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माँ भारती के अवतरण का पर्व श्रुतपंचमी
ब्र. सन्दीप 'सरल' भगवान् ऋषभ देव के तीर्थकाल से भगवान् महावीर के | श्रुतपंचमी और हमारा उत्तरदायित्व तीर्थकाल तक श्रुतज्ञान की अविरल धारा चलती रही। भगवान् देव, शास्त्र और गुरु ये तीनों हमारे आत्मकल्याण में साधक महावीर के मोक्ष गमन करने के पश्चात् (६८३) छ:सौ तेरासी | हआ करते हैं। हमारे पूर्वजों ने हर प्रकार के साधनों के अभाव में वर्ष तक श्रुत परम्परा अर्थात् ज्ञान की अविरल धारा चलती रही।
पूर्वाचार्यों द्वारा लिखी माँ जिनवाणी को ताड़पत्र, भोजपत्र एवं इस समय तक श्रुत को लिपिबद्ध करने का कार्य प्रारम्भ नहीं हुआ | कागज पर लिखकर, लिखवाकर हर मंदिरों में विराजमान करवाते था क्योंकि बुद्धि की प्रखरता के कारण शिष्य गुरु मुख से ही ग्रहण | रहे। वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि पाण्डुलिपियाँ कर लेते थे, लेकिन क्षयोपशम के उत्तरोत्तर क्षीण होने से अब | हमारी जैन संस्कृति/इतिहास, आचार-विचार की अमल्य धरोहर द्वादशांग वाणी का ज्ञाता कोई नहीं रहा। गुणधराचार्य के पश्चात्
| हैं। इस धरोहर की सुरक्षा, व्यवस्था एवं प्रचार प्रसार में प्राणपण अगपूर्व के एकदेश ज्ञाता धरसेनाचार्य हुए। ये अष्टांग महानिमित्त | से जुटे रहे। हमारे पूर्वज इस पर्व के दिन सभी पाण्डुलिपियों के के पारगामी और लिपिशास्त्र के ज्ञाता थे, इन्होंने अपना समय पुराने वेष्टन (वस्त्र) बदलकर नवीन वेष्टन में पुनः बंद करके अल्प जानकर एवं अंगश्रुत के विच्छेद हो जाने के भय से शास्त्रज्ञान
रखते थे किन्तु आज की भोग विलासी पीढ़ी को इस कार्य की जरा की रक्षा हेतु महिमानगरी में आयोजित मुनियों के एक विशाल
भी चिंता नहीं रही है। आज के इस मुद्रण के युग में हमारा ध्यान सम्मेलन में आचार्यों के पास एक पत्र भेजा। पत्र में लिखे गये
उन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों की ओर से हट सा ही गया है। ऐसे धरसेनाचार्य के आदेश को स्वीकार करके महासेनाचार्य ने अपने
कितने ही स्थान हैं जहाँ पर शास्त्रभण्डारों को चूहों और दीमकों संघ में से उज्जवल चरित्र के धारी, सेवाभावी, समस्त विद्याओं के | ने बिल्कुल समाप्त कर दिया है। श्रुत संरक्षण के रूप में हम निम्न पारगामी और आज्ञाकारी दो मुनियों को धरसेनाचार्य के निकट
कार्यों को अंजाम दे सकते हैंगिरिनार पर्वत की ओर भेजा। जिस दिन ये दोनों मुनिराज धरसेनाचार्य
श्रुतपंचमी और पाण्डुलिपि संग्रहालय केन्द्र के पास पहुँचने वाले थे, उस दिन पिछली रात्रि में धरसेनाचार्य ने
यदि हमने अपनी विरासत में मिली हुई पाण्डुलिपियों की कुन्दपुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान श्वेत वर्ण के धारी हृष्टपुष्ट
सुरक्षा हेतु कुछ प्रबन्ध नहीं किया तो इतिहास हमें क्षमा नहीं दो बैलों को अपने चरणों में प्रणाम् करते हुए देखा। ऐसे सुखद
करेगा। आज हम गन्धहस्तिमहाभाष्य, विद्यानंद महोद, वादन्याय स्पप्न को देखकर आचार्य श्री को अपार हर्ष हुआ। और उन्होंने
आदि शताधिक ग्रन्थों को लुप्त घोषित कर चुके हैं। इसमें हमारा कहा- समस्त जीवों का कल्याण करने वाली, संदेहों का निवारण
ही प्रमाद रहा है। ये ग्रन्थ न जाने कब चूहों और दीमकों ने नष्ट करने वाली, श्रुतदेवी जिनवाणी जयवन्त हो। प्रात: दो मुनि आए
कर दिये होंगे। वर्तमान में भी बहुत सारी अप्रकाशित पाण्डुलिपियाँ और आचार्य श्री को नमस्कार कर बड़ी विनय के साथ निवेदन
काल कवलित होती जा रही हैं। यदि पाण्डुलिपियों को सुरक्षित किया कि आप हमें ज्ञानदान दीजिए।
रखने के लिए हमारी समाज प्रान्तीय, राष्ट्रीय स्तर पर पाण्डुलिपि आ. धरसेन जी उन्हें आशीर्वाद देकर दो-तीन दिन उन्हें
संग्रहालय केन्द्रों की स्थापना करें और उस संग्रहालय में पाण्डुलिपियों अपने पास रखकर उनकी बुद्धि, शक्ति और सहनशीलता की
की लेमीनेशन अथवा माइक्रोफिल्म बनाकर पूर्ण सुरक्षा की जावे। परीक्षा लेते हैं । परीक्षा में सफल हो जाने पर श्रुतोपदेश देना प्रारम्भ
इन पंक्तियों के लेखक को यह गौरव प्राप्त हुआ है कि भारतवर्ष के किया, जो आषाढ़ शुक्ला एकादशी को समाप्त हुआ। गुरु धरसेन
कोने-कोने में यत्र-तत्र विकीर्ण पाण्डुलिपियों के संकलन, संरक्षण ने इन शिष्यों का नाम पुष्पदंत और भूतबलि रखा। गुरु के आदेश
के उद्देश्य से २४ मार्च १९९५ से शास्त्रोद्धार शास्त्र सुरक्षा अभियान से ये शिष्य गिरिनार से चलकर अंकलेश्वर आए और वहीं पर
का प्रणयन कर लगभग ५०० स्थलों से ८००० हस्तलिखित ग्रंथों वर्षाकाल व्यतीत किया। दोनों मुनियों ने गुरुमुख से सुने हुए ज्ञान
को बान में लाकर पाण्डुलिपि संग्रहालय में संरक्षित किया है। को लिपिबद्ध किया जो आज हमें षट्खण्डागम के रूप में उपलब्ध
आज यह पाण्डुलिपि संग्रहालय एक आदर्शपूर्ण संग्रहालय बन है, भूतबली ने षड्खण्डागम की रचना ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को
चुका है। अन्य स्थानों पर भी इस प्रकार के केन्द्रों की शुरुआत पूर्ण करके चतुर्विध संघ के साथ उस दिन श्रुतज्ञान की पूजा की
श्रुतपंचमी पर्व पर की जा सकती है। थी। जिससे वह तिथि आज भी श्रुतपंचमी अथवा ज्ञानपचंमी के
नवीन पीढ़ी को पाण्डुलिपि प्रशिक्षण शिविर नाम से जानी जाती है उसी समय से उसी की पावन स्मृति में
हमारी नवीन पीढ़ी के विद्वान् इन पाण्डुलिपियों को पढ़ उसके समस्त अनुयायी आज भी श्रुतपंचमी मनाते आ रहे हैं। 6 जून 2003 जिनभाषित
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