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________________ गाथार्थ मनुष्यलोकसम्बन्धी दो कम चार सौ (398) जिन मंदिरों को तथा तिर्यग्लोक सम्बन्धी नन्दीश्वर द्वीप, कुण्डलगिरि और रुचकगिरि में क्रम से स्थित बावन, चार और चार जिन मंदिरों को नमस्कार करो। (अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत के चार जिनालयों को नरलोक के जिनालय माना है) जबकि श्री सिद्वान्तसार दीपक अधिकार 10 श्लोक नं. 281-282 में इस प्रकार कहा है — कैवल्याख्यसमुद्घाताच्चोपपादाद्विनाङ्गिनाम् । अद्रिमुल्लंध्यशक्ता नेमं गन्तुं तत्परां भुवम् ॥ 281 विद्येशाश्चारणा वान्ये प्राप्ताऽनेकर्द्धयः क्वचित् । ततोऽयं पर्वतो मर्त्यलोकसीमाकरो भवेत् ॥ 282 3 अर्थ: केवलीसम्मुद्धात मारणान्तिक समुधात और उपपादजन्म वाले देवों के सिवाय अन्य कोई भी प्राणी इस मानुषोत्तर पर्वतसे युक्त पृथ्वी को उल्लंघन करके नहीं जा सकता। विद्याधर, चारणऋद्धिधारी तथा अनेक प्रकार की और भी अनेक ऋद्धियों से युक्त जीव भी इस पर्वत को उल्लंघन नहीं कर सकते, इसीलिये यह पर्वत मनुष्यलोक की सीमा का निर्धारण करने वाला है। उपर्युक्त प्रमाण से स्पष्ट होता है कि मानुषोत्तर पर्वत पर स्थित जिनालयों की वंदना विद्याधर या ऋद्धिधारी मुनिराज भी नहीं कर सकते। अब मेरा प्रश्न है कि जब इन चैत्यालयों की वंदना मनुष्य कर ही नहीं सकता तब इनको मनुष्यलोक के अकृत्रिम जिनालयों में क्यों गिना गया है? आशा है विद्वज्जन मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे लिखने का कष्ट करेंगे। जिज्ञासा:- क्या द्रव्यानुयोग से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है या अन्य अनुयोगों के अध्ययन से भी सम्यक्त्व प्राप्ति सम्भव है? समाधान:- सत्य तो यह है कि चारों ही अनुयोगों के ज्ञान से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। श्री दर्शनपाहुड गाथा 12 की टीका में इस प्रकार कहा है 1. रत्नत्रय एवं आत्मध्यान को प्रदान करने वाले सठशलाका पुरुष सम्बन्धी महापुराण के सुनने से (प्रथमानुयोग के उपदेश से) जो श्रद्धान उत्पन्न होता है, वह उपदेश सम्यग्दर्शन कहा जाता है। 2. मुनियों के आचार का निरूपण करने वाले मूलाचार आदि शास्त्रों को (चरणानुयोग के शास्त्रों को) सुनकर जो श्रद्धान उत्पन्न होता है वह सूत्रसम्यक्त्व कहा जाता है। 3. काललब्धियश मिथ्या अभिप्राय के नष्ट होने पर, दर्शनमोह के असाधारण उपशमरूप आभ्यंतर कारण से कठिनाई से व्याख्यान करने योग्य जीवादि पदार्थों के बीजभूत (करणानुयोग ) शास्त्र सुनने से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह बीज सम्यक्त्व कहलाता है। 4. तत्त्वार्थसूत्र आदि सिद्धांतग्रन्थों में निरूपित जीवादि द्रव्यों के प्ररूपक (द्रव्यानुयोग के शास्त्र) अनुयोग के द्वारा संक्षेप से पदार्थों को जानकर, जो रुचि होती है, वह संक्षेपसम्यक्त्व Jain Education International कहा जाता है। ऐसा ही वर्णन आत्मानुशासन में भी किया है। मोक्षमार्ग प्रकाशक (जयपुर प्रकाशन ) अधिकार 9 पृष्ठ 332 पर भी उपर्युक्त प्रकार से ही चारों अनुयोगों के उपदेश से सम्यक्त्व होना वर्णित है। अतः केवल द्रव्यानुयोग के स्वाध्याय से ही सम्यक्त्व होता है, ऐसी मान्यता उचित नहीं है। जयपुर से प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 200 पर इस प्रकार कहा है -" यदि तेरे सच्ची दृष्टि हुई है तो सभी जैन शास्त्र कार्यकारी हैं। इसलिए चारों ही अनुयोग कार्यकारी हैं। ' सम्यग्ज्ञान चंद्रिका (जयपुर प्रकाशन पृष्ठ 9) पीठिका में पं. टोडरमल जी ने द्रव्यानुयोग के स्वाध्याय में पक्षपाती को इस प्रकार समझाया है- " बहुरि तैं कया कि अध्यात्म शास्त्रिनि का ही अभ्यास करना सो युक्त ही है। परन्तु तहाँ भेद-विज्ञान करने के अर्थि स्व-पर का सामान्यपने स्वरूप निरूपण है। अर विशेषज्ञान बिना सामान्य स्पष्ट होता नाहीं ताँ जीव के और कर्म के विशेष नीके जाने ही स्व-पर का जानना इष्ट हो है तिस विशेष जानने को इस शास्त्र का (गोम्मटसार जीवकाण्ड का जो करणानुयोग का ग्रन्थ है) अभ्यास करना । जातैं सामान्य शास्त्रतें विशेष शास्त्र बलवान हैं। " उपर्युक्त सभी प्रमाणो के अनुसार चारों ही अनुयोग सम्यक्त्व की प्राप्ति एवं आत्मकल्याण में कार्यकारी हैं। अतः मात्र द्रव्यानुयोग में रुचि रखना व अन्य अनुयोगों में अरुथि होना सही मार्ग नहीं है। जिज्ञासा:- पूजा एवं अभिषेक के वस्त्रों को आहारदान देने या भोजन करने में प्रयोग करना चाहिए या नहीं ? समाधान:- आज से बहुत वर्षों पूर्व तक यही परम्परा देखने में आती थी कि पूजा व अभिषेक के वस्त्रों से न तो पात्रों को आहार दिया जाता था और न हीं स्वयं भोजन ही ही करते थे। परन्तु वर्तमान में यह परम्परा लगभग समाप्त हो गई है। अधिकांश दातागण मंदिर के धोती दुपदों को पहनकर आहारदान देते हुए और स्वयं करते हुए दिखाई पड़ने लगे हैं। कवि किशनचंद रचित क्रियाकोष दोहा नं. 1453 में इस प्रकार कहा है वसन पहिर भोजन करै, सो जिनपूजा माहि तनु धारे अघ ऊपजै, या में संशय नाहिं । । अर्थ :- जिन वस्त्रों को पहनकर भोजन किया है, यदि उन वस्त्रों को जिन पूजा में शरीर पर धारण करता है तो पाप होता है। इसमें संशय नहीं है। अतः उपर्युक्त श्लोकार्थ को ध्यान में रखते हुए पूजा व अभिषेक के वस्त्रों से कोई अन्य कार्य नहीं करना चाहिए। जो वस्त्र जल गया हो, फट गया हो, दूसरों का पहना हुआ हो, दीर्घशंका, लघुशंका आदि में प्रयोग हुआ हो वह संधित वस्त्र कहलाता है, ऐसे वस्त्र से भी जिनपूजा कभी नहीं करनी चाहिए। For Private & Personal Use Only 1 / 205, प्रोफेसर्स कालोनी आगरा- 282002 ( उ. प्र. ) मार्च 2002 जिनभाषित 27 www.jainelibrary.org
SR No.524260
Book TitleJinabhashita 2002 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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