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नयस्य विनयो मूलं विनयः शास्त्रनिश्चयात् ।
शास्त्र निरन्तर अन्त:करण में परिशोधन का कार्य विनयस्येन्द्रियजयस्तुद्युक्तः शास्त्रमृच्छति ॥ करते हैं, जिस प्रकार जल के सम्पर्क से मैला अपने आप
शुक्रनीति, 1/91
कट जाता है, दूर चला जाता है, ठीक वैसे ही शास्त्र चाणक्य कहते हैं कि शास्त्रज्ञ दरिद्र भी हो तो से अन्त:करण धुल जाता है। शास्त्र के बारे में एक और अच्छा है, क्योंकि उसके मन में जो बाहरी अर्थ है, पैसा | महत्त्वपूर्ण मान्यता है कि शास्त्र के सम्पर्क में जो आता हैं, उसका बहुत महत्त्व नहीं है, इसीलिए उनकी मान्यता है, उसकी यश-गन्ध दूर-दूर तक फैल जाती है। यही है कि जो धनिक होकर भी ज्ञान और शील से रहित नहीं, शास्त्र को स्वयं भी सुगन्ध का आकर माना गया है,वह अच्छा नहीं; क्योंकि जिस प्रकार अच्छे यौवन और है, उसमें कभी दुर्गन्ध नहीं आती, क्योंकि उसमें सर्वहित रूपवाला व्यक्ति शरीर पर कम वस्त्रों और आभूषणों को | का भाव है, सर्वकल्याण का भाव है; इसीलिए आचार्यों धारण करने पर भी शोभा को प्राप्त हो जाता है, पर का मन्तव्य रहा है कि - इसके ठीक विपरीत कोई अन्धा है और स्वर्णभूषणों से सुगन्धाकरमस्ति सदा हि शास्त्रम्। अलंकृत है तो भी वह उसकी तरह शोभा नहीं पा पाता है, इसीलिए शास्त्रज्ञ होने के मानक बड़े तीखे हैं -
ए-1/12, सेक्टर-एच वरं दरिद्रः श्रुतिशास्त्रपाठको, न चार्थयुक्तः श्रुतिशील वर्जितः ।
अलीगंज, लखनऊ सुलोचन: क्षीणपरोऽपि शोभते, न नेत्रहीन: कनकाधलकृतः ।।
चाणक्य, 2/8
बोधकथा
भक्त की भक्ति
भक्त और भक्ति के मध्य कोई न कोई । करना चाहता हूँ। भक्त ने सोचा यह सचमुच में बहुत उपास्य भगवान् अवश्य होता है जो भक्ति से भक्त | दुखी है, इसे ले चलना चाहिए। उसने कुत्ते से पर प्रसन्न होता है। एक बार भगवान् ने भक्त की कहा-तुम दु:ख से मुक्त होना चाहते हो तो चलो, भक्ति से प्रभावित होकर उससे पूछा-भक्त! बोलो तुम स्वर्ग चलो, वहाँ पर सुख ही सुख है। मैं तुम्हें तुम क्या चाहते हो? भक्त ने उत्तर दिया भगवान्! | वहाँ अभी ले चलता हूँ। मैं अपने लिए कुछ नहीं चाहता। बस यही चाहता हूँ | कुत्ते ने कहा बहुत अच्छा! पर यह तो बताओ। कि दुखियों के दुख दूर हो जायें। भगवान ने कहा कि वहाँ क्या-क्या मिलेगा? भक्त ने सभी सुख 'तथास्तु'। अब ऐसा करो, जो सबसे अधिक दुखी हो सुविधाओं के मिलने का आश्वासन दिया। तब उसे यहाँ लाओ। भक्त बहुत खुश था कि इतने दिनों आश्वस्त होकर कुत्ते ने कहा कि ठीक है, चलते हैं। की भक्ति के उपरान्त यह वरदान मिल गया। उसने किन्तु एक बात और पूछना है। भक्त ने कहा पूछो सोचा यह बहुत अच्छा हुआ। अब मैं एक-एक करके | क्या पूछना है। कुत्ते ने कहा-यह तो बताओ स्वर्ग सारी दुनियाँ को सुखी कर दूंगा।
में ऐसी नाली मिलेगी या नहीं? भक्त हँसने लगा। भक्त चल पड़ा दुखी की खोज में । वह उसने कहा-ऐसी नाली स्वर्ग में नहीं है। तब फौरन एक-एक व्यक्ति से पूछता जाता है। सब यही कहते कुत्ता बोला कि नाली नहीं है तो फिर क्या फायदा हैं, और तो सब ठीक है बस एक कमी है और इस स्वर्ग जाने से। मुझे यहीं रहने दो, यहाँ पर जरा कमी में कोई पुत्र की कमी बताता, तो कोई धन की ठंडी-ठंडी लहरें तो आती हैं। तो कोई मकान या दुकान की। पूर्ण कमी है मुझे, ऐसा अब सोचिये कैसी यह मूर्छा है। हम सुख उसे किसी ने नहीं बताया।
चाहते हैं पर परिग्रह नहीं छोड़ना चाहते हैं परिग्रह वह आगे बढ़ा। चलते-चलते देखा उसने कि में और लिपटते चले जाते हैं, ऐसे जैसे रेशम का एक कुत्ता नाली में पड़ा तड़फ रहा है, वह मरणोन्मुख कीड़ा लार उगलकर उससे ही निज शरीर को स्वयं है। उसने उसके निकट जाकर पूछा-क्यों क्या हो गया आवेष्टित करता चला जाता है। यदि भावों की है? कुत्ते ने कहा मैं बहुत दुखी हूँ, भगवान का भजन | सँभाल हो तो मूर्छा तोड़ी जा सकती है।
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मार्च 2002 जिनभाषित -
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