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________________ भारतीय संस्कृति का रुपहला कलश 'कटवप्र' चन्द्रगिरि डॉ. स्नेहरानी जैन कर्नाटक प्रांत के क्लान्त शांत अंचल में बिन्ध्यगिरी के | संस्तर का अनुभव देता था। ऊपर तारों भरा आकाश चिन्तन को पास ही कुछ एकड़ों में फैली हुई (लगभग २० एकड़ में पसरी) | अनंत गहराई देता था। छोटी वाली चट्टानी पहाड़ी है जिसे इतिहासकारों ने "चन्द्रगिरि" आचार्य भद्रबाहु का मन उस चट्टान पर इतना स्वस्थ हो के नाम से पुरातत्त्व विभाग की सुरक्षार्थ समर्पित किया है। सर्वधर्मी | गया कि उन्होंने भी वहीं अपनी वृद्धावस्था को सल्लेखना से यहाँ पर सैलानी बनकर आते तो हैं, किन्तु इस पहाड़ी के अध्यात्म- | समापन देने का निर्णय किया। नीचे चारों दिशाओं में ग्राम तब भी वैभव को न जानते हुए घोर उच्छृखलता और उपद्रव कर जाते हैं। | रहे होंगे किंतु जंगल पार करके कुछ दूरी पर थे जहाँ साधु भिक्षावृत्ति आदिनाथ ऋषभदेव के प्रथम तेजस्वी चक्रवर्ती पुत्र भरत की | हेतु जाते तथा जहाँ से यदा-कदा श्रावक उनकी वैय्यावृत्ति करने सुन्दर खड्गासन प्रतिमा यहाँ अनेकों शताब्दियाँ पूर्ण कर चुकी आ जाते थे। शिलाओं की ऐसी ही एक ओट को आचार्य भद्रबाहु थी। किंतु पिछली शताब्दी के ६० वर्ष पार करते-करते किसी जी ने अपना आवास चुन लिया जो आज भी भद्रबाहु की गुफा के आक्रान्तक ने उसके लिंग और नाक खण्डित कर दिए। बायें हाथ | नाम से जानी जाती है। वहीं उनके चरण भी बना दिए गए हैं। को भी कंधे से कोहनी तक क्षतिग्रस्त कर दिया है। तब से ही ऐसा | कटवप्र पर जब कभी कोई साधु समाधिमरण को प्राप्त प्रतीत हुआ कि यहाँ देखरेख की आवश्यकता है और कुछ सुरक्षा होता तब श्रावकगण उनकी प्रशस्ति का वर्णन संकेतों में पत्थर सेवक उसे देखते भी हैं। किंतु पर्यटकों में एक सी गंभीरता रहना | पर उत्कीर्ण कर देते। वह उकेर इतनी गहरी होती थी कि हजारों संभव नहीं है। पर्वत के वक्ष पर पुरा-संपदा के रूप में सब ओर | वर्षों से बारिश, आंधी और गर्मी को झेलते हुए भी वह अब भी प्राचीन शिलालेख बिखरे फैले हुए हैं। कन्नड़ भाषा में लिखे गए | स्पष्ट देखी जा सकती है। अनेकों चरण धुल-धुल कर अस्पष्ट भी शिलालेख तो लगभग सारे ही पढ़े जा चुके हैं, किंतु अत्यंत | हो गए हैं। लिपि को समझ ना पाने के कारण उत्तर-कालीन प्राचीन लिपि में विस्तृत शिला पर उत्कीर्ण शिलालेखों की सुरक्षा पीढ़ियों ने उस पर ध्यान नहीं दिया। चन्द्रगुप्त मौर्य ने मंदिर बनवाया की तो बात ही दूर, उन को कोई पहचान भी नहीं पाया कि वे क्या और अपने गुरू भद्रबादु की सल्लेखना-मृत्यु के बाद स्वयं भी कहते हैं। उन्हें दर्शकों के पैरों तले उपेक्षा ही मिलती रही जैसे कि | उसी पर्वत पर सल्लेखना द्वारा मरण को प्राप्त हुआ। उस