Book Title: Jinabhashita 2003 06 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 3
________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य अप्रैल अंक सम्पादकीय "यह कैसा धर्म संरक्षण" में आपकी शिकायत महासभा से है। कृपया सीधे उन्हें ही पत्र लिखते तो स्थितीकरण का श्रेय आपको जाता, या तो आप उन्हें समझा देते या आप उनसे समझ लेते। सही क्या है? इस विषय की जानकारी के और व्यक्तिगत आरोप प्रति आरोप के पाँच पेज के लेख के स्थान पर संत शिरोमणी १०८ आचार्य श्री के प्रवचन पढ़ने को मिलते तो अधिक लाभकारी होते । पत्रिका की गरिमा के लिए दूसरे पत्र-पत्रिकाओं पर टिप्पणी के स्थान पर आप आचार्य संघों की बात समाज के समक्ष रखने की कृपा करें । विनीत धनकुमार बड़जात्या 1 झ- 28 दादावाड़ी, कोटा "जिनभाषित " मासिक पत्रिका ने जैन साहित्य जगत की पत्र-पत्रिकाओं में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। पत्रिका का आकल्पन, कुशल संपादन और लेख स्तरीय हैं । मेरा आग्रह है कि पत्रिका के नयनाभिराम मुखपृष्ठ, जिसे सहेज कर फ्रेम करके रखने का मन होता है, के बारे में विवरण / ऐतिहासिक वृतांत, गवेषणापूर्ण, खोजपरक, अंतरंग जानकारी उसी अंक में अवश्य प्रकाशित करें। प्रूफ रीडिंग की त्रुटियाँ चावल में कंकड़ जैसी लगती हैं. कृपया इनसे निजात दिलायें। पत्रिका में पं. रतनलाल जी बैनाड़ा का "जिज्ञासा सामाधान" खोजपूर्ण, ज्ञानवर्धक और हृदय को छू लेता है, इसके लिए उन्हें साधुवाद। भवदीय डी. के. जैन, अवर सचिव 18/30 साऊथ टी.टी. नगर, भोपाल मान्यवर " जिनभाषित" पत्रिका माह अप्रैल का अंक पढ़ने को प्राप्त हुआ। मुझे बड़ा आश्चर्य है कि इस पत्रिका में जो विद्वानों के लेख लिखे जाते हैं, उन लेखों में बात की बात पर टीकाटिप्पणी अधिक छापी जाती है जिनको भी व्यक्तिगत सलाह व जबाव देना है, कृपया वे महानुभाव अपने विचार पत्रिका में न छपवाकर व्यक्तिगत पत्राचार द्वारा दें । 1 Jain Education International गुलाबचन्द जैन, पटनावाले सागर (म.प्र.) लम्बे इंतजार के बाद "जिनभाषित" मई अंक प्राप्त हुआ। इंतजार का फल मीठा होता ही है, एक ही बैठक में पूरा अंक पढ़ लिया। डॉ. मुन्नी पुष्पा जी का लेख "मानस कबै कबै है होनें " बहुत रोचक एवं ज्ञानवर्द्धक लगा । दिगम्बरों की जिनप्रतिमा की पहिचान के प्रमाण पर आपका सम्पादकीय, नीरज जी का स्पष्टीकरण एवं उस स्पष्टीकरण की समीक्षा एक सार्थक एवं विचारोत्तेजक लेखमाला है। हाँ, 'जिनभाषित' का लगभग एक तिहाई अंश अवश्य इस में खप गया। पत्रिका, (मैं इसे जिनवाणी का लघुरूप मानता हूँ) में समाचारों को बहुत कम स्थान दिया जाता है। पूरी पत्रिका में मात्र दो से चार पृष्ठ ही समाचारों के लिये दिये जाते हैं। कृपया आचार्य श्री विद्यासागर जी के संघस्थ साधुजनों एवं आर्यिका माताओं के समाचार प्रत्येक अंक में अवश्य दिया करें। अन्य संघों के समाचारों को भी स्थान दें, तो पत्रिका में चार चाँद लग जायेंगे। अन्य सुझाव यह है कि 'जिनभाषित' का इंतजार करना बड़ा मुश्किल कार्य है अतः प्रत्येक माह के प्रारंभ में ही पत्रिका मिल जाये तो अतिकृपा होगी। जिनेन्द्र कुमार जैन एच.बी.- 22 स्टाफ कॉलोनी, डायमण्ड सीमेन्ट नरसिंहगढ़, जिला- दमोह (म. प्र. ) "जिनभाषित" का मई 2003 अंक मिला। श्री अतिशय क्षेत्र पपौरा की भाव वन्दना कराता हुआ यह अंक अपने आप में पूर्ण सुशीलता का प्रतीक है। आचार्य श्री विद्यासागर जी का उपदेश " निरतिचार का मतलब ही यह है कि जीवन अस्त-व्यस्त न हो, शान्त और सबल हो, " कल्याणमय है। सम्पादकीय दिगम्बरों की जिनप्रतिमा की पहचान के प्रमाण आगमोक्त हैं आपने 'प्रमुख' की अपेक्षा अतिरिक्त' शब्द का प्रयोग ठीक समझा है, पर लेखक की सहमति भी इसके साथ होनी चाहिये। अंक की इकलौती कविता 'तुमको प्रणाम्' बहुत अच्छी है। डॉ. संकटाप्रसाद मिश्र को 'जिनभाषित' के सशक्त माध्यम से मेरी बधाई। डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' की बालवार्ता शिक्षाप्रद है। योगेन्द दिवाकर दिवा निकेतन, सतना (म.प्र.) जून 2003 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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