Book Title: Jinabhashita 2003 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 25
________________ हैं। गया है। हैं, जो अष्टमंगलद्रव्य एवं अष्टप्रातिहार्य सहित हैं तथा प्रातिहार्य से जिज्ञासु - श्रीमती प्रतिभा जैन, जयपुर रहित सिद्ध भगवान् की प्रतिमा भी विराजमान है।" जिज्ञासा- श्री मूलाचार गाथा २५ की टीका के अनुसार अकृत्रिम चैत्यालय के मानस्तम्भ के समीप चैत्यवृक्ष एवं सभी अकृत्रिम प्रतिमाएँ सिद्ध प्रतिमाएँ हैं और कृत्रिम प्रतिमाएँ सिद्धवृक्ष हैं, चैत्यप्रासाद भूमि में जगह-जगह स्तूप हैं, जिनमें अरिहंत प्रतिमाएँ हैं। कृपया स्पष्ट करें? अर्हत एवं सिद्ध परमेष्ठी के बिम्ब हैं। समाधान - श्री मूलाचार गाथा २५ की टीका में इस श्री तिल्लोयपण्णत्ति अधिकार-४ में पंचमेरु के जिनालयों प्रकार कहा है-“अष्टमहाप्रातिहार्यसमन्विता अर्हत्प्रतिमा, तद्रहिता | में विराजमान जिन प्रतिमाओं का वर्णन करते हुए इस प्रकार कहा सिद्धप्रतिमा। अथवा कृत्रिमायास्ता अर्हत्प्रतिमाः, अकृत्रिमा: सिद्धप्रतिमाः॥" छत्तत्तयादि-जुत्ता, पडियंकासण-समण्णिदा णिच्चं। अर्थ-अष्टमहाप्रातिहार्य से युक्त अर्हन्त प्रतिमा होती है समचउरस्सायारा, जयंतु जिणणाह-पडिमाओ॥१९०१॥ और इनसे रहित सिद्ध प्रतिमा है अथवा जो कृत्रिम प्रतिमाएँ है वे अर्थ - तीन छत्रादि सहित, पल्कङ्कासनसमन्वित और अरिहंत प्रतिमा हैं और जो अकृत्रिम प्रतिमाएँ हैं वे सिद्ध प्रतिमाएँ | समचतुरस्न आकारवाली वे जिननाथ प्रतिमाएँ नित्य जयवन्त हैं। श्री सिद्धान्तसार दीपक के १५ वें अधिकार में इस प्रकार उपर्युक्त गाथा की टीका के अनुसार आपका कथन सत्य | कहा हैहै, परन्तु जब अन्य ग्रन्थों से उपर्युक्त सन्दर्भ का मिलान किया नन्दीश्वरमहाद्वीपे नियमेन सुराधिपाः। जाता है तब अष्टप्रातिहार्य से युक्त प्रतिमा को अरिहंत प्रतिमा वर्षमध्ये त्रिवारं च दिनाष्टावधिमूर्जितम्॥३४५॥ कहना और उनसे रहित प्रतिमा को सिद्ध प्रतिमा कहना तो वसुनन्दि महामहं प्रकुर्वन्ति भूत्या स्नानार्चनादिभिः । प्रतिष्ठा पाठ, तृतीय परिच्छेद, श्लोक नं. ६९-७० तथा जयसेन जिनालयेषु सर्वेषु प्रतिमारोपितार्हताम्॥३४६॥ प्रतिष्ठा पाठ श्लोक नं. १८०-१८१ से, मिलान कर जाता है परन्तु अर्थ - सर्व देव समूहों से युक्त होकर इन्द्र नियम से वर्ष सभी अकृत्रिम प्रतिमा सिद्ध प्रतिमा होती हैं यह बात अन्य शास्त्रों में तीन बार (आसाढ़, कार्तिक, फाल्गुन) नन्दीश्वर द्वीप जाते हैं से घटित नहीं होती। करणानुयोग के ग्रन्थों में जिनप्रतिमा और | और वहाँ के सर्व जिनालयों में स्थित अर्हन्त प्रतिमाओं की अष्टसिद्धप्रतिमा का वर्णन बहुतायत से पाया जाता है, इनमें अरिहन्तों | अष्ट दिन पर्यन्त अभिषेक आदि क्रियाओं के साथ-साथ महामह की प्रतिमाओं को जिनप्रतिमा कहा गया है। | पूजा करते हैं। श्री त्रिलोकसार में अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन करते श्री तिलोयण्णत्ति अधिकार ८ में देवों के जन्म लेते समय हुए इस प्रकार कहा है का वर्णन करते हुए इस प्रकार कहा हैमूलगपीठणिसण्णा चउद्दिसं चारि सिद्धजिणपडिमा। छत्तत्तय-सिंहासण-भामण्डल-चामरादि-चारुणं। तप्पुरदो महकेदू पीठे चिटुंति विविहवण्णणगा॥१००२॥ जिणपडिमाणं पुरदो, जय-जय सई पकुव्वन्ति ॥६०५॥ गाथार्थ - चारों दिशाओं में उन वृक्षों के मूल में जो पीठ अर्थ- पुन: वे देव तीन छत्र, सिंहासन, भामण्डल और अवस्थित हैं, उन पर चार सिद्ध प्रतिमाएँ और चार अरिहन्त प्रतिमाएँ | चामरादि से (संयुक्त) सुन्दर जिन प्रतिमाओं के आगे जय-जय विराजमान हैं। उन प्रतिमाओं के आगे पीठ हैं जिनमें नाना प्रकार | शब्द उच्चरित करते हैं। के वर्णन से युक्त महाध्वजाएँ स्थित हैं। श्री हरिवंश पुराण सर्ग ५ में नन्दीश्वरदीप के जिनालयों श्री त्रिलोक सार गाथा १०१२ में अकृत्रिम जिन चैत्य वृक्षों का वर्णन करते समय इस प्रकार कहा हैकी प्रतिमाओं के सम्बन्ध में इस प्रकार कहा है-पल्यङ्कप्रातिहार्यगा: पंचचापशतोत्सेधा रत्नकांचनमूर्तयः । चतुर्दिशामूलगता जिनप्रतिमाः ॥१०१२॥ प्रतिमास्तेषु राजन्ते जिनानां जितजन्मनाम्॥६७९॥ अर्थ- उन चैत्यवृक्षों के मूल की चारों दिशाओं में अर्थ - उन चैत्यालयों में संसार को जीतने वाले जिनेन्द्र पल्यङ्कासन और प्रातिहार्यों से युक्त जिनबिम्ब विराजमान हैं। । भगवान् की पाँच सौ धुनष ऊँची रत्न एवं स्वर्ण निर्मितमूर्तियाँ जयसेन प्रतिष्ठा पाठ श्लोक ६९/७० तथा १८०-१८१ में | विराजमान हैं। इस प्रकार कहा है"अकृत्रिम चैत्यालयों में गर्भगृह में १०८ पद्मासन रत्नमयी १/२०५, प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा - २८२ ००२ ५०० धनुष अवगाहनावाले अरिहन्त परमेष्ठी के प्रतिबिम्ब विराजमान जून 2003 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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