Book Title: Jinabhashita 2002 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 20
________________ सुगन्धाकरमस्ति सदा हि शास्त्रम् वृषभप्रसाद जैन मान्यता है कि "शस्त्र से रक्षा होती है", पर यह | है। जब-जब पत्र संकट में पड़ता है तो माँ उसे किसी कथन सार्वकालिक सत्य नहीं है; शस्त्र जहाँ रक्षा करता न किसी रूप में याद आती है और माँ भी उसकी रक्षा है पर वहीं उसका सम्यक् स्थान पर प्रयोग न हो, सम्यक् ही के लिए खड़ी हो जाती है। इतना नहीं, जैसे प्यासे बोध के साथ उसका चलना चूक जाए तो वही को जल पिला दिया जाए, तो उसकी प्यास हर ली जाती रक्षक-शस्त्र प्राणहन्ता भी बन जाता है, इसीलिए शस्त्र है, वैसे ही वह अपने पुत्र के सारे सन्ताप को अपने हाथ रक्षक होने के साथ-साथ कभी-कभी भक्षक भी बनता के स्पर्श से दूर कर देती है। इसीलिए माँ का हस्त-स्पर्श है, पर शास्त्र की स्थिति शस्त्र के इस स्वरूप से ठीक | प्यासे व्यक्ति को प्राप्त हुई जलधारा के समान है। यही उल्टी है। इसीलिए हमारी भारतीय मनीषा ने शास्त्र को | कारण है कि हमारी परंपरा में कुमाता की संकल्पना ही शस्त्र से बड़ा माना और इसे सर्वथा रक्षक, उद्धारक तथा | नहीं है और जहाँ भी यह कुमाता हुई तो माता ही नहीं उन्नतिकारक माना है, क्योंकि शास्त्र कभी भी किसी भी रह गयी। जैन पद्मपुराण के रचयिता आचार्य रविषेण कहते वर्ग की हानि को केन्द्र में रखकर रचा नहीं जाता, बल्कि | शास्त्र बनता ही तब है, जब वह वर्ग-भेद, जाति भेद, | "शास्त्रमुच्यते तद्धि यन्मातृवच्छास्ति सर्वस्मै जगते हितम्।" जन्म भेद, रूप-भेद, आदि-आदि भेदों से ऊपर उठकर/रहित पद्मपुराण, 11/209 होकर सामान्य जनमानस की समृद्धि की बात करे, आज शास्त्र वह कहलाता है, जो माता के समान सारे एसे शास्त्रों के रचे जाने की परम्परा दुर्लभ होती जा रही | संसार के हित के लिए उपदेश दे, जिसने किसी भी है। उसके उन्नयन की बात करे, आज ऐसे शास्त्रों के | खेमेविशेष की भलाई की बात की और बाकी के रचे जाने की परम्परा दुर्लभ होती जा रही है। शास्त्र अकल्याण की तो वास्तव में उसने उस खेमे की भलाई जोड़ने के लिए नहीं, खेमों में बाँटने के लिए रचे जाने की भी बात नहीं की होती है; क्योंकि मानव का कोई लग गए हैं, आदमी को आदमी से अलग करने के लिये | भी समुदाय दूसरे समुदाय से पूरी तरह अलग होकर रह रचे जा रहे हैं, इसीलिए तो सही मायने में पूछिये तो वे | ही नहीं सकता, उसकी सत्ता, अस्मिता सबके साथ है, शास्त्र हैं ही नहीं, पर बराबर उनके शास्त्र होने का | दूसरों के साथ है, मानव जगत् ही नहीं, कई बार जड़ उद्घोष किया जा रहा है। 'ज्ञानसागर' में शास्त्र का | जगत् को भी साथ लेकर उसे चलना होता है। रूपक दीपक से दिखाया गया है और कहा गया है कि | जैन परम्परा में जो तीन उपास्य माने गये हैं वे हैं जैसे किसी लक्ष्य पर पहुँचने के लिए ज्ञानीजन को सम्यक् देव, शास्त्र और गुरु। इस उपास्यत्रयी के मध्य में शास्त्र प्रकाश में दिखने वाले सम्यक् मार्ग से जाना पड़ता है, है, ऐसा क्यों? मुझे लगता है कि इसका एक ही उत्तर ठीक वैसे ही शास्त्र दीपक के बिना जड़ अज्ञानी जीव | है; वह यह कि शास्त्र ही निकष के वे पैमाने सुझाता अज्ञात मार्ग पर दौड़ने लग जाते हैं, इसका परिणाम यह है या जिसमें वे मानक सुरक्षित हैं, जिनके आधार पर देव होता है कि उन्हें स्थान-स्थान पर ठोकर खानी पड़ती है को हम "देव" या गुरु को "गुरु" मान पाते हैं, अन्यथा और एक समय ऐसा आता है कि वे परम कष्ट/क्लेश | हम ऐसे भटकते हैं कि भटकते रह जाते हैं; इसीलिये और दुःख को प्राप्त करते हैं और फिर उससे कभी उबर शास्त्र के आधार पर देव और गुरु दोनों की पहचान होती नहीं पाते। यथा है। यही कारण है कि जैन परम्परा में शास्त्र को अदृष्टार्थेऽनुधावन्त:, शास्त्र-दीपं बिना जडाः। उपास्यत्रयी के बीच में रखा गया है। वहाँ तो कविवर प्राप्नुवन्ति परं खेदं, प्रस्खलन्तः पदे पदे।। द्यानतराय और भी कहते हैं - ज्ञानसागर, 24/5 रवि शशि न हरै सो तम हराय, हमारी परंपरा में शास्त्र की उपमा "माँ" से दी सो शास्त्र नमों बहु प्रीति ल्याय। गयी है। आचार्यों ने कहा है कि जिस प्रकार माँ बच्चे सारा संसार अंधकारमय है, जहाँ देखें वहाँ तक का लालन-पालन करती है, पोषण करती है और निरन्तर | ही तम घिरा हुआ है, लैम्प जल रहे हैं, लाइटें जल रही अपने पुत्र को बड़ा बनाने के लिय यत्न करती है, ठीक हैं, भाँति-भाँति के प्रकाशक जल रहे हैं, पर वे सब बौने वही काम शास्त्र को करना होता है और जो शास्त्र यह | हैं-सूर्य और शशि के प्रकाश के सामने, लेकिन सूर्य और काम नहीं करता शास्त्र कहलाए जाने का अधिकारी नहीं | शशि का प्रकाश भी छोटा हो जाता है शास्त्र के 18 मार्च 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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