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________________ द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग न तक ही था भी होती कहाँ रहा? स्वं. पं. लालबहादुरजी शास्त्री द्रव्यलिंग शब्द का अर्थ बाह्य वेष से है, मिथ्यात्व इस कथन में भी अभव्य शब्द का ही प्रयोग किया और सम्यक्त्व से नहीं है। द्रव्यलिङ्गी साधु मिथ्यादृष्टि भी है। द्रव्यलिङ्ग शब्द का प्रयोग नहीं किया है। वास्तव में हो सकता है और सम्यग्दृष्टि भी होता है। यदि मात्र | जिसका द्रव्यलिङ्ग सुरक्षित (आगमानुमोदित) है वह साधु मिथ्यादृष्टि ही होता, तो द्रव्यलिङ्ग का पर्यायवाची शब्द | के उचित भावों से किंचित् हीन भी हो, तब भी उसे मिथ्यादृष्टि हो सकता था। हम द्रव्यलिङ्ग का पर्यायवाची | द्रव्यलिङ्गी नहीं कहा जा सकता। कारण स्पष्ट है, मिथ्यादर्शन को समझें, तब जो साधु द्रव्यलिङ्ग और परिणामों का उतार-चढ़ाव इतना सूक्ष्म है कि उसे छद्मस्थ भावलिङ्ग दोनों से संयुक्त है, उसे हमें मिथ्यादर्शन और | व्यक्ति ग्रहण नहीं कर सकता। जो मुनि वेष और सम्यग्दर्शन दोनों से संयुक्त मानना चाहिए। तदनुकूल आचरण का निर्दोष पालन कर रहा है, वह शंका - भावलिङ्ग से निरपेक्ष द्रव्यलिङ्ग मिथ्यादृष्टि | कदाचित् अन्तरंग के भावों से हीन होने पर भी स्थूल के ही होता है? ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से भावलिङ्गी ही कहा जायेगा। इस समाधान- नहीं, जिस मुनि के छठे गुणस्थान जैसे | सम्बन्ध में यहाँ हम एक उदाहरण देते हैं। पुलाक, वकुश, भाव नहीं हैं, वह पंचम गुणस्थान या चतुर्थ गुणस्थान जैसे | कुशील, निर्ग्रन्थ, स्नातक इन सभी साधुओं को आगम में भाव भी रख सकता है, लेकिन द्रव्यलिङ्ग मुनि जैसा ही | भावलिङ्गी बताया है। साथ ही जहाँ संयम, श्रुत, प्रतिसेवना है। अत: द्रव्यलिङ्गी होकर भी वह सम्यक्दृष्टि है। आदि से इनका विभाजन किया है, वहाँ पुलाक में छहों शंका- यदि ऐसा है तो शास्त्रों में ऐसा क्यों लेश्याएँ बतलाई हैं। प्रश्न यह है कि छहों लेश्याओं का लिखा है कि द्रव्यलिङ्गी मिथ्यादृष्टि भी मर कर ग्रैवेयकों | सद्भाव चतुर्थ गुणस्थान तक ही बतलाया है, उसके बाद में उत्पन्न हो सकता है। नहीं। यदि पुलाक के कृष्ण लेश्या भी होती है, तो वह समाधान -जहाँ द्रव्यलिङ्गी मिथ्यादृष्टि या केवल | चतुर्थ गुणस्थान में आ गया, फिर भावलिङ्गी कहाँ रहा? द्रव्यलिङ्गी की चर्चा आती है कि वह आत्मज्ञान से शून्य और यदि वह भावलिङ्गी है तो उसके कृष्ण लेश्या नहीं होता है, वहाँ अभव्य द्रव्यलिङ्गी से अभिप्राय है। क्योंकि होना चाहिए। इसका समन्वय यही है कि करणानुयोग की अभव्य को कभी सम्यग्दर्शन नहीं होता। अतः उसका | अपेक्षा मुनि का लेखा-जोखा करें तो उसके कृष्ण लेश्या मिथ्यादृष्टिपन निश्चित है। सम्भव है और चरणानुयोग की अपेक्षा तो वह महाव्रती पंडित दौलतराम जी ने छ:ढाला में जो लिखा है मुनि है, क्योंकि मुनि का वह आचरण पालन कर रहा 'मुनिव्रतधार अनन्त वार ग्रीवक उपजाओ .......' वह है, फिर भले ही वह त्रुटि पूर्ण ही क्यों न हो। अभव्य को लक्ष्य में रखकर ही लिखा है। जो भव्य है| उत्तरपुराण में एक कथा आई है। कोई मुनि कहीं वह अनन्तवार मुनिव्रत नहीं धारण करता। अधिक से ध्यान में बैठे हुए थे। उनके बारे में समवशरण में भगवान अधिक वह 32 बार ही मुनिव्रत धारण करेगा। 32वीं बार से पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि इस समय उन मुनि तो वह अवश्य ही मुक्ति प्राप्त करेगा, ऐसा शास्त्रों का | के ऐसे निकृष्ट परिणाम है कि यदि आयु का बन्ध हो उल्लेख है। जाय, तो सातवें नरक चले जायें। दूसरे क्षण में उनके समयसार में तो आचार्य कुन्दकुन्द ने जिस मिथ्यादृष्टि सातवें नरक के भावों की तीव्रता कम हुई, तो केवली अज्ञानी की चर्चा की है, उसे द्रव्यलिङ्गी न लिखकर ने वैसा बतलाया। धीरे-धीरे उनके भावों की विशुद्धि अभव्य शब्द से ही उच्चरित किया है। यथा बढ़ती गई, तो वैसा ही सर्वज्ञ के द्वारा उनका उत्कृष्ट फल वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं । । होने की सम्भावना प्रकट की गई। इस कथा से यह कुव्वंतोवि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिट्ठो दु ॥273 निष्कर्ष निकलता है कि अन्तर्मुहूर्त में भावों का उतार-चढ़ाव जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित (मनमाने ढंग से कहीं से कहीं जाता है और उतार-चढ़ाव के साथ ही सदोष नहीं) पाँच समिति, तीन गुप्ति इस तरह 13 प्रकार | साथ साधु के गुणस्थान भी बदलते रहते हैं। तब कौन के चारित्र का पालन करता हुआ भी अभव्य अज्ञानी और कब द्रव्यलिङ्गी हुआ और कौन अब भावलिङ्गी हुआ? मिथ्यादृष्टि है। इसके आगे पुनः लिखा है कि अभव्य 11 | इसका निर्धारण नहीं किया जा सकता। अंगों का पाठी होने पर भी ज्ञानी नहीं है - कोई मुनि जब 11वें गुणस्थान से गिरता है तो मोक्खं असद्दहंतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज। क्रमशः वह गिरते-गिरते पहले गुणस्थान में भी आ सकता पाठो ण करेदि गुणं असद्दहं तस्स णाणं तु ॥274 है। ध्यान में बैठे ही बैठे उसका यह पतन हो रहा है ऐसी मोक्षतत्त्व का श्रद्धान न करने वाला अभव्य जीव स्थिति में हमें वहाँ यह आशंका करने का अधिकार नहीं यदि 11 अंग का पाठ भी करे तो उससे लाभ नहीं है। । है, कि कहीं इस समय वह मिथ्यादृष्टि न हो? या -मार्च 2002 जिनभाषित ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524260
Book TitleJinabhashita 2002 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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