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________________ अथवा संयमासंयम को अनुपालन कर इस मनुष्य भव सम्बन्धी आयु से कम २२ सागरोपम आयु की स्थिति वाले आरण, अच्युत कल्प के देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ। इस मनुष्य भव में संयम का अनुपालन कर उपरिम ग्रैवेयक में मनुष्य आयु से कम ३१ सागरोपम आयु की स्थितिवाले अहिमन्द्रों में उत्पन्न हुआ। वहाँ पर अन्तर्मुहूर्त कम ६६ सागरोपम काल के अन्तिम समय में परिणामों के निमित्त से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। उस सम्यग्मिथ्यात्व में अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त होकर विश्राम ले च्युत हो मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भव में संयम को अथवा संयमासंयम का परिपालन कर इस मनुष्य भव सम्बन्धी आयु से कम २० सागरोपम २२ सागरोपम और २४ सागरोपम स्थितिवाले देवों में उत्पन्न होकर, अन्तर्मुहूर्त कम २०६६ सागरोपम काल के अन्तिम समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । यह ऊपर बताया गया उत्पत्ति का क्रम अव्युत्पन्नजनों को समझाने के लिये कहा गया है। परमार्थ से तो जिस किसी भी प्रकार से ६६ सागरोपम काल पूरा किया जा सकता है। उपर्युक्त प्रमाण से यह स्पष्ट है कि १३२ सागर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल नहीं है, बल्कि मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तरकाल है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल तो, दर्शन मोह की क्षपणा करने वाले जीव की अपेक्षा ६६ सागर है, जबकि अन्य जीवों की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम ६६ सागर प्रमाण है। जिज्ञासा मुनि के आहार स्थान पर चंदोवा लगाना क्या आवश्यक है ? समाधान- श्रावकाचार ग्रंथों में चंदोबा लगाने के सम्बन्ध में एक छन्द इस प्रकार उपलब्ध होता है प्रथम रसोईघर को थान, चक्की उखली द्वयत्रय जान । चौथे अन्न शोधन को थान, जीमन चौका पंचम मान । छठमो आटा छानन सोय, सप्तम थान शयन का होय ॥ पानी को थल अष्टम जान, सामायिक को नवमों थान ॥ अर्थ रसोईघर में चक्की पर ओखली के ऊपर, अन्न शोधन के स्थान पर, भोजन करने के स्थान पर, आटा छानने के स्थान पर, सोने के स्थान पर, जल रखने के स्थान पर और सामायिक के स्थान पर चंदोबा लगाना चाहिए। यद्यपि वर्तमान में उपरोक्त ९ स्थानों के बजाय, केवल मुनिराज के आहार स्थान के ऊपर चंदोबा लगाने की परम्परा यत्र-तत्र शेष रह गई है। मूलाचार आदि ग्रन्थों में आहार संबंधी ४६ दोष और ३२ अन्तराय के वर्णन में अथवा श्रावक की नवधा भक्ति एवं दाता के सप्तगुणों के वर्णन में चंदोबा का कोई वर्णन नहीं मिलता है। आचार्य शान्तिसागर महाराज की परम्परा के तृतीय आचार्य जून 2003 जिनभाषित 22 - Jain Education International श्री धर्मसागर महाराज १९७५ में हस्तिनापुर में विराजमान थे । उस समय संघस्थ मुनि श्री वृषभसागर जी की सल्लेखना चल रही थी। एक दिन एक चौके के चंदोबे में कबूतर के २ अण्डे दिखाई दिए । विचारणीय बात यह थी कि यदि चंदोबा हटाया जाता है तो अण्डे समाप्त हो जाते हैं और यदि अण्डे न हटाएँ तो वहाँ आहार कैसे कराया जाए। बाद में संघ में यह चर्चा चली और पूज्य आचार्य धर्मसागर महाराज ने निर्णय दिया कि पक्की छत वाले कमरों में चंदोबा लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है। कड़ियों वाली कच्ची छत के कमरों में ऊपर से घास-फूस, जीव-जन्तु आदि गिरने की सम्भावना रहती है, अतः उनमें चन्दोबा लगाना आवश्यक है। समाधान जिज्ञासा- अर्ध पुद्गल परावर्तन काल में असंख्यात वर्ष होते हैं, फिर भी इसको अनन्तकाल क्यों कहा जाता है ? श्री धवला पुस्तक १/१ में इस प्रकार कहा है- अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालः सक्षयोऽप्यनन्त: छद्मस्थैरनुपलउधपर्यन्तत्वात् । केवलमनन्तस्तद्विषयत्वाद्वा अर्द्धपुद् गल परिवर्तनकाल क्षय सहित होते हुए भी इसीलिए अनन्त है कि छद्मस्थ जीवों के द्वारा उसका अन्त नहीं पाया जाता है। वास्तव में केवलज्ञान अनन्त है अथवा अनन्त को विषय करने वाला होने से यह अनन्त है। - श्री धवला पुस्तक ३, ४ व पुस्तक १४ में भी इसी प्रकार का वर्णन है। श्री त्रिलोकसार में इस प्रकार कहा है जावदियं पच्चक्खं जुगवं सुदओहिकेवलाण हवे। तावदियं संखेज्जमसंख्यमणंतं कमा जाणे ॥ ५२ ॥ गाथार्थ - जितने विषय युगपत् प्रत्यक्ष श्रुतज्ञान के हैं, अवधिज्ञान के हैं और केवलज्ञान के हैं, उन्हें क्रम से संख्यात, असंख्यात और अनन्त जानो । विशेषार्थ - जितने विषयों को श्रुतज्ञान जानता है, उसे संख्यात कहते हैं। जितने विषयों को अवधिज्ञान जानता है, उसे असंख्यात कहते हैं और जितने विषयों को केवलज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है उसे अनन्त कहते हैं । इस परिभाषा के अनुसार अर्धपुद्गल परिवर्तन भी अनन्त है, क्योंकि वह अवधिज्ञान के विषय से बाहर है। किन्तु वह परमार्थ अनन्त नहीं है, क्योंकि अर्धपुद्गल परिवर्तन काल व्यय होते-होते अन्त को प्राप्त हो जाता है अर्थात् समाप्त हो जाता है अर्थात् यह सक्षय अनन्त है। आय के बिना व्यय होते रहने पर भी जिस राशि का अन्त न हो वह राशि अक्षय अनन्त कहलाती है। उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार अर्धपुद्गल परावर्तन काल में यद्यपि असंख्यात वर्ष होते हैं, वह बहुत काल बाद समास भी हो जाता है, परन्तु मात्र केवलज्ञान का विषय होने से उसे अनन्त कहा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524274
Book TitleJinabhashita 2003 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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