Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिनभाषित
सहस्र स्तम्भ मंदिर मूडबिद्री
वीर निर्वाण सं. 2529
मार्च 2002
• व्रत: मानवजीवन की शोभा • आहारदान की विसंगतियाँ
फाल्गुन,
fa. H. 2058
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC
मार्च 2002
जिनभाषित
मासिक
वर्ष 1, अंङ्क 2
सम्पादक प्रो रतनचन्द्र जैन
अन्तस्तत्त्व
कार्यालय 137, आराधना नगर, भोपाल-462003 म.प्र. फोन नं. 0755-776666
.
- सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द लुहाड़िया पं रतनलाल बैनाड़ा डॉ. शीतलचन्द्र जैन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन प्रो. वृषभ प्रसाद जैन डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती'
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे, आर.के मार्बल्स लि.)
किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश राणा, जयपुर
आपके पत्र : धन्यवाद सम्पादकीय : पाठकों से निवेदन प्रवचन : ममकार और अहंकार ...आचार्य विद्यासागर जी लेख • मुनि श्री समतासागरकृत भक्तामर दोहानुवाद
प्रो. रतनचन्द्र जैन व्रत : मानवजीवन की शोभा : प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन . द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग : स्व. पं. लाल बहादुर शास्त्री 11:
आहारदान की विसंगतियाँ : ब्र. महेश जैन आर्यिका नवधाभक्ति प्रकरण : पं. मूलचन्द लुहाड़िया सुगन्धाकरमस्ति सदा हि शास्त्रम्: वृषभ प्रसाद जैन
18 राष्ट्रपति पुरस्कार... : प्रो. राजाराम जैन पशु रक्षा
: श्रीमती सुशीला पाटनी 24 . प्रश्न आस्था का
: मणिक चन्द्र जैन पाटनी 25 जिज्ञासा-समाधान
: पं. रतनलाल बैनाड़ा व्यंग्य : पड़ौसी पुराण : शिखरचन्द्र जैन बालवार्ता : विपत्ति में मित्र का... : डॉ. सुरेन्द्र 'भारती'
द्रव्य-औदार्य श्री अशोक पाटनी (मे, आर के मार्बल्स लि.)
किशनगढ़ (राज.)
प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-351428, 352278
कविताएँ
15
सदस्यता शुल्क शिरोमणि सरंक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक
51,000 रु. संरक्षक
5,000 रु. आजीवन
500 रु. वार्षिक
100 रु. एक प्रति
10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें।
• ज्यों-ज्यों उमरें बढ़ने लगतीं : अशोक शर्मा • राजुल गीत
.: श्रीपाल जैन दिवा' • चिन्ता नहीं चिन्तन करो : पं. लालचन्द्र जैन राकेश' 29 • जिन पर लिखा सहारों के घर : ऋषभ समैया 'जलज' • सही पुरुषार्थ
: आचार्य विद्यासागरजी आवरण 3 • मोती
: सरोज कुमार आवरण 3 समाचार
5,10, 17,23,31.32
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य
____ 'जिनभाषित' में ऐसी उच्चस्तरीय सामग्री आप दिसम्बर 2001 एवं जनवरी 2002 के अङ्क प्राप्त प्रकाशित करेंगे, ऐसा हमने कभी नहीं सोचा था। यह | हुए। एतदर्थ धन्यवाद। दोनों अङ्कों में प्रकाशित सम्पादकीय पत्रिका सचमुच ही दिगम्बर जैनधर्म एवं समाज का अपने-अपने विषयों पर शोधपरक लेख हैं जो जनसामान्य प्रतिबिम्ब बहुत ही आकर्षक एवं सुन्दर ढंग से प्रस्तुत | की भ्रांतियों और मिथ्याधारणाओं के समाधानार्थ प्रकाशस्तंभ करने की दिशा में अच्छा कदम है।
तुल्य हैं। आपकी पैनी दृष्टि ने दिसम्बर के अंक में आपके द्वारा लिखित सम्पादकीय, बाहरी आवरण | प्रकाशित 'अर्यिका माता पूज्य, मुनि परमपूज्य' सम्पादकीय पृष्ठ एवं आचार्य श्री विद्यासागर के ससंघ समाचार व में सम्मानपूजा और भक्तिपूजा में भेद दर्शाते हुए अर्घ्य प्रवचन इसकी उपयोगिता को और बढ़ा देते हैं। सच पूछा | और वंदना-स्तवन के अंतर को स्पष्ट किया है, वह जाये तो ऐसी पत्रिका की आवश्यकता नितान्त अनुभव सर्वथा संगत है। की जा रही थी जो कि समसामयिक जरूरतों के । डॉ. शीतलप्रसाद जी ने जैनदर्शन और न्याय के साथ-साथ आगमसम्मत सिद्धान्तों पर आधारित हो और | प्रकाण्ड विद्वान आ. डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया के हमारे पूज्य गुरुवरों के आशीर्वाद व मार्गदर्शन को इसमें | | व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर संक्षिप्त लेख में महत्त्वपूर्ण समाहित करती हो।
सामग्री दी है। इसी प्रकार डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव का "जैन
संस्कृति में पर्यावरण चेतना" नामक लेख में जैन संस्कृति मनीष चौधरी विषयक 'स्वतंत्र वनस्पतिशास्त्र' से परिचय कराया है। 1244, मनिहारों का रास्ता अनेक आगमग्रन्थों के उद्धरणों द्वारा विषय को अच्छी तरह किशनपाल बाजार जयपुर (म.प्र.) | सुस्पष्ट
सुस्पष्ट किया गया है। दर्शन और संस्कृति को विज्ञान
की कसौटी पर कस कर देखना स्तुत्य है। 'जिनभाषित' पत्रिका के अप्रैल-जून 2001 के दो
पं. रतनलाल बैनाड़ा का शंका-समाधान स्तंभ तो अङ्क प्राप्त हुए हैं। पत्रिका 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' अनुभव
अत्यन्त उपयोगी संदर्भ ग्रन्थ का काम कर रहा है। हुई है। वैज्ञानिक और बुद्धियुग में आपके सम्पादकीय लेख
___ जनवरी 2002 के अङ्क का सम्पादकीय 'शासन प्रशंसनीय व उपयोगी हैं। व्यवहार सम्यग्दर्शन की क्रियान्विति
देवता सम्मान्य, पंच परमेष्ठी उपास्य' तो त्रैकालिक में यह पत्रिका प्रेरक और सहयोगी होगी।
सामयिक है। प्रतिष्ठा ग्रन्थों में विघ्नविनाशनार्थ शासन अप्रैल 2001 के अंत में डॉ. पन्नालालजी व
देवी-देवताओं के पूजन विधान की व्यवस्था या उन्हें ॐ वर्णीत्री तथा चिरोंजाबाई के उल्लेखों को देखकर मुझे
हीं आदि शब्दोच्चार द्वारा अर्घ्य समर्पित करने की उत्साह मिला है कि इस चिंतन प्रसार के चिंतक अभी
व्यवस्था ने जन सामान्य में कुछ मिथ्याधारणाएँ उत्पन्न की जाग्रत हैं।
हैं कि वे भी इन देवी-देवताओं/यक्ष-यक्षणियों की पूजा
अर्चना से उन्हें प्रसन्न कर अनेक लौकिक/भौतिक लाभ पं. प्रेमचन्द्र जैन ।
| प्राप्त कर सकते हैं। Clo सुरेश मिल, डीमापुर(नागालैंड)- 797112
सम्पादकीय में आपने यह सुस्पष्ट कर दिया है कि
सुख-समृद्धि किन्हीं देवी-देवताओं की भक्ति से नहीं, .. 'जिनभाषित' पत्रिका के तीन अंक प्राप्त हुए, अपितु पंच परमेष्ठी की भक्ति से होने वाले शुभ कर्मों प्रत्येक अङ्क पिछले अङ्क की तुलना में उत्तरोत्तर विचारोत्तेजक
के बन्ध से ही संभव है। प्रकारान्तर से कार्तिकेयानुप्रेक्षा एवं आकर्षक व पठनीय सामग्रीयुक्त लगा। जून के अङ्क में भी 'परस्परोग्रहोजीवानाम्' की व्याख्या करते हुए कहा में 108 मुनि प्रमाणसागर जी का लेख पढ़ा, उनके
| गया हैसद्विचार यथार्थ के धरातल पर अमिट सत्य हैं कि जब
जीवा विदु जीवाणं, उवयारं कुणदि सव्व पच्चक्खं। महीने के अन्त में पत्रिका आती है तब ऐसा महसूस होता
तथ्य वि पहाण-हेऊ पुण्णं च णियमेणं ॥210 है कि माँ जिनवाणी की चिट्ठी आई है। पत्रिका का
अर्थात् जीव भी जीवों पर उपकार करते हैं, यह सम्पादन, आलेख, सामग्री सराहनीय हैं। मैं पत्रिका की
सबके प्रत्यक्ष ही है, किन्तु उसमें भी नियम से पुण्य और उत्तरोत्तर प्रगति की कामना करता हूँ।
पापकर्म कारण हैं। पुण्य और पापकर्म हमारे शुभ-अशुभ
भावों पर निर्भर है। अतः मुख्यतः पंचपरमेष्ठी के माँगीलाल 'मृगेश' आराधन, अर्चना और पूजा से ही शुभ कर्म बैंधेंगे, जिनसे कालापीपल (म.प्र.) | पारलौकिक के साथ-साथ लौकिक हित भी सधैंगे।
विचारात
में भी
-मार्च 2002 जिनभाषित
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
भौतिक सुख-सुविधाओं का स्रोत शासन देवी-देवताओं का दूसरा कोई माध्यम नहीं है। धार्मिक क्रियाओं में को मानेंगे तो उसका परिणाम जैन दर्शन के प्राणभूत कर्म | आतंकवाद को पनाह देना भी पाप की श्रेणी में आता सिद्धान्त पर अविश्वास करना होगा। अनेक आगमग्रन्थों | है। स्वस्थ लेखन के लिए बधाई तथा हार्दिक शुभकामना। , के उद्धरणों द्वारा आपने सिद्ध कर दिया है कि शासन देवी-देवताओं की पूजा या अर्घ्य समर्पण पंचपरमेष्ठी या
सतीश चन्द्र जैन नायक जिनेन्द्रदेव के पूजा विधान के समतुल्य नहीं है। वे साधर्मी
30/46, चुंगी स्कूल के सामने होने से हमारे सम्मान के पात्र हैं, जिनके सम्मानार्थ हम
छीपीटोला, आगरा (उ.प्र.) उपहार स्वरूप पूजाद्रव्य तो समर्पित कर सकते हैं, किन्तु पूजा द्रव्य/अर्घ समर्पण के साथ-साथ स्तुति, वंदना उनके मुझे जिनभाषित पत्रिका के 4-5 अङ्क पढ़ने को गुण-गरिमा गायन आदि के अधिकारी तो मात्र जिनेन्द्र देव मिले; मन को ऐसा लगा कि वास्तव में और पत्रिकाओं या पंचपरमेष्ठी ही हैं।
के मुकाबले इसमें ज्ञानवर्धक लेख, सम्पादकीय टिप्पणी, इसी अङ्क में ऐलक श्री निर्भयसागर जी का लेख | प्रमाणसहित पढने को मिली। 'दही में बैक्टीरिया (जीवाणु) हैं या नहीं' पूर्णत: आपके सम्पादकीय लेख आज के भटके हुए समाज विज्ञानसम्मत लेख है। जो लोग दूध-दही में जीवाणु के लिए सफल पथप्रदर्शक हैं। जनवरी अंक में "शासन बताकर जैन श्रावकों, आर्यिकाओं और मुनियों की | देवता सम्मान्य, पंचपरमेष्ठी उपास्य" लेख प्रमाणसहित आलोचना करते हैं, उनको यह तर्कयुक्त लेख अपनी | पढने को मिला, पढकर मन को संतुष्टि हई। मान्यताओं, दुराग्रह और हठधर्मिता छोड़ने को तैयार ___“दही में जीवाणु हैं या नहीं" लेख ऐलक श्री करेगा। दूसरी ओर जैन समाज को दूध-दही का निर्भय सागर जी का पढने को मिला, जिस तरह से हिंसारहित उपयोग करने की विधि से परिचित कराकर
समझाया गया वह अत्याधिक प्रभावशाली है। उनका प्रमाद दूर करने में सहायक होगा। इसी प्रकार ब्र. मोतीलालजी के मोर पंखों के सम्बन्ध में लेख ने प्रचलित
प्रमोद कुमा जैन भ्रांतियों का भली प्रकार निवारण किया है। डॉ.
अध्यक्ष- जैन नवयुवक मण्डल वृषभप्रसाद जैन ने अत्यन्त संक्षेप में ज्ञान की महिमा
फतेहपुर-शेखावटी (राजस्थान) मंण्डित कर गागर में सागर भर दिया है। निष्कर्षत: जिनभाषित के सभी लेख/सामग्री अत्यन्त
__ 'जिनभाषित' में प्रकाशित लेखों के माध्यम से उपयोगी और सर्वत्र भ्रांतियों, दुराग्रहों और एकान्तवादी आपने परमपूज्य विद्यासागर जी के वृहद् व्यक्तित्त्व के दृष्टिकोण को परिमार्जित करने में सहायक है। विभिन्न आयामों को उद्घाटित किया है। मैं गत 25 वर्षों
बहुचर्चित सामयिक विषयसामग्री का चयन करके से सतत अनुभव कर रहा हूँ कि उनका व्यक्तित्व सदभाव इतनी उच्च कोटि की पत्रिका प्रकाशित करने के लिए | एवं मंगलकामनाओं से ओतप्रोत है। जब वे कायोत्सर्ग आपको कोटिशः बधाई।
करते हैं, प्रतिक्रमण करते हैं, सामायिक करते हैं तब उनके
व्यक्तित्व में अद्भुत शक्ति और ऊर्जा का संचार होता डॉ. पी.सी.जैन | है। उनके प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष
है। उनके प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष आशीर्वाद से सभी जीवों में प्रिंसीपल-जे.एन.कॉलेज ऑफ एजुकेशन |
गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। नैनागिरी में मेरी माताजी गंजबसौदा (म.प्र.)
ने उनकी चरण रज से पवित्र जल (गंधोदक) को बीजों
पर छिड़क कर सिद्ध किया है कि ऐसे बीज शीघ्र ही आपकी पत्रिका के अङ्क समय पर प्रकाशित होकर | अंकुरित हो जाते हैं और पौधे अधिक स्वस्थ और वृद्धिगत प्राप्त हो रहे हैं। स्वस्थ विचारों से ओत-प्रोत पत्रिका का | हो जाते हैं। समाज में अभाव खल रहा था। आपके तथा सम्पादक मण्डल के सतत प्रयासों और जागरूकता से एक बड़ी
सुरेश जैन आई.ए.एस. कमी दूर हुई है।
30, निशात कालोनी भोपाल (म.प्र.) पत्रिका के पढ़ने से अब लगता है कि जैन समाज में धर्म के साथ-साथ आडम्बर के प्रदर्शन से धार्मिक
| दिखाने के हैं सब ये दुनिया के मेले । बंधुओं की धर्म के प्रति आस्था और श्रद्धा गिर रही थी,
भरी बज्म में हम रहे हैं अकेले ॥ उस पर एक अंकुश-सा लगता प्रतीत हो रहा है।
आप निरन्तर अपने स्पष्ट विचारों को निडरता के उम्र पानी है, तो फिर मौत से डरना कैसा?। साथ समाज के समक्ष प्रस्तुत करते रहें, हालाँकि यह कार्य
इक न इक रोज ये हंगामा हुआ रक्खा है ॥ कठिन है; लेकिन धर्म के स्वरूप को बदलने से बचाने
मार्च 2002 जिनभाषित
में धन की धर्म के प्रासा लगता प्रतारों को निडरतामार्य || इक न इ
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
| सम्पादकीय
पाठकों से निवेदन
आपने 'जिनभाषित' को बहुत सराहा है। इसकी वार्षिक और आजीवन सदस्यता ग्रहण की है। इसके लिए हम आपके आभारी हैं। हम चाहते हैं कि आप अपने सम्बन्धियों, पड़ोसियों और इष्टमित्रों को भी इसकी सदस्यता ग्रहण करायें।
यह जिनवाणी माँ की चिट्टी है, जिनवाणी माँ का दूरदर्शन है, जिनवाणी माँ की पाठशाला है, जिनवाणी माँ का विश्वविद्यालय है, जो हर माह आपके घर ज्ञान और सद्विचार की सौगात लेकर पहुँचता है। यह मात्र एक अखबार नहीं है। यह बहुमुखी साहित्य का कोश है। इसके माध्यम से जो ज्ञान और उदात्त विचार आपके घर के अतिथि बनेंगे, वे आपकी किशोर और युवा पीढ़ी में धार्मिक अभिरुचि, साहित्यिक अभिरुचि, वैज्ञानिक अभिरुचि एवं कलात्मक अभिरुचि का निर्माण करने में अमोघ मंत्र सिद्ध होंगे। ड्राइंग रूम की टेबिल पर जब यह पत्रिका रखी हुई बार-बार दिखाई देगी, तो घर के बालक-बालिकाओं, युवा-युवतियों में कभी न कभी इसे छूने और उलटने-पलटने की इच्छा अवश्य उत्पन्न होगी और यही वह स्वर्णिम क्षण होगा, जब पत्रिका का कोई प्रवचन, कोई लेख, कोई गीत, कोई गजल, कोई कविता, कोई व्यंग्य, कोई आदर्शकथा, कोई सूक्ति उनकी नजर को खींच ले और उसमें व्यक्त उदात्त विचार मन में किसी नैतिक या धार्मिक संस्कार का बीज आरोपित कर दे। यह बिना उपदेश दिये, बिना डाँट-फटकार लगाये, बिना प्रताड़ित किये, बिना लाखों का खर्च किये, अपनी सन्तान में सम्यक् दृष्टिकोण, समीचीन जीवन दर्शन के विकास एवं उसे वांछनीय दिशा में मोड़ने का अनायास उपाय साबित होगा। क्योंकि उदात्त विचारों को मस्तिष्क में प्रवेश मिलना ही जीवन के पवर्तन का मनौवैज्ञानिक हेतु है।
आज उदात्त विचारों को मस्तिष्क में पहुँचानेवाले साधन दुर्लभ हो गये हैं। कुत्सित विचारों का ही प्रसार विभिन्न वैज्ञानिक माध्यमों से चतुर्दिक् हो रहा है, और वैसी ही प्रवृत्तियाँ बालक-बालिकाओं में विकसित हो रही हैं। हम सबने टी.वी. के विभिन्न चैनलों के माध्यम से अपनी सन्तान के मस्तिष्क में कुविचार भरने की पुख्ता व्यवस्था कर रखी है।
इसके लिए हम मोटी रकमें खर्च करते हैं। पचास-पचास हजार के टी.वी. सेट, वी.सी.आर. और म्यूजिक सिस्टम खरीदते हैं। दो-दो सौ रुपये महीने केबिल का किराया देते हैं। इस तरह अपनी सन्तान के मस्तिष्क में भरने के लिए बड़े मँहगे दामों में कुविचार खरीदते हैं। 'जिनभाषित' पत्रिका द्वारा प्राप्त होने वाले सद्विचार तो कुविचारों की तुलना में बड़े सस्ते दामों में मिल रहे हैं।
'जिनभाषित' उच्चकोटि के व्यंग्य और व्यंजनाप्रधान श्रेष्ठ कविताओं के माध्यम से साहित्यिक अभिरुचि जगाने का उत्तम साधन है। यह सन्तों के आध्यात्मिक प्रवचनों, मनीषियों के शोधपूर्ण सैद्धान्तिक आलेखों और जिज्ञासाओं के समाधान द्वारा घर-बैठे स्वाध्याय का स्वर्णिम अवसर उपस्थित कर देता है। हर तरह से यह उपयोगी और आत्मोन्नायक है। 'जिनभाषित' के प्रचार-प्रसार हेतु हमें आपके बहुमूल्य सहयोग की लालसा है।
रतनचन्द्र जैन
-मार्च 2002 जिनभाषित
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
ममकार और अहंकार छोडने का नाम है दीक्षा,
मुद्रा इस वीतराग को अभिशापनकी दृष्टि नाम
(छपारा (म.प्र.), 19 जनवरी 2001, दीक्षा कल्याणक के दिन का प्रवचन
आचार्य श्री विद्यासागर जी आपके सामने वैराग्य का दृश्य प्रदर्शित किया । हमारे तीर्थंकर स्वयं दीक्षित होते हैं, वे स्वयंभू होते गया। एक वैभवशाली व्यक्तित्व अपने वैभव को वै-भव | हैं। उन्हें कोई दीक्षा नहीं देता है, न ही वे किसी से दीक्षा यानी भव का कारण समझकर पीठ दिखाकर चल दिया, | लेते हैं और वे किसी को दीक्षा नहीं देते हैं, कोई ले यानी छोड़ कर चल दिया। या यह कहें कि उन्होंने उस लेता है तो ठीक है, नहीं ले तो भी ठीक है। तीर्थंकर बड़े वैभव को अपनी पीठ दिखा दी और आत्मवैभव को | का जीवन ऐसा जीवन होता हैं जिसके बारे में हम कुछ अपने सम्मुख रखकर उसको पाने के लिए अपने कदमों नहीं कह सकते हैं। भगवान के पंचकल्याणक स्वर्गों के को बढ़ाया था। एक हम हैं एक छोटी सी कुटिया होती देव सौधर्म इन्द्र के नेतृत्व में बड़े महोत्सव के रूप में है, बरसात में टप-टप करती है, उसको छोड़ा नहीं जा मनाते है, लेकिन तीर्थंकर भगवान उसके उस कार्य से रहा है। दिव्य वस्त्रों को अपनी शरीर पर धारण करने प्रभावित नहीं होते हैं। उनका वैराग्य चरमोत्कर्ष के लिए वाले आदिकुमार सब त्याग कर दिगम्बरत्व को स्वीकारने होता है, उन्हें जब वैराग्य होता है तो कोई रोक नहीं चले गये। हमारा एक वस्त्र होता है, जो पुराना हो गया सकता। जैसे जो अभी माता-पिता बने थे वे हम से कह है, उसको सिल-सिल कर पहनते रहते हैं। एक पुराने रहे थे-महाराज आदिकुमार को रोको, ये सब मोह के कपड़े को नहीं छोड़ा जाता है। आखिर यह सब क्यों वशीभूत होकर कह रहे थे। लेकिन आदिकुमार का मोह छोड़ा उन्होंने? इसलिए छोडा कि उन्हें जो बाहरी वैभव संसार से नहीं रहा, इसलिये उन्हें अब कोई नहीं रोक मिला था उस वैभव में सारभूत तत्त्व की प्राप्ति नहीं हुई। सकता है। संसार की दशा को बताने वाली मुनि की आत्म वैभव जो सारभूत तत्त्व है, वह उन्हें प्राप्त नहीं हुआ | मुद्रा है जो संसार की सारता और असारता को 'लताती इसलिये उस बाहरी धन संपदारूपी वैभव को असारभूत है। इस वीतराग मुद्रा को देखकर बच्चा भी समझ जाता समझकर भवन से वन को चले गये। अब वन में बैठकर है। यह मुद्रा किसी को अभिशाप नहीं देती, अशीर्वाद भी समस्त आरंभ, परिग्रह से मुक्त होकर अपने वैभव को तीर्थंकर भगवान नहीं देते हैं, उनकी दृष्टि नासाग्र होती देख रहें हैं, आत्म वैभव का रस ले रहे हैं। इस आत्म है। तीर्थंकर भगवान बिहार करते हैं, तो उस समय भी वैभव को पीने के लिए संसार के रिश्ते-नातों को तोड़कर | नासाग्र दृष्टि रहती है, वे किसी की तरफ नहीं देखते हैं, एक अपने आत्मा से नाता जोड़ लिया।
पर दुनिया उनको देखती है। तीर्थंकर भगवान की अद्भुत इस संसार के भोगों को कितनी बार भोगा और चर्या है. तो यह दुनिया भी बड़ी अद्भुत है। इसके बारे कितनी बार इन भोगों के ही हम भोग बनकर रह गये
से में किसी ने कहाहैं। अनादिकाल से हम इन इन्द्रियों के विषयों के कारण
दुनिया दुरंगी, मरवाये सराये। इस संसार के चक्र में फँसे है। यदि हम चाहें तो रागमय
कहीं खैर खूबी, कहीं हाय-हाय।। वातावरण में भी विरागमय दृष्टि बना सकते हैं जैसे अभी
यह दुनियाँ का सार है, इसमें कहीं पर भी सारभूत आपने देखा होगा कि नीलांजना का नृत्य तो सबके लिए
बात नहीं है। सारभूत यदि है तो हमारी आत्मा में है। रागमय दृष्टि बनाने के लिए कारण बना था, लेकिन
आप लोगों ने देखा होगा बच्चों को वह बहुत अच्छी आदिकुमार के लिये वह नृत्य विराग का कारण बन गया।
लगती है, उसे बंबई की मिठाई कहते हैं, वह देखने में संसार की असारता का भान उनको हो गया और चल
तो बहुत अच्छी और बड़ी दिखती है, लेकिन मुँह में दिये इस संसार को छोड़कर और आज उन्होंने दीक्षा ले
डालते ही वह पानी-पानी हो जाती है, फिर भी उसका ली है। उन्होंने जब संसार को असार जाना तो वे किसी
आकर्षण बना रहता है, वैसी ही दशा आप लोगों की से बोले नहीं। अपने पुत्र भरत को राज्य का भार सौंप
है। सब जानते हैं दुनिया में शान्ति नहीं है, फिर भी आप दिया और वन की ओर चले गये। उन्होंने सोचा होगा
लोग इस संसार के असारमय वातावरण में रचे पचे हैं। कि जब सब संसार असारमय है, तो हम किसके साथ
यह सब दशा मोह के कारण है। भगवान तो वन चले बोलें जो बाहर दिख रहा है वह मैं नहीं हूँ और जो मैं
गये, इसीलिये वे भगवान बन गये। इतना सारा वैभव सब हूँ वह दिखता नहीं है, इसलिए बोलूँ तो किससे बोलूँ?
