SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आर्यिका-नवधाभक्ति प्रकरण पं. मूलचन्द लुहाड़िया उक्त प्रकरण पर लिखे गए मेरे एक लघु लेख | माना जायेगा और शास्त्र सुरक्षादि कार्य के लिए प्रदत्त को जैन गजट के 51वें अंक में मोटे अक्षरों में की गई वस्त्रों को उपकरण कहा जायेगा। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर बृहत् संपादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशित किया गया मान्यताओं में यही मौलिक अन्तर है। श्वेताम्बर ग्रंथों में है। पत्रिका के विद्वान सम्पादक जी ने अपनी टिप्पणी साधु के लिए 14 उपकरण ग्राह्य माने गये हैं, जिनमें देकर विवादास्पद विषयों पर आगम के आधार पर वस्त्र भी एक है। वे कहते हैं कि साधु वस्त्र उपकरण वीतराग चर्चा के द्वार खोले हैं। मैं उन्हें इस महानता के | के रूप में पहनते हैं इसलिए वस्त्र उनका परिग्रह नहीं है। लिए साधुवाद देता हूँ। जिस प्रकार पीछी कमंडल उपकरण होने से परिग्रह नहीं यदि ऐसे धार्मिक विषयों पर लिखे गए लेखों में है, उसी प्रकार वस्त्र भी उपकरण होने से परिग्रह नहीं कदाचित् परस्पर आरोप प्रत्योराप एवं निदात्मक/ व्यंगात्मक | है। शब्दों का सहारा लिया जाता है तो वह विसंवादिनी कथा । सम्पादकीय टिप्पणी का यह अंश "आर्यिका की का रूप ले लेता है, जो अवांछनीय तो है ही साथ ही | साड़ी परिग्रह नहीं उपकरण ही है, क्योंकि आगम में धर्म की अप्रभावना का भी कारण हो जाता है। काश, शक्यानुष्ठान के रूप में उनके लिए उसकी अनुमति दी हम लोग पक्षाग्रह से ऊपर उठ कर नयसापेक्ष दृष्टि से है" पढ़कर किस दिगम्बर जैन धर्म के श्रद्धालु व्यक्ति वस्तु स्वरूप को देखने, प्ररूपण करने एवं ग्रहण करने के को आश्चर्य एवं दु:ख नहीं होगा? यदि आर्यिका की अभ्यासी बनें, तो ऐसी चर्चाएँ परस्पर संवादसर्जन में समर्थ साड़ी उपकरण है, तब तो आर्यिका भी मुनिवत् अपरिग्रहमहाव्रती हो सकेंगी। अर्थात् सकल संयमी हो गई। प्रकारांतर से यह श्वेताम्बर आइए हम सम्माननीय संपादकजी द्वारा की गई मान्यता की स्थापना एवं दिगम्बर मान्यता का उच्छेद है। टिप्पणी पर आगम के परिप्रेक्ष्य में विचार करें। अपने पक्ष के अंधसमर्थन में कभी-कभी हम अपने मौलिक यह ठीक है कि जयोदय काव्य के श्लोक 2/95/ सिद्धांतों के संरक्षण की भी अवहेलना कर बैठते हैं। की टीका में "धर्म पात्र दिगम्बर साध्वादि" लिखा है। जिस वस्तु से आत्मा का (संयम का) उपकार होता यह भी ठीक है कि इस में 'आदि' शब्द से आर्यिका | है उसको उपकरण कहते हैं। किसी भी वस्तु के परिग्रह का ग्रहण होता है। यहाँ केवल आर्यिका ही नहीं, अपित होने अथवा उपकरण होने का निर्णय उसके उपयोग के क्षुल्लक, ब्रह्मचारी, देशव्रती आदि के साथ-साथ सम्यग्दृष्टि आधार पर होता है। यदि शारीरिक सुविधा प्रदान करने का भी ग्रहण होता है। ये सभी धर्मपात्र माने जाते हैं। | वाली वस्तुओं को भी उपकरण मान लिया जायेगा, तो किन्तु इन सभी धर्मपात्रों का संतर्पण एक ही प्रकार की सभी भोगोपभोग की सामग्री उपकरण की परिधि में आ सामग्री से एवं एक ही प्रकार की विधि से नहीं किया जायेगी। पीछी-कमंडलु का उपयोग केवल जीवरक्षा एवं जाता है। गृहस्थ को स्वविवेक से पात्रों के पदानुकूल मलशुद्धि के लिए किया जाता है, इसीलिए वे उपकरण यथायोग्य विधि से तथा यथायोग्य सामग्री से संतर्पण की श्रेणी में आते हैं। किन्तु यदि पीछी का उपयोग सफाई करना चाहिए। इस श्लोक में सभी धर्मपात्रों तथा के लिए झाडू लगाने एवं कमंडलु के जल का उपयोग कार्यपात्रों के संतर्पण की बात लिखी है, किन्तु यह कहीं पीने अथवा शरीर का मैल दूर करने में किया जायेगा, नहीं लिखा है कि सबका समान प्रकार से संतर्पण करना तो वे परिग्रह माने जायेंगे। मुनियों के लिए तीन प्रकार | के उपकरण ग्राह्य बताए गए हैं। संयमोपकरण (पीछी), श्लोक सं. 95 में केवल यतियों (मुनियों) को | शौचोपकरण (कमंडलु) तथा ज्ञानोपकरण (शास्त्र)। अत: नवधा भक्ति पूर्वक दान देने की बात कही गई है। | मुनि महाराज को भेंट किए जाने वाला वस्त्रोपकरण केवल स्वोपज्ञ टीका में स्पष्टतः "यतिषु" "यातिनां साधूनां शास्त्र के वेष्टन के रूप में ही ग्रहण हो सकता है। इसके गणः समूहो" लिखा है। यहाँ अर्यिकाओं का कोई प्रसंग अतिरिक्त श्लोक 95 में आर्यिकाओं की साड़ी तो शरीर नहीं है। यतियों को भोजन तथा वस्त्रपात्रादि उपकरण | के आवरण एवं सुरक्षा के लिए पहनी जाती है अतः वह प्रदान करने का उपदेश दिया गया है। वस्त्र मुनियों को | तो निर्विवाद रूप से परिग्रह ही है, उपकरण कदापि नहीं। शास्त्र सुरक्षा के लिए ही दिया जा सकता है, पहिनने के | यदि वस्त्र को उपकरण मान लिया जाये, तो सवस्त्र साधु लिए नहीं। शरीर ढकने के लिए लिया हुआ वस्त्र परिग्रह | को सकल संयम एवं परिणाम स्वरूप मुक्ति की सिद्धि है। मार्च 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524260
Book TitleJinabhashita 2002 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy