Book Title: Jinabhashita 2003 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 22
________________ पाप से घृणा करो पापी से नहीं प्रस्तुति : सुशीला पाटनी पाप करने में मनुष्य जितना आगे बढ़ जाता है उतना | करती है। अत: हम अपनी आत्म प्रशंसा कभी न करें क्योंकि जानवर नहीं, सबसे अधिक क्रोध करने में, सबसे अधिक अहंकार | जो प्रशंसनीय होता है उसकी प्रशंसा स्वयं होती है करने की करने में, सबसे अधिक छल कपट करने में और सबसे अधिक आवश्यकता नहीं। लालच करने में मात्र मनुष्य ही आगे रहता है, जानवर नहीं। जीवन को उन्नत बनाने का सबसे अच्छा तरीका यह है मनुष्य क्या-क्या नहीं करता सभी कुछ तो करता है, इस मनुष्य ने | कि हम अपने द्वारा किये गये अतीत के अनर्थों की ओर देखें, और सबको सुखा दिया और स्वयं ताजा रहना चाहता है, वह मनुष्य है उनका संशोधन करें, उनका परिमार्जन करें और आगामी काल में जो हरी को समाप्त करके हरियाली की चाह करता है, स्वयं उन अनर्थों को नहीं करने का संकल्प करें, इस शरीर को अहिंसा टमाटर की तरह लाल रहना चाहता है और दूसरों को काला करने के लिए काम में लायें और मन को भविष्य के उज्जवल के लिए की सोचता है। यह मनुष्य ही अतिक्रमण करता है, प्रतिकरण लगायें, दूसरों की अच्छाई करने में अपनी बुद्धि लगाएँ और करता है। यह अनुसंधान तो करता है, अतिसंधान भी करता है।| कर्त्तव्य की ओर आगे बढ़े तभी हमारा जीवन सार्थक हो सकता इस प्रकार यह मनुष्य इस सृष्टि में नाश और विनाश के काम करता है, अन्यथा नहीं। अनर्थ वही करता है जो परमार्थ को भूल है। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य को अतीत के समस्त जाता है, जो परमार्थ को याद रखता है वह व्यक्ति अनर्थ नहीं पापों का प्रायश्चित कर लेना चाहिए और अपनी आत्मा को पाप कर सकता। अपना स्वभाव ही तो परमार्थ है, अपनी आत्मा से दूर कर लेना चाहिए और हमेशा पाप से घृणा करना चाहिए | का ख्याल ही तो परमार्थ है, अनर्थों से बचना ही तो परमार्थ पापी से नहीं। है, पापों को तोड़ना ही तो परमार्थ है और अहिंसा ही सही स्टेन्डर्ड का अर्थ तो आदर्श होता है। हमारे जीवन में | परमार्थ है। हम अहिंसा को जीवन में उतारें तभी सही मायने में आस्था, विवेक और कर्त्तव्य का स्टेन्डर्ड होना चाहिए और वह हम्परा जीवन उन्नत हो सकता है, अन्यथा अवनति ही होगी। आस्था अन्धी न हो अपितु विवेक के साथ हो और वह विवेक, मनुष्य को चाहिए कि वह जानवरों के लिए आदर्श बने। कर्त्तव्य के साथ हो। यदि हमारे जीवन में आस्था, विवेक और | पशु तो आज भी अपनी मर्यादाओं में रहते हैं लेकिन इस मनुष्य ने कर्तव्य तीनों का एक साथ गठबंधन हो जाये तो हमारा जीवन | सारी मर्यादाओं को छोड़ दिया। मनुष्य को अपनी जीवन शैली महक उठे, सुगन्धित हो जाये। जीवन महान् बन सकता है हम शुद्ध कर लेना चाहिए यदि मनुष्य सुधर जायेगा तो सारी दुनियाँ दूसरों के लिए आदर्श बन सकते हैं, उदाहरण बन सकते हैं, | सुधर जायेगी, खतरा प्रकृति से नहीं खतरा मनुष्य से है। प्रकृति ने शर्त है कि हम अपनी आत्म प्रशंसा न करें। आत्म प्रशंसा | मनुष्य को खराब नहीं किया लेकिन इस मनुष्य ने प्रकृति को हमको अपने कर्तव्यों से चलित करती है, विमुख करती है, | तबाह कर दिया। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य आत्म प्रशंसा हमको कमजोर करती है और अहंकार को पुष्ट | प्रकृति के अनुरुप चले। आर.के. हाऊस, मदनगंज किशनगढ़ कबीर वाणी अहम् एकै साधै सब सधै, सब साधै सब जाय। माली सींचै मूल को, फूलै फलै अघाय॥ एक जानि एकै समझ, एकै कै गुन गाय। एक निरख एकै परख, एकैसों चित्त लाय॥ विश्व ख्याति अर्जित करने से अहं कहाँ घटता है। अगणित तारों जैसा वह तो और चमकता है। भीतर से परिवर्तन होता तो घट जाता अहंकार भी, निर्मल मन के दर्पण से अध्यात्म प्रगटता है। योगेन्द्र दिवाकर दिवा निकेतन, सतना (म.प्र.) 20 जून 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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