कटवप्र वे व्यर्थ के चिन्ह हों। का नाम "कलवप्पु" हो गया था किंतु चन्द्रगुप्त के कारण उसे लगभग २४०० वर्ष पूर्व जैनाचार्य भद्रबाहु अपने १२००० बाद में चन्द्रगिरि कहा जाने लगा। चन्द्रगुप्त के मंदिर के आसपास साधुओं के विशाल संघ सहित जब उज्जयिनी से दक्षिण भारत कालांतर में अनेक मंदिर बनते गए। बड़ी-बड़ी शिलाएँ कट - की ओर गए तब उनके साथ उनका भक्त शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त कट कर रूप बदलने लगीं और उन्हें पर्वत पर घसीटा उठाया मौर्य भी चला गया। चन्द्रगिरि जिसे "कटवप्र" कहा जाता रहा जाता रहा। लोगों का आना जाना, मलमे का उतरना, उठाना सब उसके मन भा गई। उसने वहाँ एक सुन्दर जिन-मंदिर बनवा चलता रहा। पता नहीं कितनी ही अंकित कथाएँ मसाले में दब दिया। पुरातात्त्विक प्रशस्ति यही दर्शाती है। गईं। कितनी ही मंदिरों के नीचे दफन हो गईं। उनकी ओर किसी कटवप्र अर्थात् " पुण्यजीवियों का मकबरा'' (श्रमण की दृष्टि ही नहीं गई। काल का प्रभाव है कि सब ओझल होता बेलगोल, ष, शेट्टर, अनुवादक सदानंद कलवल्लि, रुवाड़ी, गया। गोम्मटेश के बाद अचानक चन्द्रगिरि की भी वंदना करते धारवाड़, १९८१ कर्नाटक पर्यटन के सहयोग से), भी ऐसी ही हुए मंदिर नं. ४/५ के सिढ़ाव से उतरते ही धूप की उजास में उन पहाड़ी थी जिस पर प्राचीनकाल से ही जैन साधु और श्रावक लकीरों को देखा तो पैरों ने जवाब दे दिया। वहीं बैठकर उस तपस्या करते हुए सल्लेखना लीन हो जाते थे। लावा के उफानों से पसरते हुए शिलालेखी अंकन को टटोला तो लगा कि ये सारी बनी यह पहाड़ी कठोर पाषाण वाली थी जिसके चारों ओर घने उतरित कड़ियाँ अपना रहस्य खोल रही हैं। वह सामान्य अंकन जंगल और झीलें थीं। वनों में बाघ, हरिण, हाथी, खरगोश, सर्प नहीं हड़प्पा' और 'मोहनजोदडो' में दृष्ट चित्रलिपि की ही प्रस्तुति रेंगते थे। लावा के विस्फोट से उगलती आग ने अनेक बड़ी-बड़ी | थी जिन्हें मैने जैन दृष्टिकोण से देखने पर आत्मबोधक पाया था। लुढ़कती बूंदों ने चट्टानों का रूप भी पा लिया था। ये सब अपनी उस लिपि पर मैं तीन बार अपनी लेखनी का ज्ञापन भी दे चुकी ओट में गुफाओं का सा वातावरण बना देती थीं। चट्टानी खुले | थी। आश्चर्य, कि चन्द्रगिरि के पूरे पाषाणी विस्तार पर वही लिपि विस्तार में लेटकर रात्रि काटी जा सकती थी क्योंकि जलवायु सम | 'उत्कीर्ण होकर' सामने यूँ बिखरी पड़ी थी। जितनी चाहो, पढ़ थी और चट्टान का वक्ष अपने ऊँचे नीचे विस्तार में अत्यंत सुखद | लो। प्रथम कड़ी में मुझे एक वृत्तांत लगा।"पंचम गति (मुक्ति) 8 जून 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524274
Book TitleJinabhashita 2003 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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