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निरन्तर ज्ञानोपयोग
आचार्य श्री विद्यासागर जी
ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। उसे सुखाया नहीं जा सकता, बदला जा सकता है। इसी प्रकार ज्ञान का नाश नहीं किया जा सकता है। उसे स्व-पर कल्याण की दिशा में प्रवाहित किया जा सकता है। यही ज्ञानोपयोग है।
__ 'अभीक्ष्णज्ञानोपयोग' शब्द तीन शब्दों से मिलकर बना । अंधकार भी विनष्ट हो जाता है और केवलज्ञानरूपी सूर्य उदित है- अभीक्ष्ण + ज्ञान + उपयोग अर्थात् निरन्तर ज्ञान का उपयोग | होता है। अत: ज्ञानोपयोग सतत् चलना चाहिये। करना ही अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है। आत्मा के अनन्तगुण हैं और 'उपयोग' का दूसरा अर्थ है चेतना। अर्थात् अभीक्ष्ण उनके कार्य भी अलग-अलग हैं । ज्ञान गुण इन सभी की पहिचान | ज्ञानोपयोग अपनी खोज, चेतना की उपलब्धि का अमोघ साधन कराता है। सुख जो आत्मा का एक गुण है उसकी अनुभूति भी | है। इसके द्वारा जीव अपनी असली सम्पत्ति को बढ़ाता है, उसे ज्ञान द्वारा ही संभव है। ज्ञान ही वह गुण है जिसकी सहायता से | प्राप्त करता है, उसके पास पहुँचता है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का पाषाण में से स्वर्ण को, खान में से हीरा, पन्ना को पृथक् किया जा | अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान मात्र नहीं है। शब्दों की पूजा करने से सकता है। अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ही वह साधन है जिसके द्वारा आत्मा | ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। सरस्वती की पूजा का मतलब तो की अनुभूति, समुन्नति होती है, उसका विकास किया जा सकता | अपनी पूजा से है, स्वात्मा की उपासना से है। शाब्दिक ज्ञान
वास्तविक ज्ञान नहीं है। इससे सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती। आज तक इस ज्ञान धारा का प्राय: दुरुपयोग ही किया | शाब्दिक ज्ञान तो केवल शीशी के लेबिल की तरह है। यदि कोई गया है। ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। जैसे गंगा | लेबिल मात्र घोंट कर पी जाय तो क्या उससे स्वास्थ्य-लाभ हो नदी के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता, केवल उस प्रवाह के जायेगा? क्या रोग मिट जायेगा? नहीं, कभी नहीं। अक्षरज्ञानधारी मार्ग को हम बदल सकते हैं, उसी प्रकार ज्ञान के प्रवाह को | बहुभाषाविद् पण्डित नहीं हैं। वास्तविक पण्डित तो वह है जो सुखाया नहीं जा सकता केवल उसे स्व-पर हित के लिये उपयोग अपनी आत्मा का अवलोकन करता है। "स्वात्मानं पश्यति यः सः में लाया जा सकता है। ज्ञान का दुरुपयोग होना विनाश है और | पण्डितः।" पढ़-पढ़ के पण्डित बन जाये, किन्तु निज वस्तु की ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है, सुख है, उन्नति है। ज्ञान | खबर न हो, तो क्या वह पण्डित है? अक्षरों के ज्ञानी पण्डित अक्षर के सदुपयोग के लिये जागृति परम आवश्यक है। हमारी हालत | का अर्थ भी नहीं समझ पाते। 'क्षर' अर्थात् नाश होने वाला और उस कबूतर की तरह हो रही है जो पेड़ पर बैठा है और पेड़ के | 'अ' के मायने 'नहीं' अर्थात् मैं अविनाशी हूँ, अजर-अमर हूँ, नीचे बैठी हुई बिल्ली को देखकर अपना होश-हवास खो देता है। | यह अर्थ है अक्षर का, किन्तु आज का पंडित केवल शब्दों को
अपने पंखों की शक्ति को भूल बैठता है और स्वयं घबराकर उस | पकड़ कर भटक जाता है। बिल्ली के समक्ष गिर जाता है, तो उसमें दोष कबूतर का ही है। शब्द तो केवल माध्यम है अपनी आत्मा को जानने के हम ज्ञान की कदर नहीं कर रहे, बल्कि जो ज्ञान द्वारा जाने जाते हैं | लिए, अन्दर जाने के लिए। किन्तु हमारी दशा उस पंडित की तरह उन ज्ञेय पदार्थों की कदर कर रहे हैं। होना इससे विपरीत चाहिए | है, जो तैरना न जानकर अपने जीवन से भी हाथ धो बैठता है। एक था अर्थात् ज्ञान की कदर होना चाहिए।
| पंडित काशी से पढ़कर आये। देखा, नदी किनारे मल्लाह भगवान् ज्ञेयों के संकलन मात्र में यदि हम ज्ञान को लगा दें और / की स्तुति में संलग्न है। बोले - "ए मल्लाह ! ले चलेगा नाव में, उनके समक्ष अपने को हीन मानने लग जायें, तो यह ज्ञान का नदी पार।" मल्लाह ने उसे नाव में बिठा लिया। अब चलतेदुरुपयोग है। ज्ञान का सदुपयोग तो यह है कि हम अन्तर्यात्रा | चलते पंडित जी रौब झाड़ने लगे अपने अक्षरज्ञान का। मल्लाह से प्रारम्भ कर दें और यह अन्तर्यात्रा एक बार नहीं, दो बार नहीं, बोले - "कुछ पढ़ा लिखा भी है? अक्षर लिखना जानता है?" बार-बार अभीक्ष्ण करने का प्रयास करें। यह अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग | मल्लाह तो पढ़ा लिखा था ही नहीं सो, कहने लगा पंडितजी मुझे केवलज्ञान को प्राप्त कराने वाला है, आत्म-मल को धोने वाला है। अक्षर ज्ञान नहीं है। पंडित बोले तब तो बिना पढ़े तुम्हारा आधा जैसे प्रभात बेला की लालिमा के साथ ही बहुत कुछ अंधकार नष्ट | जीवन ही व्यर्थ हो गया। अभी नदी में थोड़े और चले थे कि हो जाता है, उसी प्रकार अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा आत्मा का | अचानक पूर आ गयी, पंडित जी घबराने लगे। नाविक बोला
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जून 2003 जिनभाषित -
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