________________
पंडितजी मैं अक्षर लिखना नहीं जानता किन्तु तैरना जरूर जानता |
मैं साध्य साधक मैं अबाधक कर्म अरु तसु फलनि तैं। हूँ। अक्षर ज्ञान न होने से मेरा तो आधा जीवन गया, परन्तु तैरना न
चित पिंड चंड अखण्ड सुगुण-करण्ड च्युत पुनि कलनि तें। जानने से तो आपका सारा जीवन ही व्यर्थ हो गया।
शुद्धोपयोग की यह दशा इसी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा ही हमें तैरना भी आना चाहिये। तैरना नहीं आयेगा तो हम | प्राप्त हो सकती है। अत: मात्र साक्षर बने रहने से कोई लाभ नहीं संसार समुद्र से पार नहीं हो सकते। अत: दूसरों का सहारा ज्यादा है। 'साक्षर' का विलोम 'राक्षस' होता है। साक्षर मात्र बने रहने से मत ढूँढो। शब्द भी एक तरह का सहारा है। इसके सहारे, अपना राक्षस बन जाने का भी भय है। अतः अन्तर्यात्रा भी प्रारम्भ करें, सहारा लो। अन्तर्यात्रा प्रारम्भ करो।
ज्ञान का निरन्तर उपयोग करें, अपने को शुद्ध बनाने के लिए। ज्ञेयों का संकलन मात्र तो ज्ञान का दुरुपयोग है। ज्ञेयों में हम अमूर्त हैं, हमें छुआ नहीं जा सकता, हमें चखा नहीं मत उलझो, ज्ञेयों के ज्ञाता को प्राप्त करो। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग से | जा सकता, हमें सूंघा नहीं जा सकता, किन्तु फिर भी हम मूर्त बने ही में कौन हूँ, इसका उत्तर प्राप्त हो सकता है।
हुये हैं, क्योंकि हमारा ज्ञान मूर्त में सँजोया हुआ है। अपने उस परमाण नय निक्षेप को न उद्योत अनुभव में दिखै। अमूर्त स्वरूप की उपलब्धि, ज्ञान की धारा को अन्दर आत्मा की दृग ज्ञान सुख बलमय सदा नहिं आन भाव जुमो बिखै॥ | ओर मोड़ने पर ही सम्भव है।
मान को खंडित करने के साधन को मान से मंडित करने का साधन न बनायें
आचार्य श्री विद्यासागर जी "भगवान् महावीर स्वामी को केवल ज्ञान होता है, वैसे । वाली प्रतिमा रहती है। मान स्तम्भ में चैतन्य भगवान् नहीं बैठते, ही इन्द्र ने आज्ञा देकर कुबेर के माध्यम से समोशरण की रचना | मूर्ति होती है, चैत्यालय होते हैं। उन्हें देखकर ऐसा परिणाम उसे कराई। केवलज्ञान और समोशरण की रचना एक समय में हो | हुआ उसको जो गर्व था वह चूर हो गया। अहंकार समाप्त हो जाती है। विस्मयकारी घटना यह है कि एक दिन, दो दिन, तीन गया। नम्रता से वहीं से अपनी यात्रा प्रारंभ करता है। दिव्य ध्वनि दिन ऐसे लगातार २ माह निकल गये। ६ दिन और निकल गये
का सार बताने का सार गौतम स्वामी को ही प्राप्त हुआ, अर्न्तमुहूर्त दिव्य ध्वनि नहीं खिर रही। समोशरण की सभी सभाएँ भर गईं। में ही श्रुत कैवल्य प्राप्त हो गया।६६ दिन के बाद तीर्थंकर महावीर दिव्य ध्वनि नहीं खिर रही, क्यों नहीं खिर रही कोई सुने तो। कोई | की दिव्य ध्वनि खिरना प्रारंभ हो गयी। गणधर पदवी महत्त्वपूर्ण दीक्षित पुण्यशाली भव्य संयमी ही दिव्य ध्वनि झेल सकता है। मानी गई है। ऐसे व्यक्ति की तलाश शुरू हो गई। असंयमी को प्रवचन नहीं
आचार्यश्री ने कहा कि मान को खंडित करने के जो साधन सनाया जा सकता। संयमी और दीक्षित होना चाहिये। सना है | हैं उन्हें मान से मंडित करने का साधन नहीं बनाना चाहिए। जो तीर्थंकर अकेले दीक्षित नहीं होते। भगवान् महावीर अकेले ही शिलादान कर रहा है, उसे अहंकार नहीं करना चाहिए। दान के दीक्षित हुये, स्वयं दीक्षित हुये, न दीक्षा ली, न दी।" उक्त उद्गार ऊपर अभिमान नहीं करें। यदि बड़ा दान करनेवाला अभिमान विश्वबन्ध महान् तपोनिधि आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी करता है, तो उसका पूरा का पूरा दान व्यर्थ चला जाता है, छोटे महाराज ने बड़े बाबा की अतिशय स्थली कुण्डलपुर में रविवारीय
| दान से त्याग किया, कर्म निर्जरा हो गई, अभिमान नहीं किया प्रवचन श्रृंखला के दौरान व्यक्त किये। आगे कहा कि इन्द्रभूति | विकास हो जाता है। मोह के हनन से विकास होता है। कषायों के गौतम में सम्यकपना नहीं आया था। गर्व के साथ इन्द्रभूति आ रहे | मिटने से विकास होता है। वस्त्र की गंदगी साबुन सोड़ा से निकलेगी। हैं, जैसे ही उन्हें मान स्तम्भ दिख गया पूरा का पूरा अभिमान चर | दानपुण्य के द्वारा अपने अंदर की गर्मी धो डालें। रागद्वेष से मलिन चूर हो गया। हिमालय जैसा अभिमान मान स्तम्भ देखने मात्र से | आत्मा से गंदगी हटाना आवश्यक है, जितनी जल्दी गंदगी दूर चूर-चूर हो गया। आगे बढ़ा, इरादा गायब हो गया, स्मरण नहीं | करेंगे, हमारे अंदर की आत्मा का स्वरूप बाहर आने में देर नहीं आ रहा, भाव विभोर हो गया। उत्साह से चला हमें बहुमूल्य
लगेगी। भगवान् महावीर के समोशरण में जाने के पूर्व मानस्तंभ सम्पदा मिलने वाली है और वह दीक्षित हो गया। आज वर्तमान | देखने मात्र से इन्द्रभूति गौतम का सारा मान दूर हो गया। यदि आगे में साक्षात भगवान् नहीं हैं। जब साक्षात् भगवान् थे, तब मान | हमें बढ़ना है, तो जैसी गणधर परमेष्ठी ने शुरुआत की, वैसी ही स्तम्भ समोशरण के सामने भूमिका का काम करते। जो मंदिर के | हम शुरुआत करें, आस्था के साथ दिखावा न करते हुए आत्मा का सामने मान स्तम्भ होता है, उसमें ऐसा चमत्कार होता है। मान उत्थान करें। पतन से हम बच सकते हैं। स्तम्भ में चतुर्मुखी प्रतिमा होती है। समोशरण में चारों ओर मुख
शाह मुकेश जैन एडव्होकेट' प्रचार मंत्री एवं जय कुमार जैन "जलज"
-
जून 2003 जिनभाषित
5
Jain Education International
nternational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org