कुछ छोड़कर गये हैं। थोड़ा नही, बहुत छोड़ा है। एक जिसकी तत्त्व की ओर दृष्टि रहती है, वह बाहर की ओर
आप हैं फटे कपड़ों को सिल सिल कर पहनते ही जा नहीं देखता। आज तत्त्व दृष्टि नहीं होने के कारण दुनिया
रहे हैं, छोड़ने की बात ही नहीं है। यदि थोड़ा सा कुछ की और दृष्टि जा रही है। जैसे आपने पढ़ा सुना होगा,
त्याग किया तो दुनिया को दिखाना चाहते हैं, अपने त्याग थोडी सी धरती के कारण आज भारत और पाकिस्तान
को। आत्मतत्त्व को देखने की चाह रखने वाला दनिया की क्या दशा है? दोनों तरफ जनहानि और धन हानि
को दिखाने की चाह नहीं रखता है। मुनिव्रत को धारण हो रही है।
करना बहुत बड़ा कार्य है उसे असिधार व्रत भी कहा 4 मार्च 2002 जिनभाषित -
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाता है, यह व्रत निजानुभव का हेतु है जिसकी दृष्टि इस व्रत की है और सतत भावना इसको प्राप्त करने की होती है, वही व्रत को प्राप्त कर सकता है। ममकार और अहंकार को छोड़कर जो अपने आप को देखता है, वही इस दीक्षा को ले सकता है या यह कहें ममकार और अहंकार को छोड़ने का नाम है दीक्षा, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अभी किसी ने कहा कि सारभूत प्रवचन करें गे। तो हमें समझना है, सारभूत क्या है? तो असारभूत को छोड़ देना ही सारभूत बात है। अब देखना क्या है? सारभूत तत्त्व को देखना है, यह संसार तो असारभूत है। क्योंकि कहा गया है
"जो संसार विषै सुख होता, तीर्थंकर क्यों त्यागे"
इस संसार को असारमय समझकर वृषभनाथ भगवान सब छोड़ कर वन चले गये। हम तीर्थंकर के बारे में सोचें। एक कथन है कि तीर्थंकर भगवान को जन्म से अवधिज्ञान होता है, लेकिन वह अवधिज्ञान देशावधिज्ञान होता है। लेकिन जैसे दीक्षा लेते हैं वह ज्ञान परमावधि के रूप में हो जाता है। आज के इस प्रसंग से हमें समझना है कि आखिर कब तक राग के थपेड़े सहन करते रहोगे, वीतरागमय अपने जीवन को बनाने का प्रयास करना अनिवार्य है। सार तो केवल आत्मा के वैभव को पाने में हैं, बाकी सब निस्सार है, जिसने इसको समझ
श्री अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् द्वारा प्रतिवर्ष प्रदान किये जाने वाले पुरस्कारों हेतु विद्वानों से प्रस्ताव आमन्त्रित किये जाते हैं। ये पुरस्कार हैं
१. पूज्य क्षु. गणेश प्रसाद 'वर्णी' पुरस्कार (राशि 5101 रुपये)
( जैन धर्म की प्रभावना एवं समग्र रचनात्मक योगदान के लिये)
२. गुरुवर्य पं. गोपालदास वरैया पुरस्कार ( राशि 5101 रुपये)
( उत्कृष्ट शोधकृति के लिए) विशेष सूचना :
• प्रथम पुरस्कार हेतु सम्पूर्ण विवरण के साथ कृतित्व को दर्शाने वाली कोई चार पुस्तकें भिजवाना अनिवार्य है।
लिया उसने ही समयसार के सार को पा लिया। हमने आज तक अपने आपके वैभव को नहीं जाना, इसलिये संसार की असारता से हम अनभिज्ञ हैं। हम तो भगवान के सामने यही सोचते हैं- हे प्रभु! हमारे ऊपर वह कृपा कब होगी जिस समय हम भी आपकी तरह अपने वैभव को पा सकेंगे। हम इस संसार के आकर्षण से बहुत दूर |हो जायें। अब आप लोगों को रागरंग से ऊपर उठने का प्रयास करना चाहिए। यह संसारी प्राणी आज तक यह समझ नहीं पाया, इसलिए इस लोक में इसका नाच आज भी जारी है। इसीलिए तो कहा है यह संसार कैसा है? तो कहा जाता है
विद्वत्परिषद् - पुरस्कारों के लिए प्रस्ताव आमन्त्रित
● द्वितीय पुरस्कार हेतु अपनी शोधकृति की चार प्रतियाँ भिजवाना अनिवार्य है।
पुरस्कारों हेतु प्रस्तावक अथवा लेखक के लिए 'विद्वत् परिषद्' का सदस्य होना अनिवार्य नहीं है। पुरस्कारों की संख्या में वृद्धि संभावित है। पुरस्कारों का निर्णय एक उत्कृष्ट चयन समिति के द्वारा किया जायेगा, जिसका निर्णय सर्वमान्य होगा। पुरस्कार हेतु प्रस्ताव भेजने की अंतिम तिथि 30 मार्च, 2002 है।
पूर्व पुरस्कृत कृतियाँ भी प्रस्तावित की जा सकती हैं।
"जीव अरु पुद्गल नाचे यामें कर्म उपाधि है"
इस संसार में जीव और पुद्गल दो ही कारण हैं जिनके कारण संसार में यह जीव नाच रहा है। जिसे सम्यग्ज्ञान हो गया है, वह इस संसार के राग में न फँसकर वैराग्य को धारण करता है, उसे कोई नहीं रोक सकता है। वह तो अपने कदमों को कल्याण के मार्ग पर बढ़ाता है। आप लोग भी अपना कल्याण करें, इस भावना के साथ विराम लेता हूँ। अहिंसा परमो धर्म की जय।
प्रस्तुति: मुनि श्री अजितसागर जी
● प्रस्ताव हेतु आने वाली कृतियाँ वापिस नहीं की जायें गी। सभी कृतियों को 'मुनि श्री सुधासागर शोध ग्रन्थालय, बुरहानपुर (म.प्र.) में सुरक्षित रखा जायेगा। कृपाया पुरस्कार हेतु प्रस्ताव निम्नलिखित पते पर भिजवाएँ
- डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' मंत्री - श्री अ.भा. दि. जैन विद्वत् परिषद्,
एल 65, न्यू इन्दिरा नगर, ए, बुरहानपुर (म.प्र.) पिन 450 331
ककरवाहा में विद्वत्समागम
-
ककरवाहा (टीकमगढ़) में 10 दिवसीय श्री कल्पद्रुम महामण्डल विधान विश्वकल्याण कामना महायज्ञ गजरथ महोत्सव विविध धार्मिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ सम्पन्न हुए। जिसमें प्रमुख रूप से पं. वल्देव प्रसाद कारीटोरन का सम्मान पं. दयाचन्द्र शास्त्री अजयगढ़ का अमृतमहोत्सव तथा प्रतिष्ठाचार्य पं. गुलाब चन्द्र जी 'पुष्प' का शिखर सम्मान आयोजित किया गया। इन कार्यक्रमों में शताधिक विद्धानों का समागम रहा। मुख्य अतिथि श्री मक्खन लालजी रोहणी दिल्ली व विशिष्ट अतिथि श्री पदमचन्द्र जी, श्री रमेश जी दिल्ली एवं पूर्णचन्द्र जी दुर्ग थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता फूलचन्द्र जी प्रेमी बनारस ने की। श्रेयांस जैन, पत्रकार ककरवाहा (टीकमगढ़) म. प्र. • मार्च 2002 जिनभाषित
5
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुनि श्री समता सागरकृत भक्तामर - दोहानुवाद
प्रो. रतनचन्द्र जैन शब्द द्वारा किया है जो भावानुवाद होने से अत्यन्त संक्षिप्त हो गया है और सर्वसाधारण गम्य भी 'सकलवाङ्मयतत्त्वबोधादुद्भूतबुद्धिपटुभिः' इतने लम्बे विशेषण के अर्थ को 'श्रुतपारग' इस छोटे से विशेषण के द्वारा ही अभिव्यक्त कर दिया गया है। 'नाम्भोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः' के लिए 'मेघ ढके न तेज' तथा 'स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति' के लिए 'द्योतित भुवन समस्त' भावानुवाद द्वारा संक्षिप्तीकरण के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। 'यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति' में 'मधुरं विरौति' का अनुवाद 'कुहके' शब्द द्वारा करके तो कवि ने भावानुवाद का श्रेष्ठतम निदर्शन प्रस्तुत किया है, क्योंकि इसमें विम्बात्मकता का काव्यगुण विद्यमान है। ऐसा लगता है कि दोहों में अन्त्यानुप्रास भी बिना किसी विशेष परिश्रम के अपने आप घटित होता गया है। इसने काव्य में संगीतात्मक श्रुतिमाधुर्य का समावेश कर दिया है।
पूज्य मुनि श्री समतासागरजी द्वारा प्रणीत भक्तामर स्तोत्र का दोहानुवाद संस्कृत से अनभिज्ञ पाठकों के लिए बहुमूल्य उपहार है। इससे शब्द और अर्थ दोनों सुगम हो गये हैं। अब काव्यानन्द के साथ भावानन्द की अनुभूति की जा सकती है।
दोहे मुनिश्री की काव्य-प्रतिभा का उन्मुक्त घोष करते हैं। उनकी भाषा यह भाव नहीं देती कि यह संस्कृत पद्यों का अनुवाद है, अपितु ऐसा लगता है जैसे वे मौलिक रूप से ही लिखे गये हों। इसकी प्रतीति निम्नलिखित उदाहरणों से हो जाती है।
मैं अबोध तज लाज तव, थुति करने तैयार । जल - झलकत शशि बाल ही, पकड़े बिना विचार ॥3 त्रिजग - दुःख - हर प्रभु नमूँ, नमूँ रतन भूमाँहि । नमूँ त्रिलोकीनाथ को, नमुँ भवसिन्धु सुखाँहि ॥26
दोहों की भाषा में तुलसी, रहीम, भूधरदास आदि के व्यक्तित्व की झलक मिलती है। निश्चय ही कवि ने दोहा - साहित्य का गहन अध्ययन कर उनकी भाषा को आत्मसात् किया है, तभी उनकी लेखनी से प्रसूत दोहों में इतनी प्रौढ़ता है। अधोलिखित दोहा तो अपनी भाषात्मक चारुता के कारण हृदय को गहराई तक छू लेता है
शत नारी शत सुत जनें, पर तुमसा नहि एक । तारागण सब दिशि धरें, रवि बस पूरब नेक 122
मुनिश्री ने दोहों में परम्परागत लोक- शब्दावली का भी प्रयोग किया है, जैसे धुति, दूजा, बेरोक, बीर, बखान, करहुँ, लाज आदि । इसीलिए उनमें लोक काव्य जैसी मोहकता और सर्वसाधारण की भाषा का स्वरूप आ गया है।
दोहों की उल्लेखनीय विशेषता है गागर में सागर का समाना संस्कृत पद्यों में जिस भाव को प्रकट करने के लिए अनेक शब्दों और अनेक वाक्यों का प्रयोग किया गया है, उस भाव को मुनिश्री ने कुछ ही शब्दों या अत्यन्त छोटे वाक्य में गर्भित कर दिया है, जिससे दोहों में सूत्रों जैसी संक्षिप्तता आ गयी है और सम्पूर्ण अर्थ समासीकृत होकर एक नजर में हृदयंगम हो जाता है। मिताक्षरों में कही हुई बात मस्तिष्क में तुरन्त उतरती है और अमिट हो जाती है। संक्षिप्तता का यह चमत्कार शब्दानुवाद की बजाय भावानुवाद करने से उत्पन्न हुआ है। कोई और होता तो 'पाण्डुपलाशकल्पम्' का अनुवाद 'पलाश के पत्ते की तरह पीला करता, जो शाब्दिक अनुवाद होता, किन्तु कवि ने उसका अनुवाद 'द्युतिहीन'
मार्च 2002 जिनभाषित
4
कहीं-कहीं संस्कृत शब्दों के स्थान में प्रयुक्त हिन्दी शब्दों ने अपनी बिम्बात्मकता के कारण उक्ति को लालित्य से परिपूर्ण कर दिया है, जैसे 'त्रय जग जगमग हों प्रभो तुहि वर दीप रहाय' ( 16 ), यहाँ 'प्रकाश' के लिए 'जगमग' शब्द के प्रयोग से उक्ति में लालित्य आ गया है।
सन्त - कवि ने 'अनल्पकान्ति' के लिए 'आभ अदम्य' शब्द का प्रयोग किया है जो बड़ा सशक्त है। 'अदम्य' शब्द भगवान के मुख की आभा को और अधिक अतिशयितरूप में अभिव्यक्त करने की शक्ति रखता है। यह प्रयोग कवि के शब्दचयन का उत्कृष्ट उदाहरण है
इस ग्रन्थ की एक विशेषता यह है कि इसमें छोटे-छोटे शीर्षकों के द्वारा भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक पद्य का वर्ण्यविषय संकेतित कर दिया गया है, जो पद्य के अर्थ में प्रवेश करने के लिए प्रवेशद्वार के समान है।
इससे भी बड़ा लोकोपयोगी कार्य यह किया गया है कि स्तोत्र के प्रत्येक पद्य का शब्दश: हिन्दी अनुवाद दे दिया गया है। जिससे पाठकों को संस्कृत पद्यों के शाब्दिक अर्थ को समझने में बड़ी सहायता मिलेगी और परम्परया वे संस्कृत भाषा को सीखने में समर्थ होंगे। अन्वयार्थ के अन्त में दिया गया भावार्थ पद्य के भाव को समझने में सहायक है।
भक्तामर स्तोत्र के हार्द को हृदयंगम करने के लिए इससे श्रेष्ठ ग्रन्थ अभी तक मेरी दृष्टि में नहीं आया। प्रत्येक श्रद्धालु के लिये यह ग्रन्थ उसी प्रकार संग्रहणीय है जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र ।
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
भक्तामर दोहानुवाद
मुनि श्री समतांसागर जी
भक्त अमर नत मुकुट द्युति अघतम-तिमिर पलाय । | नेत्र रम्य तव मुख कहाँ, उपमा जय जग तीन। भवदधि डूबत को शरण, जिनपद शीश नवाय ॥10 कहाँ मलिन शशि बिम्ब जो, दिन में हो द्युतिहीन ॥13॥
श्रुत पारग देवेन्द्र से संस्तुत आदि जिनेश । चन्द्रकला सम शुभ्र गुण, प्रभु लाँघे त्रयलोक । की थुति अब मैं करहुँ जो मनहर होय विशेष ॥2॥ | जिन्हें शरण जगदीश की, विचरें वे बेरोक ॥14॥
मैं अबोध तज लाज तव, थुति करने तैयार । प्रभु का चित न हर सकी, सुरतिय विस्मय कौन। जल झलकत शशि, बाल ही पकड़े बिना विचार |3|| गिरि गिरते पर मेरु ना, हिले प्रलय पा पौन ॥15॥
क्षुब्ध मगरयुत उदधि ज्यों, कठिन तैरना जान । तेल न बाती धूम ना, हवा बुझा नहिं पाय । त्यों तव गुण धीमान भी न कर सकें बखान ॥4॥ | त्रय जग जगमग हों प्रभो, तुहि वर दीप रहाय ॥16॥
फिर भी मैं असमर्थ तव भक्तीवश थुति लीन । मेघ ढकें न तेज, ना ग्रसे राहु, नहिं अस्त। सिह सम्मुख नहिं जाय क्या मृगि शिशु पालन दीन ॥5॥ | तव रवि महिमा श्रेष्ठ है, द्योतित भुवन समस्त ॥17।।
हास्य पात्र अल्पज्ञ पर, थुति करने वाचाल । नित्य उदित तम मोह हर मेघ न राहु गम्य। पिक कुहुके ज्यों आम का, बौर देख ऋतुकाल ॥6॥ सौम्य मुखाम्बुज चन्द्र वह जिसकी आभ अदम्य ॥18॥
शीघ्र पाप भव-भव नशे, तव थुति श्रेष्ठ प्रकार । तमहर तव मुख काम क्या, निशा चन्द दिन भान । ज्यों रवि नाशे सघन तम. फैला जो संसार ॥7॥ पकी धान पर अर्थ क्या, झुकें मेघ जलवान ॥19॥
मनहर थुति मतिमंद मैं, करता देख प्रभाव । शोभे ज्यों प्रभु आप में, ज्ञान न हरिहर पास। कमल पत्र जलकण पड़े, पाते मुक्ता भाव ॥8॥ | जो महमणि में तेज है, कहाँ काँच के पास ॥20॥
संस्तुति तो तव दूर ही, कथा हरे जग पाप । हरि हरादि लख आप में अतिशय प्रीति होय । भले दूर फिर भी खिलें, पंकज सूर्य प्रताप ॥9॥ | इसी हेतु भव-भव विभो मन हर पाय न कोय ॥21॥
क्या अचरज थुतिकार हो, प्रभु यदि आप समान । दीनाश्रित को ना करे, क्या निज सम श्रीमान् ॥10॥
शत नारी शत सुत जनें, पर तुम सा नहिं एक । तारागण सब दिशि धरें, रवि बस पूरब नेक ॥22॥
तुम्हें देख अन्यत्र न, होत नयन संतुष्ट । अमल सूर्य तमहर कहत योगी परम पुमान । कौन नीर खारा चहे, क्षीरपान कर मिष्ट ॥11॥ | मृत्युंजय हो पाय तुम, बिन शिव पथ न ज्ञान ॥23॥
प्रभु तन जिन परमाणु से निर्मित शांत अनूप। ब्रह्मा विभु, अव्यय विमल आदि असंख्य अनन्त। भू पर उतने ही रहे, अतः न दूजा रूप ॥12॥ कामकेतु योगीश जिन, कह अनेक इक संत ॥24॥
-मार्च 2002 जिनभाषित
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
विबुधार्चित बुध बुद्ध तुम, तुम शंकर सुखकार ।। धर्म कथन में आप सम, वैभव अन्य न पाय । शिवपथ विधिकर बह्म तुम, तुम पुरुषोत्तम सार ॥25॥ | रहते ग्रहगण दीप्त पर, रवि सम तेज न आय ॥37॥
त्रिगज दुःख हर प्रभु न,, न, रतन भू माँहि । न, त्रिलोकीनाथ को, नमैं भवसिंधु सुखाँहि ॥26॥
गण्डस्थल मद जल सने, अलिगण गुंजें गीत । मत्त कुपित यूँ आय गज, पर तव दास अभीत ॥38॥
शरण सर्व गुण आय, क्या विस्मय जग नहि थान । भिदे कुम्भ गज मोतियों से भूषित भू भाग । स्वप्न न मुख दोषहि लखो, आश्रय पाय जहान ॥27॥ | सिह ऐसा क्या कर सके, जिसको तुमसे राग ॥39।।
तरु अशोक तल शुभ्र तन, यूं शोभे भगवान । प्रलय काल सी अग्नि दव, उड़ते तेज तिलंग । मेघ निकट ज्यों सूर्य हो, तमहर किरण वितान ॥28॥ | जनभक्षण आतुर, शमे, आप नाम जलगंग ॥400
सिंहासन पर यूँ लगे, कनक - कान्त तन आप ।। ज्यों उदयाचल पर उगे, रवि कर - जाल प्रताप ॥30॥
लाल नेत्र काला कुपित, भी यदि समद भुजंग । नाम नागदम पास जिस, वह निर्भीक उलंघ ॥41||
दुरते चामर शुक्ल से स्वर्णिम देह सुहाय । हय, हाथी भयकार रव युत नृपदल बलवान । चन्द्रकान्त मणि मेरु पर मानो जल बरसाय ॥31॥ | नाशे, प्रभु यशगान तव, ज्यों सूरज तम हान ॥42॥
शशि सम शुभ मोती लगे, आतप हार दिनेश । " प्रकट करें त्रय छत्र तुम तीन लोक परमेश ॥32॥
भाले लग गज रक्त के, सर तरने भट व्यग्र । रण में जीतें दास तव, दुर्जय शत्रु समग्र ॥43॥
गूंजे ध्वनि गम्भीर दश, दिशि त्रिलोक सुखदाय । मानो यश धर्मेश का, नभ में दुन्दुभि गाय ॥33॥
क्षुब्ध जलधि बडवानली, मकरादिक भयकार । आप ध्यान से यान हो, निर्भयता से पार ॥44।।
मन्द मरुत गन्धोद युत सुरतरु सुमन अनेक ।। तजी आश, चिन्तित दशा, महा जलोदर रोग । गिरत लगे वच पंक्ति ही नभ से गिरती नेक ॥34॥ अमृत, प्रभु-पदरज लगा, मदन रूप हों लोग ॥45॥
त्रिजग कान्ति फीकी करे, भामडल द्युतिमान ।। सारा तन दृढ़ निगड़ से, कसा घिस रहे जंघ । ज्योत नित्य शशि सौम्य पर, दीप्ति कोटिशः भान ॥35॥ नाम मंत्र तव जपत ही होय शीघ्र निर्बन्ध ॥46।।
तव वाणी पथ स्वर्ग शिव, भविजन को बतलाय । गज अहि दव रण सिंधु गद, बन्धन भय मृगजीत । धर्म कथन समरथ सभी, भाषामय हो जाय ॥35॥ | सो भय ही भयभीत हो, जो थुति पढ़े विनीत ॥47॥
स्वर्ण कमल से नव खिले, द्युति नखशिख मन भाय । | विविध सुमन जिनगुण रची, माला संस्तुति रूप । प्रभु पग जहँ-जहँ धरत तह, पंकज देव रचाय ॥360 | कंठ धरे सो श्री लहे, मानतुंग अनुरूप ॥48॥
अलवर में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव शिवाजी पार्क अलवर में नवनिर्मित श्री संभवनाथ दिगम्बर जैन मंदिर द्वारा आयोजित श्री आदिनाथ दिगम्बर जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव राष्ट्रसंत, शाकाहार प्रवर्तक, सराकोद्धारक प.पू. उपा. श्री ज्ञानसागरजी महाराज ससंघ के पावन सान्निध्य में प्रख्यात प्रतिष्ठाचार्य वाणी भूषण पं. डॉ. विमलकुमार जैन शास्त्री एवं पं. डॉ. शीतलचन्द्र जैन जयपुर के निर्देशकत्व में सानन्द सम्पन्न हुआ।
अनन्त कुमार जैन शिवाजी पार्क, अलवर
मार्च 2002 जिनभाषित
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्रत : मानवजीवन की शोभा
न रहा है। उसी
देखो, प्रसिद्ध है।
प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन पद्मपुराण में एक प्रसंग
किया। जाओ, वापिस जाओ। प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जी जैन एक ऐसा नाम है, आता है कि वनवास से लौटने
|मरे भाग्य में यही लिखा है। जो अपनी रोचक, हृदयस्पर्शी एवं विचारोत्तेजक प्रवचनशैली, पर आयोध्या में श्री रामचन्द्रजी विद्वत्तापूर्ण पत्र-सम्पादन, अखिल भारतवर्षीय दि. जैन|
| उसे हँसकर भोगूंगी। दु:ख राजगद्दी ग्रहण कर चुके हैं शास्त्रीपरिषद् के सफल संचालन, निरभिमान पाण्डित्य,
| तो जीवन में आता ही है, और सारा काम ठीक तरह से
|कुछ रोकर भोगते हैं और अपरिग्रही, सरल, निर्भीक और श्रद्धा वात्सल्य से| परिपूर्ण व्यक्तित्व के लिए देश-विदेश के जैनसमाज में|
कुछ हँसकर भोगते हैं। जो चर्चा चलती है कि देखो,
|दु:खों को हँसकर झेलते हैं, सुप्रसिद्ध है। 'जैनगजट' के दीर्घ सम्पादन काल में रामचन्द्रजी ने सीता को घर में
|उनके कर्मों की निर्जरा होती | उनकी लेखनी से मार्मिक सम्पादकीय आलेख प्रसूत हुए। बैठा लिया, जबकि वह इतने
है और जो दु:खों को रोकर हैं। उनका एक संकलन 'चिन्तन प्रवाह' के नाम से| वर्ष रावण के यहाँ रह आई। प्रकाशित हुआ है। वह प्रत्येक ज्ञानपिपासु, स्वाध्यायप्रेमी
भोगते हैं उनका संसार बढ़ जब अयोध्या का राजा इस |
जाता है। सीता ने कहा कि और शंकामुमुक्षु के लिए पठनीय है। उक्त संकलन से तरह का काम करेगा तो दूसरे|
तुम जाओ। सेनापति ने कहा एक लेख साभार प्रस्तुत है। लोग भी इसी तरह शील से |
कि माँ, मैं जाता हूँ। क्या डिगी हुई स्त्रियाँ को स्वीकार
स्वामी राम के प्रति आपका करने लगेंगे। ऐसी दशा में मर्यादा कहाँ रहेगी? इस तरह | कोई संदेश है? सीता ने कहा-हाँ, है। यही कहना स्वामी की चर्चा अयोध्या में चली तो रामचन्द्रजी को यही उचित | राम से कि जैसे लोगों के कहने से उन्होंने मुझे छोड़ लगा कि राजनीति की शुद्धता के लिए सीता को छोड़ना | दिया है, वैसे ही लोगों के कहने से अपना संयम नहीं चाहिये। उन्होंने एक कठोर निर्णय ले लिया।
छोड़ दें। लोगों के कहने से मुझे छोड़ दिया, इसमें कोई श्रीराम ने अपने सेनापति कृतान्तवक्र को बुलाया आपत्ति की बात नहीं है। मेरे भाग्य का यही लेख था, और उसको आदेश दिया कि सेनापति, सीता गर्भवती है। उसे मैं भोगूंगी, लेकिन यदि उन्होंने व्रत-संयमरूपी धर्म को उसे यह दोहला हुआ है कि तीर्थयात्रा करे। तुम रथ छोड़ दिया तो प्रलय हो जायेगी , क्योंकि 'यथा राजा सजाओ और सीता को उसमें बैठाओ और तीर्थयात्रा के | तथा प्रजा' । राजा अगर धर्म को छोड़ेगा तो प्रजा में बहाने यहाँ से ले जाओ और घने वियावान जंगल में उसे | धर्म नहीं रह सकेगा। इसलिये लोगों के कहने से अपने छोड़ आओ। यह कठोर आदेश सुनकर सेनापति की नियम-धर्म को नहीं छोड़ दें।
आँखों में आँसू आ गये। उसने कुछ साहस किया, | पद्मपुराण का यह प्रसंग मैंने आपको सुनाया। विरोध करने का। रामचन्द्रजी उनके भावों को भाँप गये। हजारों साल पहले की यह घटना आज फिर हमारे कानों कड़ककर बोले-'सेनापति, मुझे उत्तर नहीं सुनना। तुम्हें | में गूंज कर कह रही है कि बीसवीं सदी में जैन कुल वही कार्य करना है, जो कि मेरी आज्ञा है।" और, तब में जन्मे इन्सान! आज लोग धर्म की विपरीत परिभाषाएँ वह सीता को रथ में बैठाकर घने वियावान जंगल में ले कर रहे हैं, किन्तु तुम उनके कहने से संयम को मत छोड़ गया, जहाँ जंगली पशुओं का चीत्कार सुनाई पड़ रहा था। | देना, तुम उनके कहने से देव-पूजा को मत छोड़ देना, उसने रथ रोक दिया। सीता ने पूछा-'सेनापति! यहाँ तो | तुम उनके कहने से चरित्र को मत छोड़ देना। कोई मन्दिर नहीं है, तुमने रथ को यहाँ क्यों रोका? खेद की बात है कि आज धर्म को विवाद का सेनापति की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली, विषय बना दिया गया है। धर्म का काम विवादों को हिचकियाँ बँध गई, रोते हुए सेनापति बोला -'माँ, मैं मिटाना है। धर्म का काम समता उत्पन्न करना है। अधम हूँ। मुझे ऐसा आदेश हुआ है कि आपको जंगल | र्म का काम निराकुलता का उपार्जन करना है। धर्म का में छोड़ दूं। मैं नीच हूँ और पापी हूँ।' तब महासती सीता | काम शान्ति का उद्भव करना है। इसलिये जिन कामों ने ढाँढ़स बँधाया और कहा कि रोओ मत सेनापति, तुम से परिणामों में समता आती हो, जिन कामों से दु:ख कम स्वामी राम के सेवक हो। सेवक का कर्तव्य स्वामी की | होते हों, उन कामों को करने का नाम 'धर्म' है। जब आज्ञा का पालन करना होता है। तुमने कर्तव्य पूरा | तक धर्म हमारे जीवन में नहीं उतरेगा, तब तक कल्याण
-मार्च 2002 जिनभाषित
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
नहीं होगा।
और (2) आचरण या व्यवहार का। शब्दों की महिमा भगवान महावीर का जीव अपने सैकड़ों भव पहले | को मानने वालों की संख्या हमारे समाज में निरन्तर बढ़ती भील की पर्याय में था। पुरुरवा भील था उसका नाम | जा रही है, परन्तु जो उस महिमा को अपने में उतार सकें
और काम शिकार करना था। एक दिन शिकार करने |, ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है। बकौल बाबा गया। तीर ताना। छोड़ने ही वाला था कि भीलनी ने | तुलसीदास 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं, ते कंधा झकझोर दिया। बोली-'क्या करते हो, गजब हो | नर न घनेरे।' परोपदेशक ढोल की तरह होते हैं और जायेगा?' यह तीर किस पर चला रहे हो? वह बोला कि | सदाचारी होते हैं पुष्प की सुगन्ध की तरह। ढोल के बारे देखती नहीं हो, वह झाड़ी के पीछे दो आँखें किसी हिरण में कहावत है 'दूर के ढोल सुहावने', किन्तु पुष्पों को की चमक रही हैं।
तो लोग गले के हार बनाकर पहनते हैं। व्रती ही समाज 'अरे बाबले, वह हिरण नहीं, वीतरागी मुनि हैं। ये की शोभा हैं। आज कुछ लोग व्रतों की और व्रतियों की क्या पाप करने जा रहे हो तुम? भीलनी ने उसे समझाया। महिमा को नकारने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन वह
तुरन्त तीर नीचे हो गया। पुरुरवा भील मुनिराज | वक्त जल्दी ही आयेगा जब ऐसे लोग समाज द्वारा नकार के चरणों में गिर गया। उसने कहा-मुझे धर्म का कुछ | दिये जायेंगे। उपदेश दीजिए, महाराज!
आज समाज में दो तरह के लोग हैं - (1) जो ____ पास जाकर उस समय अगर वह मुनिराज इस | स्वयं किसी मजबूरी से अथवा कर्मोदयवश व्रत धारण नहीं चक्कर में पड़ जाते कि पहले इसे पूरे 'समयसार' का | कर पा रहे हैं, किन्तु जो व्रतधारी हैं, उनकी समुचित ज्ञान करा दें, तब उसके बाद इसे कुछ उपदेश दें तो विनय करते हैं, उन्हें यथोचित सत्कार देते हैं और (2) पुरुरवा भील का भी उद्धार होने वाला नहीं था। उस जो जान-बूझकर ऐलान करते हुए स्वयं व्रत धारण न भील को उन मुनिराज ने केवल इतना ही कहा कि तुम | करने में खुशी मानते हैं तथा जो व्रती हैं, उनकी खिल्ली शराब पीना छोड़ दो, मांस खाना छोड़ दो और शहद | उड़ाते हैं। ये दूसरी तरह के लोग हमारी चिन्ता का विषय खाना छोड़ दो। मद्य-मांस-मधु इन तीन का त्याग करो, | हैं और हम समाज से अपील करते हैं कि इनसे बस इतना उस भील से कहा। बाकी आत्मा का ज्ञान | सावधान रहें। कोई कितना ही ज्ञानवान हो, किन्तु व्रती कराने के चक्कर में वह नहीं पड़े। अगर आत्मा का पूरा के सामने वह तुच्छ है। जिसका सिर व्रतियों के चरणों ज्ञान कराने के चक्कर में पड़ जाते तो भील का इतना में नहीं झुकता, वह अहंमन्य है, उसकी होनहार अच्छी नहीं क्षयोपशम था ही नहीं कि वह समयसार तो क्या, | है। ऐसे लोगों को आदर देने से जिनकी होनहार अच्छी बालबोध भी समझ पाता। इसलिये मद्य-मांस-मधु के | है, उनका भी बिगाड़ हो सकता है, हो रहा है। आचार्यों त्याग रूप जो थोड़ा सा संयम पुरुरवा भील ने धारण | ने कहा है -"स्वयं यथाशक्ति व्रतादिक धारण करो, यदि किया, उसके प्रभाव से वह महावीर बना। इससे स्पष्ट है | धारण नहीं कर सको तो उनमें श्रद्धा तो अवश्य रखो।" कि जरा-सा व्रत या त्याग तीर्थंकर भी बना सकता है। | जो स्वयं व्रत धारण नहीं करते और न उनमें श्रद्धा रखते त्याग की महिमा पैसे से बढ़कर है।
हैं, ऐसे लोगों को सद्बुद्धि प्राप्त हो, हमारी तो यही त्याग भी दो तरह का होता है- (1) शब्दों का | कामना है। 104 नई बस्ती फीरोजाबाद- :
सुदामानगर इन्दौर में महावीरद्वार बेवसाइट तैयार
___ इन्दौर। 28 फरवरी 2002। भगवान महावीर सभी को ज्ञातकर अति प्रसन्नता होगी कि
||2600वाँ जन्मजयन्ती महोत्सव वर्ष में इन्दौर की प्रसिद्ध
कॉलोनी सुदामानगर में भव्य महावीर द्वार का निर्माण | अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान, बीना की संचालित
किया जा रहा है। इसका शिलान्यास परमपूज्य उपाध्याय गतिविधियों एवं पाण्डुलिपियों की सूचियों, अनेकान्तदर्पण,
श्री निजानन्दसागरजी इस अवसर पर महती धर्मसभा
को सम्बोधित करते हुए पूज्य उपाध्यायश्री ने कहा कि संस्थान समाचार आदि विषयक जानकारी प्राप्त करने
व्यक्ति को दूसरों की प्रगति के लिये द्वार बनना चाहिये, हेतु संस्थान की बेवसाइट तैयार हुई है जिसको इस दीवार नहीं। अहिंसा वर्ष में बनने वाला यह महावीर द्वार
जन-जन में अहिंसा का संदेश देते हुए मानव मात्र की नाम से खोला जा सकता है- www.Shrutdham.com
प्रगति का पथ प्रशस्त करेगा।
पदमचन्द्र मोदी, महामंत्री मार्च 2002 जिनभाषित
10
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग
न तक ही था भी होती कहाँ रहा?
स्वं. पं. लालबहादुरजी शास्त्री द्रव्यलिंग शब्द का अर्थ बाह्य वेष से है, मिथ्यात्व इस कथन में भी अभव्य शब्द का ही प्रयोग किया और सम्यक्त्व से नहीं है। द्रव्यलिङ्गी साधु मिथ्यादृष्टि भी है। द्रव्यलिङ्ग शब्द का प्रयोग नहीं किया है। वास्तव में हो सकता है और सम्यग्दृष्टि भी होता है। यदि मात्र | जिसका द्रव्यलिङ्ग सुरक्षित (आगमानुमोदित) है वह साधु मिथ्यादृष्टि ही होता, तो द्रव्यलिङ्ग का पर्यायवाची शब्द | के उचित भावों से किंचित् हीन भी हो, तब भी उसे मिथ्यादृष्टि हो सकता था। हम द्रव्यलिङ्ग का पर्यायवाची | द्रव्यलिङ्गी नहीं कहा जा सकता। कारण स्पष्ट है, मिथ्यादर्शन को समझें, तब जो साधु द्रव्यलिङ्ग और परिणामों का उतार-चढ़ाव इतना सूक्ष्म है कि उसे छद्मस्थ भावलिङ्ग दोनों से संयुक्त है, उसे हमें मिथ्यादर्शन और | व्यक्ति ग्रहण नहीं कर सकता। जो मुनि वेष और सम्यग्दर्शन दोनों से संयुक्त मानना चाहिए।
तदनुकूल आचरण का निर्दोष पालन कर रहा है, वह शंका - भावलिङ्ग से निरपेक्ष द्रव्यलिङ्ग मिथ्यादृष्टि | कदाचित् अन्तरंग के भावों से हीन होने पर भी स्थूल के ही होता है?
ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से भावलिङ्गी ही कहा जायेगा। इस समाधान- नहीं, जिस मुनि के छठे गुणस्थान जैसे | सम्बन्ध में यहाँ हम एक उदाहरण देते हैं। पुलाक, वकुश, भाव नहीं हैं, वह पंचम गुणस्थान या चतुर्थ गुणस्थान जैसे | कुशील, निर्ग्रन्थ, स्नातक इन सभी साधुओं को आगम में भाव भी रख सकता है, लेकिन द्रव्यलिङ्ग मुनि जैसा ही | भावलिङ्गी बताया है। साथ ही जहाँ संयम, श्रुत, प्रतिसेवना है। अत: द्रव्यलिङ्गी होकर भी वह सम्यक्दृष्टि है। आदि से इनका विभाजन किया है, वहाँ पुलाक में छहों
शंका- यदि ऐसा है तो शास्त्रों में ऐसा क्यों लेश्याएँ बतलाई हैं। प्रश्न यह है कि छहों लेश्याओं का लिखा है कि द्रव्यलिङ्गी मिथ्यादृष्टि भी मर कर ग्रैवेयकों | सद्भाव चतुर्थ गुणस्थान तक ही बतलाया है, उसके बाद में उत्पन्न हो सकता है।
नहीं। यदि पुलाक के कृष्ण लेश्या भी होती है, तो वह समाधान -जहाँ द्रव्यलिङ्गी मिथ्यादृष्टि या केवल | चतुर्थ गुणस्थान में आ गया, फिर भावलिङ्गी कहाँ रहा? द्रव्यलिङ्गी की चर्चा आती है कि वह आत्मज्ञान से शून्य और यदि वह भावलिङ्गी है तो उसके कृष्ण लेश्या नहीं होता है, वहाँ अभव्य द्रव्यलिङ्गी से अभिप्राय है। क्योंकि होना चाहिए। इसका समन्वय यही है कि करणानुयोग की अभव्य को कभी सम्यग्दर्शन नहीं होता। अतः उसका | अपेक्षा मुनि का लेखा-जोखा करें तो उसके कृष्ण लेश्या मिथ्यादृष्टिपन निश्चित है।
सम्भव है और चरणानुयोग की अपेक्षा तो वह महाव्रती पंडित दौलतराम जी ने छ:ढाला में जो लिखा है मुनि है, क्योंकि मुनि का वह आचरण पालन कर रहा 'मुनिव्रतधार अनन्त वार ग्रीवक उपजाओ .......' वह है, फिर भले ही वह त्रुटि पूर्ण ही क्यों न हो। अभव्य को लक्ष्य में रखकर ही लिखा है। जो भव्य है| उत्तरपुराण में एक कथा आई है। कोई मुनि कहीं वह अनन्तवार मुनिव्रत नहीं धारण करता। अधिक से ध्यान में बैठे हुए थे। उनके बारे में समवशरण में भगवान अधिक वह 32 बार ही मुनिव्रत धारण करेगा। 32वीं बार से पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि इस समय उन मुनि तो वह अवश्य ही मुक्ति प्राप्त करेगा, ऐसा शास्त्रों का | के ऐसे निकृष्ट परिणाम है कि यदि आयु का बन्ध हो उल्लेख है।
जाय, तो सातवें नरक चले जायें। दूसरे क्षण में उनके समयसार में तो आचार्य कुन्दकुन्द ने जिस मिथ्यादृष्टि सातवें नरक के भावों की तीव्रता कम हुई, तो केवली अज्ञानी की चर्चा की है, उसे द्रव्यलिङ्गी न लिखकर ने वैसा बतलाया। धीरे-धीरे उनके भावों की विशुद्धि अभव्य शब्द से ही उच्चरित किया है। यथा
बढ़ती गई, तो वैसा ही सर्वज्ञ के द्वारा उनका उत्कृष्ट फल वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं । । होने की सम्भावना प्रकट की गई। इस कथा से यह कुव्वंतोवि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिट्ठो दु ॥273 निष्कर्ष निकलता है कि अन्तर्मुहूर्त में भावों का उतार-चढ़ाव
जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित (मनमाने ढंग से कहीं से कहीं जाता है और उतार-चढ़ाव के साथ ही सदोष नहीं) पाँच समिति, तीन गुप्ति इस तरह 13 प्रकार | साथ साधु के गुणस्थान भी बदलते रहते हैं। तब कौन के चारित्र का पालन करता हुआ भी अभव्य अज्ञानी और कब द्रव्यलिङ्गी हुआ और कौन अब भावलिङ्गी हुआ? मिथ्यादृष्टि है। इसके आगे पुनः लिखा है कि अभव्य 11 | इसका निर्धारण नहीं किया जा सकता। अंगों का पाठी होने पर भी ज्ञानी नहीं है -
कोई मुनि जब 11वें गुणस्थान से गिरता है तो मोक्खं असद्दहंतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज। क्रमशः वह गिरते-गिरते पहले गुणस्थान में भी आ सकता पाठो ण करेदि गुणं असद्दहं तस्स णाणं तु ॥274 है। ध्यान में बैठे ही बैठे उसका यह पतन हो रहा है ऐसी
मोक्षतत्त्व का श्रद्धान न करने वाला अभव्य जीव स्थिति में हमें वहाँ यह आशंका करने का अधिकार नहीं यदि 11 अंग का पाठ भी करे तो उससे लाभ नहीं है। । है, कि कहीं इस समय वह मिथ्यादृष्टि न हो? या
-मार्च 2002 जिनभाषित ॥
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
में
द्रव्यलिङ्गी न हो? इसे नमस्कार करें या नहीं। वहाँ नहीं, प्रत्युत द्रव्यलिङ्ग से भी अत्यधिक गिरे हुए हैं। नव तो उसे भावलिङ्गी समझकर नमस्कार करना ही होगा। ग्रैवेयक तक पहुँचने वाले द्रव्यलिङ्गी साधुओं का बाह्य वहाँ हमारी दृष्टि चरणानुयोग का ही आश्रय लेगी। । आचरण भी बड़ा ही सधा हुआ होता है, वे उपसर्ग भी
वास्तव में जिस भावलिङ्ग का हम अभिनन्दन करते | सहन करते हैं, विचलित नहीं होते, कायक्लेश भी हैं वह भावलिंग भी द्रव्यलिंग पर ही निर्भर करता है। असाधारण करते हैं, तभी तो उनका नवग्रैवेयक में पहुँचना यदि भावलिंग के बिना द्रव्यलिङ्ग व्यर्थ है तो द्रव्यलिङ्ग | सम्भव है, अन्यथा भ्रष्ट मुनि तो नरक निगोदादि के पात्र के बिना भावलिङ्ग का तो अस्तित्व ही नहीं है, व्यर्थता ही होते हैं। समयसार की गाथा २७३ जिसे हम ऊपर तो बहुत दूर की बात है। व्यर्थ तो वह है जिसका लिखे आये हैं, उसकी टीका में अमृतचन्द्र आचार्य ने अस्तित्व तो हो, पर अपेक्षित लाभ न हो। वहाँ द्रव्यलिङ्ग का अस्तित्व तो है पर भावलिङ्ग का तो अस्तित्व भी "परिपूर्णशीलतपः त्रिगुप्तिपंचसमिति परिकलितमहिंनहीं है।
सादिपंचमहाव्रतरूपं व्यवहारचारित्रभव्योऽपि कुर्यात्" उक्त चर्चा का निष्कर्ष यह है कि अभव्य जीव यदि यहाँ रेखांकित शब्द 'परिपूर्ण' इस बात का द्योतक मुनि बनता है, तो वही द्रव्यलिङ्गी मुनि है। दि. जैन | है कि द्रव्यलिङ्ग, अभव्य मिथ्यादृष्टि का द्रव्यलिङ्ग भी शास्त्रों में जिन जैनाभासों की चर्चा की है, वे द्रव्यलिङ्गी बड़ा निर्दोष होता है, उसमें पोल नहीं होती। अतः जो नहीं है। क्योंकि बाह्य वेषभूषाएँ द्रव्यलिंग के अनुकूल नहीं लोग द्रव्यलिङ्ग का सम्बन्ध आचरणहीनता, सदोष आचरण हैं। जैनेतर सम्प्रदाय के कुटिचक, बहूदक, हंस, परमहंस या मिथ्यादर्शन से जोड़ते हैं वह उचित नहीं है। भव्य जीव साधु भी द्रव्यलिङ्गी नहीं है, क्योंकि वहाँ जैनत्व का | तो मुनि बनकर परिणामों का उतार-चढ़ाव करता है, आभास नहीं है। सच्चे देवशास्त्रगुरु का श्रद्धालु यथावत् उसकी द्रव्य भावलिङ्गता का निश्चय न होने से वह निर्ग्रन्थदीक्षा लेने वाला जो अपने मूलगुणों में भी दोष भावलिङ्गी ही साधु है। चूंकि अभव्य कभी सम्यग्दर्शन लगाता है, वह भी द्रव्यलिङ्गी नहीं है। क्योंकि उस प्रकार धारण नहीं कर सकता, अतः उसके परिणामों का के पुलाकादि मुनि सभी शास्त्रों में भावलिङ्गी बताये हैं। गुणस्थानानुसार कोई उतार-चढ़ाव नहीं है। यदि है तो इसी प्रकार अध:कर्म करने वाले, मंत्र तंत्रादि से आजीविका | केवल मिथ्यात्वगुणस्थान के अन्दर ही है। बस उसी का करने वाले तथा दूसरे प्रकार के भ्रष्ट मुनि भी द्रव्यलिंगी | मुनि बनना द्रव्यलिङ्ग है।
हो, पर अपेक्षितच तो वह है
जिही होते हैं। भ्रष्ट मुनि तो नरक का तो अस्तित्वालङ्ग | लिखा भाव हैं, उसकी गाथा २७३
ज्यों-ज्यों उमरें बढ़ने लगती
अशोक शर्मा ज्यों-ज्यों उमरें बढ़ने लगती, त्यों-त्यों लगता ऐसा | सतरंगी सन्ध्या के आंगन कुछ जूड़ों में फूल टाँकना शंख-सीपियों को बटोरती नाबालिग थी उमर हमारी। रंगों के आँचल लहरा कर नयनों में उन्माद आँजना। बहुत भला लगता था हमको टूटे घर की नींव हिलाना। | ज्यों-ज्यों रंग धुंधलने लगते त्यों-त्यों लगने लगता ऐसा। शीश किसी के धौल जमाना और किसी को जीभ चिढ़ाना वय-संधि के ऋतुद्वार पर क्या खुमार थी उमर हमारी ॥2॥ कागज, मिट्टी और काँच के खेल खेलना, तोड़-सजाना। | अब है सधियों के आँगन में बीते कल की छलना धूल सने चेहरे पाँवों का, मर्म बताते झूठ जताना।।
पाँख-पाँख फूलों का झरना शाख-तनों का गलना खेल-खिलौने, छुटने लगते त्यों-त्यों लगने लगता ऐसा रंग नहीं चाहे चनर में और नया अब चढना। मन मस्ती में रंग जमाती बड़बोली थी उमर हमारी। ॥1॥ |
आयु के इस श्वेत-पत्र पर कुछ लिखना कुछ पढ़ना। बहुत भला लगता था हमको दर्पण में कुछ बिम्ब उगाना श्वेत उमर की फसलें पकती त्यों-त्यों लगने लगता ऐसा शंख बीनना नदी किनारे और बालू के भवन बनाना | जोड़-घटे का गणित लगाती है बालिग यह उमर हमारी ॥3॥
अभ्युदय निवास
36,बी मैत्री बिहार भिलाई (दुर्ग), छत्तीसगढ़
12
मार्च 2002 जिनभाषित
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
आहार दान की विसंगतियाँ
ब्र. महेश जैन सुना जाता है कि आज से 200/300 वर्ष पूर्व | बाल्टी द्वारा सीधे उसी कुए में क्षेपण करे, जहाँ से पानी अपने क्षेत्रों में जैन साधुओं का अभाव सा था, कहीं लाया गया हो। पानी को साफ एवं मोटे छन्ने से छाना दक्षिण भारत में एक-दो साधु देखे जाते थे, उस समय | जाना चाहिए। लेकिन वर्तमान में ऐसा बिल्कुल भी नहीं जो भी जैन विद्वान थे, वे दिगम्बर साधुओं के दर्शन के | हो रहा है। श्रावक जो छन्ना पानी छानने में प्रयोग करता लिए तरसते ही रह गये। समय बीतता गया। इस सदी | है वह पतला एवं छिरछिरा होता है। उससे पानी छानने में एक सिंहवृत्ति के साधु हुए, जिनका नाम था आचार्य | की विधि बनती ही नहीं है। यदि छन्ना मोटा भी है तो शान्तिसागर जी महाराज। उनकी अनुकंपा से आज तक उसकी जिवानी यथास्थान क्षेपण नहीं की जाती है। वह परम्परा सतत चल रही है। आज हमारे सौभाग्य से | अधिकतर कुए घर से दूर होते हैं। वहाँ से पानी लाया वर्तमान में 800/900 साधु व आर्यिका आदि भारत में जाता है और उसकी जिवानी को नाली में बहा दिया यत्र-तत्र बिहार कर रहे हैं। तथा धर्म का प्रचार-प्रसार | जाता है। हैण्डपंप के पानी की जिवानी को यथास्थान प्रचुरता से हो रहा है।
पहुँचाने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः त्रस जीवों की पहले साधुओं का अभाव होने के कारण गाँव एवं रक्षा नहीं हो पाती है व छन्ना पतला होने से साधु को शहरों में साधुओं के दर्शन ही नहीं होते थे व हमें आहार | दिये गये भोजन में त्रस हिंसा का दोष लगता है एवं जीवों विधि आदि का कोई ज्ञान नहीं था। यही कारण था कि | की घोर हिंसा होती है। आचार्य शांतिसागर जी महाराज ने दीक्षा लेने के उपरान्त | 2. दूध - आज का श्रावक साधुओं के लिए शुद्ध कई वर्षों तक मात्र दूध व चावल ही लिया। जब इस | दूध की व्यवस्था कर ही नहीं पाता है। मैंने कई संघों संबंध में उनसे पूछा गया तो पूज्य आचार्यश्री ने बताया | में जाकर देखा है कि लोग साधुओं को अशुद्ध दूध कि आहार दाताओं को शुद्धि विषयक ज्ञान ही नहीं है, पिलाते हैं। एक क्षेत्र पर 15/20 साधुओं का संघ रुका अन्य वस्तुएँ कैसे ग्रहण की जायँ? वर्तमान में परिस्थितियों | हुआ था। वहाँ के क्षेत्र प्रबन्धक तीन-चार किलोमीटर दूर ने बहुत पलटा खाया है। आज भारत में हर 100/50 से 25/30 लीटर दूध कढ़वाकर मँगवाते थे और दूध सारे कि.मी. की दूरी पर कोई न कोई साधु संत हमें मिल | चौकों में बाँटा जाता था। दूध का कढ़ना प्रात: 5.30 जाते हैं व हमारे शहर-गाँवों में पधारते रहते हैं। श्रावक बजे शुरु हो जाता था और श्रावक के यहाँ पहुँचते पहुँचते जन अपना कर्त्तव्य समझकर साधुओं लिए आहार बनाते आठ बज जाते थे। ऐसे दूध को कैसे आहार के योग्य हैं, पर ऐसा देखा जाता है कि आहार संबंधी शुद्धि का कहा जा सकता है? कच्चे दूध की मर्यादा मात्र अन्तर्मुहूर्त प्रवचन सुनकर व पुस्तकों को पढ़कर भी, आलस्य से (48 मिनिट) की है। इतने समय में दूध गर्म हो जाना भरा हुआ श्रावक, अपनी सुविधानुसार साधु को आहार | चाहिए। लेकिन जिस प्रकार दूध मँगाया जाता है उसमें देता है, न कि आगम व प्रवचनानुसार। क्योंकि मैं कई | मर्यादा का पालन नहीं होता। एक स्थान पर यह देखकर बार मुनि संघों के दर्शनार्थ जाता रहता हूँ व हमारे शहर | अत्यन्त दुख हुआ कि श्रावक डेयरी का थैलीवाला दूध में भी मुनि संघ आते रहते हैं। मैंने आहर शुद्धि के विषय ही गर्म करके आहार में दे रहे थे। में श्रावकों के चौकों का निरीक्षण किया व उनकी मैं समझता हूँ कि शुद्ध दूध प्राप्त करने की क्रियाओं को देखा एवं उनसे चर्चा की, मुझे वहाँ बहुत समस्या सही है, लेकिन यदि हम थोड़ा सा आलस्य छोड़ सी अशुद्धियाँ देखने-सुनने को मिलीं, जिससे चित्त में बड़ा सकें तो दूध की शुद्धि बन सकती है। सर्वश्रेष्ठ तो यही सन्ताप हुआ। तब यह लेख लिखने की भावना बनी है। है कि हर चौकेवाला स्वयं गर्म जल लेकर जाये एवं शुद्ध हमें विचार करना है कि साधुओं को दिया जाने वाला दूध कढ़वाकर लाये। एवं जहाँ पर पीछियाँ अधिक हों आहर कहाँ तक आगम सम्मत है?
और क्षेत्र पर ठहरी हों और दूध कहीं अन्यत्र से सभी 1. जल - आहार में जो जल उपयोग में लिया चौकों वालों के लिए लाना पड़ता हो, वहाँ प्रबन्धकों को जाता है, वह कुए का या किन्हीं संघों में हैण्डपंप का चाहिए कि वे जहाँ दूध निकाला जा रहा हो, उसी स्थान लिया जाता है। (हम इस विषय पर चर्चा नहीं करेंगे कि । पर बड़ा भगौना एवं एक बड़ा गैस का चूल्हा रखें। हैण्डपंप का जल उपयोग में लिया जाय या नहीं) श्रावक जैसे-जैसे दूध नपता जाए, उसे छानकर वहीं भगौने में गर्म का कर्तव्य है कि पानी छानकर जिवानी को कुन्डेवाली कर लें और फिर श्रावकों को वितरित कर दें। ऐसा करने
-मार्च 2002 जिनभाषित
13
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
से दूध शुद्ध प्राप्त किया जा सकता है।
आदि कम्पनी का घी खरीदकर आहार में देने लगे हैं। 3. घी - शुद्ध घी का प्राप्त करना वर्तमान में | उनका कहना है कि अठपहरा घी तो, मिलता नहीं और एक दम असंभव है। चारित्रचक्रवर्ती ग्रंथ में पूज्य आचार्य महाराज को घी देना ही है तो क्या करें? एक स्थान शान्तिसागर जी महाराज से यह प्रश्न किया गया कि घी पर तो चातुर्मास समिति वाले डेरी का निकला हुआ घी शुद्ध नहीं मिलता। क्या करना चाहिए तो आचार्य श्री (अशुद्ध समझते हुए भी) पूरे चार माह तक संघ को कहते हैं घी शुद्ध न मिले तो तेल का इन्तजाम करना | आहार में शुद्ध कहकर खिलाते रहे। (यह मैं बिल्कुल चाहिए। परन्तु न मालूम क्यों हम जैनभाइयों के दिगाम | सत्य घटना लिख रहा हूँ) जो नितांत अशुद्ध है। में यह बात अच्छी तरह जमी हुई है कि यदि साधुओं
इस समस्या के तीन समाधान को घी नहीं दिया जायेगा, तो उन्हें संयम साधन करने
1. सर्वोत्तम तो यही है कि बजाय घी के शुद्ध के लिए शक्ति कैसे प्राप्त होगी? जबकि यह अकाट्य
तेल अपने सामने किसी एक्सपेलर को धुलवा कर सत्य है कि दक्षिण भारत, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल आदि
निकलवा लिया जाय, (एक बार का निकला हुआ तेल प्रदेशों में अधिकांश जनता ने तो घी का स्वाद चखा ही
कई माह तक शुद्ध रहता है) और उसे ही आहार बनाने नहीं है। वे तेल पर आधारित हैं, और स्वस्थ एवं दीर्घायु |
| में प्रयुक्त किया जाए। हैं। अतः इस धारणा को हमें निकाल देना चाहिए। जहाँ |
2. घी से ज्यादा शक्ति बादाम में बतायी जाती तक शुद्ध घी का प्रश्न है वह केवल उसी परिवार को | प्राप्त हो सकता है, जिसके घर में स्वयं के पशु हों, |
है। बजाय 100 ग्राम घी के यदि साधु को आहार में
5/7 बादाम घिसकर दे दिये जायें तो हर दृष्टि से श्रेष्ठ लेकिन ऐसे घर वर्तमान में देखने में नहीं आते हैं। आज-कल जो घी इस्तेमाल होता है, वह कई प्रकार से
रहते हैं, तथा अशुद्धि का भी कोई प्रश्न नहीं उठता। ये प्राप्त किया हुआ होता है। .
बादाम दूध में मिलाकर दिये जा सकते हैं। 1. श्रावक अपने घर में जिस शुद्ध दूध का प्रयोग
3. जैन समाज को एक ऐसी दुग्ध सोसायटी बनानी करता है, उसकी मलाई एकत्रित करता जाता है। जब चाहिए जो शुद्ध घी (आगम की मर्यादा के अनुसार) मलाई 5-7 दिन की एकत्रित हो जाती है तब उसको गर्म
बनाकर श्रावकों को आहार के लिये सप्लाई किया करे। करके घी निकालता है। घी निकालते समय अत्यन्त 4. आटा - आहार के लिए जो आटा प्रयुक्त किया बदबू भी आती है, जो इस बात का लक्षण है कि मलाई जाए उसका गेहूँ अच्छी तरह धुला एवं सूखा हुआ होना सड़ चुकी है। फिर भी वह मलाई का घी निकालकर चाहिए। आज कल श्रावक मर्यादा का तो ध्यान रखते हैं अपने को "यह शुद्ध घी महाराज के लिए ठीक है" ऐसा पर गेहूँ धोने एवं सुखाने का ध्यान नहीं रखते। आज बहलाता हुआ प्रसन्न होता है। जो बिल्कुल गलत है। । विज्ञान का युग है। सभी किसान खादों में कीटाणुनाशक अशुद्ध दूध की मलाई की तो चर्चा ही व्यर्थ है। हाँ दवाइयाँ का प्रचुरता से प्रयोग करने लगे हैं। बाजार से यदि शुद्ध दूध लाकर अन्तर्मुहर्त में गर्म कर लिया गया | जो गेहूँ आता है, उसमें खाद तथा दवाइयाँ का अंश हो, तो उसकी निकाली गयी मलाई की मार्यादा अधिक मौजूद रहता ही है, जो अशुद्ध एवं अभक्ष्य है, एवं वह से अधिक 24 घंटे की है। इसके उपरान्त उसमें त्रस जीव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी है। इसलिए सभी डॉ. उत्पन्न हो जायेंगे। सामान्यतः किसी भी श्रावक के घर भी आज यही कहने लगे हैं कि गेहूँ धोकर ही काम में में इतनी मलाई नहीं निकल सकती, जिसका घी बनाया लेना चाहिए। लेकिन आज का श्रावक इन कामों में बड़ा जा सके, अतः इस प्रकार शुद्ध घी बनाना संभव नहीं है।। प्रमादी है, वह गेहूँ धोने व सुखाने के पचड़े में नहीं पड़ना
2. कुछ लोग घी वालों से (हमको शुद्ध घी चाहिए | चाहता है, यदि कुछ समझदारी भी है तो गेहूँ को गीले महाराज को आहार में देना है) ऐसा कहकर घी खरीद कपड़े से पोछ लेता है। जो कि बिलकुल अनुचित है। लाते हैं और उसे शुद्ध मानते हैं। उन दाताओं को सोचना | ऐसा आटा आहार के कदापि योग्य नहीं होता। चाहिए कि जिन घीवालों से आपने घी लिया है, वे 5. मसाले आदि - भोजन में प्रयोग में लाये जाने आपकी धार्मिक सीमाओं को नहीं जानते। अतः उससे वाले मसाले धुले एवं सूखे हुए होने चाहिए और इनकी लाया हुआ घी शुद्ध कैसे हो सकता है? केवल घी वाले | मर्यादा आटे के बराबर है, इसका भी ध्यान रखना के यह कह देने से कि घी सोले का शुद्ध है", घी शुद्ध चाहिए। आजकल मसाला धोने का रिवाज बिलकुल उठ नहीं हुआ करता, वह यह नहीं जानता कि शुद्ध घी किसे | गया है, जो कि अनुचित है। उसकी शुद्धि का पूरा ध्यान कहते हैं, शुद्ध दही कैसे जमता है? अतः ऐसा घी आहार दिया जाना चाहिए। आहार के बाद जो मंजन किया जाता दान के योग्य नहीं होता।
है वह भी अमर्यादित और अशुद्ध प्रयोग में लिया जाने 3. कुछ लोग घीवालों से डेरी का या ग्लेक्सो लगा है, इसकी मर्यादा भी मसालों के बराबर ही है (यदि 14 मार्च 2002 जिनभाषित -
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
घर का बना मंजन है तो), बाजार का तो अशुद्ध ही है। । विभिन्न प्रकार मिठाइयाँ आदि गरिष्ठ भोजन अपने चौकों 6. अचित्त फल - फलों को अचित्त करने का
में बनाने लग जाती हैं, व बनाते समय हड़बड़ी करती तरीका यह है कि फल को गर्म पानी में 10 मिनिट तक
हैं, जिससे अशुद्धियाँ होती हैं और आहार देते समय पड़ा रहने दिया जाए, तदुपरान्त उसको निकालकर फिर
साधुओं को अक्सर अन्तराय आ जाता है। भोजन की प्रयुक्त किया जाए। लेकिन यह विधि लोग काम में नहीं कच्ची सामग्री की अशुद्धि को भी अनदेखा कर देते हैं, लाते। अक्सर श्रावक जन केले, सेव आदि को गर्म पानी
जिससे साधुओं की साधना में साधक सिद्ध न होकर उल्टा से धोकर इस्तेमाल करते हैं, या कुछ लोग फलों का
बाधक बन जाता है। हम अपने घरों में, अपने लिए एक छिलका हटाकर टुकड़े-टुकड़े करके एक-दो मिनिट आग
दाल, दो साग, और सलाद बनाते हैं, लेकिन साधु को के ऊपर रखकर शुद्ध मान लेते हैं, जो विधि आगम
गरिष्ठ आहार कराते हैं व विभिन्न पकवान खिलाते हैं, सम्मत नहीं है। फल 10 मिनिट तक गर्म पानी में डालने जिससे कि साधु को आलस्य व प्रमाद घेर लेता है और के बाद ही अचित्त होता है। कुछ लोग कहते हैं गर्म पानी वह आहार साधु के सामायिक, स्वास्थ्य आदि में बाधक में डालने से फल मुलायम पड़ जाते है व उनमें स्वाद
सिद्ध हो जाता है। हमें चाहिए कि हम साधुओं को नहीं रहता है, उनसे मेरा निवेदन है कि वे स्वाद को दृष्टि हल्का-फुल्का शुद्ध मर्यादित भोजन करावें, जो कि हमारे में न रखकर भोजन शुद्धि को दृष्टि में रखें। अन्यथा
लिए पुण्योपार्जन में साधक हो तथा साधु को भी अपनी अहिंसा महाव्रत नहीं पल सकेगा।
साधना में साधक हो। 7. वस्त्र शुद्धि संबंधी - आहार के लिये प्रयोग
निवेदन - विभिन्न संघों में निरन्तर जाते रहने से में लाये जाने वाले वस्त्र धुले हुए शुद्ध होने चाहिए।
मेरे मन में भोजन की अशुद्धि को लेकर जो वेदना हुई आजकल देखा जाता है कि जितने दान देनेवाले हैं, वे
है, मैंने यहाँ उसी का वर्णन किया है मुझे आशा ही नहीं अक्सर अपने पहने हुए वस्त्र उतारकर धोती-दुपट्टा पहिन
पूर्ण विश्वास है कि श्रावकजन भोजन की शुद्धि का लेते हैं, जो कि अनुचित है। हमें शरीर से सारे वस्त्र
| पूर्णरूपेण ध्यान रखने का प्रयास करेंगे। मैंने तो गुरुओं उतारकर गीले अंगोछे से शरीर पोछकर फिर शुद्ध कपड़े
से यह सीखा है कि जो अशुद्ध वस्तु है, उसे न देना पहनने चाहिए। एवं जिन कपड़ों से हम कभी भी |
अच्छा है। यदि आहार देना है तो कम सामान बनायें, लघुशंका आदि गये हों उन कपड़ों को पहनकर कभी |
लेकिन शुद्ध बनावें और उपर्युक्त घी आदि वस्तुएँ शुद्ध आहार नहीं देना चाहिए।
हों तभी दें अन्यथा नहीं। एक बात और देखी जाती है, आहार बनाते समय
संघीजी जैन मंदिर माताएँ बहुत सारे व्यंजन जैसे-गोलगप्पा, रसगुल्ला व
सांगानेर (जयुपर)
राजल गीत
श्रीपाल जैन 'दिवा'
सखी री अन्तर अँखियाँ रोय।
राजुल मन माने की बात। सखी सुन अन्तर अँखियाँ रोय।
सखी री मन माने की बात। मोती झरते झपे पलक नहिं नयना कैस सोय? | जिन को अब तक राग रिझाया, मधुरस्वप्न दिन रात। चिन्तन का आराध्य निरंतर, टप-टप मोती धोय। मन पगला राजुलमय होकर, लाये नेम बरात। प्रक्षालन से नव छवि निखरे, अपलक अँखियाँ जोय। पशु-पुकार की बेटी करुणा, जीत दे गई मात। अष्ट द्रव्य भावों के लाई, पल-पल पूजन होय। मन तो कहता हार हो गई, आतम मत अनजात। करुणा जब साकार हो गई, समता पुलकित होय। झूल रहा झूला मन वेदन, वैभव सुख मुरझात। निदय हृदय कैस कह दूँ मैं, जग तारक जो होय। पर आतम सँग मन फिर कहता, असल विरागी जात।
शाकाहार सदन एल. 75, केशर कुंज, हर्षबर्द्धन नगर, भोपाल-3
-मार्च 2002 जिनभाषित
15
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
आर्यिका-नवधाभक्ति प्रकरण
पं. मूलचन्द लुहाड़िया उक्त प्रकरण पर लिखे गए मेरे एक लघु लेख | माना जायेगा और शास्त्र सुरक्षादि कार्य के लिए प्रदत्त को जैन गजट के 51वें अंक में मोटे अक्षरों में की गई वस्त्रों को उपकरण कहा जायेगा। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर बृहत् संपादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशित किया गया मान्यताओं में यही मौलिक अन्तर है। श्वेताम्बर ग्रंथों में है। पत्रिका के विद्वान सम्पादक जी ने अपनी टिप्पणी साधु के लिए 14 उपकरण ग्राह्य माने गये हैं, जिनमें देकर विवादास्पद विषयों पर आगम के आधार पर वस्त्र भी एक है। वे कहते हैं कि साधु वस्त्र उपकरण वीतराग चर्चा के द्वार खोले हैं। मैं उन्हें इस महानता के | के रूप में पहनते हैं इसलिए वस्त्र उनका परिग्रह नहीं है। लिए साधुवाद देता हूँ।
जिस प्रकार पीछी कमंडल उपकरण होने से परिग्रह नहीं यदि ऐसे धार्मिक विषयों पर लिखे गए लेखों में है, उसी प्रकार वस्त्र भी उपकरण होने से परिग्रह नहीं कदाचित् परस्पर आरोप प्रत्योराप एवं निदात्मक/ व्यंगात्मक | है। शब्दों का सहारा लिया जाता है तो वह विसंवादिनी कथा । सम्पादकीय टिप्पणी का यह अंश "आर्यिका की का रूप ले लेता है, जो अवांछनीय तो है ही साथ ही | साड़ी परिग्रह नहीं उपकरण ही है, क्योंकि आगम में धर्म की अप्रभावना का भी कारण हो जाता है। काश, शक्यानुष्ठान के रूप में उनके लिए उसकी अनुमति दी हम लोग पक्षाग्रह से ऊपर उठ कर नयसापेक्ष दृष्टि से है" पढ़कर किस दिगम्बर जैन धर्म के श्रद्धालु व्यक्ति वस्तु स्वरूप को देखने, प्ररूपण करने एवं ग्रहण करने के को आश्चर्य एवं दु:ख नहीं होगा? यदि आर्यिका की अभ्यासी बनें, तो ऐसी चर्चाएँ परस्पर संवादसर्जन में समर्थ साड़ी उपकरण है, तब तो आर्यिका भी मुनिवत् अपरिग्रहमहाव्रती हो सकेंगी।
अर्थात् सकल संयमी हो गई। प्रकारांतर से यह श्वेताम्बर आइए हम सम्माननीय संपादकजी द्वारा की गई मान्यता की स्थापना एवं दिगम्बर मान्यता का उच्छेद है। टिप्पणी पर आगम के परिप्रेक्ष्य में विचार करें।
अपने पक्ष के अंधसमर्थन में कभी-कभी हम अपने मौलिक यह ठीक है कि जयोदय काव्य के श्लोक 2/95/ सिद्धांतों के संरक्षण की भी अवहेलना कर बैठते हैं। की टीका में "धर्म पात्र दिगम्बर साध्वादि" लिखा है। जिस वस्तु से आत्मा का (संयम का) उपकार होता यह भी ठीक है कि इस में 'आदि' शब्द से आर्यिका | है उसको उपकरण कहते हैं। किसी भी वस्तु के परिग्रह का ग्रहण होता है। यहाँ केवल आर्यिका ही नहीं, अपित होने अथवा उपकरण होने का निर्णय उसके उपयोग के क्षुल्लक, ब्रह्मचारी, देशव्रती आदि के साथ-साथ सम्यग्दृष्टि आधार पर होता है। यदि शारीरिक सुविधा प्रदान करने का भी ग्रहण होता है। ये सभी धर्मपात्र माने जाते हैं। | वाली वस्तुओं को भी उपकरण मान लिया जायेगा, तो किन्तु इन सभी धर्मपात्रों का संतर्पण एक ही प्रकार की सभी भोगोपभोग की सामग्री उपकरण की परिधि में आ सामग्री से एवं एक ही प्रकार की विधि से नहीं किया जायेगी। पीछी-कमंडलु का उपयोग केवल जीवरक्षा एवं जाता है। गृहस्थ को स्वविवेक से पात्रों के पदानुकूल मलशुद्धि के लिए किया जाता है, इसीलिए वे उपकरण यथायोग्य विधि से तथा यथायोग्य सामग्री से संतर्पण की श्रेणी में आते हैं। किन्तु यदि पीछी का उपयोग सफाई करना चाहिए। इस श्लोक में सभी धर्मपात्रों तथा के लिए झाडू लगाने एवं कमंडलु के जल का उपयोग कार्यपात्रों के संतर्पण की बात लिखी है, किन्तु यह कहीं पीने अथवा शरीर का मैल दूर करने में किया जायेगा, नहीं लिखा है कि सबका समान प्रकार से संतर्पण करना तो वे परिग्रह माने जायेंगे। मुनियों के लिए तीन प्रकार
| के उपकरण ग्राह्य बताए गए हैं। संयमोपकरण (पीछी), श्लोक सं. 95 में केवल यतियों (मुनियों) को | शौचोपकरण (कमंडलु) तथा ज्ञानोपकरण (शास्त्र)। अत: नवधा भक्ति पूर्वक दान देने की बात कही गई है। | मुनि महाराज को भेंट किए जाने वाला वस्त्रोपकरण केवल स्वोपज्ञ टीका में स्पष्टतः "यतिषु" "यातिनां साधूनां शास्त्र के वेष्टन के रूप में ही ग्रहण हो सकता है। इसके गणः समूहो" लिखा है। यहाँ अर्यिकाओं का कोई प्रसंग अतिरिक्त श्लोक 95 में आर्यिकाओं की साड़ी तो शरीर नहीं है। यतियों को भोजन तथा वस्त्रपात्रादि उपकरण | के आवरण एवं सुरक्षा के लिए पहनी जाती है अतः वह प्रदान करने का उपदेश दिया गया है। वस्त्र मुनियों को | तो निर्विवाद रूप से परिग्रह ही है, उपकरण कदापि नहीं। शास्त्र सुरक्षा के लिए ही दिया जा सकता है, पहिनने के | यदि वस्त्र को उपकरण मान लिया जाये, तो सवस्त्र साधु लिए नहीं। शरीर ढकने के लिए लिया हुआ वस्त्र परिग्रह | को सकल संयम एवं परिणाम स्वरूप मुक्ति की सिद्धि
है।
मार्च 2002 जिनभाषित
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वयमेव हो जायेगी और तब दिगम्बर जैन धर्म के मौलिक
समाधान - उपचार में आर्यिका को (उनकी सिद्धांतों का मूलोच्छेद हो जायेगा।
अन्तिम योग्यता से उनके युक्त होने से) महाव्रती कहा वस्त्रपरिग्रह-ग्रहण आर्यिकाओं की पर्यायगत बाध्यता
जा सकता है। वास्तव में देशव्रती हैं। है। इसीलिए वे वास्तव में महाव्रती नहीं हो सकतीं।
सवस्त्र दशा में संयम का निषेध प्रकारांतर से सचेलत्व के कारण उन्हें सकलसंयम नहीं हो सकता।
सवस्त्र मुक्ति का निषेध एवं स्त्री मुक्ति का निषेध सकलसंयम के अभाव में दिगम्बर मान्यता में स्त्री मुक्ति
दिगम्बर मान्यता के मूलभूत सिद्धांत हैं, जिनकी किसी भी स्वीकृत नहीं है। किंतु वस्त्र को उपकरण मानने वाले
मूल्य पर स्थापना एवं सुरक्षा प्रत्येक दिगम्बर जैन श्वेताम्बर सचेल दशा में भी सकल संयम का सद्भाव
धर्मावलम्बी का कर्तव्य है। भगवान आदिनाथ से लेकर मानकर सवस्त्र मुक्ति एवं स्त्री मुक्ति का समर्थन करते
भगवान महावीर तक तीर्थंकर भगवंतों द्वारा प्रतिष्ठापित
एवं इस युग के आचार्य कुंदकुंद, समंतभद्र, विद्यानंद, संपादकीय टिप्पणी के आगे का वाक्य "उत्तम | अकलंक, अमृतचंद प्रभृति महान प्रभावक आचार्यों द्वारा पात्र के रूप में गणनीय आर्यिका के आदर सत्कार के
प्रचारित दिगम्बर जैन धर्म के मूल सिद्धांतों पर किसी पक्ष बारे में इस कथन के बाद कोई उहापोह होना ही नहीं
विशेष के व्यामोह में हम स्वयं आघात करने लगेंगे, तो चाहिए" पुनः दिगम्बर जैन धर्म की मान्यता के सर्वथा
यह आत्मघाती प्रवृत्ति अपने आप को नष्ट कर देने का विपरीत है। पात्रों के भेद विभाजन में सभी दिगम्बर
उद्यम सिद्ध होगी। परंपरा के ग्रंथों में मात्र दिगम्बर जैन मुनि को ही उत्तम
आर्यिकाओं की नवधा भक्ति का आग्रह रखने पात्र की श्रेणी में परिगणित किया गया है। आर्यिका वाले पक्ष से उनके प्रति यथायोग्य भक्ति की व्यवस्था वस्तुतः देशव्रती है, पंचम गुणस्थान वर्ती है अतः वे मध्यम
का समर्थक पक्ष आर्यिकाओं की भक्ति एवं उनके पात्र की श्रेणी में आती हैं। आर्यिका को उत्तम पात्र सम्मान-सत्कार में किसी भी प्रकार पीछे नहीं है। बल्कि बनाकर क्या हम प्रकारांतर से स्त्रीमुक्ति की सिद्धि नहीं
सत्य तो यह है कि द्वितीय पक्ष इस दिशा में प्रथम पक्ष कर रहे? सवस्त्रमुक्ति-निषेध एवं स्त्रीमुक्ति-निषेध ये दो
से अधिक जागरूक है। तथापि द्वितीय पक्ष पर आर्यिकाओं ही दिगम्बर जैन धर्म के प्राणरूप सिद्धांत हैं। क्या वस्त्र को अपूज्य ठहराने का मिथ्या आरोप एक अत्यंत को उपकरण कहकर एवं आर्यिका को उत्तम पात्र बताकर
अवांछनीय छल पूर्ण प्रवृत्ति है और जनसाधारण के समक्ष हम अपने पावों पर कुल्हाड़ी मारने का अपराध नहीं कर
मिथ्या चित्रण प्रस्तुत कर द्वितीय पक्ष की छवि धूमिल रहे हैं?
करने का दुष्प्रयास है जिससे हमें बचना चाहिए। आर्यिका माताओं के आदर सत्कार के संबंध में | सुयोग्य संपादकजी ने जो संवादपरक चर्चा का मार्ग किसको ऊहापोह है? आदर सत्कार तो सभी पात्रों का खोला है उसका हम सब को स्वागत करना चाहिए और यथायोग्य विधि से आगम सम्मत है। वस्ततः विवेकपर्ण इस दिशा में वीतराग चर्चा के माध्यम से विचारों का भक्ति ही समीचीन भक्ति है। पात्रों की यथायोग्य भक्ति आदान-प्रदान करते रहना चाहिए। न करना जिस प्रकार वार्छनीय नहीं है, उसी प्रकार भक्ति
लुहाड़िया सदन जयपुर रोड़ का अतिरेक भी वार्छनीय नहीं कहा जा सकता है।
मदनगंज-किशनगढ़-01 (राज.) मुनि महाराज का गुणस्थान छठा-सातवाँ है जबकि आर्यिका माताजी का गुणस्थान 5वाँ है। जब एक ही गुणस्थान वाले श्रावक, ब्रह्मचारी, क्षुल्लक, ऐलक, आर्यिका आदि में पूजा सत्कार की विधियों में अंतर रखा जाता
श्री महावीरजी में विराजमान है, तो क्या पाँचवें गुणस्थान वाली आर्यिका और 6-7वें गुणस्थान वाले मुनि महाराज की पूजा सत्कार की विधि में अंतर नहीं करेंगे? मुनि महाराज की गणना पंच
परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी परमेष्ठियो में है। जबकि आर्यिकाएँ तो देशव्रती होती हैं। महाराज के सुशिष्य पूज्य मुनि श्री क्षमासागरजी अतः वे परमेष्ठी नहीं मानी जातीं। आर्यिकाओं को उपचार
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी में से महाव्रती कहा गया है। उपचार से कहने का अर्थ है कि वे वास्तव में महाव्रती नहीं हैं। बृहज्जिनोपदेश (लेखक विराजमान हैं। पं. जवाहरलालजी शास्त्री) में शंका समाधान सं. 558
सुरेश जैन निम्न प्रकार है -
आई.ए.एस. 558 शंका-आर्यिका तो महाव्रती है न?
-मार्च 2002 जिनभाषित
___ मुनि श्री क्षमासागरजी
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुगन्धाकरमस्ति सदा हि शास्त्रम्
वृषभप्रसाद जैन मान्यता है कि "शस्त्र से रक्षा होती है", पर यह | है। जब-जब पत्र संकट में पड़ता है तो माँ उसे किसी कथन सार्वकालिक सत्य नहीं है; शस्त्र जहाँ रक्षा करता न किसी रूप में याद आती है और माँ भी उसकी रक्षा है पर वहीं उसका सम्यक् स्थान पर प्रयोग न हो, सम्यक् ही के लिए खड़ी हो जाती है। इतना नहीं, जैसे प्यासे बोध के साथ उसका चलना चूक जाए तो वही को जल पिला दिया जाए, तो उसकी प्यास हर ली जाती रक्षक-शस्त्र प्राणहन्ता भी बन जाता है, इसीलिए शस्त्र है, वैसे ही वह अपने पुत्र के सारे सन्ताप को अपने हाथ रक्षक होने के साथ-साथ कभी-कभी भक्षक भी बनता के स्पर्श से दूर कर देती है। इसीलिए माँ का हस्त-स्पर्श है, पर शास्त्र की स्थिति शस्त्र के इस स्वरूप से ठीक | प्यासे व्यक्ति को प्राप्त हुई जलधारा के समान है। यही उल्टी है। इसीलिए हमारी भारतीय मनीषा ने शास्त्र को | कारण है कि हमारी परंपरा में कुमाता की संकल्पना ही शस्त्र से बड़ा माना और इसे सर्वथा रक्षक, उद्धारक तथा | नहीं है और जहाँ भी यह कुमाता हुई तो माता ही नहीं उन्नतिकारक माना है, क्योंकि शास्त्र कभी भी किसी भी रह गयी। जैन पद्मपुराण के रचयिता आचार्य रविषेण कहते वर्ग की हानि को केन्द्र में रखकर रचा नहीं जाता, बल्कि | शास्त्र बनता ही तब है, जब वह वर्ग-भेद, जाति भेद, | "शास्त्रमुच्यते तद्धि यन्मातृवच्छास्ति सर्वस्मै जगते हितम्।" जन्म भेद, रूप-भेद, आदि-आदि भेदों से ऊपर उठकर/रहित
पद्मपुराण, 11/209 होकर सामान्य जनमानस की समृद्धि की बात करे, आज शास्त्र वह कहलाता है, जो माता के समान सारे एसे शास्त्रों के रचे जाने की परम्परा दुर्लभ होती जा रही | संसार के हित के लिए उपदेश दे, जिसने किसी भी है। उसके उन्नयन की बात करे, आज ऐसे शास्त्रों के | खेमेविशेष की भलाई की बात की और बाकी के रचे जाने की परम्परा दुर्लभ होती जा रही है। शास्त्र अकल्याण की तो वास्तव में उसने उस खेमे की भलाई जोड़ने के लिए नहीं, खेमों में बाँटने के लिए रचे जाने की भी बात नहीं की होती है; क्योंकि मानव का कोई लग गए हैं, आदमी को आदमी से अलग करने के लिये | भी समुदाय दूसरे समुदाय से पूरी तरह अलग होकर रह रचे जा रहे हैं, इसीलिए तो सही मायने में पूछिये तो वे | ही नहीं सकता, उसकी सत्ता, अस्मिता सबके साथ है, शास्त्र हैं ही नहीं, पर बराबर उनके शास्त्र होने का | दूसरों के साथ है, मानव जगत् ही नहीं, कई बार जड़ उद्घोष किया जा रहा है। 'ज्ञानसागर' में शास्त्र का | जगत् को भी साथ लेकर उसे चलना होता है। रूपक दीपक से दिखाया गया है और कहा गया है कि | जैन परम्परा में जो तीन उपास्य माने गये हैं वे हैं जैसे किसी लक्ष्य पर पहुँचने के लिए ज्ञानीजन को सम्यक् देव, शास्त्र और गुरु। इस उपास्यत्रयी के मध्य में शास्त्र प्रकाश में दिखने वाले सम्यक् मार्ग से जाना पड़ता है, है, ऐसा क्यों? मुझे लगता है कि इसका एक ही उत्तर ठीक वैसे ही शास्त्र दीपक के बिना जड़ अज्ञानी जीव | है; वह यह कि शास्त्र ही निकष के वे पैमाने सुझाता अज्ञात मार्ग पर दौड़ने लग जाते हैं, इसका परिणाम यह है या जिसमें वे मानक सुरक्षित हैं, जिनके आधार पर देव होता है कि उन्हें स्थान-स्थान पर ठोकर खानी पड़ती है को हम "देव" या गुरु को "गुरु" मान पाते हैं, अन्यथा और एक समय ऐसा आता है कि वे परम कष्ट/क्लेश | हम ऐसे भटकते हैं कि भटकते रह जाते हैं; इसीलिये और दुःख को प्राप्त करते हैं और फिर उससे कभी उबर शास्त्र के आधार पर देव और गुरु दोनों की पहचान होती नहीं पाते। यथा
है। यही कारण है कि जैन परम्परा में शास्त्र को अदृष्टार्थेऽनुधावन्त:, शास्त्र-दीपं बिना जडाः। उपास्यत्रयी के बीच में रखा गया है। वहाँ तो कविवर प्राप्नुवन्ति परं खेदं, प्रस्खलन्तः पदे पदे।। द्यानतराय और भी कहते हैं - ज्ञानसागर, 24/5
रवि शशि न हरै सो तम हराय, हमारी परंपरा में शास्त्र की उपमा "माँ" से दी
सो शास्त्र नमों बहु प्रीति ल्याय। गयी है। आचार्यों ने कहा है कि जिस प्रकार माँ बच्चे सारा संसार अंधकारमय है, जहाँ देखें वहाँ तक का लालन-पालन करती है, पोषण करती है और निरन्तर | ही तम घिरा हुआ है, लैम्प जल रहे हैं, लाइटें जल रही अपने पुत्र को बड़ा बनाने के लिय यत्न करती है, ठीक हैं, भाँति-भाँति के प्रकाशक जल रहे हैं, पर वे सब बौने वही काम शास्त्र को करना होता है और जो शास्त्र यह | हैं-सूर्य और शशि के प्रकाश के सामने, लेकिन सूर्य और काम नहीं करता शास्त्र कहलाए जाने का अधिकारी नहीं | शशि का प्रकाश भी छोटा हो जाता है शास्त्र के
18
मार्च 2002 जिनभाषित
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
आलोक के सामने। चूँकि सूर्य तो केवल दिन में प्रकाश में हैं। यहीं आगे महर्षि और कहते हैं कि स्वच्छन्दता रूप फैलाता है और चन्द्रमा चाँदनी में ही/रात्रि में हीं, पर | ज्वर को दूर करने के लिए हमारे शास्त्र उपवास की तरह शास्त्र तो ऐसा है कि जब उसके सान्निध्य में बैठ जाया | हैं और धर्म-ध्यान को सींचने के लिए अमृत-सरणि के जाए, तभी उजेला बिखेरने लगता है, तभी अपनी किरणों समान। उपवास का कोई धार्मिक महत्त्व माना जाय या से अज्ञानांधकार को दूर करने लग जाता है; न रात उसे | न माना जाय, पर आज चिकित्सक यह मानने लगे हैं कि बाँध सकती है, न दिन उसे रोक सकता है, इसीलिए मधुमेह जैसी असाध्य बीमारी में भी यदि दो-चार दिन भी शास्त्र की वन्दना करना अनिवार्य है। बड़ी प्रीति के साथ | उपवास कर लिया जाय तो वह उपवास एकदम रोगी के उसके साथ जुड़ना जरूरी है। तभी कल्याण है। हमारी | रक्त-शर्करा अंश को नीचे लाकर गिरा देता है और परम्परा में शास्त्र को श्रुत कहा गया है, जिनवाणी भी | उससे होने वाले सारे संताप दूर होने लगते हैंकहा गया है और सरस्वती भी। इसीलिए एक भक्त अज्ञानाहि महामन्त्रं, स्वाच्छन्द्यज्वरलङ्घनम् । शास्त्र को मूर्त रूप में देखता है और कहता है
धर्मारामसुधाकुल्यां, शास्त्रमाहुर्महर्षयः ।। देवि श्री श्रुतदेवते भगवति त्वत्पाद-पकेरुह
ज्ञानसार, 24/6 द्वन्द्वे यामि शिलीमुखत्वमपरं भक्त्या मया प्रार्थ्यते । एक उल्लेख आता है-'पुस्तकी भवति पण्डित:' मातश्चेतसि तिष्ठ मे जिन-मुखोद्भूते सदा त्राहि मां का, जिसका मन्तव्य है-जिसके पास पुस्तकें हों वह दृग्दानेन मयि प्रसीद भवती संपजूयामोऽधुना ॥ पण्डित होता है; पर यहीं सवाल उठता है-पुस्तकालय
देवशास्त्रगुरु-पूजन पुस्तकें रखते हैं तो क्या पुस्तकालय को पण्डित मानने हे देवि! हे भगवति! जिस प्रकार भौंरा कमल के
लग जाएँ या कोई वाहक पुस्तकें अपनी पीठ पर लादे चहुँ ओर भटकता रहता है, उसी प्रकार तेरे चरणकमलों
हुए हो तो उसे पण्डित मानने लग जाएँ? वास्तव में शास्त्र के प्रति मुझे आसाक्ति है; हे माता! मेरी प्रार्थना है कि
के भीतर आलोड़न की जरूरत होती है, केवल देखने-भर तुम सदा मेरे चित्त में बनी रहो; हे जिन-मुख से उत्पन्न
से काम नहीं चलता। इसीलिए तो हितोपदेश में यह कहा जिनवाणी! तुम सदा मेरी रक्षा करो और मेरी ओर
गया है कि अच्छी तरह से विचारी गई औषधि के देखकर मुझ पर प्रसन्न होओ, मैं आपकी पूजा करता हूँ,
नामोच्चारण मात्र से, जिस प्रकार रोगी का रोग नष्ट नहीं उपासना करता हूँ। हनुमन्नाटक में उल्लेख आता है - ।
होता, ठीक वैसे ही शास्त्र को लादने भर से रोग का यद्यपि क्षितिपालानामाज्ञा सर्वत्रगा स्वयम् ।
परिहार नहीं होता, उसके भीतर आलोड़न की जरूरत है, तथापि शास्त्र-दीपेन संचलन्त्यवनीश्वराः ।
आलोड़न के बाद जो रस निकले वह उस के पान की हनुमन्नाटकम्, 11/19 अर्थात् क्षितिपालों, भूपालों, राजाओं की आज्ञा
जरूरत है, जिस क्रिया से रस निकले उस क्रिया को करने सर्वत्र प्रमाण मानी जाती है, पर नाटककार कहते हैं कि
की जरूरत है। यदि वह क्रिया न की गई तो सारा राजा के लिए यही उचित है कि वह शास्त्र की आज्ञा
आलोड़न व्यर्थ है, सारा संपर्क व्यर्थ है। से चले; पर जो राजा शास्त्र की आज्ञा में नहीं चलता,
शास्वाण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा: यस्तु क्रियावान्पुरुषः स विद्वान् । उसका विनाश सुनिश्चित है, क्योंकि शास्त्र में किसी एक
सुचिन्तितं चौषधमातुराणां न नाममात्रैण करोत्यरोगताम् ॥ जीवन का नहीं, किसी एक शासनतंत्र का नहीं, जीवनों
हितोपदेश, 1/63 का/शासनतंत्रों का, उनकी श्रृंखला का निचोड़ निबद्ध है
अब सवाल उठता है कि शास्त्र में प्रवेश कैसे हो? और मनुष्य की बुद्धि की सीमा है, वह एक जन्म में किये क्या हर व्यक्ति का शास्त्र में प्रवेश हो जाता है या गये अनुभव के आधार पर अनेक जन्मों के/अनेकतंत्रों के हर व्यक्ति शास्त्र में प्रवेश कर सकता है? शुक्रनीति अनुभवों को कैसे अनुभूत कर पाएगा अर्थात् नहीं कर कहती है कि नही, यह संभव नहीं, क्योंकि नीति का पाएगा।
मूल विनय में है, शास्त्र में श्रद्धा होने से, आस्था होने महर्षियों ने शास्त्र की तुलना एक ऐसे महामंत्र से
से विनयशील व्यवहार आता है; और विनयशील व्यवहार की है, जो सर्पदंश के विष को उतारने के लिए प्रयुक्त
| इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कराता है। बिना इंद्रियों पर होता है। भाव यह है कि मानव-जीवन में कितना ही
विजय प्राप्त किये शास्त्रज्ञान संभव नहीं, अतः जो भयंकर कष्ट क्यों न हो जाए, कितना ही दारुण दुःख क्यों न आ जाए, कितना ही तीक्ष्ण विष क्यों न प्रवेश
इंद्रियविजयी है, उसे ही शास्त्रज्ञान संभव है, अन्य को पा जाए, पर जैसे ही सम्यक् महामंत्र रूपी औषधि का
नहीं। इसलिए पहले अपनी इंन्द्रियों पर विजय प्राप्त करें, प्रयोग उस पर होता है, वह विष, दुःख, कष्ट क्षणमात्र
अपनी इंद्रियों को अपने साथ चलाना सीखें, तभी शास्त्र में दूर हो जाता है। हमारे शास्त्र इस औषधि के रूप | में प्रवेश कर पाएँगे, अन्यथा शास्त्रज्ञान संभव नहीं।
-मार्च 2002 जिनभाषित 19
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
नयस्य विनयो मूलं विनयः शास्त्रनिश्चयात् ।
शास्त्र निरन्तर अन्त:करण में परिशोधन का कार्य विनयस्येन्द्रियजयस्तुद्युक्तः शास्त्रमृच्छति ॥ करते हैं, जिस प्रकार जल के सम्पर्क से मैला अपने आप
शुक्रनीति, 1/91
कट जाता है, दूर चला जाता है, ठीक वैसे ही शास्त्र चाणक्य कहते हैं कि शास्त्रज्ञ दरिद्र भी हो तो से अन्त:करण धुल जाता है। शास्त्र के बारे में एक और अच्छा है, क्योंकि उसके मन में जो बाहरी अर्थ है, पैसा | महत्त्वपूर्ण मान्यता है कि शास्त्र के सम्पर्क में जो आता हैं, उसका बहुत महत्त्व नहीं है, इसीलिए उनकी मान्यता है, उसकी यश-गन्ध दूर-दूर तक फैल जाती है। यही है कि जो धनिक होकर भी ज्ञान और शील से रहित नहीं, शास्त्र को स्वयं भी सुगन्ध का आकर माना गया है,वह अच्छा नहीं; क्योंकि जिस प्रकार अच्छे यौवन और है, उसमें कभी दुर्गन्ध नहीं आती, क्योंकि उसमें सर्वहित रूपवाला व्यक्ति शरीर पर कम वस्त्रों और आभूषणों को | का भाव है, सर्वकल्याण का भाव है; इसीलिए आचार्यों धारण करने पर भी शोभा को प्राप्त हो जाता है, पर का मन्तव्य रहा है कि - इसके ठीक विपरीत कोई अन्धा है और स्वर्णभूषणों से सुगन्धाकरमस्ति सदा हि शास्त्रम्। अलंकृत है तो भी वह उसकी तरह शोभा नहीं पा पाता है, इसीलिए शास्त्रज्ञ होने के मानक बड़े तीखे हैं -
ए-1/12, सेक्टर-एच वरं दरिद्रः श्रुतिशास्त्रपाठको, न चार्थयुक्तः श्रुतिशील वर्जितः ।
अलीगंज, लखनऊ सुलोचन: क्षीणपरोऽपि शोभते, न नेत्रहीन: कनकाधलकृतः ।।
चाणक्य, 2/8
बोधकथा
भक्त की भक्ति
भक्त और भक्ति के मध्य कोई न कोई । करना चाहता हूँ। भक्त ने सोचा यह सचमुच में बहुत उपास्य भगवान् अवश्य होता है जो भक्ति से भक्त | दुखी है, इसे ले चलना चाहिए। उसने कुत्ते से पर प्रसन्न होता है। एक बार भगवान् ने भक्त की कहा-तुम दु:ख से मुक्त होना चाहते हो तो चलो, भक्ति से प्रभावित होकर उससे पूछा-भक्त! बोलो तुम स्वर्ग चलो, वहाँ पर सुख ही सुख है। मैं तुम्हें तुम क्या चाहते हो? भक्त ने उत्तर दिया भगवान्! | वहाँ अभी ले चलता हूँ। मैं अपने लिए कुछ नहीं चाहता। बस यही चाहता हूँ | कुत्ते ने कहा बहुत अच्छा! पर यह तो बताओ। कि दुखियों के दुख दूर हो जायें। भगवान ने कहा कि वहाँ क्या-क्या मिलेगा? भक्त ने सभी सुख 'तथास्तु'। अब ऐसा करो, जो सबसे अधिक दुखी हो सुविधाओं के मिलने का आश्वासन दिया। तब उसे यहाँ लाओ। भक्त बहुत खुश था कि इतने दिनों आश्वस्त होकर कुत्ते ने कहा कि ठीक है, चलते हैं। की भक्ति के उपरान्त यह वरदान मिल गया। उसने किन्तु एक बात और पूछना है। भक्त ने कहा पूछो सोचा यह बहुत अच्छा हुआ। अब मैं एक-एक करके | क्या पूछना है। कुत्ते ने कहा-यह तो बताओ स्वर्ग सारी दुनियाँ को सुखी कर दूंगा।
में ऐसी नाली मिलेगी या नहीं? भक्त हँसने लगा। भक्त चल पड़ा दुखी की खोज में । वह उसने कहा-ऐसी नाली स्वर्ग में नहीं है। तब फौरन एक-एक व्यक्ति से पूछता जाता है। सब यही कहते कुत्ता बोला कि नाली नहीं है तो फिर क्या फायदा हैं, और तो सब ठीक है बस एक कमी है और इस स्वर्ग जाने से। मुझे यहीं रहने दो, यहाँ पर जरा कमी में कोई पुत्र की कमी बताता, तो कोई धन की ठंडी-ठंडी लहरें तो आती हैं। तो कोई मकान या दुकान की। पूर्ण कमी है मुझे, ऐसा अब सोचिये कैसी यह मूर्छा है। हम सुख उसे किसी ने नहीं बताया।
चाहते हैं पर परिग्रह नहीं छोड़ना चाहते हैं परिग्रह वह आगे बढ़ा। चलते-चलते देखा उसने कि में और लिपटते चले जाते हैं, ऐसे जैसे रेशम का एक कुत्ता नाली में पड़ा तड़फ रहा है, वह मरणोन्मुख कीड़ा लार उगलकर उससे ही निज शरीर को स्वयं है। उसने उसके निकट जाकर पूछा-क्यों क्या हो गया आवेष्टित करता चला जाता है। यदि भावों की है? कुत्ते ने कहा मैं बहुत दुखी हूँ, भगवान का भजन | सँभाल हो तो मूर्छा तोड़ी जा सकती है।
20
मार्च 2002 जिनभाषित -
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रपति सहस्राब्दी पुरस्कार सम्मान मेरा नहीं, बल्कि प्राकृत एवं जैनविद्या तथा जैन पाण्डुलिपियों का सम्मान है
स्थान विश्व विद्यालयमा ने 30-35 वर्षा में नौकरी पा गया को याद रख सक
प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन 30 अगस्त सन् 2000 की वह तिथि मेरे जीवन | अनुशंसा करती है। की सर्वाधिक सुखद घड़ी थी जब भारत सरकार ने । कभी-कभी व्यक्ति सोचता है कि उसके कार्य-कलापों मानव संसाधन विभाग के संयुक्त शिक्षा सलाहकार डॉ. को कोई देखता नहीं। किन्तु बात ऐसी नहीं, शिक्षक पी.सी.एच. सेथुमाध्वराव का मुझे हार्दिक बधाइयों से भरा | किस-किस संस्था से जुड़ा है, किस राजनीति से जुड़ा हुआ पत्र मिला, जिसमें मुझे यह सूचना दी गई थी कि है, जिस संस्था का पदाधिकारी है, उसके मूल उद्देश्य भारत सरकार की प्रवर समिति की अनुशंसा पर भारत | क्या हैं? उससे उसका व्यक्तित्व विवादस्पद बना है के माननीय राष्ट्रपति जी ने मुझे सहस्राब्दी सम्मान से अथवा विवाद-विहीन, इन सबका लेखा-जोखा व्यक्ति के पुरस्कृत एवं सम्मानित करने का निर्णय लिया है। इसकी अनजाने में ही होता रहता है और जब किसी विशिष्ट सूचना यद्यपि सभी दैनिक समाचार पत्रों एवं समाचार सम्मान-पुरस्कार प्रदान करने के लिये सूची तैयार होने मीडिया से प्रसारित हो चुकी थी किन्तु मैं उन्हें पढ़/सुन लगती है, तब उसकी यही छवि निर्णायक मण्डल के नहीं सका था और यदि जयपुर में हमारे स्नेही मित्र प्रो. सम्मुख पूर्ण विवरण के साथ प्रस्तुत की जाती है। डॉ. प्रेमचन्द्र जी जैन (राजस्थान विश्व विद्यालय) एवं मेरा भी यही व्यक्तिगत अनुभव है। लगभग बनारस के मेरे अनन्य मित्र डॉ. फूलचन्द्र जी प्रेमी ने 30-35 वर्ष पूर्व की एक घटना है। मेरा एक छात्र टेलिफोन द्वारा तदर्थ मुझे तत्काल बधाई न दी होती, तो खुफिया-विभाग में नौकरी पा गया। हजारों की जमात सम्भवतः मैं इस सुखद समाचार से अगले कुछ सप्ताहों | में कौन सा गुरु अपने हजारों शिष्यों को याद रख सकता तक अनभिज्ञ ही बना रहता।
है? मैं भी उसे भूल ही गया था। एक दिन वह मुझे कहीं भारत सरकार राष्ट्रपति-पुरस्कार हेतु चयनित | रास्ते में मिल गया। उसने आदर पूर्वक मेरे पैर छुए। फिर प्राच्य विद्याविद् विद्वानों (संस्कृत, प्राकृत/पालि अरबी एवं | उसने अपना परिचय दिया और कहा कि "मैं आपका फारसी) के नामों की घोषणा प्रतिवर्ष स्वतंत्रता दिवस गरीब शिष्य था। जीवन भर आपका अत्यन्त आभारी (15 अगस्त) के दिन करती है और चयनित विद्वानों को रहूँगा। आपने एक दिन किसी प्रसंग में अमेरिका के 16वें बधाई-पत्र प्रेषित करते हुए उन विद्वानों के कृतित्व एवं राष्ट्रपति आब्राहम लिंकन और वहीं के एक नीग्रो जाति व्यक्तित्व को उजागर करने वाले तथ्यमूलक सचित्र के महान उदार नेता बुकर टेलिफेरो वाशिंगटन तथा जीवन-वृत्त (हिन्दी एवं अंग्रेजी में) भेजने का अनुरोध बंगाल के ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की अत्यन्त गरीबी का करती है, जिससे कि उन्हें सचित्र पुस्तकाकार प्रकाशित | उदाहरण देते हुए उनकी आसमानी प्रगति की मार्मिक कर राष्ट्रपति भवन के अशोक-सभागार में पुरस्कार-सम्मान कहानी अपनी प्राकृत की कक्षा में सुनाई थी और कहा प्रदान करने के अवसर पर पुरस्कृत विद्वानों के साथ-साथ | था कि गरीब छात्रों को अपनी गरीबी को कभी भी उपस्थित केन्द्रीय मन्त्रियों, शिक्षाविदों एवं प्रतिष्ठित अभिशाप नहीं, वरदान मानकर दृढ़-संकल्प बनाना चाहिये। नागरिकों को उक्त पुस्तिका का वितरण किया जा सके। आपका यह उपदेश इतना मार्मिक था कि आज मैं उसे
