Book Title: Jinabhashita 2002 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ घर का बना मंजन है तो), बाजार का तो अशुद्ध ही है। । विभिन्न प्रकार मिठाइयाँ आदि गरिष्ठ भोजन अपने चौकों 6. अचित्त फल - फलों को अचित्त करने का में बनाने लग जाती हैं, व बनाते समय हड़बड़ी करती तरीका यह है कि फल को गर्म पानी में 10 मिनिट तक हैं, जिससे अशुद्धियाँ होती हैं और आहार देते समय पड़ा रहने दिया जाए, तदुपरान्त उसको निकालकर फिर साधुओं को अक्सर अन्तराय आ जाता है। भोजन की प्रयुक्त किया जाए। लेकिन यह विधि लोग काम में नहीं कच्ची सामग्री की अशुद्धि को भी अनदेखा कर देते हैं, लाते। अक्सर श्रावक जन केले, सेव आदि को गर्म पानी जिससे साधुओं की साधना में साधक सिद्ध न होकर उल्टा से धोकर इस्तेमाल करते हैं, या कुछ लोग फलों का बाधक बन जाता है। हम अपने घरों में, अपने लिए एक छिलका हटाकर टुकड़े-टुकड़े करके एक-दो मिनिट आग दाल, दो साग, और सलाद बनाते हैं, लेकिन साधु को के ऊपर रखकर शुद्ध मान लेते हैं, जो विधि आगम गरिष्ठ आहार कराते हैं व विभिन्न पकवान खिलाते हैं, सम्मत नहीं है। फल 10 मिनिट तक गर्म पानी में डालने जिससे कि साधु को आलस्य व प्रमाद घेर लेता है और के बाद ही अचित्त होता है। कुछ लोग कहते हैं गर्म पानी वह आहार साधु के सामायिक, स्वास्थ्य आदि में बाधक में डालने से फल मुलायम पड़ जाते है व उनमें स्वाद सिद्ध हो जाता है। हमें चाहिए कि हम साधुओं को नहीं रहता है, उनसे मेरा निवेदन है कि वे स्वाद को दृष्टि हल्का-फुल्का शुद्ध मर्यादित भोजन करावें, जो कि हमारे में न रखकर भोजन शुद्धि को दृष्टि में रखें। अन्यथा लिए पुण्योपार्जन में साधक हो तथा साधु को भी अपनी अहिंसा महाव्रत नहीं पल सकेगा। साधना में साधक हो। 7. वस्त्र शुद्धि संबंधी - आहार के लिये प्रयोग निवेदन - विभिन्न संघों में निरन्तर जाते रहने से में लाये जाने वाले वस्त्र धुले हुए शुद्ध होने चाहिए। मेरे मन में भोजन की अशुद्धि को लेकर जो वेदना हुई आजकल देखा जाता है कि जितने दान देनेवाले हैं, वे है, मैंने यहाँ उसी का वर्णन किया है मुझे आशा ही नहीं अक्सर अपने पहने हुए वस्त्र उतारकर धोती-दुपट्टा पहिन पूर्ण विश्वास है कि श्रावकजन भोजन की शुद्धि का लेते हैं, जो कि अनुचित है। हमें शरीर से सारे वस्त्र | पूर्णरूपेण ध्यान रखने का प्रयास करेंगे। मैंने तो गुरुओं उतारकर गीले अंगोछे से शरीर पोछकर फिर शुद्ध कपड़े से यह सीखा है कि जो अशुद्ध वस्तु है, उसे न देना पहनने चाहिए। एवं जिन कपड़ों से हम कभी भी | अच्छा है। यदि आहार देना है तो कम सामान बनायें, लघुशंका आदि गये हों उन कपड़ों को पहनकर कभी | लेकिन शुद्ध बनावें और उपर्युक्त घी आदि वस्तुएँ शुद्ध आहार नहीं देना चाहिए। हों तभी दें अन्यथा नहीं। एक बात और देखी जाती है, आहार बनाते समय संघीजी जैन मंदिर माताएँ बहुत सारे व्यंजन जैसे-गोलगप्पा, रसगुल्ला व सांगानेर (जयुपर) राजल गीत श्रीपाल जैन 'दिवा' सखी री अन्तर अँखियाँ रोय। राजुल मन माने की बात। सखी सुन अन्तर अँखियाँ रोय। सखी री मन माने की बात। मोती झरते झपे पलक नहिं नयना कैस सोय? | जिन को अब तक राग रिझाया, मधुरस्वप्न दिन रात। चिन्तन का आराध्य निरंतर, टप-टप मोती धोय। मन पगला राजुलमय होकर, लाये नेम बरात। प्रक्षालन से नव छवि निखरे, अपलक अँखियाँ जोय। पशु-पुकार की बेटी करुणा, जीत दे गई मात। अष्ट द्रव्य भावों के लाई, पल-पल पूजन होय। मन तो कहता हार हो गई, आतम मत अनजात। करुणा जब साकार हो गई, समता पुलकित होय। झूल रहा झूला मन वेदन, वैभव सुख मुरझात। निदय हृदय कैस कह दूँ मैं, जग तारक जो होय। पर आतम सँग मन फिर कहता, असल विरागी जात। शाकाहार सदन एल. 75, केशर कुंज, हर्षबर्द्धन नगर, भोपाल-3 -मार्च 2002 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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