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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा
जिज्ञासु - पं. सनतकुमार विनोदकुमार जैन रजवाँस। । चारित्रं पुनरधिगमजमेव तस्य श्रुतपूर्वकत्वात्तद्विशेषस्यापि जिज्ञासा - तरबूज भक्ष्य है या अभक्ष्य ?
निसर्गजत्वाभावात् द्विविधहेतुकत्वं न सम्भवति । समाधान - तरबूज अभक्ष्य ही है। सभी श्रावकाचारों में अर्थ- चारित्र तो अधिगम से ही उत्पन्न होता है, निसर्ग तरबूज को अभक्ष्य कहा है, जिसके कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं- | (परोपदेश के बिना अन्य कारण समूह) से उत्पन्न नहीं होता है।
(१) श्री अमितगति श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है- | क्योंकि प्रथम ही श्रुतज्ञान से जीव आदि तत्वों का निर्णय कर
नाली सूरणकन्दो दिवसद्वितयोषिते चदधिमथिते। चारित्र का पालन किया जाता है, अतः श्रुतज्ञानपूर्वक ही चारित्र विद्धं पुष्पितमन्नं कालिङ्गं द्रोणपुष्पिका त्याज्या॥८४॥ | है। इसके भेद अर्थात् सामायिक, परिहारविशुद्धि आदि भी निसर्ग
अर्थ- कमलनाल, सूरण, जमीकन्द तथा दो दिन का बासी से उत्पन्न नहीं होते। अत: चारित्र, निसर्ग व अधिगम दोनों प्रकार दही, छाछ, बींधा अन्न, अंकुरित अन्न, कलींदा (तरबूज) और | से नहीं होता (अपितु अधिगम से ही होता है)। श्री राजवार्तिक द्रोण पुष्पिका इन वस्तुओं का भक्षण त्यागने के योग्य है। अध्याय १/३ में कहा है- अर्थ चारित्र है सो अधिगम ही है जातें
(२) प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है- श्रुतज्ञान पूर्वक ही हो हैं। वृन्ताकं हि कलिंङ्गं वा कूष्माण्डादिफलं तथा।
उपर्युक्त प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि मतिज्ञान, अन्यद्वा दूषितं लोके शास्त्रे वा वर्जयेत्सुधीः ॥१०४॥ | अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान केवल निसर्गज होते हैं। श्रुतज्ञान,
अर्थ - बैंगन, तरबूज, कूष्माण्ड तथा और भी जो कुछ केवलज्ञान अधिगमज ही होते हैं तथा चारित्र मात्र अधिगमज ही लोक में व शास्त्रों में सदोष कहे गये हैं, उन सबका त्याग कर देना होता है निसर्गज नहीं। चाहिए।
यहाँ इतना और भी जान लेना अच्छा होगा कि श्री (३) श्री व्रतोद्यतन श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है- | श्लोकवार्तिक पुस्तक-२ के अनुसार, जिसप्रकार औपशमिक
करीरं कोमलं विल्वं कलिंगं तुम्बिनी फलम्। सम्यग्दर्शन निसर्ग एवं अधिगम दोनों से होता है, उसी प्रकार
बदरी फलजं चूर्ण सन्त्याज्यं फलपंचकम्॥२३७॥ क्षायिक एवं क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी दोनों प्रकार से होते हुए
अर्थ- करीर (कैर), कोमल बेलफल, तरबूज, तुम्बा, | भली प्रकार प्रतीत हो रहे हैं। बेरों का चूर्ण, इन पाँच फलों को त्यागना चाहिए।
जिज्ञासा - क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल ६६ इसके अलावा सागारधर्मामृत, श्रावकाचारोद्धार, पुरुषार्था- | सागर है या १३२ सागर? नुशासन श्रावकाचार, किशनसिंह श्रावकाचार तथा रत्नकरण्ड समाधान - क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल ६६ श्रावकाचार की पण्डित सदासुखदास की टीका में भी तरबूज को
सागर है। यह ६६ सागर उसी जीव की अपेक्षा सिद्ध होता है अत्यन्त हिंसाकारक अभक्ष्य कहा है।
जिसने ६६ सागर के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में दर्शन मोहनीय की जिज्ञासा - निसर्गज, अधिगमज का भेद सम्यक्त्व में ही
क्षपणा का प्रारम्भ कर दिया हो। अन्यथा वह जीव अन्तर्मुहूर्त कम होता है या सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में भी होता है?
६६ सागर के उपरान्त सम्यग्मिथ्यात्व या मिथ्यात्व को प्राप्त हो समाधान - उपर्युक्त प्रश्न के समाधान में श्री राजवार्तिक
जाता है। श्री धवला पुस्तक ५/१ में इस सम्बन्ध में इस प्रकार १/३ में इस प्रकार कहा है- (हिंदी टीका) केवलज्ञान श्रुतज्ञान | कहा है पूर्वक होता है, इसलिये उसमें निसर्गपना नहीं। श्रुतज्ञान
अर्थ-- मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम २ x ६६ परोपदेशपूर्वक ही होता है। स्वयं बुद्ध के जो श्रुतज्ञान होता है वह
सागरोपम काल है । कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य १४ सागरोपम जन्मान्तर के उपदेश पूर्वक है (इसलिये निसर्गज नहीं है) मतिज्ञान,
आयु स्थितिवाले लांतव, कापिष्ठ देवों में उत्पन्न हुआ, वहाँ १ अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान निसर्गज ही हैं।
सागरोपम काल बिताकर दूसरे सागरोपम के आदि समय में सम्यक्त्व सम्यक्चारित्र के सम्बन्ध में श्री श्लोकवार्तिक २/१ में इस |
को प्राप्त हुआ। १३ सागरोपम काल वहाँ रहकर सम्यक्त्व के साथ प्रकार कहा है
| ही च्युत हुआ और मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भव में संयम
- जून 2003 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only
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