Book Title: Jinabhashita 2003 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 12
________________ और दरिद्रता में बखोई सुप्त समाज को जगाकर दिशा बोध देना । ही प्रतिपादित करते है जिन्हें बाद में "हिन्दू" पुकारा जाने लगा। अब भी वास्तव में अत्यंत आवश्यक है। बदले माहौल और | शिव और शक्ति की कल्पना भी बहुत बाद की है। इसीलिए भारतीय संस्कृति के पतन की रफ्तार को देखकर लगता है कि | ऋग्वेद में अरिष्टनेमि तक का उल्लेख है। ऋषभ और उनके हमारी अज्ञानता से हमने बहुत कुछ खोया है। हमने खोकर भी | लांछन के गौरव से परिपूर्ण ऋग्वेद ऋषभ को प्रजाप्रति, पशुपति, किसी बाहर से आकर उद्धार करने वाले की वृथा राह देखी है। | केशी, नाग्न, ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, मौनी (मुनि), व्रात्य, अर्हत, अपेन अंदर की निधि की ओर नहीं देखा। ब्राह्मण का दंभ रखकर अर्हन, वातरशना पुकारता है। उनकी हॉ-मा की दंडव्यवस्था की भी अंदर बैठे ब्रह्म (आत्मा) को पहचानने को पुरुषार्थ नहीं याद करता है। स्त्रियों के तप को महत्व देता है। विदूषियों से उठाया। इसीलिए भ्रम में उलझकर बिखर गए। ज्ञानप्राप्ति का समर्थन करता है। कृषि परम्परा हेतु वृषभ, जिसमें हड़प्पा के शांत योगी का रूप हमें रुद्र का रूप दिखने | हिंसा का यज्ञ विषयक कोई उल्लेख नहीं है, वरूण, सूर्य, धरती लगा। हड़प्पा के रूद्र का उन्नत लिंग मूर्ति में नाभि तक पहुँचता और पवन की महत्ता बतलाता है। प्राचीन संपूर्ण हिन्दू साहित्य है जिसे कालांतर में शिव-लिंग के रूप में पूजा जाने लगा है किंतु | उन्हें ही आदिनाथ मानता है किंतु उत्तर कालीन शिव की कल्पना हड़प्पा का योगी सामान्य है। उसका लिंग जंघा जोड़ से ऊपर नहीं | उनसे बहुत भिन्न है। दिखता अर्थात् वह उन्नत नहीं सौम्य है। इसीलिए वह रूद्र नहीं कंकाली टीले, मथुरा और हड़प्पा से प्राप्त धड़ की कायोत्सर्गी जिनलिंग है। और हड़प्पा का योगी शिव नहीं, ऋषभ "पशुपति " मुद्राओं में दिगम्बर परम्परा का साम्य, "कटवप्र" की दृष्ट निरंतरता ही है। से आता हुआ प्रतीत होता है। इस प्रकार कटवप्र भारतीय-प्राच्यपुरातात्त्विक प्रतीकों से यह भी ज्ञात होता है कि तब | वैभव और सभ्यता की शाश्वत परम्परा की निरन्तरता को दर्शाता हड़प्पा-मोहनजोदड़ो काल में भारत से जल और थल दोनों ही | हुआ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मार्गों से व्यपार चलता था। समद्र पार कर इजिप्त, बेबीलोन, ग्रीक पुरातत्त्व दृष्टि से तक्षशिला और नालंदा-विश्व-विख्यात जैसे सुदूर देशों में भी व्यापार हेतु जलपोतों से श्रेष्ठी जाते थे। तब | शिक्षा केन्द्र थे जहाँ विदेशों से शिक्षार्थी आकर ज्ञान लाभ लेते थे। बिना परिचय उन देशों में विनिमय भला संभव कैसे होता? अत: आज उनके खंडहर भी अपने वैभव की कथा बतलाते हैं। कहा भाषा का कुछ न कुछ माध्यम अवश्य रहा जिसके द्वारा ब्राम्ही- जाता है कि तक्षशिला और नालन्दा के ग्रंथागारों की आग छह लिपी और भाषा के शब्द वहाँ पहुँचे साथ ही पहुँची हमारी संस्कृति | माह तक नहीं बुझी थी। अनेक समर्पित विदेशी विद्यार्थियों ने यदि के प्रतीकात्मक तथा अभिव्यक्ति स्वरूप "चार गतियाँ'' और | कुछ साहित्य जलने से बचा भी लिया हो तो कोई आश्चर्य नहीं "स्वास्तिक" चिन्हों वाला अध्यात्म। कुछ ने वहाँ दीर्घ संपर्क से होगा। उसे वे अपने साथ ले गए हों तो भी कोई आश्चर्य नहीं। विवाह भी किए होंगे और संततियों को ऋषभ-परम्परा का संदेश आज भी विदेशी ग्रंथागारों में लाखों की संख्या में भारतीय देने हेतु दिगम्बरत्व की मूर्तियाँ भी दी होंगी। रेषफ और "कूरो" पांडुलिपियाँ सुरक्षित होने को क्रमबद्ध पड़ी हैं। मात्र बर्लिन की मूर्तियाँ वैसी ही घटनाओं का प्रतिफल प्रतीत होती हैं। भारत विश्वविद्यालयीन पुस्तकालय में लाखों की तादाद में पांडुलिपियाँ ने देवपूर्व आदिकाल से ही आत्मबोध का वैभव विश्व को दिया अनपठ पड़ी हैं। यह प्राच्य लिपि के महत्त्व को घटाता नहीं बढ़ाता है। वैदिकों ने पूजन, विधान, मंदिर-निर्माण, आध्यात्म जिनों से | है। ही सीखा है। रामायण और महाभारत जिन-धर्म के सिद्धांतों को | ___६३/ए, औद्योगिक क्षेत्र गोविन्दपुरा, भोपाल ४६२०२३ (म.प्र.) आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुभाषित शब्द अर्थ नहीं है वह तो अर्थ की ओर ले जाने वाला संकेत मात्र है। शब्दों में ऐसा जादू है कि टूटता हुआ दिल जुड़ जाता है और जुड़ता हुआ टूट जाता है। निर्भीकता, गम्भीरता व मधुरता से बोला गया शब्द ही प्रभावक होता है। आचरण के बिना साक्षर मात्र बने रहने से ठीक उसके विपरीत राक्षस बन जाने का भी भय रहता है। 10 जून 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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