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________________ में द्रव्यलिङ्गी न हो? इसे नमस्कार करें या नहीं। वहाँ नहीं, प्रत्युत द्रव्यलिङ्ग से भी अत्यधिक गिरे हुए हैं। नव तो उसे भावलिङ्गी समझकर नमस्कार करना ही होगा। ग्रैवेयक तक पहुँचने वाले द्रव्यलिङ्गी साधुओं का बाह्य वहाँ हमारी दृष्टि चरणानुयोग का ही आश्रय लेगी। । आचरण भी बड़ा ही सधा हुआ होता है, वे उपसर्ग भी वास्तव में जिस भावलिङ्ग का हम अभिनन्दन करते | सहन करते हैं, विचलित नहीं होते, कायक्लेश भी हैं वह भावलिंग भी द्रव्यलिंग पर ही निर्भर करता है। असाधारण करते हैं, तभी तो उनका नवग्रैवेयक में पहुँचना यदि भावलिंग के बिना द्रव्यलिङ्ग व्यर्थ है तो द्रव्यलिङ्ग | सम्भव है, अन्यथा भ्रष्ट मुनि तो नरक निगोदादि के पात्र के बिना भावलिङ्ग का तो अस्तित्व ही नहीं है, व्यर्थता ही होते हैं। समयसार की गाथा २७३ जिसे हम ऊपर तो बहुत दूर की बात है। व्यर्थ तो वह है जिसका लिखे आये हैं, उसकी टीका में अमृतचन्द्र आचार्य ने अस्तित्व तो हो, पर अपेक्षित लाभ न हो। वहाँ द्रव्यलिङ्ग का अस्तित्व तो है पर भावलिङ्ग का तो अस्तित्व भी "परिपूर्णशीलतपः त्रिगुप्तिपंचसमिति परिकलितमहिंनहीं है। सादिपंचमहाव्रतरूपं व्यवहारचारित्रभव्योऽपि कुर्यात्" उक्त चर्चा का निष्कर्ष यह है कि अभव्य जीव यदि यहाँ रेखांकित शब्द 'परिपूर्ण' इस बात का द्योतक मुनि बनता है, तो वही द्रव्यलिङ्गी मुनि है। दि. जैन | है कि द्रव्यलिङ्ग, अभव्य मिथ्यादृष्टि का द्रव्यलिङ्ग भी शास्त्रों में जिन जैनाभासों की चर्चा की है, वे द्रव्यलिङ्गी बड़ा निर्दोष होता है, उसमें पोल नहीं होती। अतः जो नहीं है। क्योंकि बाह्य वेषभूषाएँ द्रव्यलिंग के अनुकूल नहीं लोग द्रव्यलिङ्ग का सम्बन्ध आचरणहीनता, सदोष आचरण हैं। जैनेतर सम्प्रदाय के कुटिचक, बहूदक, हंस, परमहंस या मिथ्यादर्शन से जोड़ते हैं वह उचित नहीं है। भव्य जीव साधु भी द्रव्यलिङ्गी नहीं है, क्योंकि वहाँ जैनत्व का | तो मुनि बनकर परिणामों का उतार-चढ़ाव करता है, आभास नहीं है। सच्चे देवशास्त्रगुरु का श्रद्धालु यथावत् उसकी द्रव्य भावलिङ्गता का निश्चय न होने से वह निर्ग्रन्थदीक्षा लेने वाला जो अपने मूलगुणों में भी दोष भावलिङ्गी ही साधु है। चूंकि अभव्य कभी सम्यग्दर्शन लगाता है, वह भी द्रव्यलिङ्गी नहीं है। क्योंकि उस प्रकार धारण नहीं कर सकता, अतः उसके परिणामों का के पुलाकादि मुनि सभी शास्त्रों में भावलिङ्गी बताये हैं। गुणस्थानानुसार कोई उतार-चढ़ाव नहीं है। यदि है तो इसी प्रकार अध:कर्म करने वाले, मंत्र तंत्रादि से आजीविका | केवल मिथ्यात्वगुणस्थान के अन्दर ही है। बस उसी का करने वाले तथा दूसरे प्रकार के भ्रष्ट मुनि भी द्रव्यलिंगी | मुनि बनना द्रव्यलिङ्ग है। हो, पर अपेक्षितच तो वह है जिही होते हैं। भ्रष्ट मुनि तो नरक का तो अस्तित्वालङ्ग | लिखा भाव हैं, उसकी गाथा २७३ ज्यों-ज्यों उमरें बढ़ने लगती अशोक शर्मा ज्यों-ज्यों उमरें बढ़ने लगती, त्यों-त्यों लगता ऐसा | सतरंगी सन्ध्या के आंगन कुछ जूड़ों में फूल टाँकना शंख-सीपियों को बटोरती नाबालिग थी उमर हमारी। रंगों के आँचल लहरा कर नयनों में उन्माद आँजना। बहुत भला लगता था हमको टूटे घर की नींव हिलाना। | ज्यों-ज्यों रंग धुंधलने लगते त्यों-त्यों लगने लगता ऐसा। शीश किसी के धौल जमाना और किसी को जीभ चिढ़ाना वय-संधि के ऋतुद्वार पर क्या खुमार थी उमर हमारी ॥2॥ कागज, मिट्टी और काँच के खेल खेलना, तोड़-सजाना। | अब है सधियों के आँगन में बीते कल की छलना धूल सने चेहरे पाँवों का, मर्म बताते झूठ जताना।। पाँख-पाँख फूलों का झरना शाख-तनों का गलना खेल-खिलौने, छुटने लगते त्यों-त्यों लगने लगता ऐसा रंग नहीं चाहे चनर में और नया अब चढना। मन मस्ती में रंग जमाती बड़बोली थी उमर हमारी। ॥1॥ | आयु के इस श्वेत-पत्र पर कुछ लिखना कुछ पढ़ना। बहुत भला लगता था हमको दर्पण में कुछ बिम्ब उगाना श्वेत उमर की फसलें पकती त्यों-त्यों लगने लगता ऐसा शंख बीनना नदी किनारे और बालू के भवन बनाना | जोड़-घटे का गणित लगाती है बालिग यह उमर हमारी ॥3॥ अभ्युदय निवास 36,बी मैत्री बिहार भिलाई (दुर्ग), छत्तीसगढ़ 12 मार्च 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524260
Book TitleJinabhashita 2002 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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