SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भौतिक सुख-सुविधाओं का स्रोत शासन देवी-देवताओं का दूसरा कोई माध्यम नहीं है। धार्मिक क्रियाओं में को मानेंगे तो उसका परिणाम जैन दर्शन के प्राणभूत कर्म | आतंकवाद को पनाह देना भी पाप की श्रेणी में आता सिद्धान्त पर अविश्वास करना होगा। अनेक आगमग्रन्थों | है। स्वस्थ लेखन के लिए बधाई तथा हार्दिक शुभकामना। , के उद्धरणों द्वारा आपने सिद्ध कर दिया है कि शासन देवी-देवताओं की पूजा या अर्घ्य समर्पण पंचपरमेष्ठी या सतीश चन्द्र जैन नायक जिनेन्द्रदेव के पूजा विधान के समतुल्य नहीं है। वे साधर्मी 30/46, चुंगी स्कूल के सामने होने से हमारे सम्मान के पात्र हैं, जिनके सम्मानार्थ हम छीपीटोला, आगरा (उ.प्र.) उपहार स्वरूप पूजाद्रव्य तो समर्पित कर सकते हैं, किन्तु पूजा द्रव्य/अर्घ समर्पण के साथ-साथ स्तुति, वंदना उनके मुझे जिनभाषित पत्रिका के 4-5 अङ्क पढ़ने को गुण-गरिमा गायन आदि के अधिकारी तो मात्र जिनेन्द्र देव मिले; मन को ऐसा लगा कि वास्तव में और पत्रिकाओं या पंचपरमेष्ठी ही हैं। के मुकाबले इसमें ज्ञानवर्धक लेख, सम्पादकीय टिप्पणी, इसी अङ्क में ऐलक श्री निर्भयसागर जी का लेख | प्रमाणसहित पढने को मिली। 'दही में बैक्टीरिया (जीवाणु) हैं या नहीं' पूर्णत: आपके सम्पादकीय लेख आज के भटके हुए समाज विज्ञानसम्मत लेख है। जो लोग दूध-दही में जीवाणु के लिए सफल पथप्रदर्शक हैं। जनवरी अंक में "शासन बताकर जैन श्रावकों, आर्यिकाओं और मुनियों की | देवता सम्मान्य, पंचपरमेष्ठी उपास्य" लेख प्रमाणसहित आलोचना करते हैं, उनको यह तर्कयुक्त लेख अपनी | पढने को मिला, पढकर मन को संतुष्टि हई। मान्यताओं, दुराग्रह और हठधर्मिता छोड़ने को तैयार ___“दही में जीवाणु हैं या नहीं" लेख ऐलक श्री करेगा। दूसरी ओर जैन समाज को दूध-दही का निर्भय सागर जी का पढने को मिला, जिस तरह से हिंसारहित उपयोग करने की विधि से परिचित कराकर समझाया गया वह अत्याधिक प्रभावशाली है। उनका प्रमाद दूर करने में सहायक होगा। इसी प्रकार ब्र. मोतीलालजी के मोर पंखों के सम्बन्ध में लेख ने प्रचलित प्रमोद कुमा जैन भ्रांतियों का भली प्रकार निवारण किया है। डॉ. अध्यक्ष- जैन नवयुवक मण्डल वृषभप्रसाद जैन ने अत्यन्त संक्षेप में ज्ञान की महिमा फतेहपुर-शेखावटी (राजस्थान) मंण्डित कर गागर में सागर भर दिया है। निष्कर्षत: जिनभाषित के सभी लेख/सामग्री अत्यन्त __ 'जिनभाषित' में प्रकाशित लेखों के माध्यम से उपयोगी और सर्वत्र भ्रांतियों, दुराग्रहों और एकान्तवादी आपने परमपूज्य विद्यासागर जी के वृहद् व्यक्तित्त्व के दृष्टिकोण को परिमार्जित करने में सहायक है। विभिन्न आयामों को उद्घाटित किया है। मैं गत 25 वर्षों बहुचर्चित सामयिक विषयसामग्री का चयन करके से सतत अनुभव कर रहा हूँ कि उनका व्यक्तित्व सदभाव इतनी उच्च कोटि की पत्रिका प्रकाशित करने के लिए | एवं मंगलकामनाओं से ओतप्रोत है। जब वे कायोत्सर्ग आपको कोटिशः बधाई। करते हैं, प्रतिक्रमण करते हैं, सामायिक करते हैं तब उनके व्यक्तित्व में अद्भुत शक्ति और ऊर्जा का संचार होता डॉ. पी.सी.जैन | है। उनके प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष है। उनके प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष आशीर्वाद से सभी जीवों में प्रिंसीपल-जे.एन.कॉलेज ऑफ एजुकेशन | गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। नैनागिरी में मेरी माताजी गंजबसौदा (म.प्र.) ने उनकी चरण रज से पवित्र जल (गंधोदक) को बीजों पर छिड़क कर सिद्ध किया है कि ऐसे बीज शीघ्र ही आपकी पत्रिका के अङ्क समय पर प्रकाशित होकर | अंकुरित हो जाते हैं और पौधे अधिक स्वस्थ और वृद्धिगत प्राप्त हो रहे हैं। स्वस्थ विचारों से ओत-प्रोत पत्रिका का | हो जाते हैं। समाज में अभाव खल रहा था। आपके तथा सम्पादक मण्डल के सतत प्रयासों और जागरूकता से एक बड़ी सुरेश जैन आई.ए.एस. कमी दूर हुई है। 30, निशात कालोनी भोपाल (म.प्र.) पत्रिका के पढ़ने से अब लगता है कि जैन समाज में धर्म के साथ-साथ आडम्बर के प्रदर्शन से धार्मिक | दिखाने के हैं सब ये दुनिया के मेले । बंधुओं की धर्म के प्रति आस्था और श्रद्धा गिर रही थी, भरी बज्म में हम रहे हैं अकेले ॥ उस पर एक अंकुश-सा लगता प्रतीत हो रहा है। आप निरन्तर अपने स्पष्ट विचारों को निडरता के उम्र पानी है, तो फिर मौत से डरना कैसा?। साथ समाज के समक्ष प्रस्तुत करते रहें, हालाँकि यह कार्य इक न इक रोज ये हंगामा हुआ रक्खा है ॥ कठिन है; लेकिन धर्म के स्वरूप को बदलने से बचाने मार्च 2002 जिनभाषित में धन की धर्म के प्रासा लगता प्रतारों को निडरतामार्य || इक न इ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524260
Book TitleJinabhashita 2002 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy