Book Title: Jinabhashita 2002 03 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 5
________________ | सम्पादकीय पाठकों से निवेदन आपने 'जिनभाषित' को बहुत सराहा है। इसकी वार्षिक और आजीवन सदस्यता ग्रहण की है। इसके लिए हम आपके आभारी हैं। हम चाहते हैं कि आप अपने सम्बन्धियों, पड़ोसियों और इष्टमित्रों को भी इसकी सदस्यता ग्रहण करायें। यह जिनवाणी माँ की चिट्टी है, जिनवाणी माँ का दूरदर्शन है, जिनवाणी माँ की पाठशाला है, जिनवाणी माँ का विश्वविद्यालय है, जो हर माह आपके घर ज्ञान और सद्विचार की सौगात लेकर पहुँचता है। यह मात्र एक अखबार नहीं है। यह बहुमुखी साहित्य का कोश है। इसके माध्यम से जो ज्ञान और उदात्त विचार आपके घर के अतिथि बनेंगे, वे आपकी किशोर और युवा पीढ़ी में धार्मिक अभिरुचि, साहित्यिक अभिरुचि, वैज्ञानिक अभिरुचि एवं कलात्मक अभिरुचि का निर्माण करने में अमोघ मंत्र सिद्ध होंगे। ड्राइंग रूम की टेबिल पर जब यह पत्रिका रखी हुई बार-बार दिखाई देगी, तो घर के बालक-बालिकाओं, युवा-युवतियों में कभी न कभी इसे छूने और उलटने-पलटने की इच्छा अवश्य उत्पन्न होगी और यही वह स्वर्णिम क्षण होगा, जब पत्रिका का कोई प्रवचन, कोई लेख, कोई गीत, कोई गजल, कोई कविता, कोई व्यंग्य, कोई आदर्शकथा, कोई सूक्ति उनकी नजर को खींच ले और उसमें व्यक्त उदात्त विचार मन में किसी नैतिक या धार्मिक संस्कार का बीज आरोपित कर दे। यह बिना उपदेश दिये, बिना डाँट-फटकार लगाये, बिना प्रताड़ित किये, बिना लाखों का खर्च किये, अपनी सन्तान में सम्यक् दृष्टिकोण, समीचीन जीवन दर्शन के विकास एवं उसे वांछनीय दिशा में मोड़ने का अनायास उपाय साबित होगा। क्योंकि उदात्त विचारों को मस्तिष्क में प्रवेश मिलना ही जीवन के पवर्तन का मनौवैज्ञानिक हेतु है। आज उदात्त विचारों को मस्तिष्क में पहुँचानेवाले साधन दुर्लभ हो गये हैं। कुत्सित विचारों का ही प्रसार विभिन्न वैज्ञानिक माध्यमों से चतुर्दिक् हो रहा है, और वैसी ही प्रवृत्तियाँ बालक-बालिकाओं में विकसित हो रही हैं। हम सबने टी.वी. के विभिन्न चैनलों के माध्यम से अपनी सन्तान के मस्तिष्क में कुविचार भरने की पुख्ता व्यवस्था कर रखी है। इसके लिए हम मोटी रकमें खर्च करते हैं। पचास-पचास हजार के टी.वी. सेट, वी.सी.आर. और म्यूजिक सिस्टम खरीदते हैं। दो-दो सौ रुपये महीने केबिल का किराया देते हैं। इस तरह अपनी सन्तान के मस्तिष्क में भरने के लिए बड़े मँहगे दामों में कुविचार खरीदते हैं। 'जिनभाषित' पत्रिका द्वारा प्राप्त होने वाले सद्विचार तो कुविचारों की तुलना में बड़े सस्ते दामों में मिल रहे हैं। 'जिनभाषित' उच्चकोटि के व्यंग्य और व्यंजनाप्रधान श्रेष्ठ कविताओं के माध्यम से साहित्यिक अभिरुचि जगाने का उत्तम साधन है। यह सन्तों के आध्यात्मिक प्रवचनों, मनीषियों के शोधपूर्ण सैद्धान्तिक आलेखों और जिज्ञासाओं के समाधान द्वारा घर-बैठे स्वाध्याय का स्वर्णिम अवसर उपस्थित कर देता है। हर तरह से यह उपयोगी और आत्मोन्नायक है। 'जिनभाषित' के प्रचार-प्रसार हेतु हमें आपके बहुमूल्य सहयोग की लालसा है। रतनचन्द्र जैन -मार्च 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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