिश्तों में प्रगाढ़ता रूपी हराभरापन तो को सम्मान पूर्वक आतिथ्य दिया जाता है। हमारे आचार्यों, गुरु, | आयेगा ही। संत, विद्वानों द्वारा समाज को सदैव मार्गदर्शन मिलता रहा है, शिक्षक निवास ६ अपने उपदेशों, प्रवचनों आदि के माध्यम से इन सुसंस्कारों को श्री कुन्दकुन्द महावद्यिालय परिसर खतौली- २५१२०१ उ.प्र. बल मिलता है। साहित्य समीक्षा कृतिनाम- अमृतवाणी प्रवचनकार - परमपूज्य मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज प्रस्तोता - श्री ओमप्रकश गुप्ता ( कार्यकारी संपादक राजस्थान टाइम्स) अलवर (राज.) प्रकाशक-बंसल प्रकाशन, अलवर (राज.) पृष्ठ संख्या - 4+vi + 375, मूल्य 35 रुपये समीक्ष्य कृति में परमपूज्य, आध्यात्मिक संत, तीर्थ | बेसहारे को आश्रय देना सीखो तभी सुखी बन पाओगे। जीर्णोद्धारक, भारतीय श्रमण संस्कृति के प्रबल संरक्षक, मुनिपुंगव | 2. संयम और त्याग के बिना आज तक किसी का श्री सुधासागर जी महाराज के वर्ष 1999 में अलवर चातुर्मास | कल्याण नहीं हुआ है और न होगा। काल में दिये गये प्रवचनों के अंशों का संकलन है जो प्रतिदिन | 3. पाप करते वक्त इतना ज्ञान जरूर कर लेना कि मैं 'राजस्थान टाइम्स' में श्री ओमप्रकाश गुप्ता द्वारा लिपिबद्ध कर | क्या कर रहा हूँ और इनका परिणाम क्या है? समाचार के रूप में प्रकाशित किये गये थे। किसी जैन श्रमण 4. अंधकार को मिटाना है तो प्रकाश पुंज की मर्यादाओं संत की विमल वाणी का किसी अजैन भक्त द्वारा किया गया यह | को अंगीकार करो। अनूठा प्रयास सराहनीय एवं श्लाघनीय है। अमृतवाणी में कुल 5. अहंकार पापों को बढ़ाने वाला है। जब तक वह 142 प्रवचनांशों का शीर्षकवद्ध संयोजन है, जिन्हें पढ़कर मर्म समाप्त नहीं होगा तब तक परमात्मा से दूरी बनी रहेगी। स्पन्दित होता है और धर्म की अनुभूति होती है। प.पू. मुनि श्री 6. मन को पवित्र व संकल्प को दृढ़ बनाओ तभी तो एकमात्र ऐसे संत हैं जो 365 दिन (वर्षभर) प्रवचन देकर जन- अपने परिणाम मंगलमयी रूप में परिणत होंगे। जन को कृतार्थ करते हैं। उनके प्रवचन अध्यात्म की शीतलता 7. शरीर नाशवान है आत्मा अविनाशी है। से सराबोर होते हैं और श्रोताओं को अन्त:दृष्टि प्रदान कर आत्म 8. धर्म को चर्चा में नहीं अपनी चर्या में लाओ, तभी परमात्म से जुड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। 'अमृतवाणी' में | धर्म का आनन्द ले पाओगे। संकलित ये विचार ध्यातव्य हैं इस तरह सम्पूर्ण कृति अमृतमयी विचारों से संयुक्त है 1. कराहते जीव की वेदना का अनुभव करो, पीड़ित को | जिसे पढ़ना अमरता के मार्ग से गुजरने के समान है। प्रस्तोता दवा, भूखे को रोटी, प्यासे को पानी, निर्धन को वस्त्र, अनाथ व | का श्रम सराहनीय है। समीक्षक- डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' जून 2003 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524274
Book TitleJinabhashita 2003 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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