Book Title: Jinabhashita 2003 06 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 4
________________ 2 सम्पादकीय द्रव्य और तत्त्व में भेदाभेद कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि द्रव्य और तत्त्व में क्या भेद है? इसके समाधानार्थ कुछ आर्षवचन नीचे उद्धृत किये जा रहे हैं । पञ्चास्तिकाय की नौवीं गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने 'द्रव्य' शब्द का निरुक्त्यर्थ इस प्रकार बतलाया है" द्रवति गच्छति सामान्यरूपेण स्वरूपेण व्याप्नोति तांस्तान् क्रमभुवः सहभुवश्च सद्भावपर्यायान् स्वभावविशेषानित्यानुगतार्थया निरुक्त्या द्रव्यं व्याख्यातम् ।" अर्थ जो भाव अपनी क्रमवर्ती और सहवर्ती पर्यायों में अर्थात् स्वभावविशेषों में व्यास होता है, उसे द्रव्य कहते हैं। = सहवर्ती पर्यायों का नाम 'गुण' है और क्रमवर्ती पर्यायों का नाम 'पर्याय' अतः जो भाव अपने गुणपर्यायरूप विशेष स्वभावों में समानरूप से विद्यमान होता है, वह द्रव्य है, यह अर्थ प्रतिपादित होता है। जैसे आत्मा की सहवर्ती (एक साथ रहने वाली) पर्यायें दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि गुण हैं तथा इन गुणों की मिथ्यादर्शनादि अवस्थाएँ क्रम से होने वाली पर्यायें हैं। इन सबमें आत्मा का अन्य द्रव्यों से भिन्न ( असाधारण) चैतन्यस्वभाव व्याप्त होता है, अतः वह आत्मा का सामान्य स्वभाव है । यह स्वत: सिद्ध होता है, इस कारण अनादि-अनन्त है। इसलिए इसका नाम पारिणामिकभाव है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु (द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु) का स्वकीय पारिणामिक भाव ही द्रव्य है। आचार्य जयसेन ने कहा भी है "तत्रौपशमिक- क्षायोपशमिक क्षायिकौदयिकभाव- चतुष्टयं पर्यायरूपं भवति, शुद्धपारिणामिकस्तु द्रव्यरूप इति ।" (समयसार, ता.वृ. गाथा ३२० ) अर्थात् जीव के पाँच भावों में से औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और औदयिक ये चार भाव तो पर्यायरूप हैं, किन्तु शुद्धपारिणामिकभाव द्रव्यरूप है। 'गुणपज्जयासयं दव्वं' (पं.का. १०) भी द्रव्य का लक्षण बतलाया गया है। अर्थात् गुण और पर्यायों का आश्रय द्रव्य कहलाता है। गुण और पर्याय वस्तु के विशेष स्वभाव हैं। विशेष-स्वभावों का आधार सामान्यस्वभाव होता है, जिसका दूसरा नाम पारिणामिक स्वभाव है। इस परिभाषा के अनुसार भी पारिणामिकभाव ही द्रव्य सिद्ध होता है। 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' (त.सू.५ / ३८ ) इन शब्दों में भी द्रव्य का लक्षण प्रतिपादित किया गया है। अर्थात् जो गुण और पर्यायों से युक्त होता है, वह द्रव्य है। वस्तु का पारिणामिकभावरूप सामान्यस्वभाव ही गुणपर्यायमय होता है, अतः इसके अनुसार भी पारिणामिकस्वभाव ही द्रव्य कहलाता है। निष्कर्ष यह कि वस्तु का पारिणामिक भाव (असाधारणधर्मरूप अनादि - अनन्त सामान्य स्वभाव) अपने गुणपर्याय रूप विशेष स्वभावों में द्रवित (व्याप्त) होने की अपेक्षा से द्रव्य कहलाता है। 'तत्त्व' शब्द 'तत्' सर्वनाम में भावार्थक 'त्व' प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है। इसकी व्याख्या पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि (१/२) में इस प्रकार की है "तत्त्वशब्दो भावसामान्यवाची कथम् ? तदिति सर्वनामपदम् । सर्वनाम च सामान्ये वर्तते। तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्य कस्य? योऽथ यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः ।" अर्थ 'तत्त्व' शब्द भावसामान्य का वाचक है, क्योंकि 'तत्' पद सर्वनाम है और सर्वनाम किसी भी पदार्थ का संकेत करने के लिए प्रयुक्त हो सकता है। अतः किसी भी पदार्थ के भाव अर्थात् स्वभाव को 'तत्त्व' कहते हैं । वस्तु के तत्त्व या स्वभाव दो प्रकार के होते हैं, सामान्य और विशेष जैसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि आत्मा के विशेष स्वभाव हैं तथा इन सब में समानरूप से व्याप्त रहने वाला एक चैतन्यभाव उसका सामान्य स्वभाव है, जिसका दूसरा नाम पारिणामिकभाव है। आत्मा के ये दोनों प्रकार के स्वभाव आत्मा के तत्त्व हैं। इनमें से चैतन्यरूप सामान्यस्वभाव या पारिणामिक स्वभाव अपने दर्शनज्ञानादि विशेष स्वभावों में द्रवित ( व्याप्त) होने की अपेक्षा द्रव्य कहलाता है, जो आत्मद्रव्य या जीव द्रव्य के नाम से प्रसिद्ध है । और उस आत्मद्रव्य का स्वभाव होने की अपेक्षा वह स्वयं ही आत्मा का तत्त्व कहलाता है । निम्नलिखित सूत्र में उमा स्वामी ने उसे आत्मा का स्वतत्त्व कहा है जून 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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