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सही पुरुषार्थ
किसी कार्य को सम्पन्न करते समय अनुकूलता की प्रतीक्षा करना सही पुरुषार्थ नहीं है, कारण कि
आचार्य श्री विद्यासागर जी
वह सब कुछ अभी
राग की भूमिका में ही घट रहा है, और इससे
गति में शिथिलता आती है । इसी भाँति
प्रतिकूलता का प्रतिकार करना भी प्रकारान्तर से
द्वेष को आहूत करना, और इससे
मति में कलिलता आती है ।
कभी कभी
गति या प्रगति के अभाव में आशा के पद ठण्डे पड़ते हैं, द्युति, साहस, उत्साह भी आह भरते हैं,
मन खिन्न होता है
किन्तु
यह सब आस्थावान् पुरुष अभिशाप नहीं है,
वरन्
वरदान ही सिद्ध होते हैं जो यमी, दमी
हरदम उद्यमी है।
और सुनो!
मीठे दही से ही नहीं, खट्टे से भी
समुचित मन्थन हो
नवनीत का लाभ अवश्य होता है ।
इससे यही फलित हुआ
कि
संघर्षमय जीवन का
उपसंहार
नियमरूप से
हर्ष मय होता है, धन्य !
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को
'मूकमाटी' से साभार
मोती
मुनिश्री
आप बार-बार कहते हैं अपनी आत्मा में झाँको स्वयं को देखो
पहचानो !
मैं बार-बार प्रयत्न करता हूँ पर कोई खिड़की नहीं दिखती
कोई झरोखा नहीं मिलता
जहाँ से भीतर झाँक
अपने को खोजें
और पहचान सकूँ !
मुझे तो अब
संदेह होने लगा है
कि मेरे भीतर कोई है भी
जो प्रयत्न करने पर मिल भी
सकता है !
प्रयत्न नहीं छोड़े हैं
पर यह भी जानता हूँ
कि हर सीपी में मोती नहीं होता !
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सरोज कुमार
'मनोरम'
37, पत्रकार कालोनी इन्दौर (म.प्र.) - 452001
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