Book Title: Jinabhashita 2002 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 24
________________ कोई देखने-परखने वाला नहीं। किन्हीं विशिष्ट अवसरों जाती है। पर उनका पूरा लेखा-जोखा अवश्य ही प्रकट हो जाता राष्ट्रपति सहस्राब्दी पुरस्कार के उपलक्ष्य में मुझे है जो पुरस्कृत अथवा दण्डित करने के लिये पर्याप्त होते अपने स्नेही मित्रों, गुरुजनों, शिष्यों, श्रीमन्तों, धीमन्तों एवं नेताओं के इतने अधिक बधाई सम्बन्धी टेलीफोन, तार एवं महावीर का सावधानी पूर्वक चलने, उठने, बैठने, | पत्र मिले कि मैंने उतने की आशा न की थी। कुछ रहने कार्य करने या सोचने सम्बन्धी उपदेश आज के संस्थानों ने मेरे इस सम्मान के उपलक्ष्य में आयोजन भी सन्दर्भो में कितने व्यावहारिक, उपयोगी एवं शाश्वत कोटि | किये। जैन सिद्धान्त भवन, आरा के कुलपति श्री बाबू के हैं, इसका रहस्य अब स्पष्ट ही मेरी समझ में आता सुबोधकुमार जी जैन ने विशिष्ट आयोजन कर नगर के प्राध्यापकों एवं समाज के नर-नारियों के मध्य "सिद्धान्ताचार्य" राष्ट्रपति सहस्राब्दी पुरस्कार राष्ट्रपति जी की की उपाधि प्रदान कर मुझे स्वर्णसूत्र ग्रथित विशिष्ट शाल अस्वस्थता के कारण मुझे एक वर्ष बाद मिला। यह उड़ाकर अपना हर्ष व्यक्त किया। कुन्दकुन्द भारती, नई समारोह इन्वेस्टीट्यूर सेरेमोनी (Investiture Ceremoney) दिल्ली ने इस सम्मान को स्वयं अपना तथा प्राकृत एवं कहलाती है। यह आयोजन 6 फरवरी 2002 को सम्पन्न | जैन विद्या का सम्मान माना। प्राकृत-जगत् ने इसे दुर्लभ किया गया। पुरस्कृत विद्वानों को उनकी अपनी-अपनी | प्राकृत-अपभ्रंश पाण्डुलिपियों का सम्मान माना। सम्मान धर्मपत्नियों के साथ भारत सरकार हवाई उड़ान से । प्राप्ति हेतु मेरे तथा मेरी धर्मपत्नी के दिल्ली पहुँचने पर आने-जाने का अनुरोध करती है तथा उन्हें "थ्री स्टार श्री कुन्दकुन्द भारती ने हवाई अड्डे पर अपने प्रतिनिधियों होटल" में 4 दिनों तक अपने सम्मान्य राजकीय अतिथि - डॉ. वीरसागर जैन आदि को भेजकर वहीं हमारे के रूप में निःशुल्करूप से रहने की पूर्ण व्यवस्था करती स्वागत की विशेष व्यवस्था की। मेरे अनेक मित्रों ने इसे है। पुरस्कार-सम्मान भी पूर्ण राजकीय शान-शौकत के जैन समाज का सम्मान माना और मैने स्वयं इसे अपनी साथ प्रदान किया जाता है। पुरस्कृतों को सभागार में | जन्मभूमि मालथौन (सागर) तथा कर्मभूमि आरा (बिहार) अग्रश्रेणी में तथा दर्शकों की दीर्घा उसके बगल में तथा दिल्ली तथा जैन सन्देश (मथुरा) का सम्मान माना। सम्मुख होती है। राष्ट्रपति के सभागार में आने के पूर्व यह मेरा महान् सौभाग्य है कि राष्ट्रसन्त परमपूज्य पुरस्कृतों को रिहर्सल की प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। | आचार्य जी विद्यानन्द जी ने मेरे सिर एवं पीठ पर पिच्छी उसमें उन्हें राष्ट्रपति जी के सम्मुख कहाँ-कहाँ से, का स्पर्श कराकर मुझे आगे की विवादग्रस्त झंझटों से दूर कैसे-कैसे अनुशासन पूर्वक जाना चाहिये, कैसे पुरस्कार | रहकर प्राकृत एवं जैन विद्या तथा दुर्लभ अप्रकाशित जैन ग्रहण करना चाहिये तथा पुरस्कार ग्रहण कर कहाँ-कहाँ पाण्डुलिपियों पर एकाग्र मन से पूर्ववत् ही शोध-सम्पादन कैसे-कैसे लौटकर अपना सुनिश्चित स्थान ग्रहण करना कार्य करते रहने का शुभाशीर्वाद दिया और डॉ. ए. एन. चाहिये, यही बताया जाता है। उपाध्ये तथा डॉ. हीरालाल जी के मार्ग पर चलते रहने । उक्त प्रक्रियाओं से गुजरते समय मुझे मूलाचार की का मंगल-आशीर्वाद दिया। उस गाथा का स्मरण हो आया, जिसमें बताया गया है पुरस्कार ग्रहण करते समय मैं अपनी उन शिक्षा कि श्रावक एवं साधु को किस प्रकार चलना, फिरना, संस्थाओं-पपौरा (टीकमगढ़) गुरुकुल, स्याद्वाद महाविद्यालय उठना अथवा बैठना चाहिये- कधं चरे कधं चिठे आदि बनारस तथा काशी हिन्दू विश्व विद्यालय तथा वहाँ के आदि। अपने गुरुजनों का भी स्मरण करता रहा, जिनके द्वारा रिहर्सल के समय राजकीय उद्घोषिका पुरस्कृत प्रदत्त संस्कारों से मैं कुछ बन सका। मुझे अपने बचपन विद्वानों का पूर्ण परिचय प्रस्तुत करती है। तत्पश्चात् | के वे दिन याद आते रहे, जब मेरी माता जी प्रातः काल विशिष्ट पोशाक में लम्बे-लम्बे कद वाले 20-25 में ही मुझे नहलाकर तथा स्वयं राजस्थानी पोशाक धारण हट्टे-कट्ठे नौजवान अंगरक्षक आते हैं, जो राष्ट्रपति जी कर मुझे जिन-मन्दिर ले जाती थीं और देवदर्शनकर किसी के मंच को चारों ओर से घेर कर अपना-अपना स्थान | हस्तलिखित पोथी का मनोयोग पूर्वक स्वाध्याय करती थीं ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् बिगुल बजने के साथ ही और मैं कभी उनकी श्रद्धाभरित एकाग्र मुखमुद्रा देखता सुनिश्चित समय पर राष्ट्रपति जी मंच को पर पधारते हैं | रहता और कभी हस्तलिखित ग्रन्थ का वह पत्र, जिसका और राष्ट्रीय गान के बाद कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाता है। । कि वे स्वाध्याय किया करती थीं। उनके द्वारा प्रदत्त वही आयोजन के बाद पुरस्कृतों को राष्ट्रपति जी की ओर से प्रच्छन्न-संस्कार मुखर हुआ सन् 1956 में, जब डॉ. भोज दिया जाता है। वे सभी सौहार्दपूर्वक मिलते, हाथ उपाध्ये जी एवं डॉ. हीरालाल जी के आदेश से मैंने मिलाते और वार्तालाप करते हैं। उनके बच्चों के साथ | महाकवि रइधू, विबुध श्रीधर, महाकवि सिंह तथा महाकवि भी झुककर प्यार से हाथ मिलाते एवं मनोरंजक वार्तालाप पद्म आदि की हस्तलिखित प्राचीन पाण्डुलिपियों की करते हैं। अगले दिन पुरस्कृतों को भारत सरकार की खोज एवं अध्ययन एवं सम्पादन का दृढव्रत लिया। यह ओर से दिल्ली के विशिष्ट स्थलों का भ्रमण कराया | कार्य मुझे ऐसा रुचिकर लगा कि प्रतिदिन कॉलेज सर्विस जाता है और स्नेहिल वातावरण में सभी को विदाई दी । के साथ-साथ प्रतिदिन 14-14, 15-15 घण्टे कार्य करके 22 मार्च 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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