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________________ पड़ौसी से प्रेम करने की सीख जो महात्माओं ने दी है, वह मूलतः इस कारण कि इस संसार में बहुतेरे लोग पड़ौसी से प्रेम करना पसंद नहीं करते। वैसे तो महापुरुष लोग, आदमी से जो करने को कहते हैं, वह बहुधा असंभव की हद तक मुश्किल हुआ करता है। इसलिए आम आदमी अमल में नहीं ला पाता । जैसे कि आचायों का कहना है कि मनुष्य को हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का सर्वथा परित्याग करना चाहिए, क्योंकि ये पाँचों पाप कहलाते हैं और पाप करने पर देर-सबेर दंड का भागी अवश्य ही बनना पड़ता है। अब आदमी से अगर यह सचमुच अपेक्षित है कि वह दण्ड के भय से पाप न करे, तो उस पाप का दण्ड तत्काल दिए जाने का प्रावधान होना चाहिए। बहुत कुछ उसी तरह, जिस तरह कि आग को छूते ही हाथ जल जाता है। यह नहीं कि लौकिक न्याय व्यवस्था की माफिक पाप का दण्ड भुगतने का अवसर दशाब्दियों - शताब्दियों के बाद आए । तब तक तो अगले के मर-खप जाने का समय हो जाता है। जबकि पुरानी स्मृतियाँ नए जन्म में "कैरी-फाउंड" होती नहीं। ऐसे में प्राणी को यदि पाप और दण्ड का सीधा संबंध बैठते नजर नहीं आता, तो उसे पूर्णरूपेण दोषी नहीं माना जाना चाहिए। इस संदर्भ में, तीनों लोकों के समस्त जीवों की ओर से मैं सक्षम प्राधिकरण से विनम्रता पूर्वक निवेदन करना चाहूँगा कि प्राणी मात्र के कल्याण हेतु या तो पाप का दण्ड स्मृति के रहते तक निपटा दिए जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए या फिर जन्म-जन्मांतर तक पुरानी स्मृतियों के सदैव ताजा बने रहने का प्रावधान किया जाना चाहिए। तभी लोग आचायों के कथन को समुचित महत्त्व दे पायें गे। पड़ौसी पुराण पड़ौसी से प्रेम करने की सीख जो महात्माओं ने दी है, वह मूलतः इस कारण कि इस संसार में बहुतेरे लोग पड़ौसी से प्रेम करना पसन्द नहीं करते। वैसे भी महापुरुष लोग, बहुधा असंभव की हद तक मुश्किल होता आदमी से जो करने को कहते हैं, वह है। इसलिए आम आदमी अमल में नहीं ला पाता। बहरहाल, बात मैं पड़ौसी की कर रहा था। मेरी समझ से जिस रोज एक स्वतंत्र घुमंतु व्यक्ति ने घर बनाकर समूह में रहने का फैसला लिया, उसी रोज उसने पड़ौसी नामक मुसीबत मोल ले ली। उसी दिन मनुष्य के मन में ईर्ष्या की भावना का आविर्भाव हुआ। तभी से "उसकी कमीज, मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे ?" जैसी तुलनात्मक प्रवृत्ति का जन्म हुआ। उसी पल से पड़ौसी से दो अंगुल ऊँचा दिखाई देने की कोशिश में उसने साम-दाम-दंड-भेद का सहारा लेना प्रारंभ किया। तब से अब तक आदमी को अपने समकक्ष अथवा अपने मार्च 2002 जिनभाषित 28 Jain Education International शिखरचन्द्र जैन से ज्यादा विकसित, समर्थ या गुणी पड़ौसी फूटी आँखों नहीं सुहाया। भविष्य में भी इस स्थिति में किसी विशेष परिवर्तन की संभावना दृष्टिगोचर नहीं होती। इंग्लैण्ड और अमेरिका भले कितनी ही कोशिश कर लें ! यों तो पड़ौसियों के बीच प्रतिस्पर्धा का प्रचलन प्राचीन काल से ही रहा है, पर इधर औद्योगीकरण के फलस्वरूप ज्यादा नजदीक रहने लगे लोगों में एक-दूसरे के घर में तांक-झाँक करने की प्रवृत्ति में अभूतपूर्व अभिवृद्धि हुई है। अब पड़ौसी द्वारा उठाए गए प्रत्येक कदम का प्रभाव पड़ौसी की चाल पर तत्काल देखा जा सकता है। न्यूटन का नियम कि " प्रत्येक क्रिया की समतुल्य लेकिन विपरीत प्रतिक्रिया अवश्य ही होती है" का परिपालन पड़ोसियों के परस्पर व्यवहार में भली-भाँति परिलक्षित होता है। जब नए खरीदे रेफ्रीजरेटर में बनाई गई आइसक्रीम का सेवन करते हुए अगले की छाती जुड़ा रही होती है, तब पड़ौसी के पूरे शरीर में आग सुलगने लगती है। जब पड़ौसी का बेटा कक्षा में प्रथम आने पर पुरस्कार ग्रहण कर रहा होता है, तब अगला अपने पुत्र की पिटाई करने लग जाता है। जब अगले की पत्नी कांजीवरम की नई साड़ी पहिन मुहल्ले में चक्कर लगाने निकलती है, तब पड़ोसन पुरानी साड़ी पहिन अपने आँसुओं से वर्तन धोने लगती है। इस तरह पड़ोसियों के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया की आँख मिचौनी प्रति- पल चलती रहती है ! अभी कुछ रोज पहले की बात है, एक महिला ने अपने पति से कहा- "देखो न पड़ौसी को पिछले कुछ दिनों से अपने नए सी. डी. प्लेयर पर न जाने किस बाहियात फिल्म का बेहूदा गीत जोरों से अनवरत बजा रहा है। " अब फिल्मी गीत है तो बेहूदा तो होना ही है" पति ने कहा, "पर जरा पता तो लगे कि गाना है कौन " सा?" For Private & Personal Use Only "लो मचा गली में शोर पड़ोसन पकड़ी गई। ये खबर है चारों ओर पड़ोसन पकड़ी गई." पत्नी ने किंचित शर्माते हुए गुनगुनाया फिर कहा-"हाय! मुझे तो कहते-सुनते लाज आती है। और जैसा कि शिकायत का उद्देश्य था, पति ने तत्काल पड़ौसी को ललकारते हुए, एल.ओ.सी. अर्थात् बाउन्ड्री वाल पर तलब किया और उन्हें जी भर लताड़ा । पड़ौसी भी हत्थे से उखड़ गया। बोला - " क्या बात करते www.jainelibrary.org
SR No.524260
Book TitleJinabhashita 2002 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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