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________________ भक्तामर दोहानुवाद मुनि श्री समतांसागर जी भक्त अमर नत मुकुट द्युति अघतम-तिमिर पलाय । | नेत्र रम्य तव मुख कहाँ, उपमा जय जग तीन। भवदधि डूबत को शरण, जिनपद शीश नवाय ॥10 कहाँ मलिन शशि बिम्ब जो, दिन में हो द्युतिहीन ॥13॥ श्रुत पारग देवेन्द्र से संस्तुत आदि जिनेश । चन्द्रकला सम शुभ्र गुण, प्रभु लाँघे त्रयलोक । की थुति अब मैं करहुँ जो मनहर होय विशेष ॥2॥ | जिन्हें शरण जगदीश की, विचरें वे बेरोक ॥14॥ मैं अबोध तज लाज तव, थुति करने तैयार । प्रभु का चित न हर सकी, सुरतिय विस्मय कौन। जल झलकत शशि, बाल ही पकड़े बिना विचार |3|| गिरि गिरते पर मेरु ना, हिले प्रलय पा पौन ॥15॥ क्षुब्ध मगरयुत उदधि ज्यों, कठिन तैरना जान । तेल न बाती धूम ना, हवा बुझा नहिं पाय । त्यों तव गुण धीमान भी न कर सकें बखान ॥4॥ | त्रय जग जगमग हों प्रभो, तुहि वर दीप रहाय ॥16॥ फिर भी मैं असमर्थ तव भक्तीवश थुति लीन । मेघ ढकें न तेज, ना ग्रसे राहु, नहिं अस्त। सिह सम्मुख नहिं जाय क्या मृगि शिशु पालन दीन ॥5॥ | तव रवि महिमा श्रेष्ठ है, द्योतित भुवन समस्त ॥17।। हास्य पात्र अल्पज्ञ पर, थुति करने वाचाल । नित्य उदित तम मोह हर मेघ न राहु गम्य। पिक कुहुके ज्यों आम का, बौर देख ऋतुकाल ॥6॥ सौम्य मुखाम्बुज चन्द्र वह जिसकी आभ अदम्य ॥18॥ शीघ्र पाप भव-भव नशे, तव थुति श्रेष्ठ प्रकार । तमहर तव मुख काम क्या, निशा चन्द दिन भान । ज्यों रवि नाशे सघन तम. फैला जो संसार ॥7॥ पकी धान पर अर्थ क्या, झुकें मेघ जलवान ॥19॥ मनहर थुति मतिमंद मैं, करता देख प्रभाव । शोभे ज्यों प्रभु आप में, ज्ञान न हरिहर पास। कमल पत्र जलकण पड़े, पाते मुक्ता भाव ॥8॥ | जो महमणि में तेज है, कहाँ काँच के पास ॥20॥ संस्तुति तो तव दूर ही, कथा हरे जग पाप । हरि हरादि लख आप में अतिशय प्रीति होय । भले दूर फिर भी खिलें, पंकज सूर्य प्रताप ॥9॥ | इसी हेतु भव-भव विभो मन हर पाय न कोय ॥21॥ क्या अचरज थुतिकार हो, प्रभु यदि आप समान । दीनाश्रित को ना करे, क्या निज सम श्रीमान् ॥10॥ शत नारी शत सुत जनें, पर तुम सा नहिं एक । तारागण सब दिशि धरें, रवि बस पूरब नेक ॥22॥ तुम्हें देख अन्यत्र न, होत नयन संतुष्ट । अमल सूर्य तमहर कहत योगी परम पुमान । कौन नीर खारा चहे, क्षीरपान कर मिष्ट ॥11॥ | मृत्युंजय हो पाय तुम, बिन शिव पथ न ज्ञान ॥23॥ प्रभु तन जिन परमाणु से निर्मित शांत अनूप। ब्रह्मा विभु, अव्यय विमल आदि असंख्य अनन्त। भू पर उतने ही रहे, अतः न दूजा रूप ॥12॥ कामकेतु योगीश जिन, कह अनेक इक संत ॥24॥ -मार्च 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524260
Book TitleJinabhashita 2002 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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