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व्रत : मानवजीवन की शोभा
न रहा है। उसी
देखो, प्रसिद्ध है।
प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन पद्मपुराण में एक प्रसंग
किया। जाओ, वापिस जाओ। प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जी जैन एक ऐसा नाम है, आता है कि वनवास से लौटने
|मरे भाग्य में यही लिखा है। जो अपनी रोचक, हृदयस्पर्शी एवं विचारोत्तेजक प्रवचनशैली, पर आयोध्या में श्री रामचन्द्रजी विद्वत्तापूर्ण पत्र-सम्पादन, अखिल भारतवर्षीय दि. जैन|
| उसे हँसकर भोगूंगी। दु:ख राजगद्दी ग्रहण कर चुके हैं शास्त्रीपरिषद् के सफल संचालन, निरभिमान पाण्डित्य,
| तो जीवन में आता ही है, और सारा काम ठीक तरह से
|कुछ रोकर भोगते हैं और अपरिग्रही, सरल, निर्भीक और श्रद्धा वात्सल्य से| परिपूर्ण व्यक्तित्व के लिए देश-विदेश के जैनसमाज में|
कुछ हँसकर भोगते हैं। जो चर्चा चलती है कि देखो,
|दु:खों को हँसकर झेलते हैं, सुप्रसिद्ध है। 'जैनगजट' के दीर्घ सम्पादन काल में रामचन्द्रजी ने सीता को घर में
|उनके कर्मों की निर्जरा होती | उनकी लेखनी से मार्मिक सम्पादकीय आलेख प्रसूत हुए। बैठा लिया, जबकि वह इतने
है और जो दु:खों को रोकर हैं। उनका एक संकलन 'चिन्तन प्रवाह' के नाम से| वर्ष रावण के यहाँ रह आई। प्रकाशित हुआ है। वह प्रत्येक ज्ञानपिपासु, स्वाध्यायप्रेमी
भोगते हैं उनका संसार बढ़ जब अयोध्या का राजा इस |
जाता है। सीता ने कहा कि और शंकामुमुक्षु के लिए पठनीय है। उक्त संकलन से तरह का काम करेगा तो दूसरे|
तुम जाओ। सेनापति ने कहा एक लेख साभार प्रस्तुत है। लोग भी इसी तरह शील से |
कि माँ, मैं जाता हूँ। क्या डिगी हुई स्त्रियाँ को स्वीकार
स्वामी राम के प्रति आपका करने लगेंगे। ऐसी दशा में मर्यादा कहाँ रहेगी? इस तरह | कोई संदेश है? सीता ने कहा-हाँ, है। यही कहना स्वामी की चर्चा अयोध्या में चली तो रामचन्द्रजी को यही उचित | राम से कि जैसे लोगों के कहने से उन्होंने मुझे छोड़ लगा कि राजनीति की शुद्धता के लिए सीता को छोड़ना | दिया है, वैसे ही लोगों के कहने से अपना संयम नहीं चाहिये। उन्होंने एक कठोर निर्णय ले लिया।
छोड़ दें। लोगों के कहने से मुझे छोड़ दिया, इसमें कोई श्रीराम ने अपने सेनापति कृतान्तवक्र को बुलाया आपत्ति की बात नहीं है। मेरे भाग्य का यही लेख था, और उसको आदेश दिया कि सेनापति, सीता गर्भवती है। उसे मैं भोगूंगी, लेकिन यदि उन्होंने व्रत-संयमरूपी धर्म को उसे यह दोहला हुआ है कि तीर्थयात्रा करे। तुम रथ छोड़ दिया तो प्रलय हो जायेगी , क्योंकि 'यथा राजा सजाओ और सीता को उसमें बैठाओ और तीर्थयात्रा के | तथा प्रजा' । राजा अगर धर्म को छोड़ेगा तो प्रजा में बहाने यहाँ से ले जाओ और घने वियावान जंगल में उसे | धर्म नहीं रह सकेगा। इसलिये लोगों के कहने से अपने छोड़ आओ। यह कठोर आदेश सुनकर सेनापति की नियम-धर्म को नहीं छोड़ दें।
आँखों में आँसू आ गये। उसने कुछ साहस किया, | पद्मपुराण का यह प्रसंग मैंने आपको सुनाया। विरोध करने का। रामचन्द्रजी उनके भावों को भाँप गये। हजारों साल पहले की यह घटना आज फिर हमारे कानों कड़ककर बोले-'सेनापति, मुझे उत्तर नहीं सुनना। तुम्हें | में गूंज कर कह रही है कि बीसवीं सदी में जैन कुल वही कार्य करना है, जो कि मेरी आज्ञा है।" और, तब में जन्मे इन्सान! आज लोग धर्म की विपरीत परिभाषाएँ वह सीता को रथ में बैठाकर घने वियावान जंगल में ले कर रहे हैं, किन्तु तुम उनके कहने से संयम को मत छोड़ गया, जहाँ जंगली पशुओं का चीत्कार सुनाई पड़ रहा था। | देना, तुम उनके कहने से देव-पूजा को मत छोड़ देना, उसने रथ रोक दिया। सीता ने पूछा-'सेनापति! यहाँ तो | तुम उनके कहने से चरित्र को मत छोड़ देना। कोई मन्दिर नहीं है, तुमने रथ को यहाँ क्यों रोका? खेद की बात है कि आज धर्म को विवाद का सेनापति की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली, विषय बना दिया गया है। धर्म का काम विवादों को हिचकियाँ बँध गई, रोते हुए सेनापति बोला -'माँ, मैं मिटाना है। धर्म का काम समता उत्पन्न करना है। अधम हूँ। मुझे ऐसा आदेश हुआ है कि आपको जंगल | र्म का काम निराकुलता का उपार्जन करना है। धर्म का में छोड़ दूं। मैं नीच हूँ और पापी हूँ।' तब महासती सीता | काम शान्ति का उद्भव करना है। इसलिये जिन कामों ने ढाँढ़स बँधाया और कहा कि रोओ मत सेनापति, तुम से परिणामों में समता आती हो, जिन कामों से दु:ख कम स्वामी राम के सेवक हो। सेवक का कर्तव्य स्वामी की | होते हों, उन कामों को करने का नाम 'धर्म' है। जब आज्ञा का पालन करना होता है। तुमने कर्तव्य पूरा | तक धर्म हमारे जीवन में नहीं उतरेगा, तब तक कल्याण
-मार्च 2002 जिनभाषित
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