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के लिए किसी श्रमण ने मांगी तुगी तीर्थ से आकर शेष दो कषायों | कलश"है जो अचानक दमक उठा। (ऐसा बतलाया जाता है (प्रत्याख्यान और संज्ज्वलन) को त्याग करने हेतु रत्नत्रय धारते
कि) किंवदन्ती है कि सल्लेखना-मृत्यु से पूर्व जब मुनि दशा में हुए तीन शुक्लध्यानों को पाकर सल्लेखना अपनाते हुए बारहवें
चन्द्रगुप्त अनेक उपवासों के बाद भिक्षावृत्ति हेतु निकले तब तीन दिन मुक्ति पाई।"
दिशाओं के ग्रामों में भटकने पर भी उन्हें भिक्षा प्राप्त नहीं हुई। तब तभी दूसरी पंक्ति ......?
चौथी दिशा के जिनदासपुर नामक ग्राम में उन्हें आहार प्राप्त हुआ ___ सो भी ऐसी ही कुछ थी- (तीसरे) इस अवसर्पिणी काल
था। जिनदासपुर अब भी अपनी पुरानी कथा दर्शाता है। यहाँ का के प्रारंभ में ही पुरुषार्थ बढ़ाकर क्षपक ने स्वसंयमी सल्लेखना
प्राचीन जिन मंदिर अत्यंत सुंदर कला-युक्त है किंतु असुरक्षित लेकर अरहंत-सिद्ध को जपते हुए तीन धर्म ध्यानों सहित अपने
होने के कारण उसकी बाह्य मूर्तियों को बेरहमी से नष्ट किया गया दुानों को त्याग कर शुक्ल ध्यानों सहित सल्लेखना ली। उसे
है और कुछ गायब भी हैं। वैय्यावृत्ति भी मिली और तीर्थंकर के चरण भी। तीन दिन तक
| पंचम दुषमा काल का ऐसा कुप्रभाव हुआ है कि मनुष्य ऐसा चला। सल्लेखना लेने पर पंचमगति का साधन एक ही दिन
ने मानवता छोड़ दी है। हर ओर हिंसा और मांसाहार की बहुलता आवश्यक रहा, पश्चात् सल्लेखना पूर्ण हुई।" फिर तो जितनी
हुई है। समीप ही "कम्मदल्ही" के आसपास के लगभग ७२ भी पंक्तियों को देखा यही पाया कि उस सल्लेखी को कितने दिन
जिन मंदिरों को तोड़-तोड़ कर १८ एकड़ में पसरे तालाब में फेंक में वैय्यावृत्ति प्राप्त हुई और उसकी कितने दिनों बाद समाधि हुई।।
दिया गया। मात्र ६ मंदिर वहाँ अब शेष बचे हैं। अत्यंत सुंदर लगभग १४८ संकेताक्षर सैंधव लिपि के देखने में आए। सब इतने
पंचकूट बसदि में जो सबसे सुन्दर है तथा जिसमें छत पर अब भी गहरे हैं कि अब भी भली भाँति पढ़े जा सकते हैं। बीच-बीच में
अष्टदिक्पालों की सुन्दर मूर्तियाँ हैं, पर मांसाहारियों ने डेरा डाल ऊँ भी दिखाई दिया, स्वास्तिक भी और आवर्ति-चतुर्दिक भी।।
रखा था। "जिन-मुद्राओं वाले विशाल सुंदर रंगमंडप में उन्होंने हाथी, बैल, चिड़िया, कुत्ता भी।"
बकरे, मुर्गी बाँधना और मांस पकाना प्रारंभ कर दिया था। सामने इन सबों के बीच में अनेक चरण-चिन्ह भी मिले हैं।
ही पाषाणी फर्श पर ओखल बना रखी थी। वेदियों के कुंडों से कुछ मंदिरों की नीवों से अधदबे झाँक रहे हैं तो कुछ एक पर
बैंचें बनाकर आराम से वे उन पर सोते बैठते थे। बाहरी कलाकृति अनेक बार चरण पुन: उकेर दिये गये हैं। साथ ही प्रशस्तियाँ भी
यहाँ देखते ही बनती है। उपलब्ध शिलालेखों के अनुसार (नागमंगल अलग-अलग कालों की हैं। कई बेहद धुंधले हो गए हैं फिर भी
२०) इस मंदिर के संरक्षण हेतु गंगवंश के नेमिदण्डेश और मुद्दाशे सुबह के हल्के प्रकाश में झलक ही पड़ते हैं।
ने २४ एकड़ सिंचित एवं ५० एकड़ असिंचित जमीन इसे समर्पित आचार्य भद्रबाहु की गुफा को अब दीवारें उठाकर सहेज
की थी। श्री शांतिनाथ चैत्यालय के शिलालेख (नागमंगल १२९) दिया गया है कितु वहां तो छत वाली चट्टान ने अद्भुत ही दृश्य | के अनसार सामन्तराज भरतनायक ने १८ एकड बाले बड़े तालाब दिखलाया। उसम सात मानव आकृतिया मानव-जावाष्मा क रूप के पास वाली एक एकड़ जमीन भी इस देवस्थान की सेवार्थ में दिखती हैं। इनमें तीन तो संपूर्ण मानवाकृतियाँ हैं चार के मात्र
समर्पित की थी। जिसे (नागमंगल १३०) शिलालेख के अनुसार मुण्डों की छाप है। ये दर्शा रहे हैं कि कभी इन सात सोते समाधिस्थ
होय्यसलवंशी महाराज नरसिंह ने "सेवा आगे भी जारी रहे" का मानवों पर ज्वालामुखी ने अपने लावे का बड़ा छींटा फेंक कर
आदेश दिया था। (नागमंगल १३१ के अनुसार इसे “एक कोटि उन्हें भस्म कर दिया किंतु वह छींटा एक चट्टान बनकर रह गया
जिनालय" घोषित किया गया था) जो कदाचित भूकंप के भारी धक्के में अपना आधार बदलकर इन
किंतु कालान्तर में यहाँ के अधिकांश जैन विषम मानव-जीवाष्मों को गुफा की छत पर दर्शाने लगा। उसी को गुफा परिस्थितियों-वश पलायन कर गए। जो बचे, वे मुगलों और जैसा पाकर उत्तरवर्ती श्रमणों ने उसे अपना आवास बना लिया
ब्रिटिश प्रभाव में कुंठा और विपदाग्रस्त होकर धर्म-च्युत हो कर्त्तव्यहोगा। वह घटना लाखों वर्षों पूर्व की ही संभव है जब दक्षिणी
बोध ही भूल गए। मंदिरों के आसपास की लगभग सारी ही भूमि पठार ने अपनी अंतिम लावा-गर्जना के बाद "मौन" प्रारंभ किया।
पर ये कब्जा करके रहने लगे, सो भी संस्कार-विहीन । भट्टारक मानव सभ्यता का इसे "केन्द्र-बिन्दु" कहा जावे तो अतिशयोक्ति चारू-कीर्ति जी के संरक्षण में यहाँ भट्टारक भानुकीर्ति जी को नहीं होगी क्योंकि हड़प्पा भी डायनासर और मैमथ काल की स्थापित किया गया और राज्य सरकार ने भी उदारता से वहाँ की मानव सभ्यता को इसी के समकालीन बना देते हैं। सैधव लिपि पुरातात्विक धरोहर के जीर्णोद्धार का कार्य प्रारंभ किया है। का चट्टानों में गहरा उकेरा जाना स्पष्ट दर्शाता है कि यह कटवप्र
फलस्वरूप लोगों में चेतना लौटती दिखाई दी है। कर्नाटक प्रांत सैंधव-लिपि के साथ तब भी उतना ही महत्वपूर्ण रहा है जब का ये दुर्भाग्य है कि वहाँ संस्कृति की जड़ें गहरी होने के बाद भी ज्वालामुखी अंतिम बार अचानक दक्षिण भारत में सक्रिय हो उठा
धर्म का विनाश हुआ और भारत की प्राच्य गौरव संपदा को था, जितना कि आचार्य भद्रबाहु के काल म। आर इस तरह यह | अज्ञानियों द्वारा क्षत-विक्षत किया गया। ऐसी स्थिति में लगता है भारत की प्राच्य-संस्कृति और अध्यात्मिक जीवन का "रुपहला | कि भटटारक परम्परा के द्वारा ऐसे क्षेत्रों को सुरक्षित रखा जाना
जून 2003 जिनभाषित 9
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