राष्ट्रपति पुरस्कार प्रदान करने सम्बन्धी भारत भूला नहीं और आज आपकी कृपा से मैं अच्छी सर्विस सरकार की एक उच्चस्तरीय प्रवर समिति होती है, जो पा सका हूँ। मैं खुफिया-विभाग में हूँ।" "यू.जी.सी." तथा "यूनिवर्सिटीज आफ इण्डिया" की उसका भावभरित कथन सुनकर मैं आश्चर्यचकित ईयर बुक (Year Book) में प्रकाशित भारत के सभी | रह गया। मैंने उससे पूछा कि खुफिया विभाग में हो शिक्षकों के शोध-कार्यों आदि की मौलिकता तथा अवश्य, किन्तु मैं क्या-क्या करता हूँ, उसकी भी तुम्हें विशेषताओं का अध्ययन करती है। पुनः सम्बन्धित विश्व कोई जानकारी है? कुछ बता सकते हो कि मैं कब-कब, विद्यालयों तथा महाविद्यालयों से सम्बन्धित शिक्षकों की क्या-क्या करता हूँ, और मैं उस समय विस्मित हो उठा, कार्य-प्रणालियों, शिक्षा-पद्धति, संस्था के वर्तमान संचालन | जब उसने कहा कि अन्य लोगों के साथ-साथ वह मेरे में सहयोग, छात्रों एवं शोधार्थियों के मध्य उनकी छवि विषय में भी सभी जानकारियाँ रखता है।" तात्पर्य यह, आदि की जानकारी प्राप्त करती है। पुनः खुफिया-विभाग कि व्यक्ति स्वयं ही अपने कार्य-कलापों को तो भूल तथा पुलिस विभाग से भी उनके चरित्र की गोपनीय जाता है, किन्तु खुफिया-तंत्र के खाते में सभी के रिपोर्ट प्राप्त की जाती है। सर्वांगीण जाँच-परख के बाद | कार्य-कलाप विगतवार अंकित होते रहते हैं। स्वयं सन्तुष्ट होकर यह प्रवरसमिति सर्वसम्मति से अतः किसी भी व्यक्ति को यह नहीं सोचना पुरस्कार हेतु राष्ट्रपति जी के लिए उनके नामों की | चाहिये कि उनके विवादग्रस्त या विवादविहीन कार्यों को
-मार्च 2002 जिनभाषित
21
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोई देखने-परखने वाला नहीं। किन्हीं विशिष्ट अवसरों जाती है। पर उनका पूरा लेखा-जोखा अवश्य ही प्रकट हो जाता
राष्ट्रपति सहस्राब्दी पुरस्कार के उपलक्ष्य में मुझे है जो पुरस्कृत अथवा दण्डित करने के लिये पर्याप्त होते अपने स्नेही मित्रों, गुरुजनों, शिष्यों, श्रीमन्तों, धीमन्तों एवं
नेताओं के इतने अधिक बधाई सम्बन्धी टेलीफोन, तार एवं महावीर का सावधानी पूर्वक चलने, उठने, बैठने, | पत्र मिले कि मैंने उतने की आशा न की थी। कुछ रहने कार्य करने या सोचने सम्बन्धी उपदेश आज के संस्थानों ने मेरे इस सम्मान के उपलक्ष्य में आयोजन भी सन्दर्भो में कितने व्यावहारिक, उपयोगी एवं शाश्वत कोटि | किये। जैन सिद्धान्त भवन, आरा के कुलपति श्री बाबू के हैं, इसका रहस्य अब स्पष्ट ही मेरी समझ में आता सुबोधकुमार जी जैन ने विशिष्ट आयोजन कर नगर के
प्राध्यापकों एवं समाज के नर-नारियों के मध्य "सिद्धान्ताचार्य" राष्ट्रपति सहस्राब्दी पुरस्कार राष्ट्रपति जी की की उपाधि प्रदान कर मुझे स्वर्णसूत्र ग्रथित विशिष्ट शाल अस्वस्थता के कारण मुझे एक वर्ष बाद मिला। यह उड़ाकर अपना हर्ष व्यक्त किया। कुन्दकुन्द भारती, नई समारोह इन्वेस्टीट्यूर सेरेमोनी (Investiture Ceremoney) दिल्ली ने इस सम्मान को स्वयं अपना तथा प्राकृत एवं कहलाती है। यह आयोजन 6 फरवरी 2002 को सम्पन्न | जैन विद्या का सम्मान माना। प्राकृत-जगत् ने इसे दुर्लभ किया गया। पुरस्कृत विद्वानों को उनकी अपनी-अपनी | प्राकृत-अपभ्रंश पाण्डुलिपियों का सम्मान माना। सम्मान धर्मपत्नियों के साथ भारत सरकार हवाई उड़ान से । प्राप्ति हेतु मेरे तथा मेरी धर्मपत्नी के दिल्ली पहुँचने पर आने-जाने का अनुरोध करती है तथा उन्हें "थ्री स्टार श्री कुन्दकुन्द भारती ने हवाई अड्डे पर अपने प्रतिनिधियों होटल" में 4 दिनों तक अपने सम्मान्य राजकीय अतिथि - डॉ. वीरसागर जैन आदि को भेजकर वहीं हमारे के रूप में निःशुल्करूप से रहने की पूर्ण व्यवस्था करती स्वागत की विशेष व्यवस्था की। मेरे अनेक मित्रों ने इसे है। पुरस्कार-सम्मान भी पूर्ण राजकीय शान-शौकत के जैन समाज का सम्मान माना और मैने स्वयं इसे अपनी साथ प्रदान किया जाता है। पुरस्कृतों को सभागार में | जन्मभूमि मालथौन (सागर) तथा कर्मभूमि आरा (बिहार) अग्रश्रेणी में तथा दर्शकों की दीर्घा उसके बगल में तथा दिल्ली तथा जैन सन्देश (मथुरा) का सम्मान माना। सम्मुख होती है। राष्ट्रपति के सभागार में आने के पूर्व यह मेरा महान् सौभाग्य है कि राष्ट्रसन्त परमपूज्य पुरस्कृतों को रिहर्सल की प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। | आचार्य जी विद्यानन्द जी ने मेरे सिर एवं पीठ पर पिच्छी उसमें उन्हें राष्ट्रपति जी के सम्मुख कहाँ-कहाँ से, का स्पर्श कराकर मुझे आगे की विवादग्रस्त झंझटों से दूर कैसे-कैसे अनुशासन पूर्वक जाना चाहिये, कैसे पुरस्कार | रहकर प्राकृत एवं जैन विद्या तथा दुर्लभ अप्रकाशित जैन ग्रहण करना चाहिये तथा पुरस्कार ग्रहण कर कहाँ-कहाँ पाण्डुलिपियों पर एकाग्र मन से पूर्ववत् ही शोध-सम्पादन कैसे-कैसे लौटकर अपना सुनिश्चित स्थान ग्रहण करना कार्य करते रहने का शुभाशीर्वाद दिया और डॉ. ए. एन. चाहिये, यही बताया जाता है।
उपाध्ये तथा डॉ. हीरालाल जी के मार्ग पर चलते रहने । उक्त प्रक्रियाओं से गुजरते समय मुझे मूलाचार की का मंगल-आशीर्वाद दिया। उस गाथा का स्मरण हो आया, जिसमें बताया गया है पुरस्कार ग्रहण करते समय मैं अपनी उन शिक्षा कि श्रावक एवं साधु को किस प्रकार चलना, फिरना, संस्थाओं-पपौरा (टीकमगढ़) गुरुकुल, स्याद्वाद महाविद्यालय उठना अथवा बैठना चाहिये- कधं चरे कधं चिठे आदि बनारस तथा काशी हिन्दू विश्व विद्यालय तथा वहाँ के आदि।
अपने गुरुजनों का भी स्मरण करता रहा, जिनके द्वारा रिहर्सल के समय राजकीय उद्घोषिका पुरस्कृत प्रदत्त संस्कारों से मैं कुछ बन सका। मुझे अपने बचपन विद्वानों का पूर्ण परिचय प्रस्तुत करती है। तत्पश्चात् | के वे दिन याद आते रहे, जब मेरी माता जी प्रातः काल विशिष्ट पोशाक में लम्बे-लम्बे कद वाले 20-25 में ही मुझे नहलाकर तथा स्वयं राजस्थानी पोशाक धारण हट्टे-कट्ठे नौजवान अंगरक्षक आते हैं, जो राष्ट्रपति जी कर मुझे जिन-मन्दिर ले जाती थीं और देवदर्शनकर किसी के मंच को चारों ओर से घेर कर अपना-अपना स्थान | हस्तलिखित पोथी का मनोयोग पूर्वक स्वाध्याय करती थीं ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् बिगुल बजने के साथ ही और मैं कभी उनकी श्रद्धाभरित एकाग्र मुखमुद्रा देखता सुनिश्चित समय पर राष्ट्रपति जी मंच को पर पधारते हैं | रहता और कभी हस्तलिखित ग्रन्थ का वह पत्र, जिसका और राष्ट्रीय गान के बाद कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाता है। । कि वे स्वाध्याय किया करती थीं। उनके द्वारा प्रदत्त वही आयोजन के बाद पुरस्कृतों को राष्ट्रपति जी की ओर से प्रच्छन्न-संस्कार मुखर हुआ सन् 1956 में, जब डॉ. भोज दिया जाता है। वे सभी सौहार्दपूर्वक मिलते, हाथ उपाध्ये जी एवं डॉ. हीरालाल जी के आदेश से मैंने मिलाते और वार्तालाप करते हैं। उनके बच्चों के साथ | महाकवि रइधू, विबुध श्रीधर, महाकवि सिंह तथा महाकवि भी झुककर प्यार से हाथ मिलाते एवं मनोरंजक वार्तालाप पद्म आदि की हस्तलिखित प्राचीन पाण्डुलिपियों की करते हैं। अगले दिन पुरस्कृतों को भारत सरकार की खोज एवं अध्ययन एवं सम्पादन का दृढव्रत लिया। यह ओर से दिल्ली के विशिष्ट स्थलों का भ्रमण कराया | कार्य मुझे ऐसा रुचिकर लगा कि प्रतिदिन कॉलेज सर्विस जाता है और स्नेहिल वातावरण में सभी को विदाई दी । के साथ-साथ प्रतिदिन 14-14, 15-15 घण्टे कार्य करके 22 मार्च 2002 जिनभाषित -
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी थकावट का अनुभव नहीं करता था। वर्तमान में भी | आने लगा है। मेरा ऐसा ही अनथक अभ्यास चल रहा है।
| मैने तो व्यक्तिगत रूप से यही अनुभव किया है उच्चकोटि के पुरस्कारों का अपना भौतिक महत्त्व | और मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरी यही कार्य-क्षमता तो है ही, किन्तु उसका मनोवैज्ञानिक महत्त्व उससे भी | अगले कई वर्षों तक बनी रहेगी। मेरी सद्भावना है कि अधिक है। वह स्वस्थ दीर्घायष्यकारी होता है, क्योंकि । प्राकृत एवं जैन-विद्या की सेवा के क्षेत्र में जो भी उससे बद्धजीवियों को विनम्रता के साथ-साथ नई उर्जा-शक्ति | एकान्त-मन से कार्यरत हैं, वे यदि निर्विवाद रहकर मिलती है, नया उत्साह एवं विविध प्रेरणाएँ मिलती हैं. | मौलिक अवदान देते रहेंगे, तो वे भी राष्ट्रपति के सर्वोच्च विशेष उत्तरदायित्वों के निर्वाह की भावना भी प्रबल होती पुरस्कार-सम्मान को प्राप्त करने के अधिकारी बन सकेंगे, है और यह भी अनुभव होने लगता है कि वृद्धावस्था की | इसमें सन्देह नहीं। गणना उल्टी अर्थात् युवावस्था की ओर चलने लगी है
महाजन टोली नं. 2, और वह बिना थकावट के प्रतिदिन 14-15 घण्टे निर्द्वन्द्व
आरा (बिहार)- 802301 भाव से सार्थक एवं रचनात्मक कार्य करने की स्थिति में ।
अहिंसा' शीर्षक श्रेष्ठ पुस्तक पर 51000
रुपयों के पुरस्कार की घोषणा
श्री दिगम्बर जैन साहित्य संस्कृति संरक्षण समिति ने भगवान महावीर के 2600वें जन्म कल्याणक महोत्सव वर्ष के उपलक्ष्य में भगवान महावीर के मूल सिद्धान्त 'अहिंसा शीर्षक' श्रेष्ठ पुस्तक पर 51000 (इक्यावन हजार रुपये) पुरस्कार स्वरूप प्रदान करने का निर्णय लिया है।
पुरस्कार प्राप्तकर्ता को प्रशस्ति-पत्र एवं स्मृति-चिन्ह भी प्रदान किये जाएँगे। पुरस्कार के उद्देश्य एवं नियमावली इस प्रकार हैं :. इस पुस्तक को लिखवाने का मुख्य उद्देश्य है कि एक
ही पुस्तक द्वारा भगवान महावीर के मूल सिद्धान्तों का मर्म अभिव्यक्त हो। पुस्तक की भाषा सरल एवं सरस होनी चाहिए तथा शैली सुबोध हो ताकि सामान्य जिज्ञासु (जैन एवं जैनेतर) भी उसका आशय समझ सके। इस पुस्तक के किसी विशेष जैन सम्प्रदाय का
प्रस्तुतीकरण नहीं होना चाहिए। .प्रस्तुत की जाने वाली पुस्तक में भगवान महावीर के
सार्वभौमिक सिद्धान्तों का आधुनिक ढंग से प्रतिपादन तथा वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान में उसकी उपयोगिता आदि का प्रतिपादन अवश्य किया जाना चाहिए। सामान्यतया पुस्तक की अनुमानित पृष्ठ संख्या 200 से अधिक नहीं होनी चाहिए। पुस्तक लेखक की मौलिक तथा अप्रकाशित कृति होनी चाहिए। लेखक को पुस्तक की मौलिकता का प्रमाण-पत्र भी भेजना होगा। पुस्तक का चयन समिति द्वारा स्थापित विद्वानों की एक विशेष समिति द्वारा किया जायेगा। पुरस्कार हेतु
कृति की गुणवत्ता के बारे में समिति का निर्णय अंतिम होगा तथा लेखकों को मान्य होगा। यदि चयन समिति द्वारा कोई भी कृति पुरस्कार योग्य नहीं पायी गयी, तो ऐसी दशा में पुरस्कार निरस्त भी किया जा सकता है। समिति को पुस्तक के प्रकाशन, वितरण तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद-प्रकाशन का भी सम्पूर्ण अधिकार रहेगा तथा लेखक को कोई रॉयल्टी नहीं दी जाएगी। समिति को पुस्तक में संशोधन एवं परिवर्द्धन का भी पूर्ण अधिकार रहेगा। पुरस्कार वितरण आचार्य विद्यासागर जी महाराज के पावन सान्निध्य में वर्ष 2003 में एक भव्य समारोह में होगा, जिस में लेखक को आमंत्रित करके ससम्मान पुरस्कृत किया जायेगा। यदि कोई भी अन्य पुस्तक श्रेष्ठ समझी गई तो समिति उसके प्रकाशन की व्यवस्था तो करेगी ही उस पर ग्यारह हजार के दो पुरस्कार भी प्रदान कर सकती
है।
चयन समिति द्वारा विचारार्थ पुस्तक को पाण्डुलिपि की छह प्रतियाँ पृष्ठ (ए-4 आकार) के एक तरफ टाइप करवाकर जमा करानी होगी। सम्पूर्ण पुस्तक समिति को 30.10.2002 तक प्राप्त हो जानी चाहिए क्योंकि समिति भगवान महावीर जयन्ती 2003 के अवसर पर पुरस्कार विजेता के नाम की घोषणा करना चाहेगी। पुरस्कार हेतु बहुत अधिक संख्या में पुस्तकें प्राप्त होने जैसे या अन्य विशेष कारणों से पुरस्कार करने की तिथि में परिवर्तन भी किया जा सकता है।
प्रवीण कुमार जैन श्री दिगम्बर जैन साहित्य संस्कृति संरक्षण समिति
डी-302, विवेक बिहार,
दिल्ली - 110095 -मार्च 2002 जिनभाषित 23
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
पशु रक्षा
संकलन : श्रीमती सुशीला पाटनी
अत्याचार का अन्त करो, बचाओ पर्यावरण "नहीं | आप अपनी आजादी के इतिहास को जरा याद करें, भारत तो अकाल मरण" "बचाओ पशधन नहीं तो मिट जायेगा | की आजादी का इतिहास ही गौ रक्षा से प्रारम्भ हुआ था। वतन"
कारतूस पर गाय की चर्बी लगाकर अंग्रेजी सरकार ने ठहर गये श्री विद्यासागरजी नर्मदा के तीर, भारतीयों का धर्म भ्रष्ट करना चाहा। स्वयं नर्मदा बोल उठी ये इस युग के महावीर
जो जलचर, थलचर जीव नभचर हैं, दूध की नदियाँ लोप हो गईं धरा खून से लाल,
उनकी रक्षा करना ही हमारा कल्चर है। कृष्ण कन्हैया की गैया भी, हो गई आज हलाल.
सरकार को समझना होगा, अपनी भारतीय संस्कृति क्या कल बूचड़ खानों में, इंसान को काटा जायेगा, और इतिहास का अध्ययन करना होगा। पशु मांस खाने वाला क्या, इंसानों को खायेगा?
बहुत सहा हमने अब तक कत्लखानों में जो पशु काटे जा रहे, उनकी बेहद
अब नहीं सहन करेंगे। संख्या है। इसी रफ्तार से पशु कटते रहे तो, एक दिन
खून की धारा भारत में, देश में पशुधन समाप्त हो जायेगा। हम गाय, बैल, भैंस,
अब नहीं बहने देंगे। आदि जानवरों के चित्र मात्र कलेण्डर में देखेंगे और उनके
बन्द करो माँस निर्यात, नहीं तो, नाम शब्द कोशों में पढ़ेंगे। स्थिति बहुत भयानक है।
हिन्दुस्तान में नहीं रहने देंगे। जिस देश में कृष्णजी की पूजा होती है, उसी देश में वस्तुतः यह संकल्प है। हमको अब सचेत हो जाना कन्हैया की गैय्या का कत्ल और उसी का माँस निर्यात | है हमारा देश वीरों का देश है, रणवीरों का बहादुरों का हो रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि हम जनता देश है, शहीदों का देश है। हम मौत से डरने वाले नहीं को इस पशु हत्या का बोध करायें। यदि हमने इस हत्या | हैं, हम तो पाप से डरते हैं। क्षत्रिय वही कहलाता है, काण्ड को अनदेखा कर दिया तो आने वाले समय में जो निर्बलों की रक्षा करता है। हमको महासंकट से गुजरना होगा। देश में कोई संकट पशुओं की रक्षा के खातिर, कुर्बान जवानी कर देंगे, न आये, इसके पहले ही हम अपनी सुरक्षा कर लें। इस धरती से बूचड़खानों की, खत्म कहानी कर देंगे। वस्तुतः यदि इंसान इसी प्रकार मांस का भक्षण करता रहा अरे मेरे भाई-बहिनों कुछ नई बात कर लो, तो एक दिन सारे पशु समाप्त हो जायेंगे, फिर बारी इस हिन्दुस्तान से उन भ्रष्ट नेताओं का निर्यात कर दो। आयेगी इंसान की। आदमी आदमी को न खाये इसके
भ्रष्ट नेताओं का निर्यात करने में कोई हिंसा भी लिए हमें शाकाहार क्रांति लाना है, जिसमें हम भी सुखी | नहीं है, वे तो पशुओं का कत्ल करके उनका मांस निर्यात रहें और पशु पक्षी भी सुखी व सुरक्षित रहें।
कर रहे हैं, हमको उनका जिन्दा निर्यात करना है। जिन्हें बचाते महावीर प्रभु, गौतम का देश,
एक कलंक लग रहा है, आदमी की जात को, उनके मांस का निर्यात कर दिया भारत ने विदेश। बंद करो बूचड़खाने, मांस के निर्यात को। सोचो समझो भारत माँ के मुँह पर आज मुस्कान नहीं, क्या हो गया है आज, ये गाँधी के देश को, पशु मांसनिर्यात करे यह अपना हिन्दुस्तान नहीं।
रुपये के बदले माँस बेचता विदेश को। भारत कृषिप्रधान, अहिंसाप्रधान देश है यहाँ गाय माँ की मृत्यु के पश्चात् बच्चे का पालन गौ माता की पूजा होती है। यहाँ से हीरे मोती रत्नों का निर्यात | के दूध से होता है। दुनिया में दो ही दूध हैं पहला माँ होता था। यहाँ पशु पालन होता था। आदिब्रह्मा ऋषभदेव | का, दूसरा गोमाता का। आज गाय भी खतरे में और ने युग के आदि में भारतीय जन मानस को यह नारा दिया | दूध भी। अब कायरता को छोड़ दो और पशुहत्या को था कि "कृषि करो या ऋषि बनो"। भारत ने यह नारा | रोकने के लिए आगे आओ। भुला दिया, पशु पालन करने वाला देश आज पशुओं का
आर. के. मार्बल्स लि. कत्ल कर रहा है। यह भारत के लिए कलंक है।
मदनगंज-किशनगढ़ भारतीयो जागो! माँस निर्यात करना भारत की संस्कृति नहीं है। भारत की गरिमा को बताते हुए एक कवि ने कहा है। देखो शंकर तेरा नन्दी, कत्लखानों में कट रहा मुमकिन नहीं है कोई घडी ऐसी बता दे ।। इन राजनीति के अन्धों द्वारा, देश मिटाया जा रहा।
जो गुजरे हुए वक़्त के घण्टों को बजा दे ।। मंगल पाण्डेय के इतिहास को, यूँ दुहराया जाता है,
और गौ माता का खून, भारत में बहाया जाता है। 24 मार्च 2002 जिनभाषित
हमें शाकाली भी सुख गौतम कातने विद
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रश्न आस्था का
माणिकचन्द्र जैन पाटनी
मान्यता एवं आस्था के विपरीत यदि आधुनिक | तीर्थों का शोध चलता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब शोध वैशाली को भगवान महावीर को जन्म स्थली मान | हमारे हाथ से कई महत्त्वपूर्ण तीर्थ कुण्डलपुर, पावापुरी, रही है, तो यह हमारी संस्कृति पर चोट है और अनुचित आदि भी निकल जायें। है। कुण्डलपुर जन्म स्थली संबंधी प्राचीन मान्यता भी तो
शोध का उद्देश्य तो यह होना चाहिये कि वह किसी शोध, अनुसंधान पर ही आधारित थी। शोध
अपने मूल इतिहास एवं सिद्धान्तों को सुरक्षित रखते हुए अवश्य की जाये और वह स्वागत योग्य भी है पर यह
वर्तमान को प्राचीनता से परिचित कराये। वैशाली में न शोध आस्थाओं पर कुठाराघात करने वाली नहीं होनी
तो महावीर स्वामी का कोई प्राचीन मंदिर है और न ही चाहिये।
उनके महल आदि की कोई प्राचीन इमारत है जबकि पटना बिहार प्रांत में कुण्डलपुर और वैशाली दोनों जिले में स्थित कुण्डलपुर में भगवान महावीर के गर्भ, अलग-अलग राजाओं के अलग-अलग नगर थे तथा जन्म, तप, कल्याणक हुए थे, इस प्रकार की मान्यता कई कुण्डलपुर के राजा सिद्धार्थ एवं वैशाली के राजा चेटक शताब्दियों से चली आ रही है वहाँ भगवान का का अपना-अपना विशेष अस्तित्व था।
शिखरबंद मंदिर है और वार्षिक मेला भी चैत्र सुदी १२ राजा चेटक की महारानी सुभद्रा से दस पुत्र व से 14 तक जन्मकल्याणक मनाने के लिए होता है। सात पुत्रियाँ हुईं। इनमें प्रियकारिणी "त्रिशला" का | सम्मेदशिखर जी की यात्रा पर जानेवाले सभी यात्री विवाह श्रेष्ठ नाथवंशी कुण्डलपुर नरेश सिद्धार्थ के साथ कुण्डलपुर जाना अपना परमधर्म समझते हैं। सभी जैन कर दिया गया। किसी भी कन्या का विवाह हो जाने धर्मावलम्बी प्रतिदिन प्रात: भगवान महावीर के पूजन में पर उसका वास्तविक परिचय सुसराल से होता है न कि "कुण्डलपुर में जन्म लियो" व सायंकाल आरती में नाना, मामा के वंश और नगर से। अतएव महावीर की "कुण्डलपुर अवतारी" का नाम उल्लेख करते हुए इस पहचान ननिहाल वैशाली और नाना चेटक से नहीं वरन् | तीर्थ के प्रति अपनी आस्था प्रकट करते हैं। पिता की नगरी कुण्डलपुर एवं पिता सिद्धार्थ राजा से | दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थों को छोड़कर अन्य प्रमाणों मानना शोभास्पद है। अतः महावीर को कुण्डलपुर का | के आधार पर प्रमाणिकता भले ही बदल जाय, पर युवराज ही स्वीकार करना होगा न कि वैशाली का। दिगम्बर जैन धर्मानुरागी बंधुओं की आस्था व मान्यता तो दिगम्बर जैन धर्म के अति प्राचीन प्रमाण मौजूद हैं जिनमें अपरिवर्तनीय ही रहेगी और वे कुंडलपुर को ही भगवान महावीर का जन्म स्थल कुण्डलपुर ही माना गया है। । महावीर की जन्म स्थली मानते हुए वहाँ जाकर अपना
भगवान महावीर के ननिहाल में यदि कोई अवशेष माथा टेकते रहेंगे। दिगम्बर धर्म के नेतृत्व एवं उपासकों मिले हैं, तो वे जन्मभूमि के प्रतीक न होकर ये पौराणिक का यह परम कर्तव्य है कि वे आगम ग्रंथों में उल्लिखित, तथ्य दर्शाते हैं कि तीर्थंकर महावीर के अस्तित्व को जन-जन की आस्था के केन्द्र कुंडलपुर (नालंदा) के वैशाली में भी उस समय मानकर उनके नाना, मामा सभी विकास एवं संरक्षण का दायित्व ग्रहण करें। गौरव का अनुभव करते हुए सिक्के आदि में उनके चित्र
राष्ट्रीय महामंत्री दिगम्बर जैन महासमिति उत्कीर्ण कराते थे तभी वे आज पुरातत्त्व के रूप में प्राप्त
16-अ, नेमीनगर, इन्दौर -452009 हो रहे हैं।
दिगम्बर परम्पशुनसार तीर्थंकर तो अपनी माता-पिता के इकलौते पुत्र ही होते हैं अर्थात् उनके कोई भाई नहीं। पोथी पढि पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय। होता। अतएव माता-पिता के स्वर्गवासी होने के पश्चात् || ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ॥ कुण्डलपुर की महिमा वैशाली में मामा आदि जाति बन्धुओं ने प्रचारित कर वहाँ कोई महावीर का स्मारक निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छबाय। बनवाया हो, तो अतिशयोक्ति नहीं है। संभव है कि उस बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करत सुभाय ॥ स्मारक के अवशेष वहाँ मिल रहे हों। बन्धुओ ! इस तरह निराधार एवं नये इतिहासकारों के अनुसार प्राचीन |
-मार्च 2002 जिनभाषित
25
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिज्ञासा दिगम्बर मुनि को विहार में गमन करते हुए यदि सूर्य अस्त हो जाये तो क्या उनको विहार बन्द कर वहीं रुक जाना चाहिए?
जिज्ञासा-समाधन
समाधान दिगम्बर जैन शास्त्रों के अनुसार दिगम्बर मुनि का गमन ईर्यासमिति पूर्वक ही होता है। सूर्यास्त होने पर ईर्यासमिति का पालन नहीं हो सकने के कारण, जहाँ भी सूर्य अस्त होता है, मुनिराज वहीं रुक जाते हैं। प्रात: सूर्य उदय होने पर ही वे आगे विहार करते हैं। आचार्य जटासिंह नन्दी ने वरांगचरित्र में इस प्रकार कहा है
" यस्मिंस्तु देशेऽस्तमुपैति सूर्यस्तत्रैव संवासमुखा बभूवुः । यत्रोदयं प्राप सहस्ररश्मिर्यातास्तोऽधापुरविऽप्रसंगाः ॥" 30/47 अर्थ चलते-चलते जिस स्थान पर सूर्य अस्त हो जाता था, वहीं पर वे रात्रि को रुक जाते थे और ज्यों ही सूर्य का उदय होता था त्यों ही वे उस स्थान से प्रस्थान कर जाते थे। श्री मूलाचार
गाथा 786 में भी इस प्रकार कहा है ते णिम्ममा सरीरे जत्थत्थमिदा वसंति अणिएदा ! सवणा अप्पडिबद्धा बिज्जू जह दिट्ठणट्ठा || 786
अर्थ वे शरीर से निर्मम हुए मुनि आवास रहित हैं। जहाँ पर सूर्यास्त हुआ वहीं ठहर जाते हैं, किसी से प्रतिबद्ध नहीं हैं, वे भ्रमण बिजली के समान दिखते हैं और चले जाते हैं।
जिज्ञासा मनुष्य गति में आठ वर्ष की अवस्था में कम उम्र वालों को सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता, ऐसा सुनते हैं। क्या इसका कोई आगम प्रमाण है?
समाधान श्री अकलंक स्वामी ने राजवर्तिक में इस प्रकार कहा है- "मनुष्या उत्पादयन्तः पर्याप्तका उत्पादयन्ति नापर्याप्तकाः । पर्याप्तकाचाऽष्टवर्षस्थितेरुपर्युत्पादयन्ति नाधस्तात्" अर्थ मनुष्यों में पर्याप्तक मनुष्यों के ही सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है, अपर्याप्तकों के नहीं। पर्याप्तकों में भी आठ वर्ष की आयु से अधिक के ही उत्पत्ति होती है, आठ वर्ष आयु से कम वालों के नहीं।
जिज्ञासा - क्या देव भी सल्लेखना करते हैं या
नहीं?
समाधान शरीर और कषायों को भली प्रकार कृश करना सल्लेखना है। जैसा सर्वार्थसिद्धि 7/22 में कहा है- 'सम्यक् कायकषायलेखना सल्लेखना'। देवों में कषायों का कृश करना तो मरण समय सम्भव है, परन्तु शरीर कश करने का प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि उनका आहार, उनके स्वयं के आधीन नहीं है।
जहाँ तक कषाय को कृश करते हुए अंतिम समय शरीर छोड़ने का प्रश्न है, श्री सिद्धांतसार दीपक अधिकार- 15, श्लोक नं. 396 से 400 में इस प्रकार मार्च 2002 जिनभाषित
26
पं. रतनलाल बैनाड़ा
कहा है - इस प्रकार मनुष्य भव प्राप्त कर मोक्ष का साधन करने के विचार सहित उत्तम देव नाना प्रकार से अरहंत देव की पूजा करके मरण के अन्तिम समय में अपने चित्त को अत्यन्त निश्चल करते हुए अपने दोनों हाथ जोड़कर पंच परमेष्ठियों का ध्यान करते हैं तथा इस लोक परलोक में आत्मसिद्धि देने वाला नमस्कार करते हैं। मरण बेला में किसी पुण्य रूप उत्तर क्षेत्र में जाकर बैठ जाते हैं, वहाँ आयु क्षय होते ही उन देवों का शरीर मेघों के सदृश शीघ्र ही विलीन हो जाता है। ' श्री आदिपुराण भाग-1, पृष्ठ 121, श्लोक नं. 24-25 में इस प्रकार कहा है 'तत्पश्चात् वह ऐशान स्वर्ग का ललितांग देव अच्युत स्वर्ग की जिन प्रतिमाओ की पूजा करता हुआ आयु के अंत में वहीं सावधान चित्त होकर चैत्य वृक्ष के नीचे बैठ गया तथा वहीं निर्भय हो, हाथ जोड़कर उच्च स्वर से नमस्कार मंत्र का ठीक-ठीक उच्चारण करता हुआ अदृश्यता को प्राप्त हो गया।
श्री आदिपुराण भाग-1, पृष्ठ 124 श्लोक 56-57 में इस प्रकार कहा है- 'तदनन्तर वह स्वयंप्रभा नामक देवी सौमनस वन सम्बन्धी पूर्व दिशा के जिन मंदिर में चैत्यवृक्ष के नीचे पंचपरमेष्ठियों का भली प्रकार स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्यागकर स्वर्ग से च्युत हो गई। इस श्लोक में स्वयं आचार्य ने उस देवी के मरण को समाधिपूर्वक लिखा है)
1
जिज्ञासा क्या मानुषोत्तर पर्वत पर मनुष्य चढ़ सकते हैं? क्या उस पर स्थित चैत्यालयों की वंदना मनुष्य कर सकता है?
समाधान
प्रकार कहा है
श्री त्रिलोकसार गाथा 937 में इस अंते टंकच्छिण्णो वाहिं कमवहिाणि कणयणिहो । णदिणिग्गमपहचोद्दसगुहाजुदो माणुसुत्तरगो || 937 अर्थ- पुष्कर द्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है। वह अभ्यन्तर में टङ्कछिन्न और बाह्य भाग में क्रमिक वृद्धि एवं हानि को लिए हुए है। स्वर्ण सदृश वर्णवाला एवं नदी निकलने के चौदह गुफाद्वारों से युक्त है। अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत मनुष्य लोक की तरफ, नीचे से ऊपर तक एक जैसा अर्थात् दीवार की तरह है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस पर किसी भी मनुष्य का चढ़ना सम्भव नहीं है। लेकिन मानुषोत्तर पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित जिनालयों को आचार्यों ने मनुष्य लोक के अकृत्रिम जिनालयों में माना है, जैसा कि श्री त्रिलोकसागर गाथा 561 में कहा है
णमह णरलोयजिणघर चत्तारि सयाणि दोविहीणाणि । वावण्णं चउ चउरो गंदीसर कुंडले रुचगे ॥561
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथार्थ मनुष्यलोकसम्बन्धी दो कम चार सौ (398) जिन मंदिरों को तथा तिर्यग्लोक सम्बन्धी नन्दीश्वर द्वीप, कुण्डलगिरि और रुचकगिरि में क्रम से स्थित बावन, चार और चार जिन मंदिरों को नमस्कार करो। (अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत के चार जिनालयों को नरलोक के जिनालय माना है) जबकि श्री सिद्वान्तसार दीपक अधिकार 10 श्लोक नं. 281-282 में इस प्रकार कहा है
—
कैवल्याख्यसमुद्घाताच्चोपपादाद्विनाङ्गिनाम् । अद्रिमुल्लंध्यशक्ता नेमं गन्तुं तत्परां भुवम् ॥ 281 विद्येशाश्चारणा वान्ये प्राप्ताऽनेकर्द्धयः क्वचित् । ततोऽयं पर्वतो मर्त्यलोकसीमाकरो भवेत् ॥ 282
3
अर्थ: केवलीसम्मुद्धात मारणान्तिक समुधात और उपपादजन्म वाले देवों के सिवाय अन्य कोई भी प्राणी इस मानुषोत्तर पर्वतसे युक्त पृथ्वी को उल्लंघन करके नहीं जा सकता। विद्याधर, चारणऋद्धिधारी तथा अनेक प्रकार की और भी अनेक ऋद्धियों से युक्त जीव भी इस पर्वत को उल्लंघन नहीं कर सकते, इसीलिये यह पर्वत मनुष्यलोक की सीमा का निर्धारण करने वाला है।
उपर्युक्त प्रमाण से स्पष्ट होता है कि मानुषोत्तर पर्वत पर स्थित जिनालयों की वंदना विद्याधर या ऋद्धिधारी मुनिराज भी नहीं कर सकते। अब मेरा प्रश्न है कि जब इन चैत्यालयों की वंदना मनुष्य कर ही नहीं सकता तब इनको मनुष्यलोक के अकृत्रिम जिनालयों में क्यों गिना गया है? आशा है विद्वज्जन मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे लिखने का कष्ट करेंगे।
जिज्ञासा:- क्या द्रव्यानुयोग से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है या अन्य अनुयोगों के अध्ययन से भी सम्यक्त्व प्राप्ति सम्भव है?
समाधान:- सत्य तो यह है कि चारों ही अनुयोगों के ज्ञान से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। श्री दर्शनपाहुड गाथा 12 की टीका में इस प्रकार कहा है
1. रत्नत्रय एवं आत्मध्यान को प्रदान करने वाले सठशलाका पुरुष सम्बन्धी महापुराण के सुनने से (प्रथमानुयोग के उपदेश से) जो श्रद्धान उत्पन्न होता है, वह उपदेश सम्यग्दर्शन कहा जाता है।
2. मुनियों के आचार का निरूपण करने वाले मूलाचार आदि शास्त्रों को (चरणानुयोग के शास्त्रों को) सुनकर जो श्रद्धान उत्पन्न होता है वह सूत्रसम्यक्त्व कहा जाता है।
3. काललब्धियश मिथ्या अभिप्राय के नष्ट होने पर, दर्शनमोह के असाधारण उपशमरूप आभ्यंतर कारण से कठिनाई से व्याख्यान करने योग्य जीवादि पदार्थों के बीजभूत (करणानुयोग ) शास्त्र सुनने से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह बीज सम्यक्त्व कहलाता है।
4. तत्त्वार्थसूत्र आदि सिद्धांतग्रन्थों में निरूपित जीवादि द्रव्यों के प्ररूपक (द्रव्यानुयोग के शास्त्र) अनुयोग के द्वारा संक्षेप से पदार्थों को जानकर, जो रुचि होती है, वह संक्षेपसम्यक्त्व
कहा जाता है।
ऐसा ही वर्णन आत्मानुशासन में भी किया है। मोक्षमार्ग प्रकाशक (जयपुर प्रकाशन ) अधिकार 9 पृष्ठ 332 पर भी उपर्युक्त प्रकार से ही चारों अनुयोगों के उपदेश से सम्यक्त्व होना वर्णित है। अतः केवल द्रव्यानुयोग के स्वाध्याय से ही सम्यक्त्व होता है, ऐसी मान्यता उचित नहीं है। जयपुर से प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 200 पर इस प्रकार कहा है -" यदि तेरे सच्ची दृष्टि हुई है तो सभी जैन शास्त्र कार्यकारी हैं। इसलिए चारों ही अनुयोग कार्यकारी हैं। '
सम्यग्ज्ञान चंद्रिका (जयपुर प्रकाशन पृष्ठ 9) पीठिका में पं. टोडरमल जी ने द्रव्यानुयोग के स्वाध्याय में पक्षपाती को इस प्रकार समझाया है- " बहुरि तैं कया कि अध्यात्म शास्त्रिनि का ही अभ्यास करना सो युक्त ही है। परन्तु तहाँ भेद-विज्ञान करने के अर्थि स्व-पर का सामान्यपने स्वरूप निरूपण है। अर विशेषज्ञान बिना सामान्य स्पष्ट होता नाहीं ताँ जीव के और कर्म के विशेष नीके जाने ही स्व-पर का जानना इष्ट हो है तिस विशेष जानने को इस शास्त्र का (गोम्मटसार जीवकाण्ड का जो करणानुयोग का ग्रन्थ है) अभ्यास करना । जातैं सामान्य शास्त्रतें विशेष शास्त्र बलवान हैं। "
उपर्युक्त सभी प्रमाणो के अनुसार चारों ही अनुयोग सम्यक्त्व की प्राप्ति एवं आत्मकल्याण में कार्यकारी हैं। अतः मात्र द्रव्यानुयोग में रुचि रखना व अन्य अनुयोगों में अरुथि होना सही मार्ग नहीं है।
जिज्ञासा:- पूजा एवं अभिषेक के वस्त्रों को आहारदान देने या भोजन करने में प्रयोग करना चाहिए या नहीं ? समाधान:- आज से बहुत वर्षों पूर्व तक यही परम्परा देखने में आती थी कि पूजा व अभिषेक के वस्त्रों से न तो पात्रों को आहार दिया जाता था और न हीं स्वयं भोजन ही ही करते थे। परन्तु वर्तमान में यह परम्परा लगभग समाप्त हो गई है। अधिकांश दातागण मंदिर के धोती दुपदों को पहनकर आहारदान देते हुए और स्वयं करते हुए दिखाई पड़ने लगे हैं। कवि किशनचंद रचित क्रियाकोष दोहा नं. 1453 में इस प्रकार कहा है
वसन पहिर भोजन करै, सो जिनपूजा माहि तनु धारे अघ ऊपजै, या में संशय नाहिं । ।
अर्थ :- जिन वस्त्रों को पहनकर भोजन किया है, यदि उन वस्त्रों को जिन पूजा में शरीर पर धारण करता है तो पाप होता है। इसमें संशय नहीं है।
अतः उपर्युक्त श्लोकार्थ को ध्यान में रखते हुए पूजा व अभिषेक के वस्त्रों से कोई अन्य कार्य नहीं करना चाहिए। जो वस्त्र जल गया हो, फट गया हो, दूसरों का पहना हुआ हो, दीर्घशंका, लघुशंका आदि में प्रयोग हुआ हो वह संधित वस्त्र कहलाता है, ऐसे वस्त्र से भी जिनपूजा कभी नहीं करनी चाहिए।
1 / 205, प्रोफेसर्स कालोनी आगरा- 282002 ( उ. प्र. ) मार्च 2002 जिनभाषित
27
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
पड़ौसी से प्रेम करने की सीख जो महात्माओं ने दी है, वह मूलतः इस कारण कि इस संसार में बहुतेरे लोग पड़ौसी से प्रेम करना पसंद नहीं करते। वैसे तो महापुरुष लोग, आदमी से जो करने को कहते हैं, वह बहुधा असंभव की हद तक मुश्किल हुआ करता है। इसलिए आम आदमी अमल में नहीं ला पाता । जैसे कि आचायों का कहना है कि मनुष्य को हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का सर्वथा परित्याग करना चाहिए, क्योंकि ये पाँचों पाप कहलाते हैं और पाप करने पर देर-सबेर दंड का भागी अवश्य ही बनना पड़ता है। अब आदमी से अगर यह सचमुच अपेक्षित है कि वह दण्ड के भय से पाप न करे, तो उस पाप का दण्ड तत्काल दिए जाने का प्रावधान होना चाहिए। बहुत कुछ उसी तरह, जिस तरह कि आग को छूते ही हाथ जल जाता है। यह नहीं कि लौकिक न्याय व्यवस्था की माफिक पाप का दण्ड भुगतने का अवसर दशाब्दियों - शताब्दियों के बाद आए । तब तक तो अगले के मर-खप जाने का समय हो जाता है। जबकि पुरानी स्मृतियाँ नए जन्म में "कैरी-फाउंड" होती नहीं। ऐसे में प्राणी को यदि पाप और दण्ड का सीधा संबंध बैठते नजर नहीं आता, तो उसे पूर्णरूपेण दोषी नहीं माना जाना चाहिए। इस संदर्भ में, तीनों लोकों के समस्त जीवों की ओर से मैं सक्षम प्राधिकरण से विनम्रता पूर्वक निवेदन करना चाहूँगा कि प्राणी मात्र के कल्याण हेतु या तो पाप का दण्ड स्मृति के रहते तक निपटा दिए जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए या फिर जन्म-जन्मांतर तक पुरानी स्मृतियों के सदैव ताजा बने रहने का प्रावधान किया जाना चाहिए। तभी लोग आचायों के कथन को समुचित महत्त्व दे पायें गे।
पड़ौसी पुराण
पड़ौसी से प्रेम करने की सीख जो महात्माओं ने दी है, वह मूलतः इस कारण कि इस संसार में बहुतेरे लोग पड़ौसी से प्रेम करना पसन्द नहीं करते। वैसे भी महापुरुष लोग, बहुधा असंभव की हद तक मुश्किल होता आदमी से जो करने को कहते हैं, वह है। इसलिए आम आदमी अमल में नहीं ला
पाता।
बहरहाल, बात मैं पड़ौसी की कर रहा था। मेरी समझ से जिस रोज एक स्वतंत्र घुमंतु व्यक्ति ने घर बनाकर समूह में रहने का फैसला लिया, उसी रोज उसने पड़ौसी नामक मुसीबत मोल ले ली। उसी दिन मनुष्य के मन में ईर्ष्या की भावना का आविर्भाव हुआ। तभी से "उसकी कमीज, मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे ?" जैसी तुलनात्मक प्रवृत्ति का जन्म हुआ। उसी पल से पड़ौसी से दो अंगुल ऊँचा दिखाई देने की कोशिश में उसने साम-दाम-दंड-भेद का सहारा लेना प्रारंभ किया। तब से अब तक आदमी को अपने समकक्ष अथवा अपने मार्च 2002 जिनभाषित
28
शिखरचन्द्र जैन
से ज्यादा विकसित, समर्थ या गुणी पड़ौसी फूटी आँखों नहीं सुहाया। भविष्य में भी इस
स्थिति में किसी विशेष परिवर्तन की संभावना दृष्टिगोचर नहीं
होती। इंग्लैण्ड और अमेरिका
भले कितनी ही कोशिश कर
लें !
यों तो पड़ौसियों के बीच प्रतिस्पर्धा का प्रचलन प्राचीन काल से ही रहा है, पर इधर औद्योगीकरण के फलस्वरूप ज्यादा नजदीक रहने लगे लोगों में एक-दूसरे के घर में तांक-झाँक करने की प्रवृत्ति में अभूतपूर्व अभिवृद्धि हुई है। अब पड़ौसी द्वारा उठाए गए प्रत्येक कदम का प्रभाव पड़ौसी की चाल पर तत्काल देखा जा सकता है। न्यूटन का नियम कि " प्रत्येक क्रिया की समतुल्य लेकिन विपरीत प्रतिक्रिया अवश्य ही होती है" का परिपालन पड़ोसियों के परस्पर व्यवहार में भली-भाँति परिलक्षित होता है। जब नए खरीदे रेफ्रीजरेटर में बनाई गई आइसक्रीम का सेवन करते हुए अगले की छाती जुड़ा रही होती है, तब पड़ौसी के पूरे शरीर में आग सुलगने लगती है। जब पड़ौसी का बेटा कक्षा में प्रथम आने पर पुरस्कार ग्रहण कर रहा होता है, तब अगला अपने पुत्र की पिटाई करने लग जाता है। जब अगले की पत्नी कांजीवरम की नई साड़ी पहिन मुहल्ले में चक्कर लगाने निकलती है, तब पड़ोसन पुरानी साड़ी पहिन अपने आँसुओं से वर्तन धोने लगती है। इस तरह पड़ोसियों के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया की आँख मिचौनी प्रति- पल चलती रहती है !
अभी कुछ रोज पहले की बात है, एक महिला ने अपने पति से कहा- "देखो न पड़ौसी को पिछले कुछ दिनों से अपने नए सी. डी. प्लेयर पर न जाने किस बाहियात फिल्म का बेहूदा गीत जोरों से अनवरत बजा रहा है। " अब फिल्मी गीत है तो बेहूदा तो होना ही है" पति ने कहा, "पर जरा पता तो लगे कि गाना है कौन
"
सा?"
"लो मचा गली में शोर पड़ोसन पकड़ी गई। ये खबर है चारों ओर पड़ोसन पकड़ी गई." पत्नी ने किंचित शर्माते हुए गुनगुनाया फिर कहा-"हाय! मुझे तो कहते-सुनते लाज आती है।
और जैसा कि शिकायत का उद्देश्य था, पति ने तत्काल पड़ौसी को ललकारते हुए, एल.ओ.सी. अर्थात् बाउन्ड्री वाल पर तलब किया और उन्हें जी भर लताड़ा । पड़ौसी भी हत्थे से उखड़ गया। बोला - " क्या बात करते
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
हो जी? जानते भी हो यह गाना है किस फिल्म । इन मामलों में केवल इशारों से ही बात की जाती है।" का? अरे बच्चू! यह गीत महान देश प्रेमी फिल्मकार "तो कुछ इशारा तो कीजिए।" मनोजकुमार द्वारा निर्मित देश भक्ति से प्रेरित फिल्म | "अब यों समझ लीजिए कि यह बात हमारे देश 'जयहिंद' का है।
के दो प्रदेशों के बीच की भी हो सकती है। जैसे कि _ 'हो ही नहीं सकता", पति महोदय ने पूछा-"मनोज बंगाल की कोई प्रसिद्ध राजनेत्री यदि सत्तारूढ़ गठबंधन कुमार की फिल्मों में जो गीत होते हैं उन्हें सुनकर तो | में शामिल हो जाय तो बिहार का कोई नेता भी यह गाना भुजाएँ फड़कने लगती हैं। देश पर कुर्बान हो जाने को | गा सकता है कि पड़ोसन पकड़ी गई।" जी मचलने लगता है। जैसे कि 'मेरा रंग दे बसंती चोला
"ममता की बात कर रहे हैं न?" ओ माँ ए मेरा रंग दे बसंती चोला"
"फिर वही बात! मैं मात्र उदाहरण दे रहा हूँ। "अब होने को तो-'तेरी दो टकियाँ दी नौकरी, ममता या जयललिता की बात नहीं कर रहा हूँ। कम मेरा लक्खों दा सावन जाय रे' जैसे गीत भी मनोज से कम स्पष्ट रूप से तो मैं इसे स्वीकार नहीं करना कुमार की ही फिल्म में होते हैं। पर इनका अर्थ सही| चाहूँगा। हाँ! एक बात जरूर मैं ऐलानिया कहूँगा कि इस संदर्भ में देखना आवश्यक होता है, वरना असलियत समझ | गीत का मेरे पड़ौस से कोई संबंध नहीं है।" में नहीं आती। अच्छा यह बतलाइए, क्या आपने जयहिंद "तो भाई साब! यह तो बतला दीजिए कि यह फिल्म देखी है?"
सी.डी.प्लेयर आप कब, कहाँ से और कितने का "जी नहीं! और आपने?"
खरीदा।" "मैंने भी नहीं देखी। पर मैं कल्पना कर सकता जाहिर है कि पड़ोसन को गीत नहीं, बल्कि सी. हूँ। अंदाज लगा सकता हूँ कि यह गीत संभवतः हमारे | डी.प्लेयर चुभ रहा था! इसलिए वह पड़ौसी को उसका किसी पड़ोसी देश की महिला शासक के संदर्भ में रचा आनंद उठाते सहन नहीं कर पा रही थी। गया होगा।"
कहते हैं कि वे लोग जो इस संसार को त्याग कर, . "बेनजीर के बारे में?" पत्नी ने जो कि वार्तालाप | जन्म-मरण के चक्र से निकलने हेतु तपस्यालीन होना को रोचक होते देख अब तक एल.ओ.सी. के नजदीक चाहते हैं, वे ऐसा करने के लिए वन में चले जाते हैं। आ गईं थी पूछा।"
मेरी समझ से इसका प्रमुख कारण यह होता है कि, वहाँ "क्यों?" पड़ौसी ने तत्काल प्रति प्रश्न किया" | उन्हें तंग करने को कोई पड़ौसी नहीं होता! क्या हमारे पड़ौस में एक वही महिला शासक रही है?"
7/56-अ, "तो क्या हसीना या चन्द्रिका के बारे में होगा?"
मोतीलाल नेहरु नगर (पश्चिम) "देखिए, राजनीति में इस तरह लांछन नहीं लगाया
भिलाई (दुर्ग) छ.ग. - 490020 जाता। इसमें बात से मुकर जाने में परेशानी होती है।
चिन्ता नहीं, चिन्तन करो। || जिन पर लिखा सहारों के घर पं. लालचन्द्र जैन 'राकेश'
ऋषभ समैया 'जलज
जिन पर लिखा सहारों के घर चिन्ता नागिन विषभरी, उसको छोडो मित्र।
वह तो निकले खारों के घर चिन्तन अमृत-कलश है, धारो परम पवित्र।।
चहक महक मदमस्ती गुम है चिन्ता ज्वाला आग की, चिन्तन जल की धार।
भर-मधुमास बहारों के घर चिन्तन में शांति बसे, चिन्ता बसे अँगार।।
चमक दमक से दूर रहेंगे चिंता निशा अमावसी, चिंतन पूनम चंद।
नेक-नीयत खुद्दारों के घर चिन्ता सोखे योग त्रय, चिन्तन हुलस अमंद।।
दिखे नहीं घर जैसी रौनक आत्म हितेच्छु जनन को, चिंतन करे सहाय।
समझे हैं आवारों के घर चिंता से कुछ न मिले, ज्ञान गाँठ का जाय।।
शीतल हवा, महक चंदन की अतः विज्ञ! गुण-दोष निधि, सकल पक्ष चिंतन करो।
मिले नहीं, अंगारों के घर छोड़ो द्वन्द्व तमाम, चिन्ता नहीं, चिन्तन करो।।
नाव तभी कहलाती है वह
जिसमें हों पतवारों के घर नेहरु चौक, गली नं. 4,
चाहत के चिराग रख देना गंजबसौदा (विदिशा) म.प्र.
नफरत के अँधियारों के घर
-मार्च 2002 जिनभाषित
29
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
बालवार्ता
विपत्ति में मित्र का साथ नहीं छोड़ना चाहिए
'डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' किसी गाँव में राजा और राजू नाम के दो बालक राजू का उलाहना सुनकर राजा को अपनी गलती रहते थे। उनमें गहरी मित्रता थी। वे एक साथ स्कूल का अहसास हुआ। पश्चात्ताप में उसके आँसू बह निकले। जाते. एक साथ खेलते। छुट्रियों के दिन साथ-साथ | उसने राज से क्षमा माँगते हुए कहा कि अब वह कभी-भी बिताते। जब वे दोनों बड़े हुए तो व्यापार करने लगे। | विपत्ति में मित्र का साथ नहीं छोड़ेगा। व्यापार में दोनों ने खूब मेहनत की। राजा के भाग्य ने राजा की क्षमा भावना देखकर राजू भी कठोर न साथ दिया, जिससे राजा कुछ ही दिनों में करोड़पति सेठ रह सका, उसने राजू को गले लगा लिया। उसके मन बन गया। इधर राजू परिश्रम तो खूब करता, किन्तु भाग्य | में विचार आया कि "भूल तो सबसे होती है, भूल का ने उसका कभी साथ नहीं दिया। इस विषय में जब भी प्रायश्चित्त करना सबसे बड़ी महानता है।" दोनों की कोई चर्चा चलती, तो राजू हमेशा राजा से मेरे प्यारे बच्चो! इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती कहता कि "लक्ष्मी हमेशा पुण्य के निमित्त से ही प्राप्त है कि हमें कभी विपत्ति में किसी का साथ नहीं छोड़ना होती है। मैंने पूर्व जन्म में कोई पाप किया होगा, जिसके चाहिए तथा भूल होने पर क्षमा माँग लेनी चाहिए। कारण दरिद्रता मेरा पीछा नहीं छोड़ती है।" राजा राजू
एल-65, नया इन्दिरा नगर -'ए' के विचारों से सहमत भी होता, किन्तु उसे हतोत्साहित
बुरहानपुर-450331(खण्डवा) म.प्र. कभी नहीं करता। वह व्यापार के नये-नये रास्ते सुझाता और उसकी भरपूर मदद भी करता। दोनों के परस्पर
जानने योग्य बातें सौजन्य और सहयोग को देखकर गाँववासी उनकी मित्रता १. 'मूकमाटी' (महाकाव्य) के रचयिता आचार्य श्री विद्यासागर की मिसालें देते।
जी हैं। एक दिन की बात है कि राजा और राजू व्यापार
२. 'दिव्य जीवन का द्वार' कृति के लेखक मुनि श्री के सिलसिले में नगर जा रहे थे। चलते-चलते वे थककर
प्रमाणसागर जी हैं। चूर हो गये थे, उन्हें जोरों की भूख भी लगी थी किन्तु अभी नगर में पहुँचना संभव नहीं था, अतः दोनों ने वहीं
| ३. 'आत्मान्वेषी' कृति के लेखक मुनि श्री क्षमासागर जी जंगल में विश्राम करना उचित समझा। दोनों भोजन साथ में लिये थे। पास ही एक कआँ था, वहीं से पानी छानकर | ४. 'नग्नत्व क्यों और कैसे' कृति के लेखक मुनिपुंगव श्री लोटे में भर लिया और प्रेमपर्वक भोजन किया। रास्ते की सुधासागर जी हैं। थकान और भोजन के उन्माद में कब उन्हें नींद आ गयी, । ५. 'महायोगी महावीर' कृति के लेखक मुनि श्री समतासागर पता ही नहीं चला।
जी हैं। इधर राजू सोता ही रहा, उधर राजा की नींद खुल
स्मरणीय दोहे गयी। तभी राजा ने देखा कि एक भालू उधर ही आ रहा है। भालू को अपनी ओर आता हुआ देखकर राजा साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । तुरन्त पेड़ पर चढ़ गया और वहीं से भालू को राजू के जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप।। निकट आता हुआ देखने लगा। इधर राजू की भी आँख गाली आवत एक है, जावत होय अनेक । खुल गयी, उसने देखा कि राजा पास में नहीं है, दूसरी
जो गाली फेरे नहीं, रहे एक की एक ।। ओर देखा तो अपने पास आता हुआ भालू दिखा। मौत
मित्र क्षमा सम जगत में, नहीं जीव का कोय। को अपने समीप आता हुआ देखकर राजू को जब कुछ
अरु बैरी नहिं क्रोध सम, निश्चय जानो लोय।। और नहीं सूझा तो उसने भी मौत का वरण करना इष्ट मान लिया और संयम के साथ साँस रोककर वहीं
क्या आप जैन हैं ? निश्चेष्ट पड़ा रहा। इधर भालू आया और राजू के कान के पास सूंघकर आगे बढ़ गया। उसके मन में क्या
यदि हाँ, तो सोचें कि क्या आप प्रतिदिन देवदर्शन आया; यह राजू और पेड पर बैठा राजा नहीं समझ सका। | करते हैं? रात्रि में भोजन तो नहीं करते हैं? मनियों की
जब भालू वहाँ से चला गया, तो राजा ने पेड़ से वन्दना करते हैं? किसी की निन्दा तो नहीं करते हैं? नीचे आकर राजू से पूछा कि -"राजू, भालू ने तुम्हारे तीर्थयात्रा का भाव रखते हैं? शास्त्रों का स्वाध्याय करते कान में क्या कहा था?" राजू ने उत्तर दिया, "भालू | हैं? यदि इनके उत्तर हाँ में हों तो आप गर्व से कहिए ने मेरे कान में कहा कि धोखेबाज मित्र का कभी | कि "मैं जैन हूँ।" विश्वास नहीं करना चाहिए। वह तुम्हें कभी भी मौत के मुँह में पहुँचा सकता है।"
प्रस्तुति: डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' 30 मार्च 2002 जिनभाषित -
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
समाचार बण्डा (सागर म.प्र.) में पंचकल्याणक-गजरथ महोत्सव सम्पन्न
22 फरवरी से 28 फरवरी 2002 तक बहुप्रतीक्षित । मंदिरों के थे और कृषि मंडी वाले जगह नहीं देते, तो बंडा पंचकल्याणक त्रय गजरथ महोत्सव विशाल जन-सैलाब निष्पक्ष कार्य नहीं हो पाता, यह स्थान बीच में होने से के बीच गुरुदेव आचार्य श्री विद्यासागरजी के ससंघ | ठीक हो गया। समाज में कोई भी कार्य होता है एकता सान्निध्य एवं आशीर्वाद से सम्पन्न हो गया। 300 से होता है। जिनबिम्ब प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, राष्ट्रीय स्तर के
आचार्य श्री ने कहा कि हमने रथ बहुत स्थानों पर कार्यक्रम, आचार्यश्री की आत्मकल्याणी अमृतवाणी, सम्पूर्ण देखे, परन्तु बंडा में सबसे ज्यादा सुविधा यहीं पर मिली। नगर की सजावट एवं जैनेतर बंधुओं के जन-सहयोग से आज तो मंडी के भीतर ही हमारी दुकान लग गई। कोई विश्व शांति की याचना सहित बंडा नगर का महोत्सव भी बात मन के अनुरूप नहीं होने से अच्छी नहीं लगती, सालों-साल याद रखा जाएगा। इसे बंडावासी भुला न मन चंचल होता है, मन के अभाव में कोई व्यक्ति चंचल पायेंगे।
नहीं हो सकता है। मन की चोट भी नहीं लगती है, 22 फरवरी से 28 फरवरी 2002 तक नर से जीवन को सर्वाग सुन्दर बनाने के लिये कष्ट सहना पड़ता नारायण बनने की जीवट प्रस्तुति देखने के साथ-साथ है। भावना पहले होती है, प्रभावना बाद में होती है। बंडा शिखरसंत आचार्य श्री विद्यासागर जी के दर्शन की वालों ने गजब कर दिया, कहने के लिये ज्यादा प्रशंसा भावना लेकर देश के ही नहीं विदेशों से हजारों धर्मप्रेमी तो नहीं कर रहे हैं। सागर के सामने बंडा तो एक बूंद बंधु आये। महोत्सव के दौरान आचार्य श्री ने दया, ही है। समाज अल्प होते हुए भी इतना अधिक किया। वात्सल्य, अहिंसा एवं सद्भाव को प्रत्येक मानव के लिये कम समूह और कम समय में बृहद् कार्य हो सकता है। अपने जीवन में उतारने का उपदेश दिया। शुरु से लेकर तन, मन धन का सदुपयोग धर्म की प्राप्ति के कार्यों में अंत तक श्रद्धालु जनों के आने-जाने का क्रम अनवरत करना चाहिए। चलता रहा। राष्ट्रीय स्तर के कवियों की कविताएँ,
वीरेन्द्र कुमार शिक्षक ख्याति प्राप्त संगीतकार राजेन्द्र जैन के गीत, केन्द्रीय
बण्डा (बेलई) सागर कपड़ा मंत्री बी. धनंजय कुमार का आगमन, रिमोट से चलने वाले विमान द्वारा पुष्प वर्षा, महोत्सव के प्रमुख
राष्ट्रपति सहस्राब्दी पुरस्कार-सम्मान आकर्षण रहे।
से सम्मानित पंचकल्याणाक महोत्सव की समाप्ति के अवसर पर परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने अपने ___ गत 6 फरवरी 2002 को प्रो. डॉ. राजाराम जैन आशीर्वचन में कहा कि सम्यक् सुख के लिये समाचीन आरा (बिहार) तथा मानद निदेशक, श्री कुन्दकुन्द भारती कारण होना आवश्यक है। एकता के बिना कोई भी शोध संस्थान, नई दिल्ली को राष्ट्रपति भवन के अशोक कार्य नहीं हो सकता है। समाज में कोई भी कार्य होता
सभागार में राष्ट्रपति सहस्राब्दी पुरस्कार से सम्मानित है, एकता से होता है। एकता के साथ वात्सल्य होता
किया गया। प्राकृत, जैन-विद्या एवं दुर्लभ प्राकृत-पाण्डुलिपियों है। हमेशा-हमेशा मुस्कान का नाम वात्सल्य नहीं कहा
के श्रमसाध्य एवं धैर्यसाध्य सम्पादन कार्यों का मूल्यांकन जा सकता है। अपने एक लक्ष्य की ओर कठिन
कर भारत सरकार ने उन्हें सम्मानित करने का गतवर्ष साधना करते रहिए, एक दिन फल मिलता है। उक्त
निर्णय लिया था। अपने क्षेत्र का भारत का यह सर्वोच्च उद्गार आचार्य श्री विद्यसागर जी महाराज ने बण्डा नगर
सम्मान-पुरस्कार माना जाता है। के मंडी प्रांगण में आयोजित रविवारीय प्रवचन के दौरान
ध्यातव्य है कि डॉ. जैन ने वैशाली के राजकीय व्यक्त किये।
प्राकृत शोध संस्थान में 6 वर्षों तक सेवा कार्य कर
मगध विश्व विद्यालयान्तर्गत ह.दा. जैन कॉलेज आरा उन्होंने कहा कि पंचकल्याणक के पूर्व, बीच में
(बिहार) में लगभग 30 वर्षों तक प्राकृत एवं संस्कृत के और अब विदाई समारोह वाला रविवार आया है, न्याय
शिक्षण का कार्यकर युनिवर्सिटी प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष सिद्धांत के अनुसार कार्य उपादन और निमित्त से होते
के रूप में जनवरी 1991 में अवकाश ग्रहण किया था। हैं। बंडा पंचकल्याणक त्रय गजरथ महोत्सव समाज में
इस बीच उनके लगभग 30 ग्रन्थ तथा 250 शोध एकता के कारण ठीक ढंग से सम्पन्न हो गया। दृष्टि
निबन्ध प्रकाशित हुए। 20 के लगभग पी-एच.डी. एवं दोषों पर न जाये, गुणों की गवेषणा करनी चाहिये।
डी. लिट् स्तर के शोध कार्यों में निर्देशन कार्य किया, प्रभावना के लिये धार्मिक कार्य अनिवार्य होते हैं, एकता
| साथ ही आल इण्डिया ओरियण्टल कान्फ्रेंस के प्राकृत एवं के बिना कार्य नहीं हो सकता। पंचकल्याणक तीन | जैन विद्या विभाग की कर्नाटक विश्व विद्यालय में सन
-मार्च 2002 जिनभाषित
31
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
1976 में अध्यक्षता की, यू.पी.सी. एवं एन.सी.ई.आर.टी. | उदारमना व्यक्तित्व के धनी श्री संतोष कुमार बजाज दिल्ली तथा मानव संसाधन विभाग (भारत सरकार) की | देवरी (सागर) ने किया। समितियों के मानद सदस्य भी रहे। इनके अतिरिक्त भी | श्रीपाल जी 'दिवा' भोपाल, श्री बाबूलाल जी अनेक विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध रहकर उन्होंने संस्कृत | अशोकनगर ने अनेकान्त ज्ञानमंदिर को एक आदर्शपूर्ण प्राकृत एवं अपभ्रंश विषय के विकास तथा उसे लोकप्रिय संस्था कहा। संस्थान के मंत्री श्री पी.सी. जैन ने वर्ष की बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इन उपलब्धियों के | रिपोर्ट प्रस्तुत की। प्रो. रतनचन्द्र भोपाल ने अनेकान्त लिये डॉ. जैन को अनन्त बधाइयाँ।
ज्ञानमंदिर को मोक्षमार्ग के मंदिर की उपमा दी और कहा गोपाल प्रसाद, व्याख्याता-प्राकृत विभाग कि आज जहाँ चारों ओर पंचकल्याणकों कर्मकाण्डों का
ह.दा. कॉलेज, आरा (बिहार) ही बोलबाला हों, ऐसे वातावरण में ब्र. संदीप जी 'सरल' अनेकान्त ज्ञानमंदिर बीना का ने सबसे हटकर माँ जिनवाणी की जो उपासना करने का
व्रत लिया है, वह प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है। दशम स्थापना समारोह सम्पन्न ।
. क्षु. 105 निशंकसागर जी महाराज का मंगल बीना (सागर) म.प्र. सन् 1992 में प्राचीन, विलुप्त,
प्रवचन हुआ। आपने ज्ञान की प्रभावना को ही सच्ची जैन वाङ्मय के संरक्षण-संवर्द्धन के लिए स्थापित अनेकान्त
प्रभावना बतलाया। ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान, बीना का दसवाँ स्थापना दिवस
श्रुतमहोत्सव के इस कार्यक्रम में स्थानीय जिनवाणी समारोह 20 फरवरी 2002 को परम पूज्य गुरुवर श्री 108 | उपासकों के अतिरिक्त गाजियाबाद, जबलपुर, भोपाल, सरलसागर जी महाराज के पावन आशीर्वाद से क्षु. 105 अशोकनगर, पिपरई, देवरी, ललितपर, मैंगावली, गढ़ाकोटा निशंकसागर जी महाराज के सान्निध्य में एवं संस्था आदि स्थानों से भी श्रावकगण पधारे । कार्यक्रम का संस्थापक ब्र. संदीप जी 'सरल' के कुशल मार्गदर्शन में सफल संचालन ब्र. संदीप 'सरल' जी ने किया। कार्यक्रम आशातीत सफलता के साथ सम्पन्न हुआ।
लेखकों के लिये अपूर्व अवसर कार्यक्रम का प्रारम्भ 19 फर. को दोप. 1:30, पर
चिन्तनशील लेखकों के लिये यह जानकर प्रसन्नता भक्तामर स्तोत्र के पाठ से हुआ। 20 फरवरी को
होगी कि श्री दि. जैन साहित्य संस्कृति समिति के श्रुतधाम में प्रात 9.15 बजे सरस्वती पूजन हुई। दोपहर
सुश्रावक श्री शिखरचन्द्र जैन, नई दिल्ली ने भ. महावीर 2 बजे से 'श्रुत महोत्सव का कार्यक्रम ब्र. शैला दीदी के
के 2600वें जन्म कल्याण समारोह वर्ष को सार्थक बनाने मंगलाचरण से प्रारम्भ हुआ। दीप प्रज्ज्वलन प्रो. रतनचन्द्र
हेतु भ. महावीर द्वारा प्रतिपादित 'अहिंसा' विषय पर जी भोपाल ने किया। 10 मंगल कलशों से माँ जिनवाणी
सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ पर 51000/- रुपयों के पुरस्कार की की आरती की गई। क्षु. 105 निशंकसागर जी महाराज,
घोषणा की है। यह पुस्तक मौलिक होने के साथ-साथ ब्र. संदीप भैया जी, ब्र. महाबल जैन को शास्त्र भेंट किये गए। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. रतनचन्द्र जी भेपाल ने
रोचक शैली तथा सरल भाषा में सर्वगम्य होना चाहिये। की। मुख्य अतिथि के रूप में आगत श्री बाबूलाल जी
वर्तमानकालीन विषम समस्याओं के समाधान में अशोकनगर ने अनेकान्त भवन ग्रन्थरत्नवली-3 का विमोचन | आहिसा का उपयोगिता, साथ हा जनतर प्राच्य एव किया। आमंत्रित अतिथियों में वैद्य शीलचंद जी, मुंगावली,
पाश्चात्य चिन्तकों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा की परिभाषाओं श्री यू.के. जैन गाजियाबाद, श्री प्रभात जैन जबलपुर, श्री
से जैन अहिंसा के वैशिष्ट्य का प्रतिपादन भी उसमें संतोष जैन देवरी, श्रीपाल 'दिवा' भोपाल, श्री महेन्द्र
अनिवार्य है। इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक कुमार जैन पटनाबुजुर्ग आदि का भी सम्मान किया गया। |
होगा कि उसमें इतर धर्मों के प्रति छींटाकशी न हो तथा मुख्य वक्ता के रूप में पधारी हुई डॉ. नीलम जैन | ग्रन्थ पूर्णतया निर्विवाद हो। गाजियाबाद ने अपना ओजस्वी भाषण प्रस्तुत कर सम्यक्ज्ञान अनेक विद्वानों के पास सूचक पत्र प्रेषित किये जा के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित सम्पूर्ण भारत वर्ष की | चुके हैं। फिर भी यदि किसी कारण से उनके पास सूचना प्रथम पंक्ति में अपना स्थान कायम करने वाले ज्ञानमंदिर ! न पहुँची हो, तो निम्न पते पर पत्र लिखकर विस्तृत को जैन समाज की शिरमौर संस्था कहा।
| जानकारी मंगवा लेने की कृपा करें अनेकान्त दर्पण अंक 4 का विमोचन श्री शीलचंद
श्री शिखरचन्द्र जैन जी मुंगावली ने किया। प्रमाणनिर्णय ग्रन्थ का लोकार्पण डी-302, विवेक-विहार, नई दिल्ली- 110095
32
मार्च 2002 जिनभाषित
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
सही पुरुषार्थ
किसी कार्य को सम्पन्न करते समय अनुकूलता की प्रतीक्षा करना सही पुरुषार्थ नहीं है, कारण कि
आचार्य श्री विद्यासागर जी
वह सब कुछ अभी
राग की भूमिका में ही घट रहा है, और इससे
गति में शिथिलता आती है । इसी भाँति
प्रतिकूलता का प्रतिकार करना भी प्रकारान्तर से
द्वेष को आहूत करना, और इससे
मति में कलिलता आती है ।
कभी कभी
गति या प्रगति के अभाव में आशा के पद ठण्डे पड़ते हैं, द्युति, साहस, उत्साह भी आह भरते हैं,
मन खिन्न होता है
किन्तु
यह सब आस्थावान् पुरुष अभिशाप नहीं है,
वरन्
वरदान ही सिद्ध होते हैं जो यमी, दमी
हरदम उद्यमी है।
और सुनो!
मीठे दही से ही नहीं, खट्टे से भी
समुचित मन्थन हो
नवनीत का लाभ अवश्य होता है ।
इससे यही फलित हुआ
कि
संघर्षमय जीवन का
उपसंहार
नियमरूप से
हर्ष मय होता है, धन्य !
को
'मूकमाटी' से साभार
मोती
मुनिश्री
आप बार-बार कहते हैं अपनी आत्मा में झाँको स्वयं को देखो
पहचानो !
मैं बार-बार प्रयत्न करता हूँ पर कोई खिड़की नहीं दिखती
कोई झरोखा नहीं मिलता
जहाँ से भीतर झाँक
अपने को खोजें
और पहचान सकूँ !
मुझे तो अब
संदेह होने लगा है
कि मेरे भीतर कोई है भी
जो प्रयत्न करने पर मिल भी
सकता है !
प्रयत्न नहीं छोड़े हैं
पर यह भी जानता हूँ
कि हर सीपी में मोती नहीं होता !
सरोज कुमार
'मनोरम'
37, पत्रकार कालोनी इन्दौर (म.प्र.) - 452001
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________ जैन तत्त्वविद्या जैन तत्त्वज्ञान का वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण और सर्वांगीण विवेचन। जैन सिद्धांत का विश्वकोश मूल्य: 125/ जैन धर्म और दर्शन की वैज्ञानिकता को उद्घाटित करनेवाला अद्वितीय ग्रन्थ मूल्य : 50/ अंतस की आंखें विन्यजीवनकाशर परम पूज्य संत शिरोमणि 108 आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के परम प्रभावक शिष्य - 108 मुनिश्री प्रमाणसागरजी महाराज द्वारा रचित अद्भुत एवं ज्ञानवर्धक ग्रंथमाला श्रावकों के लिये दिव्य जीवन के सूत्रों का उपहार मूल्य: 25/ सम्यग्दर्शन के आठ अंगों की मनोरम झाँकी मूल्य : 15/ तीर्थकर जैन सिद्धांतों की शिक्षा हेतु सरलतम पाठों का संग्रह मूल्य: 10/ तीर्थकर पद की महिमा और उसकी प्राप्ति के उपायों का सरस, संक्षिप्त निरूपण मूल्य: 8/ उत्सवों पर विशेष रियायत सहित उपलब्ध निर्ग्रन्थ फाउन्डेशन अहिंसा, 22, पुराना कबाड़खाना, जुमेराती, भोपाल. फोन : 0755-541689,542346,579183 गाप्ति राजेश जैन, राजेश जनरल स्टोर्स, माधवगंज, विदिशा. फोन : 34235,641290 अनिलकुमार जैन, बाम्बे सागर रोडवेज,घास बाजार नागपुर (महाराष्ट्र) बाबूलाल सुमतकुमार जैन स्थान अखाईवाले, अशोक नगर, म.प्र. फोन : 07543-226200 श्री दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम, 584, एम.जी.मार्ग, इन्दौर (म.प्र./कॉन: 0731-5457440दिगम्बर जैन वा गुरुकुल, पिसन हारी मड़िया, जबलपुर (म.प्र.)..विजय जैन वर्धमान कॉलोनी, सूबेदार वार्ड, सागर. फोन :07582-21506. अशोक शाकाहार, स्टेशन रोड, खुरई स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1 . महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।