SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिज्ञासा दिगम्बर मुनि को विहार में गमन करते हुए यदि सूर्य अस्त हो जाये तो क्या उनको विहार बन्द कर वहीं रुक जाना चाहिए? जिज्ञासा-समाधन समाधान दिगम्बर जैन शास्त्रों के अनुसार दिगम्बर मुनि का गमन ईर्यासमिति पूर्वक ही होता है। सूर्यास्त होने पर ईर्यासमिति का पालन नहीं हो सकने के कारण, जहाँ भी सूर्य अस्त होता है, मुनिराज वहीं रुक जाते हैं। प्रात: सूर्य उदय होने पर ही वे आगे विहार करते हैं। आचार्य जटासिंह नन्दी ने वरांगचरित्र में इस प्रकार कहा है " यस्मिंस्तु देशेऽस्तमुपैति सूर्यस्तत्रैव संवासमुखा बभूवुः । यत्रोदयं प्राप सहस्ररश्मिर्यातास्तोऽधापुरविऽप्रसंगाः ॥" 30/47 अर्थ चलते-चलते जिस स्थान पर सूर्य अस्त हो जाता था, वहीं पर वे रात्रि को रुक जाते थे और ज्यों ही सूर्य का उदय होता था त्यों ही वे उस स्थान से प्रस्थान कर जाते थे। श्री मूलाचार गाथा 786 में भी इस प्रकार कहा है ते णिम्ममा सरीरे जत्थत्थमिदा वसंति अणिएदा ! सवणा अप्पडिबद्धा बिज्जू जह दिट्ठणट्ठा || 786 अर्थ वे शरीर से निर्मम हुए मुनि आवास रहित हैं। जहाँ पर सूर्यास्त हुआ वहीं ठहर जाते हैं, किसी से प्रतिबद्ध नहीं हैं, वे भ्रमण बिजली के समान दिखते हैं और चले जाते हैं। जिज्ञासा मनुष्य गति में आठ वर्ष की अवस्था में कम उम्र वालों को सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता, ऐसा सुनते हैं। क्या इसका कोई आगम प्रमाण है? समाधान श्री अकलंक स्वामी ने राजवर्तिक में इस प्रकार कहा है- "मनुष्या उत्पादयन्तः पर्याप्तका उत्पादयन्ति नापर्याप्तकाः । पर्याप्तकाचाऽष्टवर्षस्थितेरुपर्युत्पादयन्ति नाधस्तात्" अर्थ मनुष्यों में पर्याप्तक मनुष्यों के ही सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है, अपर्याप्तकों के नहीं। पर्याप्तकों में भी आठ वर्ष की आयु से अधिक के ही उत्पत्ति होती है, आठ वर्ष आयु से कम वालों के नहीं। जिज्ञासा - क्या देव भी सल्लेखना करते हैं या नहीं? समाधान शरीर और कषायों को भली प्रकार कृश करना सल्लेखना है। जैसा सर्वार्थसिद्धि 7/22 में कहा है- 'सम्यक् कायकषायलेखना सल्लेखना'। देवों में कषायों का कृश करना तो मरण समय सम्भव है, परन्तु शरीर कश करने का प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि उनका आहार, उनके स्वयं के आधीन नहीं है। जहाँ तक कषाय को कृश करते हुए अंतिम समय शरीर छोड़ने का प्रश्न है, श्री सिद्धांतसार दीपक अधिकार- 15, श्लोक नं. 396 से 400 में इस प्रकार मार्च 2002 जिनभाषित 26 Jain Education International पं. रतनलाल बैनाड़ा कहा है - इस प्रकार मनुष्य भव प्राप्त कर मोक्ष का साधन करने के विचार सहित उत्तम देव नाना प्रकार से अरहंत देव की पूजा करके मरण के अन्तिम समय में अपने चित्त को अत्यन्त निश्चल करते हुए अपने दोनों हाथ जोड़कर पंच परमेष्ठियों का ध्यान करते हैं तथा इस लोक परलोक में आत्मसिद्धि देने वाला नमस्कार करते हैं। मरण बेला में किसी पुण्य रूप उत्तर क्षेत्र में जाकर बैठ जाते हैं, वहाँ आयु क्षय होते ही उन देवों का शरीर मेघों के सदृश शीघ्र ही विलीन हो जाता है। ' श्री आदिपुराण भाग-1, पृष्ठ 121, श्लोक नं. 24-25 में इस प्रकार कहा है 'तत्पश्चात् वह ऐशान स्वर्ग का ललितांग देव अच्युत स्वर्ग की जिन प्रतिमाओ की पूजा करता हुआ आयु के अंत में वहीं सावधान चित्त होकर चैत्य वृक्ष के नीचे बैठ गया तथा वहीं निर्भय हो, हाथ जोड़कर उच्च स्वर से नमस्कार मंत्र का ठीक-ठीक उच्चारण करता हुआ अदृश्यता को प्राप्त हो गया। श्री आदिपुराण भाग-1, पृष्ठ 124 श्लोक 56-57 में इस प्रकार कहा है- 'तदनन्तर वह स्वयंप्रभा नामक देवी सौमनस वन सम्बन्धी पूर्व दिशा के जिन मंदिर में चैत्यवृक्ष के नीचे पंचपरमेष्ठियों का भली प्रकार स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्यागकर स्वर्ग से च्युत हो गई। इस श्लोक में स्वयं आचार्य ने उस देवी के मरण को समाधिपूर्वक लिखा है) 1 जिज्ञासा क्या मानुषोत्तर पर्वत पर मनुष्य चढ़ सकते हैं? क्या उस पर स्थित चैत्यालयों की वंदना मनुष्य कर सकता है? समाधान प्रकार कहा है श्री त्रिलोकसार गाथा 937 में इस अंते टंकच्छिण्णो वाहिं कमवहिाणि कणयणिहो । णदिणिग्गमपहचोद्दसगुहाजुदो माणुसुत्तरगो || 937 अर्थ- पुष्कर द्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है। वह अभ्यन्तर में टङ्कछिन्न और बाह्य भाग में क्रमिक वृद्धि एवं हानि को लिए हुए है। स्वर्ण सदृश वर्णवाला एवं नदी निकलने के चौदह गुफाद्वारों से युक्त है। अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत मनुष्य लोक की तरफ, नीचे से ऊपर तक एक जैसा अर्थात् दीवार की तरह है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस पर किसी भी मनुष्य का चढ़ना सम्भव नहीं है। लेकिन मानुषोत्तर पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित जिनालयों को आचार्यों ने मनुष्य लोक के अकृत्रिम जिनालयों में माना है, जैसा कि श्री त्रिलोकसागर गाथा 561 में कहा है णमह णरलोयजिणघर चत्तारि सयाणि दोविहीणाणि । वावण्णं चउ चउरो गंदीसर कुंडले रुचगे ॥561 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524260
Book TitleJinabhashita 2002 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy