Book Title: Jinabhashita 2003 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ सोनागिरि तीर्थ क्षेत्र कैलाश मडबैया झाँसी गले की फाँसी, पंक्तियों के लेखक ने पैंतीस वर्ष पहले सोनागिरि के दर्शन करके दतिया गले का हार, लिखा थाललितपुर तब तक न छोड़िये, चाँदी जहाँ धरापर बिछती नभ सोना बरसाये, जब तक मिले उधार। चन्द्र प्रभु के मंदिर में जहाँ चंदा दूध नहाये। उक्त कहावत भले अंग्रेजों के जमाने की हो पर "दतिया सोने से सँवरे श्रमणगिर। गले का हार" वाली बात आज भी सार्थक प्रतीत होती है। एक बन्दों रे तीर्थ सोनागिर॥ तो पूरे मध्यप्रदेश में सबसे छोटा जिला और उस में सोनागिरि प्राचीनकाल में महर्षियों ने सोनागिरि के बारे में लिखा थाजैसा विशाल जैन तीर्थ, फिर तंत्र मंत्र का गढ़ पीताम्बरा पीठ। सुवर्ण स्यैव भो राज राजन्निश्रेवयेन स पर्वतः बुन्देली कलाओं का ख्यात स्थान एवं चर्चित गामा पहलवान। तत एवं सुवर्णद्रिीयते न तु नामतः इन्हीं कारणों से बुन्देलखण्ड के गले का हार तो दतिया है ही। अर्थात् पर्वत सोने का ही है और इसलिये उसे स्वर्णगिरि इस क्षेत्र के बारे में श्री देवदत्त दीक्षित कृत प्राचीन ग्रन्थ श्री | या सोनागिरि कहते हैं, केवल नाम से ही नहीं। "स्वर्णांचल महात्म्यम्" के प्रारंभ की पंक्तियाँ देखिये: वस्तुत: सोना एक ऐसी धातु है जिसके आकर्षण से आदमी "द्वीपे जम्बू मतिख्याते भरत क्षेत्र उत्तमें हर उत्कृष्ट वस्तु की, सोने से तुलना करता है। इसीलिए सोनागिरि बुन्देलदेशो भाषायां बद्रदेश: प्रभाति वे" आध्यात्म और साधना के क्षेत्र में सोने का ही गिरि है। कहा गया अर्थात् जम्बूद्वीप के उत्तम भरत क्षेत्र में बद्र नाम का देश है जिसे भाषा में "बुन्देलों" का देश कहते हैं। विविध समृद्धियों दुर्लभो विषयत्यागः स तु स्वर्णाद्रिपूजनात्। से भरपूर है। उक्त से ऐसा प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र का प्राप्यते भव्यजीवेर्हि तस्मात्पूज्यों गिरीश्वरः। राजकीय नाम भले कभी बद्रदेश और कभी कुछ रहा हो, पर विशेष: इसी सोनागिरि पर्वत तीर्थ से नंग और अनंग भाषा बुन्देली रही है। तात्पर्य यह कि बुन्देली भाषा बोलने वाले कुमार सहित साढ़े पाँच करोड़ मुनियों ने सतत् साधना कर मुक्ति बुन्देले कहलाये न कि बुन्देलों की भाषा बुन्देली। इससे बुन्देली | प्राप्त की थी इसीलिए यह सिद्ध तीर्थ है। भाषा किसी जाति विशेष की भाषा नहीं कही जा सकती। यह नंग और अनंग कुमार साधारण राजकुमार न होकर तीर्थ-स्थिति : उक्त दतिया जिला मुख्यालय से ग्वालियर | विशाल साम्राज्य भोग रहे, राजवंशीय नरेश थे, जिन्होंने तैलांग की ओर मात्र १२ किलो मीटर दूर स्थित सनावल ग्राम से सटे साम्राज्य से युद्ध जीतकर विजय पताका फहराई थी। पर जब हुये प्राकृतिक परिपूर्ण पर्वत के ७७ जिन मंदिरों की उत्तुंग शिखर- तीर्थंकर चन्द्रप्रभु के समवशरण में आये तो दर्शन कर वैराग्य ऐसा श्रृंखला बहुत दूर से ही आगंतुकों को आकर्षित करने लगती है। उपजा कि सब कुछ सम्पदा आदि तिनके के समान त्याग दी और पर्वत के इस सोनागिरि तीर्थ का पुराना नाम स्वर्णगिरि और आत्मविजय में ही सच्ची जीत जानकर तपस्या में संलग्न हो गये। श्रमणगिरि रहा है। दोनों राजकुमारों के साथ पन्द्रह सौ राजाओं ने भी जिन दीक्षा ली स्वर्णगिरि भले ही विशेषणात्मक प्रतीत हो पर श्रमणगिरि थी, यह काल तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का ही था। तो सचमुच सार्थक लगता है। क्योंकि श्रमण-संस्कृति अर्थात् औधेय देश के महाराजा अरिंजय की रानी विशाला ने जैन धर्मावलम्बियों का महत्वपूर्ण केन्द्र हुए बिना यहाँ इतने श्रीपुर में नंग एवं अनंग राजकुमारों को जन्मा था। दोनों राजकुमार विशाल और भव्य जिनालय बन ही नहीं सकते थे। श्रमण संतों विलक्षण वीर और विद्वान थे। सोनागिरि पर आध्यात्म का नया की साधना का केन्द्र होने से ही सोनागिरि अपनी तरह का इतिहास इन्होंने ही चंद्रप्रभु तीर्थंकर के काल में लिखा था। अद्भुत जैन तीर्थ है। एक तरफ प्रकृति की भरपूर सम्पदा, दूसरी धंगाणंग कुमारो कोड़ी पंचद्ध मुणिवरे सहिया। ओर आध्यात्म की महक और ऊपर से पुरातत्व का शिल्प सोनागिरि वर सिहरे जिवाणगया णमोतेसिम्॥ सौन्दर्य। तीर्थ-रचना- पर्वत पर स्थित ७७ मंदिरों की रचना शैली आठवें जैन तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का समवशरण यहाँ आने | सामान्य मंदिर शैली है। इन मंदिरों में विद्यमान जिन तीर्थंकरों की का अर्थ है- इस स्थल का उल्लेखनीय पुण्याकर्षण होना। इन | मूर्तियाँ भी चौबीसों तीर्थंकरों की सामान्य कोटि की दर्शनीय हैं। जून 2003 जिनभाषित 11 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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